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Home » स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य : अजित कुमार राय

स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य : अजित कुमार राय

ज्योतिष जोशी की रुचियों का क्षेत्र विविध और व्यापक है. साहित्य, कला तथा नाटक-रंगमंच में उनकी समान गति और गहरी समझ है. विश्वकला की आधुनिक यात्रा पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘आधुनिक कला आन्दोलन’ कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी. हाल ही में तुलसीदास और महात्मा गांधी के विशेष सन्दर्भ में लिखित उनका नया अध्ययन ‘स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य’ सेतु से प्रकाशित हुआ है. इस पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं—अजित कुमार राय.

by arun dev
June 24, 2025
in समीक्षा
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स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य : अजित कुमार राय
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स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य
भारतीय मनीषा का गम्भीर अनुशीलन


अजित कुमार राय

भारतीय मनीषा का गम्भीर अनुशीलन डॉ. ज्योतिष जोशी ने स्वत्व-बोध को अर्जित करने के लिए किया है और 504 पृष्ठ का एक वृहदाकार ग्रंथ सम्भव किया है. कुछ पुस्तकें अलंकरण बनती हैं, किन्तु कुछ जीवनोपयोगी होती हैं. प्रेय की जगह श्रेय-सिद्धि उनका लक्ष्य होता है. “स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य” शीर्षक इस पुस्तक में चार अध्याय और 12 उप अध्याय हैं. इसमें स्वधर्म और स्वराज जैसे शब्दों का वैदिक उद्गम खंगालते हुए उनके नैतिक अभिप्रायों का अन्वेषण किया गया है और आध्यात्मिक शब्दावली के मूल आशयों की तलाश करते हुए संकीर्ण सोच का अतिक्रमण लक्षित होता है. इसमें परम्परागत भाषा का एक प्रगतिशील संस्करण संलक्ष्य है. गोस्वामी तुलसीदास और महात्मा गांधी के विचारों को केन्द्र में रखते हुए सम्पूर्ण वैदिक चिन्तन परम्परा का पर्यवेक्षण मनोयोग से किया गया है.

औपनिषदिक चिन्तन, षड् दर्शन, पुराण, योगवाशिष्ठ, स्मृति-ग्रंथों, पातंजल योगसूत्र, सांख्य, मीमांसा, न्याय वैशेषिक, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, गीता, शंकराचार्य, विवेकानंद से समर्थन प्राप्त करने की विनम्र कोशिश वस्तुतः वैदिक युग से लेकर आधुनिक युग के बीच मनुष्यता के उत्खनन का सात्विक प्रयास ही है. धर्म को आचरण – पद्धति से अनिवार्यतः जोड़ने और स्वधर्म को अपने स्वाभाविक गुण धर्म के रूप में देखने की सहजता मनुष्य को महामना या मनुष्योत्तम बनाने की प्रक्रिया है. सत्य, अहिंसा, करुणा, दान, परोपकार, सेवा, अस्तेय, अनसूया, अचौर्य, विनय, उदारता, उदात्तता, सहिष्णुता, आत्मसंयम, आत्म निग्रह, ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह, विश्वबंधुत्व, जीव – दया, वैराग्य, भक्ति, ज्ञान, कर्मयोग सार्वभौमिक और सार्वकालिक जीवन मूल्य हैं. हम चाहें तो इन्हें सनातन धर्म भी कह सकते हैं- एस धम्मो सनत्तनो.

धर्म के अभाव में व्यक्ति नैसर्गिक मानवीय पात्रता खो देता है. प्रवृत्ति धर्म निवृत्ति धर्म की पीठिका तैयार करता है. लेखक ने कलम की नोंक पर पूरी परंपरा का बोझ संभाल कर यह पुस्तक लिखी है. जातीय स्मृति का गहरा अवगाहन करते हुए व्यष्टि के समष्टि में विलयन के अद्वैत दर्शन का साक्षात्कार चकित करता है. बात – बात पर आज हिन्दी के लेखक पाश्चात्य कविता को उद्धृत करते हैं. यह एक ओर उनकी वैश्विक समृद्धि है तो दूसरी ओर दयनीयता भी. क्योंकि परंपरा का प्रशस्त बोध या स्वत्व बोध उन्हें नहीं है. स्वधर्म से उनका पार्थक्य सूचित होता है. स्वराज का अर्थ है अपने मन पर राज करना. स्वराज ऋग्वेद में आया वह बीज शब्द है जो अग्नि देव की अभ्यर्थना में प्रयुक्त हुआ है-

तं घेमित्थ नमस्विन उप स्वराज मासते I

अर्थात् नमस्कार करने वाले उपासक स्वयं प्रकाशित अग्नि देव की उपासना करते हैं. अतः स्वराज का अर्थ है ‘आत्म – प्रकाशित’ . गांधीजी ऐसे ही सर्वोदयी स्वराज का सपना देखते थे, जो नैतिक मानवीय उत्कर्ष पर आधारित रामराज्य का पर्याय था. जहाँ वैर – विग्रह नहीं, समन्वय और सामंजस्य का साम्राज्य था. किसी को कोई ताप – संताप नहीं था. बाघ – बकरी एक घाट पर पानी पीते थे. कोई अभाव नहीं था और सार्वत्रिक समरसता समाज में व्याप्त थी. ऋतु चक्र में विपर्यय नहीं था-

मांगे वारिद देहिं जल, रामचंद्र के राज I

ऐसा सपना हम भी देख सकते हैं, जहाँ मनुष्य नीरोग होकर सौ साल जीए. जहाँ गणिकाएं भी अपना कुत्सित व्यापार छोड़ कर हरि कीर्तन करने लगती हैं. और स्वस्थ समाज के निर्माण में अपना योगदान देती हैं. स्वस्थ का अर्थ है स्व में स्थित होना. अपने आयतन में कूटस्थ होकर ही हम स्थित प्रज्ञ हो सकते हैं.

अन्ततः जोशी जी को हार्दिक बधाई. उन्होंने ऐकान्तिक भौतिक प्रगति के इस दौर में विश्व के नैतिक मानवीय संकट को भांपकर मानव जाति के अमृत तत्त्व की खोज की है. वैदिक चिन्तन के आलोक में मानवीय चेतना के परमोत्कर्ष के द्वारा आत्मसिद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कल्याण से परिस्फूर्त सृष्टि की एकात्मता और सर्वचैतन्यवाद विशिष्ट उपलब्धि हैं. खतरा यह भी है कि अल्पज्ञ जन शब्दों के राजनीति – प्रचारित रूढ़ अर्थों से नियंत्रित होकर अनियंत्रित न हो जाएं.

स्वधर्म के बहाने डॉ. ज्योतिष जोशी ने सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन – परम्परा का साक्षात्कार किया है, जैसे “बाजश्रवा के बहाने” कुंवर नारायण ने ‘कठोपनिषद्’ को अपने समय में उपलब्ध करते हुए सार्वभौमिक और सार्वकालिक सत्य का अनुसंधान किया है और पुरातन प्रत्ययों को आधुनिक आशयों से मंडित किया. ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है. वह मानव सभ्यता के सूर्योदय का प्रतीक है. वेद भारतीय मनीषा के भास्वर स्वर हैं. वेद अपौरुषेय और अपरिमेय ज्ञान के अक्षय कोष हैं. वे श्रुति – परम्परा से जातीय स्मृति में सुरक्षित रहे. वेदों की संहिताओं का संपादन कृष्ण द्वैपायन व्यास ने किया, जो महाभारत काल में जीवित थे. वेद के चार भाग हैं-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद. संहिता भाग में भाव – समाधि में ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत मंत्र हैं. इसीलिए उसे ईश्वर की वाणी भी कहा जाता है. उसमें तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य और प्राकृतिक परिघटनाओं के परोक्ष संकेत प्राप्त होते हैं.

वेदों की भाषा गद्य और पद्य की मिश्रित भाषा है. मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने ऋग्वेद का भाषावैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, पुरातात्त्विक और नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन करके सिद्ध किया कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं और वे कहीं बाहर से नहीं आए. अंग्रेजी के प्रोफेसर होने के कारण वे अंग्रेज लेखकों की दुरभिसंधि को जानते थे कि अपने आक्रमण को वैधता प्रदान करने के लिए उन्होंने आर्यों को बाहरी आक्रान्ता सिद्ध कर दिया. पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों का प्रणयन-काल अधिकतम पांच-छ: हजार वर्ष पूर्व माना है और कुछ तो ईसा पूर्व कुछ सौ साल पहले मानते हैं. मानो विश्व और ब्रह्माण्ड की सारी परिघटनाओं के निकष ईसा ही हों. जबकि भारत के भीमबेटका, जोगीमारा हजारीबाग आदि की गुफाओं और पहाड़ियों के शैलचित्र पुरातात्त्विक आधार पर लाखों वर्ष पूर्व के परिगणित किए जा सकते हैं, आस्ट्रेलिया के अर्नहम लैण्ड पठार लाखों वर्ष पूर्व के ठहराए जा सकते हैं,  किन्तु वैदिक संस्कृति इतनी पुरानी कैसे हो सकती है? रेडियम का आविष्कार एक क्रान्तिकारी घटना है; क्योंकि रेडियम अरबों वर्षों से अस्तित्वमान है. नदी-तटों के वैज्ञानिक परीक्षण और समुद्र में मिले लवण-अंशों की परख के आधार पर सृष्टि की प्राचीनता सिद्ध है.

इसी प्रकार वेदान्त सृष्टि चक्र को परमभूत का विस्तार मानकर उसका कीर्तन करते हैं. वे समूचे वनस्पति जगत को चैतन्य मानते हैं. भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने पेड़ – पौधों में प्राण सत्ता की खोज की. किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने अपने संस्कार और सांस्कृतिक हितों की दृष्टि से वेदों के मूल निहितार्थ की व्याख्या की और अपने औपनिवेशिक मानस के कारण हमने उन्हीं की पद्धति से विचार करते हुए उनके निष्कर्षों को अन्तिम सत्य मान लिया. सायण भाष्य के आधार पर मैक्समूलर ने ऋग्वेद का सुन्दर अनुवाद किया और अंग्रेजी में एक सारगर्भित भूमिका लिखकर वेद का वैश्विक प्रसार किया. विल्सन, कीथ और ग्रिफिथ ने भी वेदों पर गम्भीर काम किया. किन्तु इस आलोक मंजूषा की मूल चेतना आहत भी हुई.

वेदान्त अर्थात् उपनिषद् भारतीय ज्ञान परम्परा के उच्चतम शिखर हैं, जिनको पाश्चात्य दार्शनिक विस्मय से निहारते हैं, टी एस इलियट और  टॉयनबी जैसे मनीषी वैश्विक समस्याओं का समाधान इसी भारतीय जमीन पर देखते हैं. मंसूर,  सरमद और दाराशिकोह जैसे अनेक मुसलमान भी इसके आकर्षण में फकीर हो गए. जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक शापेन हावर को औपनिषदिक तत्त्व – चिन्तन जीवन और मृत्यु दोनों ही अवस्थाओं में सान्त्वना देता है. आत्मा, ब्रह्म और सृष्टि की एकात्मता के औपनिषदिक विमर्शों के बीजसूत्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त और नासदीय सूक्त में मिल जाते हैं. ग्रहण और त्याग के संश्लिष्ट विवेक से कर्मकाण्ड और सकाम उपासना – पद्धति क्रमशः निष्काम कर्मयोग और आत्मबोध के प्रतिफलन में परिणत हो गयी. वेदों में सृष्टि के अखण्ड विश्वव्यापी नियमों को ऋत कहते हैं. ऋत के अनुसार राम का आचरण उन्हें दिव्यता प्रदान करता है. देखा जाए तो क्वांटम थियरी, गुरुत्वाकर्षण, प्लावन बल, आघूर्णन, ऊर्जा संरक्षण आदि नियम ऋत की ही आनुषंगिक संज्ञाएँ हैं.

उपनिषद् का अर्थ है समीप उपनिवेशन. अर्थात् गुरु के सान्निध्य में बैठ कर ब्रह्म विद्या प्राप्त करना. उपनिषद् आत्यंतिक अस्तित्वीय प्रश्नों के रहस्य मय उत्तर की तलाश हैं. ये हमें आत्मा- परमात्मा के गूढ़ ज्ञान से दीक्षित करते हैं. जिसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है. आत्म ज्ञान विश्व बोध की पूर्वपीठिका है. इस अमृत तत्त्व की प्राप्ति के बाद मृत्यु पराजित हो जाती है. यह सर्वव्यापी ब्रह्म सर्वभूतान्तरात्मा और कर्मों का अधिष्ठाता है और सृष्टि उसी का बाह्य व्यक्त रूप है. अपनी आत्मा में समस्त भूतों को देखना ही अद्वैत दर्शन है. वही परम तत्त्व मेरे भीतर है, जो तेरे भीतर है तो फिर जाति और धर्म का भेद कैसा? वह ब्रह्म कार्य – कारण श्रृंखला से परे है और उसमें विरोधों का समाहार है. उसे हम इन चर्म – चक्षुओं से नहीं देख सकते हैं. अपने अन्त:करण के आयतन में अनुभव कर सकते हैं. वह अनिर्वचनीय निर्गुण साक्षी है. वह अजन्मा और अविनाशी है. आत्मा परमात्मा का ही अंश है. वह इन्द्रियों, मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार के चतुष्टय से परे है. स्वधर्म के अनुसरण और आत्मनिग्रह के द्वारा हम अपने मनोराज्य का निर्माण कर जीवन की चरम सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं.

ज्ञान मार्ग छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान कठिन है. इसके लिए निर्विकल्प जागरण या ध्यान अपरिहार्य है. योग कर्म की कुशलता का दूसरा नाम है. वह आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है. विराट जगत के साथ तादात्म्य या सर्वात्मवाद किसी से घृणा नहीं करता और न ही किसी के स्वत्व बोध का अपहरण करता है. ओंकार या प्रणव उस पूर्ण ब्रह्म का वाचक है. वृहदारण्यक उपनिषद् के हवाले से कुबेर नाथ राय कहते हैं कि जब सारी ज्योतियां अस्त हो जाती हैं और अग्नि भी किसी अधिनायकवाद के द्वारा बुझा दी जाती है तो हम एक दूसरे को पुकार कर अपने होने का पता देते हैं. अर्थात् वाणी या भाषा अन्तिम ज्योति है. अन्धकार से प्रकाश की यह यात्रा कितनी वरेण्य है! ईशावास्योपनिषद, कठोपनिषद्, केन, प्रश्न, मुण्ड, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक ये दस प्रमुख उपनिषदों का समुच्चय श्लाघ्य है.

विश्व की किसी भी सभ्यता में मानव जीवन के आत्मिक उत्कर्ष की सम्भावनाओं पर इतना व्यापक विचार नहीं हुआ है. सृष्टि के विकास, ब्रह्माण्डीय ऋत के नियमन, आन्तरिक विभूतियों के प्राकट्य, कर्मफल के सिद्धान्त, परमसत्ता के साथ आत्मा के सम्बन्ध को समझने की एक विनम्र कोशिश के साथ ही  मानवीय चेतना के अभिलेख ये वेदान्त भारतीय संस्कृति के मूलाधार हैं. परवर्ती काल में इन्हीं उपनिषदों की गायों के दूध को मथकर भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का नवनीत निकाला, जिसके समकक्ष दूसरा कोई ग्रंथ सम्पूर्ण विश्व में नहीं है. यह अकारण नहीं है कि गांधीजी ने गीता को माता कहा है, जिसकी गोद में सभी मानवीय समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं. कर्म के प्रकार, पुनर्जन्म की प्रकृति, समत्व योग, ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्मयोग पर विस्तृत भाष्य प्रस्तुत करने वाले श्रीकृष्ण वस्त्र की तरह राजधानी भी बदलते रहे. यह शरीर आत्मा का परिधान है. यह ग्रंथ वैराग्य और संन्यास की जगह वीतराग और अनासक्ति को प्रस्तावित करता है. कर्मफल की आशा या आकांक्षा छोड़ कर ही हम अकर्म में प्रतिष्ठित हो सकते हैं. सम्पूर्ण कामनाएँ विसर्जित होने के बाद ही हम कूटस्थ स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं. इसमें वैदिक चिन्तन की निष्पत्तियों का विवेचनात्मक फलितार्थ सहजता से सुलभ होता है. यह सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याण कारी और प्रासंगिक है.

अठारह अध्यायों में निबद्ध गीता महाभारत के भीष्म पर्व में विन्यस्त है. वेद (ज्ञान), ब्रह्मसूत्र और गीता प्रस्थान त्रयी के नाम से जाने जाते हैं. गीता स्मार्त प्रस्थान है. यह लोक में रहते हुए लोकोत्तर जीवन की सिद्धि के प्रयोजन का निष्पादन है. इसमें कर्मकाण्ड और रूढ़िवादी सोच का अतिक्रमण द्रष्टव्य है. किन्तु प्रायः मुक्ति के उपकरण ही चेतना के बंधन बन जाते हैं. कबीर ने जो सीमाएँ तोड़ीं, वही कबीर पंथ की सीमाएँ बन गईं. उन्होंने मूर्ति पूजा का निषेध किया. उनके अनुयायी कबीर की ही मूर्ति बना कर पूजने लगे. इसलिए शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तक सतत जागरूक रहकर अपने मन के बंधनों को खोलने का उपदेश देते रहे. बुद्ध और महावीर स्वामी से लेकर जे. कृष्णमूर्ति और ओशो रजनीश तक आध्यात्मिक ज्ञान को अद्यतन करते हुए उसकी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास करते रहे. ओशो ने धर्म नहीं, धार्मिकता सिखाई. न भोग न दमन, वरन् साक्षी का निर्विकल्प जागरण. एक ताजी आनुभूतिक भाषा का तार्किक विन्यास यहाँ संलक्ष्य है.

भारतीय चिन्ता धारा को चारित्रिक विन्यास में रूपायित करने का पहला प्रयास आदि कवि वाल्मीकि ने किया. ‘रामायण’ का अर्थ है राम के गमन का मार्ग (अयन) . राम का जीवन – शिल्प, राम की आचरण पद्धति. वास्तव में राम की उपासना का अर्थ है जितेन्द्रिय राम जैसा नैतिक चरित्र अर्जित करना.

रामो विग्रहवान् धर्म: I

गोस्वामी तुलसीदास ने इस चरित्र को अद्वितीय चमक दी. राम के माध्यम से उन्होंने मर्यादा के उच्चतम मानदण्डों की स्थापना की और सम्बन्धों का सेतुबंध रचा. परिवार और समाज के बहुरंगी स्पेक्ट्रम यहाँ संलक्ष्य हैं. सामाजिक कोड आफ कंडक्ट! उनके राम शक्ति, शील और सौन्दर्य के समुच्चय हैं. सरस कथात्मक विन्यास में भाषा काव्य में वेदान्त के आसव को अनुस्यूत कर तुलसी ने विश्व काव्य रचा, जिसका मूल उपजीव्य वाल्मीकि रामायण है. यह काव्य पूरे उत्तर भारत के जन जन का कंठहार बन गया. विश्व की पचासों भाषाओं में इस आर्ष ग्रंथ का अनुवाद हुआ. आगम और निगम, लोक और वेद का अद्भुत संश्लेष!

वेदोत्तर साहित्य में रामायण के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है महाभारत. विस्तृत ज्ञान मीमांसा के कारण इसे भारतीय ज्ञान का संचित विश्वकोष कहा जाता है. जीवन की बहुस्तरीय विषमताओं और विडम्बना – बोध को यथार्थ वादी धरातल पर चित्रित करने का अनूठा उपक्रम है महाभारत. सांस्कृतिक प्रतिसृष्टि ही इसकी सार्थक संज्ञा हो सकती है. रामायण के आदर्श वादी रूप शिल्प के बरक्स महाभारत व्यवहार परायण ग्रंथ है. अनेक कथा – उपकथाओं के माध्यम से युद्ध की त्रासदी और बिडम्बना को उसके मूल अक्ष पर बेधने वाले इस ग्रंथ में अठारह पर्व और एक लाख श्लोक हैं. प्राचीन इतिहास, राजनीति शास्त्र और आध्यात्मिक ज्ञान का संश्लिष्ट समुच्चय है महाभारत. नियतिवाद को निरस्त कर यह मनुष्य की गरिमा और इयत्ता को प्रतिष्ठित करता है और संन्यास के बजाय उसे कर्म परायण बनाने की प्रेरणा से परिस्फूर्त है. इस प्रकार हम देखते हैं कि डा ज्योतिष जोशी हमारे आर्ष ग्रंथों का अनुशीलन करके मनुष्य की मौलिक समस्याओं का समाधान खोजते हैं. उसे आत्मवान् बनाने की उद्यमिता स्वागतयोग्य है.

 

 

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स्वराज और रामराज्य

महाभारत में धर्म की एक विशिष्ट व्याख्या दी गई है

धारणाद्धर्म इत्याहु: धर्मो धारयते प्रजा: I

 अर्थात् प्रजा और समाज को धारण करने वाले नियमों को धर्म कहते हैं. जिस तत्त्व में धारण करने की शक्ति है, वह धर्म है. धर्म कर्ममूल है. वह मनुष्य की पूरी जीवन – स्थिति को निर्धारित करता है. उसी के साथ रहते हुए मनुष्य को आत्मबोध होता है. जिसे गीता में कृष्ण कहते हैं-

स्वधर्मे निधनं श्रेय: , परधर्मो भयावह: I

अर्थात् अपने स्वभाव या प्रवृत्ति के अनुरूप ही हमारी आचरण पद्धति होनी चाहिए. पिता शैव हैं तो जरूरी नहीं कि हम भी शैव हों. हम वैष्णव हो सकते हैं. कबीर तो गुरु रामानंद की वैष्णवता का भी अतिक्रमण करते हैं और विराट निर्गुण ब्रह्म से एकाकार होते हैं. इसी प्रकार ज्ञान, भक्ति और कर्म मार्ग के चुनाव में भी विवेक का विनियोग आवश्यक है. अर्जुन को जबर्दस्ती गदा या भीम को गांडीव थमाना भयानक परिणाम दे सकता है. इसी प्रकार स्वराज की प्राप्ति के लिए स्वाधीनता संग्राम में भी चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी के अहिंसात्मक संघर्ष का मार्ग नहीं चुना. आजादी के बाद यह सवाल भी उठाया गया कि हमें स्वराज तो मिला, किन्तु सुराज नहीं. सुराज कब मिलेगा? दिनकर ने भी इस विडम्बना को लक्ष्य किया-

श्वानों को मिलता दूध कहीं, भूखे बच्चे अकुलाते हैं I
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़े की रात बिताते हैं II

यह विषमता रामराज्य में नहीं थी. वहाँ कोई दीन, दुखी या दरिद्र नहीं था. वहाँ सब सुखी और शतायु थे. अयोध्या के सिंहासन पर राज्याभिषेक से पूर्व जब राम को वनवास मिलता है तो वे कहते हैं —-

पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू I जहं सब भांति मोर बड़ काजू II

उनकी माँ कौशल्या भी कहती हैं कि यदि केवल पिता का आदेश हो तो वन मत जाओ. माता पिता से बड़ी होती है. किन्तु यदि पिता और माता कैकेयी दोनों का आदेश हो तो तुम्हारे लिए वन सैकड़ों अयोध्या के समान है-

जौं पितु मातु कहेउ वन जाना I तौ कानन सत अवध समाना II

यही वह पारिवारिक सौमनस्य है, जिसकी पीठिका पर रामराज्य का अवतरण होता है. वहाँ प्रजापति प्रजा पर शासन नहीं करता, पूरी प्रजा को परिवार मानकर उसका पालन करता है. वहाँ पृथ्वी एक वृहत्तर परिवार है. राम चित्रकूट में रह रहे हैं. आज के महानगरीय यांत्रिक जीवन – बोध और जंगल राज के बरक्स उनके वन का साम्राज्य कितना समृद्ध है! वहाँ शेर और हाथी एक साथ विचरण करते हैं-

राम वास वन सम्पति भ्राजा I सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा II

यही सुराज या रामराज्य गांधीजी का स्वराज है, जहाँ राजा और प्रजा दोनों ही अपने आदर्श कर्त्तव्य पथ का अनुसरण करते हैं. गांधीजी ने भाषण के बजाय उस आचरण संहिता को अपने जीवन से सत्यापित किया. स्वराज या स्वराज्य एक पवित्र ऋग्वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ है- आत्म-प्रकाशित. वेदों का  वृहद भाष्य करने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने औपनिवेशिक काल खण्ड में सन् 1876 ई में पहली बार स्वराज शब्द का प्रयोग किया था. तो वे एक ऐसे भारत का निर्माण चाहते थे, जो पराधीनता से मुक्त हो और धार्मिक आचरण से सम्पन्न हो. सन् 1906 में दादा भाई नौरोजी ने स्वराज को कांग्रेस के स्वाधीनता – आन्दोलन का लक्ष्य बताया. सन् 1907 में विपिन चन्द्र पाल ने “स्वदेशी और स्वराज्य” पर पांच व्याख्यान दिए. दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए सन् 1909 ई में गांधीजी ने “हिन्द स्वराज” नामक पुस्तक लिखी, जिसमें आदर्श भारत की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. सन् 1916 में होमरूल लीग की स्थापना के अवसर पर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था- “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे.”

गांधीजी के ग्राम स्वराज की अवधारणा में नन्दन वासी नहीं, नन्दी ग्राम वासी भरत का चित्र अंकित है. समरस समाज का निर्माण ही उनके सर्वोदय का लक्ष्य है और उनकी स्वराज वादी व्यवस्था में नागरिकों का शुचिता पूर्ण आचरण शामिल है. वस्तुतः गांधीवाद एक विशुद्ध राजनीतिक अवधारणा है ही नहीं. वरन् वह सतत आत्मान्वेषण की एक समेकित जीवन – दृष्टि है, जिसमें आत्मनिग्रह, अपरिग्रह और त्याग की सत्याग्रही मुद्रा है. उनके एकादश व्रत में जीविकार्थ श्रम, स्वदेशी और उपवास भी शामिल हैं. वे व्यक्ति के आत्मिक रूपांतरण को सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रभावी अस्त्र समझते थे. वे रासायनिक हृदय – परिवर्तन के द्वारा ही व्यक्ति को जीत लेने में विश्वास करते हैं और रामराज्य में भी जीतने का प्रयोग केवल मन को जीतने के लिए ही किया जाता है. वहाँ अयोध्या युद्ध में विश्वास नहीं करती. अंगद का शान्ति – प्रस्ताव मान कर यदि रावण सीता को लौटा देता तो राम युद्ध नहीं करते और उसे क्षमा कर देते.

गांधीजी कहते हैं कि हिंसा पाशविक चेतना है और उसे मानवीय संवेदना से अपदस्थ करने की जरूरत है. विश्व के इतिहास में पहली बार अहिंसा के अस्त्र का व्यापक पैमाने पर प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर सफल संघर्ष गांधीजी ने किया. किन्तु सुफल मिला क्या? गांधीवाद की हत्या हो गई और रोज हो रही है. धर्म की राजनीतिक व्याख्या ने उसके मूल आशय को आच्छादित कर लिया है. राम ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का शिलान्यास करते हुए कहा था-

जौं अनीति कछु भाखौं भाई I तौ मोहिं बरजेहु भय बिसराई II

राजा का कथन और आचरण भी आलोचना के दायरे में था. आज सत्ता को रोकना तो दूर, टोकना भी कठिन हो गया है. आज राम नहीं, सिर्फ रामलीला बची है और रावण भी राम की शक्ल में आता है. विपक्ष भी केवल विरोध के लिए विरोध करता है. मीडिया भी या तो अखंड कीर्तन करती है या फिर उच्चाटन अनुष्ठान में संलग्न होती है. स्वस्थ आलोचना और सहिष्णुता गायब हैं. सहिष्णुता की बात करने वाले सबसे अधिक असहिष्णुता का परिचय देते हैं. जबकि रामराज्य में दण्ड संहिता अप्रासंगिक हो गई थी और दण्ड केवल दण्डी संन्यासियों के हाथ में विरजता था. वह लोककल्याण कारी राज्य सत्य, अहिंसा और परोपकार की पीठिका पर आश्रित था —-

परहित सरिस धरम नहिं भाई I परपीड़ा सम नहिं अधमाई II

वहाँ पराई पीर को महसूस करने वाले वैष्णव जन का पारमार्थिक शील नवनीत से श्रेष्ठ तर बताया गया है —-

निज परिताप द्रवै नवनीता I पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता II

यह “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के अर्थ का उदात्तीकरण है. वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम ने आमेखला पृथ्वी पर ग्यारह हजार वर्ष शासन किया. यद्यपि आधुनिक युग में देवरहा बाबा या मेहरुन्निसा भी (बकौल ‘वागर्थ’ — वृद्ध विशेषांक) अधिकतम 149 वर्ष ही जी सकीं. इसी रामराज्य में असहमति का विद्रूप सीता के त्याग और शम्बूक – वध के रूप में घटित होता है. उस धोबी को अपनी ही पत्नी पर भरोसा नहीं है. दूसरीओर राम एक तुच्छ प्रजा के परोक्ष मन्तव्य का सम्मान करते हुए अपनी प्राणवल्लभा का परित्याग कर देते हैं. सार्वजनिक जीवन की बलिवेदी पर अपने वैयक्तिक जीवन का उत्सर्ग कर देते हैं. लोकतंत्र और किसे कहते हैं! सम्भव है कि शम्बूक भी कोरोना काल के मरकज़ी जमातियों की तरह असंगत साधना कर रहा हो. किन्तु लव-कुश काण्ड यही सिद्ध करता है कि रामराज्य भी निरापद नहीं था.

निरापद तो यह पुस्तक भी नहीं है और ज्योतिष जोशी जी की सारी ज्ञान-परम्परा को स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य जैसे पदों या प्रत्ययों में घटाने की जिद ने मानो इन शब्दों को दांतों से पकड़ रखा है. उनकी सिद्धि में पुनरावृत्ति का प्राचुर्य ऊब पैदा करता है. एक तथ्य यह भी है कि यह शास्त्रों के समझ की भाषा है, शास्त्रों की अनुभूति की भाषा नहीं. जब हम गीता, कबीर, विवेकानंद, कृष्णमूर्ति या फिर ओशो को पढ़ते हैं तो उसमें तार्किक अनुभूति नहीं, आनुभूतिक तर्क-परिणति देखने को मिलती है. तथापि औपनिषदिक चिन्तन – परम्परा को प्रामाणिक अर्थवत्ता के साथ एक ही आलोक मंजूषा में रखकर जोशी जी ने मूर्ख मंजूषा (दूरदर्शन) से दूर रखने और इस पुस्तक को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने की सात्विक चेष्टा की है.

बर्ट्रेंड रसेल ने बहुत पहले एक विश्व – राज्य की कल्पना की थी. गांधीजी कहते हैं कि आदर्श शासन वही होगा जो बिल्कुल शासन नहीं करता और एक समन्वयक की भूमिका निभाता है. गांधीजी ग्राम पंचायत को सशक्त करके विकेन्द्रित शासन-प्रणाली को लागू करने के कायल थे. कौटिल्य ने भी ग्राम – गणराज्यों को प्रस्तावित किया था. अपने ‘ग्राम स्वराज’ में गांधीजी ने सामाजिक जीवन के ढांचे को एक पिरामिड की तरह न देखकर महासागर के वलय के रूप में देखा. उसके केन्द्र में मनुष्य है और शासन की निम्नतम इकाई गाँव को शीर्ष पर रखा गया है. नन्दकिशोर आचार्य के अनुसार-

“गांधीजी राजनीतिक व्यवस्था के रूप में इस आदर्श का सांस्थानिक आधार ग्राम स्वराज्य को बनाते हैं, जिसमें प्रत्येक गाँव एक पूर्ण गणतंत्र के रूप में होगा.”

केन्द्रीकृत संसदीय लोकतंत्र में अधिनायकवाद की सम्भावना अधिक होती है. उसमें करोड़ों सर्वहारा और मुट्ठी भर अरबपति मौजूद रहते हैं. आज देश विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भले बन गया हो, आर्थिक वैषम्य के कारण मुफ्त अनाज पाने वालों की संख्या अधिक है. समरस समाज, सुख, शान्ति और समृद्धि अभी शब्द कोष के सपनों में ही अस्तित्व मान हैं. गांधीजी कहते हैं

“मैं स्वप्नदर्शी नहीं हूँ, मैं व्यावहारिक आदर्शवादी हूँ. अहिंसा धर्म ऋषियों और संतों के लिए ही नहीं है, सामान्य जनता के लिए भी है. जैसे हिंसा हिंस्र पशुओं का स्वभाव है, ठीक वैसे ही अहिंसा मानव जाति का. मनुष्य के लिए शारीरिक बल से अधिक आत्मबल वरेण्य है.”

आत्मशुद्धि करण के साथ प्रतिरोध को जोड़ कर सत्याग्रह का आविष्कार करने वाले गांधीजी आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की सड़ांध से मुक्त नैतिक – आध्यात्मिक भारत का निर्माण करना चाहते थे, जहाँ सिर्फ भौतिक उन्नति ही आत्यंतिक सफलता का पर्याय न हो. दुखों से मोक्ष जहाँ चरम पुरुषार्थ है. गोस्वामी तुलसीदास ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य — षड् विकारों या मानस रोगों के निदान और उपचार के बाद निर्वाण के बजाय अविरल भक्ति की याचना की है-

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान.

जनम जनम रति राम पद, यह वरदान न आन II

मुक्ति की कामना से भी मुक्त. प्रतिष्ठित प्रज्ञा या स्थितप्रज्ञ का यही लक्षण है-

सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी I

अर्थात् समस्त दृश्यमान जगत से एकात्म होकर योगी निद्रा को त्याग कर सोता है. उसकी नींद में भी एक जागरण मौजूद रहता है. वह मोह रूपी रात्रि में जागता रहता है. अनेकता में एकता के अद्वैत दर्शन की व्याख्या करते हुए नन्दकिशोर आचार्य ठीक कहते हैं –

“अनेकता व्यावहारिक सत्य है, जबकि एकत्व पारमार्थिक सत्य. व्यावहारिक सत्य की सार्थकता पारमार्थिक सत्य का साधन बन जाने में ही है.”

ऋत के कारण ही विश्व के प्रत्येक पदार्थ में एक व्यवस्था पाई जाती है. यह सम्पूर्ण अस्तित्व सृष्टि के एक ही नियम से संचालित है. समाज का स्वत:स्फूर्त विधान उसके आत्मानुशासित आन्तरिक स्वतंत्रता का बाह्य रूप हो, यह काम्य है. गोस्वामी तुलसीदास ने भारतीय संस्कृति की निरन्तरता और अखण्डता को दर्शन के अभिगमों से जोड़ कर आध्यात्मिक विमर्शों को कथात्मक विन्यास में निरूपित किया. भारतीय मनीषा का यह अनुसंधान और रामकथा में उसका पुनर्वास कितना स्पृहणीय है! नैतिक प्रकर्ष से संवलित समष्टि का मनोराज्य ही रामराज्य का पर्याय है या उसका प्रतिफलन है. और इस रामराज्य की आकांक्षा हर युग को होगी.

कहना चाहिए कि डॉ. जोशी ने स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य को तुलसीदास और महात्मा गांधी के विशेष सन्दर्भ में देखते हुए भारतीय मनीषा के बीज तत्वों से हमारा सविस्तार परिचय कराया है. निसन्देह अपने गहन शोध और अध्यवसाय से लेखक ने इस पुस्तक को सम्भव किया है जो पठनीय तो है ही, विचारणीय भी है.

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें

 

अजित कुमार राय

आस्था अभी शेष है, रथ के धूल भरे पांव (कविता संग्रह), सर्जना की गंध लिपि (संपादित)
तथा नई सदी की हिन्दी कविता का दृष्टि बोध (आलोचना) प्रकाशित.

मो : 9839611435

Tags: अजित कुमार रायज्योतिष जोशीस्वधर्मस्वराज और रामराज्य
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