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Home » स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

हिंदी कविता कबीर की तरह खुली आंखों से सबकुछ देखती रहती है, उसे ऐश्वर्य की नींद नहीं चाहिए, वह बेचैन है और उसका अधिकांश वेदना की अभिव्यक्ति है. वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की ये दस कविताएँ इसी रास्ते पर हैं.

by arun dev
January 7, 2022
in कविता
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स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ
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स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

 

1
मैं एक बुरा आदमी

मैं एक बुरा आदमी हूँ
हे! परमपिता परमेश्वर
क्या ऐसा नही हो सकता कि
मैं एक सुबह उठूँ और अच्छा आदमी
बन जाऊं ?

मेरे भीतर न रहे कलुष
मैं किसी के सुख से ईर्ष्या
न करूं

अपने छोटे से घर में रहते हुए
किसी के भव्य घर देखकर
न ललचाऊँ

सुंदर चीजों को देखूँ
असुंदर चीजों के प्रति न बढ़े
मेरा आकर्षण

उस स्त्री को भूल जाऊं जिसने
तबाह किया है मेरा जीवन
दुश्मनों के गुनाह को माफ
कर दूँ
उनके साथ दोस्तों की तरह
रहूँ

परमपिता परमेश्वर !
मुझे ज्ञान दो ताकि मैं
रत्नाकर से वाल्मीकि बन सकूँ
हिंसा के विरूद्ध लिख सकूँ
छंद

 

2
पागल लोग

पागल लोग न हो तो
दुनिया का कारोबार न चले

पागल लोग दुनिया का नक्शा
दुरुस्त करते हैं
खाली जगहों पर भरते है रंग

पागल लोगों ने पृथ्वी को गोल
कहने का जोखिम उठाया
और यातनाएं सही
दुनिया के धर्म गुरुओं और मूर्खों
के अज्ञान को बेनकाब किया
उन्हें आईनों के सामने खड़ा
किया

पागल लोगों ने बनायी हैं सड़कें
रेलगाड़ियां, हवाईजहाज कंप्यूटर
दुनिया को रोशन करने के लिए
बिजली की खोज की है

सेब का गिरना हमारे लिए एक
साधारण घटना थी
लेकिन एक पागल उसे असाधारण
बताकर गुरुत्वाकर्षण के नियम
बनाए

सोचिए जिस पागल ने पहिया
बनाया होगा, उससे जीवन की
कितनी गति बढ़ी होगी

पागलों ने जाहिलों से कहा
अपने तलघर और अँधेरों से
बाहर निकलो और देखो– कितनी
सुंदर है यह दुनिया

 

3
सिनेमा रोड

शहर की इस जगह पर इतने
सिनेमाहाल थे कि सड़क का नाम
सिनेमा रोड पड़ गया था

एक सिनेमाहाल पर अगर टिकट
खत्म हो जाता था तो हम
लपक कर दूसरे तीसरे सिनेमाहाल में
खरीद लेते थे

जब एक साथ शो छूटते थे
तो सड़क जाम हो जाती थी
जैसे लोग बंकर से निकल रहे हों

ये सिनेमाहाल नहीं प्रेम के लिए
सुरक्षित जगहें थी
सिनेमाहाल में अगर पीछे की सीट
नहीं मिलती थी तो फिल्म
देखी जाती थी

कई साल बाद जब वहाँ गया
तो सिनेमा रोड था लेकिन सिनेमाहाल
नहीं थे
उन्हें ध्वस्त करके उसकी जगह
माल और डिपार्टमेंटल स्टोर बना दिए
गए थे
जिसमें शहर के अमीर– उमराव खरीद
के लिए आते थे
बाकी लोग उसे देखकर ललचाते थे

हमारी स्मृति के केंद्र नष्ट कर
दिए गये थे
जो लोग मनबहलाव के लिए वहाँ
आते थे, उनके लिए नहीं था कोई
आमोद का साधन

कभी जब वे किसी काम से सिनेमा रोड
आते थे तो उदास हो जाते थे
कुछ देर के लिए अतीत में
गुम हो जाते थे

 

4
पैसेंजर ट्रेन

मुझे मेल ट्रेन की यात्रा
पसंद नहीं है
वह छोटे स्टेशनों को छोड़ कर
आगे बढ् जाती है

मुझे पैसेंजर ट्रेन की खिड़की के पास
बैठना अच्छा लगता है
ट्रेन इतने धीमे चलती है कि
किसी पेड़ को छूकर वापस डिब्बे में
बैठा जा सकता है

जंगल के बीच से गुजरनेवाली ट्रेन का
क्या कहना– वहाँ बहुत से परिंदों
और तितलियों को देखा जा सकता है

रेल के रास्ते में नदी हो तो
पानी में सिक्के फेंक कर डब्ब की
आवाज़ सुनी जा सकती है

मैं पैसेंजर ट्रेन पर सवार होकर उन
छोटी–छोटी जगहों को देखना
चाहता हूँ जो तेज यात्रा में पीछे
छूट गए हैं

Last Bout/ SUJITH S. N.

5
बेचैन कवि

मैं राजा नहीं बनना चाहता
न होना चाहता हूँ व्यापारी
मैं एक बेचैन कवि बनना
चाहता हूँ

मुझे कबीर की तरह नींद
न आए
मुझे जागने का वरदान
मिले

किसी के दुख को देखकर
बेचैन हो जाऊं
जो कुछ बुरा देखूँ तो गुस्सा
आ जाए

मेरे भीतर शेर से आँख मिलाने
का साहस हो ताकि मैं उस हिरण–शावक
को बचा सकूँ जो बाघ की आँखों में
कई दिनों से घूम रहा है

मैं बेचैन होकर कविताएं लिख
सकूँ और लोग उसे पढ़कर बेचैन
हो जाएँ

 

6
कभी ऐसा हो

कभी ऐसा हो कि तुम
हथेलियों से ढ़ाप लो मेरा चेहरा
पीछे से मुड़कर देखने का
मौका न दो
मैं स्पर्श से पहचानकर
तुम्हें चकित कर दूँ

कभी ऐसा हो कि तुम जंगल में
छिप जाओ और मैं तुम्हारी महक से
तुम्हें खोज लूँ

कभी ऐसा हो कि
सारे शब्द गुम हो जाए
हम स्पर्श को अपनी भाषा
बना लें

कभी ऐसा हो कि मैं तुम्हारे
ओठ पर उंगली रख दूँ
और तुम जलतरंग की तरह
बजने लग जाओ

कभी ऐसा हो कि
हम दोनों बिछड़ जाए और उम्रभर
एक दूसरे को तलाशते रहे

 

7
जलना

आग का असली मजा तब है जब
वह दोनों ओर से लगी हुई हो

अगर आग में धुआँ है तो यह
मानकर चलिए कि दोनों में से
एक कम जल रहा है

जलना सब के बस की बात नहीं
उसके लिए शिद्दत की जरूरत
होती है

कुछ लोग एक तरफ से जलते हैं
और बीच में बुझ जाते हैं

पहले आग इकट्ठा करो
फिर जलो
आग को बदनाम न करो कि
वह ठीक से नहीं लगी हुई है

कुछ लोग जिंदगी भर धुँधुवाते रहते हैं
जलते नहीं हैं
असल में उनके भीतर आग
की कमी है

Sujith S.N.

8
कोई बात

मैं कोई बात अमूर्त भाषा में
नहीं कहना चाहता कि तुम
समझ न पाओ

मैं साफ–साफ कहना चाहता हूँ
कि तुम तानाशाह हो

अगर मैं किसी से प्रेम करूंगा
तो उलट वासियों में बात नहीं करूंगा
सीधे कहूँगा– मैं तुमसे प्रेम करता हूँ

भाषा का मतलब यही है
बिना लाग–लपेट के सच्ची बात
कही जाए– उसमें झूठ का नमक
न मिलाया जाए

जो कठिन भाषा के प्रेत हैं
उन्हें यह बात समझ में नहीं
आएगी

वे बेताल की तरह उलटे
लटके हुए हैं– मुँदी रहती है
उनकी आंखें

 

9.
शहर का नाम

जब मैं किसी बस पर तुम्हारे
शहर का नाम देखता हूँ
उस पर बैठ कर तुम्हारे पास
पहुँचने की इच्छा होती है

मैं इस बात को भूल जाता हूँ
कि मैं किस काम से बस–स्टेशन
आया था

तुम मुझे देखकर चौक जाओ
और कहो– इस उम्र में भी
कम नहीं हुआ है तुम्हारा पागलपन ?

और मैं कहूं– इस दुनिया में
तुम्हारे नाम और मेरी दीवानगी
के अलावा क्या बचा हुआ है ?

यह बात सुनकर तुम हँसती रहो
और मैं तुम्हें हँसता हुआ
देखता रहूँ

 

10
संतरे

संतरों को छूते हुए मैं
मोहक स्मृतियों से भर जाता हूँ
उसकी महक से हो जाता हूँ बेचैन

संतरों के छिलके उतारते हुए
मेरे हाथ खुशबू से भर जाते हैं

उसकी फांक और धारियों को देखकर
मुझे उस स्त्री के होंठों की
याद आती है जिसे मैंने पहलीबार
छुआ था

संतरों के बागान में रहनेवाली
स्त्रियों की देह से आती है
संतरे की गंध

संतरों का व्यवसाय करने वाले व्यापारियों
के लिए संतरा एक फल है
लेकिन जो संतरों से इश्क करते है
वे उसके भीतर खोजते रहते हैं
रस की नदी

________________________________

स्वप्निल श्रीवास्तव
510,अवधपुरी कालोनी,अमानीगंज
फैजाबाद – 224001
मोबाइल -09415332326
Tags: 20222022 कविताएँस्वप्निल श्रीवास्तव
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Comments 17

  1. M P Haridev says:
    3 years ago

    1 स्वप्निल श्रीवास्तव की पहली कविता में यह स्वीकारोक्ति कि मैं बुरा आदमी हूँ से ही बुराई के समापन की यात्रा शुरू हो जाती है । जिस तरह घर के बर्तनों को रोज़ माँजना पड़ता है और वे स्वच्छ बने रहते हैं इसी प्रकार मन रूपी बर्तन को हर रोज़ माँजना पड़ता है । इस कविता में परमात्मा के लिये उपहास नहीं दिख रहा । यह सत्य प्रार्थना है । जिसे गांधी अपनी प्रार्थना सभा में गाया करते थे । कोई व्यक्ति प्रकृति से प्रार्थना करे, परमात्मा से करे या द्वंद्वात्मक भौतिकवादी तरीक़े से सभी प्रार्थनाएँ लक्ष्य तक पहुँचती हैं । और सुखदायक होती हैं ।

    Reply
  2. राकेश मिश्रा says:
    3 years ago

    बहुत सुन्दर कविताएँ हैं । सिनेमा रोड की भीड़ मैंने देखी है । भाषा का काम है बिना लाग लपेट के कहना ।आत्मीय और गरमाहट से भरी कविताएँ हैं । स्वनिल जी को शुभकामनाएँ ।

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    स्वप्निल जी की सहज मनमोहक कविताओं से गुजरते हुए आज के दिन की शुरुआत बहुत सुंदर रही। अच्छी कविता वही है जिसे बार-बार पढ़ने का जी करे। मेरे विचार से यह भी एक कसौटी है । उन्हें एवं समालोचन को बहुत-बहुत बधाई !

    Reply
  4. M P Haridev says:
    3 years ago

    2 पागल लोग कविता पढ़कर मज़ा आ गया । इसकी हरेक लाइन क़ाबिल-ए-ग़ौर है । अप्रत्यक्ष रूप से न्यूटन का और बल्ब की खोज करने वाले वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन का ज़िक्र है । पागल व्यक्ति ने पहियों का आविष्कार किया । आर्यभट्ट ने शून्य के प्रयोग किये, तमिलनाडु के एक गाँव के ग़रीब ब्राह्मण रामानुजन ने गणित के तब के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर हार्डी को ख़त में 150 प्रमेय लिखकर भेजी थीं । सिरफिरे लोगों ने दुनिया को सुख दिये । लोकोमोटिव इंजन बनाया । दो भाइयों ने मिलकर पहला विमान बनाया । डाल्टन ने एटम की शुरुआती खोज की । भारत के वैज्ञानिक कणाद ने भी कणों का अध्ययन किया । एक पागल ने कहा कि पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है । उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया । भारतीय शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने शल्य क्रिया की संहिता लिखी । जगदीश चंद्र बोस ने सिद्ध किया कि पौधों में प्राण होते हैं ।

    Reply
  5. M P Haridev says:
    3 years ago

    3 सिनेमा रोड
    अपने शहर से शुरू कर रहा हूँ । जब हमारा हाँसी शहर क़स्बा था तब हमारे घर से एक सौ मीटर की दूरी पर भारत सिनेमा था । सिनेमा घर का प्रवेश द्वार लंबी-चौड़ी लॉबी था । उसकी दोनों दीवारों पर चल रही फ़िल्म के तथा आगामी फ़िल्म के पोस्टर लगे हुए होते थे । वे लकड़ी के फ़्रेम पर लकड़ी के फ़्रेम के दरवाज़े पर मुर्ग़ों के लिये बंद किये जाने वाली लोहे की जाली से बने हुए होते थे । तब बारह आने की टिकट होती थी । बॉक्स ऑफिस में बैठकर फ़िल्म देखने की टिकट के सवा रुपये लगते थे । बहुत बाद में शेरशाह सूरी मार्ग 10, जिसे G.T. Road कहा जाता था उसके किनारे सटे हुए एक बाग़ की ज़मीन पर आदर्श थियेटर बन गया । हमारे नगर में पृथ्वीराज चौहान का भग्न क़िला है । और एक बड़सी दरवाज़ा । एक हज़ार साल से भी अधिक पुराने वक़्त से दोनों सलामत खड़े हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा संरक्षित हैं । बड़सी दरवाज़े को अब बड़सी गेट कहते हैं । हमारा घर और भारत सिनेमा शहर के सबसे ऊँचे इलाक़े हैं । बड़सी दरवाज़े की सड़क और हमारे घर के बाहर की सड़क में डेढ़ मंज़िल का फ़र्क़ है । बड़सी एक गाँव का नाम है । बड़सी दरवाज़े का मुँह बड़सी गाँव की ओर जाता है । बहरहाल, बड़सी दरवाज़े के बाहर जंगल और झाड़ियाँ होती थीं । ज्यों ही आदर्श थियेटर खुला तब भारत टाकीज़ को पुराना तथा आदर्श थियेटर को नया सिनेमा घर कहना शुरू हो गया । अब दोनों का अस्तित्व नहीं है । कविता की तरह उस ज़माने में कुछ प्रेमी सिनेमा घरों में फ़िल्म देखने जाते होंगे । हम बालक थे । हमारे लाल जी (पिता जी) के पास बारह आने नहीं होते थे कि हम फ़िल्में देख सकते । पुराने सिनेमा घर के मैनेजर सीता राम जग्गा होते थे जो भगत सिंह के साथी थे । स्वप्निल जी श्रीवास्तव बंबई की वस्त्र बनाने वाली कई मिलें बंद हो गयी हैं । वहाँ रिहायशी अट्टालिकाएँ खड़ी हो गयी हैं । वहाँ की Chawls भी कितनी बची हुई हैं । मिश्र में 108 पिरामिड थे । उनके भीतर की सुरंगों के द्वार विशेष रूप से अभिमंत्रित श्लोकों से खुलते थे । इस्लामीकरण ने वहाँ के पिरामिड ध्वस्त कर दिये । अब G.T. Roads highways कहलाने लग गये हैं और टोल टैक्स की पूँजीवादी व्यवस्था शुरू हो गयी है । जिन किसानों की कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण करके और उचित/ अनुचित मुआवज़ा देकर G T Roads बनाये गये थे वे अब निजी संपत्ति हो गयी हैं । राजनेता तो बिक चुके । धीरे-धीरे देश बेचा जा रहा है ।

    Reply
  6. M P Haridev says:
    3 years ago

    4 पैसेंजर ट्रेन
    स्वप्निल जी, आज आप रुलाकर मानोगे । जिन ज़िम्मेदारियों को थोड़ी देर के लिये टाला जा सकता है उन्हें टालकर टिप्पणी करने के लिये रुक गया । मेरा रुकना मानो कलकत्ता की ट्राम से उतरकर फिर से चढ़ने जैसा है । हमारे क़स्बे में अंग्रेज़ों ने 1878 में रेलवे स्टेशन बनाया था और स्वाभाविक रूप से रेलवे लाइन भी । रेलवे लाइन मीटर गेज थी । शायद देश में सबसे बाद में ब्रॉड गेज में बदली । 141 वर्षों के बाद आज तक यहाँ से किसी दिशा में नयी रेल लाइन नहीं बिछायी गयी । यहाँ इलेक्ट्रिक ट्रेन आ गयी है लेकिन माल गाड़ियाँ Goods Trains) नहीं कह रहा,
    नहीं चलतीं । यह स्थान ‘वंचितों का शिक्षा शास्त्र’ है । नयी दिल्ली के लिये सीधी ट्रेन सेवा नहीं है । कुछ गाँवों में ट्रेन से नीचे उतरकर दोबारा वापस चढ़ा जा सकता है । हाँसी से रोहतक की दूरी बमुश्किल 65 किलोमीटर है । रेल मार्ग से हाँसी को रोहतक से जोड़ने की योजना लगभग 30 वर्ष पुरानी है । काश यह मार्ग पहले जुड़ गया होता । हाँसी का रेलवे स्टेशन शहर से ढाई किलोमीटर दूर है । पुरानी योजना के तहत हाँसी शहर में शवदाह गृह के पास एक स्टेशन बनता । तब लागत और रुकावटें कम आती । यह झूठ है कि अंग्रेज़ों का राज बुरा था । 1878 के बाद अंग्रेज स्वतंत्रता आंदोलन से जूझते रहे । ख़ैर 1947 को देश स्वतंत्र हो गया । पचहत्तर वर्ष में रेलवे मार्ग से हाँसी को रोहतक से नहीं जोड़ा गया । अगर ऐसा हो गया होता तो करोड़ों यात्राओं के अरबों रुपये बच गये होते । रेलवे की दृष्टि से हाँसी भारत के नक़्शे पर होता । चंडीगढ़, फ़िरोज़पुर छावनी, बाड़मेर, जैसलमेर बम्बई, अहमदाबाद, कलकत्ता, बैंगलोर, हैदराबाद, मद्रास, कन्याकुमारी , भुवनेश्वर, पुणे, गोवा तक हाँसी से रेलगाड़ियाँ होकर गुज़रती । स्वप्निल जी श्रीवास्तव हमारे नगर के लिये जंतरमंतर पर प्रदर्शन का आयोजन करो । दिल्ली साहित्यकारों का गढ़ है । हाँसी और हिसार के कुछ मित्रों को लेकर मैं भी जंतरमंतर पहुँचूँगा ।

    Reply
  7. शशिभूषण मिश्र says:
    3 years ago

    आत्मचेतस से आत्मलोचन तक की यात्रा करती कविताएं…उत्तम पुरुष शैली में लिखी गई इन कविताओं में कवि का व्यक्तित्व झलकता है । बहुत बहुत बधाई प्रिय कवि को…

    Reply
  8. परमेश्वर फुंकवाल says:
    3 years ago

    जीवन के रस से परिपूर्ण सीधी सच्ची सहज-सरल कविताएँ जो अंदर तक एक पढ़त में ही उतर जाती हैं।

    Reply
  9. M P Haridev says:
    3 years ago

    5. बेचैन कवि
    स्वप्निल जी, आपकी रचनाओं के सृजन का संसार ही आपका युद्ध क्षेत्र है । जैसे व्हेल मछली के लिये पानी उसका रणक्षेत्र होता है । आप राजा नहीं बन सकते । व्यापार करेंगे तो औंधे मुँह गिरोगे । यह भी एक तरह का ख़ूनी खेल है जिसमें ग्राहक की खाल नोच ली जाती है । कबीर रचनाकारों के आज तक प्रेरणास्रोत रहे हैं और रहेंगे । हमारे होने की सार्थकता इसी में है कि दूसरों को सुखी बनाने के लिये बेचैन हों । हमारे संसर्ग में आने वाले व्यक्तियों के लिये भेदभाव न करें । कम प्रसिद्धि प्राप्त रचनाकारों, लेकिन सृजनात्मक संसार की ठीक दिशा वाले व्यक्तियों के लिये भी समदर्शी हों । जीवन के 36 वर्ष बैंक में काम किया । पहले आओ और पाओ के आधार पर काम किया । दो हज़ार रुपये की जमा राशि वाला रिक्शा चालक एक सौ रुपये निकलवाने के लिये पहले आया तो पहले उसका काम किया । पाँच लाख रुपये की राशि निकालने वाला बाद में आने वाला व्यक्ति मुझे विचलित नहीं कर सका । शायद कुमार अंबुज की कविता है-मैं बोला वहाँ भी जहाँ शक्तिशाली लोगों को लालच ने मूक बना दिया और इस तरह चुना असफल जीवन’ । अब भी बेचैन रहता हूँ उन लोगों के लिये जिन्हें पीछे धकेला जा रहा है । मज़लूम के लिये बेचैन हों । ज़बरदस्ती पीछे धकेले जाने वाले व्यक्ति के हक़ के लिये लड़ें ।

    Reply
  10. Surendra prajapati says:
    3 years ago

    स्वप्निल श्रीवास्तव सर की बिल्कुल ताजी काविताएँ एक नई ऊर्जा का संचार करती हुई बिना लाग लपेट के सरल प्रवाह में बहती है। आत्मीय और गर्माहट से भरी हुई काविताएँ उन्हें बधाई। और समालोचन को भी।

    Reply
  11. सुशीला पुरी says:
    3 years ago

    सहज भाषा में जो संभव हो सकता है वह अलंकरण में नहीं। इन कविताओं को पढ़ते हुए, संवेदना किस तरह सहजता से पैबस्त हो सकती है कविता में, इसे आसानी से समझ सकते हैं। Swapnil Srivastava ji को बधाई इन सुंदर कविताओं के लिए, समालोचन का शुक्रिया।

    Reply
  12. M P Haridev says:
    3 years ago

    6 कभी ऐसा हो
    Romanticism लौट आया । प्रेम इन्सान की ज़रूरत है । बचपन की छुपम-छुपायी वाले खेल की मासूमियत ज़िंदगी भर क़ायम रहती । बाक़ियों के लिये निर्दोष होने का हमारा पैमाना काश वैसा भी हो सके जो मुझ जैसे आस्थावान व्यक्ति का परमात्मा के साथ होता है । संवेदना को बचाये रखने से स्पर्श को पहचान पाना सरल है । जिस व्यक्ति ने चुपके से मेरे पीछे आकर मेरी आँखों को स्पर्श किया उसके हृदय में प्रेम का तूफ़ान पहले उठा होगा । उसी व्यक्ति के लिये मेरे जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति अक्षुण्ण रही होगी तब उसका मेरी आँखों को बंद करना मैं पहचान लूँगा । प्रेम अजस्र प्रवाह है । यह कविता में अभिव्यक्त किया जाये; बुरा नहीं है । मेरे मन, शरीर, बुद्धि और आत्मा में विराजता है तो पत्नी-पति के रूप में साथ-साथ रह रहे व्यक्तियों के लिये स्वर्ग घर के आँगन में उतर आता है; धरती पर उतर आता है । तभी स्पर्श की भाषा को पहचान सकेंगे । ओठ मृदंग के न अलग हो सकने वाले दो हिस्से हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असंभव है । ओठों पर उँगली रखकर देख लो । जल तरंग की तरह बजने लगेंगे । (पता नहीं है कि जल तरंग बजाने वाले वाद्यकार दुनिया में बचे हुए हैं कि नहीं) । एक arc में रखी गयी जल से भरी प्यालियों पर दो स्टिक्स के साथ हस्तकला दिखाकर संगीत पैदा करना कर्णप्रिय होता है । आख़िरी तीन पंक्तियाँ लाजवाब हैं । फ़िल्म के एक गीत की आधी पंक्ति को यह सोचकर लिख रहा हूँ जैसे उसके बाद गीत का हिस्सा न लिखा गया हो । “चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों”

    Reply
  13. M P Haridev says:
    3 years ago

    7 जलना
    सभी कविताओं की तरह यह भी दिल के क़रीब है । आप में सुलगती आग ने पन्ने पर उतारा है । मुझे भी दहका रही है । “बेचैन बहुत फिरना घबराये हुए रहना, इक आग सी जज़्बों की दहकाये हुए रहना” । वो भी क्या आग है जो एक ही के दिल में लगी हो । ज़रूरी नहीं एक और दिल जो आग से दहका हो । जुदाई के पल में भी सुलगकर मिला हो । यादों में समाया है । आग दोनों ओर लगी हो । धुआँ धुआँ नहीं चाहिये । अंगार बने हों ।

    Reply
  14. लक्ष्मण वृजमुख़ says:
    3 years ago

    बढ़िया कविता। स्वप्निल श्रीवास्तव सर को बधाई।
    धन्यवाद् समालोचन ऐसी कविताएं पढ़वाने के लिए।

    Reply
  15. Nivedita Jha says:
    3 years ago

    जीवन से उपजी कविताएं ऐसी ही होती हैं। कविता पढ़ते हुए मैं देख पा रही हूं अपने समय को। अपने भीतर झांक पा रही हूं। ये कविताएं मनुष्यता की तरफ ले जाती है। ये बताती है मनुष्य होना सबसे बड़ी सार्थकता है। गहरे प्रेम और वेदना से उपजी इन कविताओं में जीवन के तमाम रंग हैं। अरुण जी आपका शुक्रिया इन कविताओं से परिचय कराने के लिए। स्वप्निल जी को पढ़ना जैसे खुद से जूझना है। मनुष्यता से प्रेम करना है। ये कविताएं सृष्टि की पीड़ा, यातना और मनुष्य की त्रासदी के प्रति सचेत करती है। प्रकृति के सिम्त की तरह लौटती है।

    Reply
  16. रवि रंजन says:
    3 years ago

    स्वप्निल जी की कविताओं में भाषा की सफाई और अभिव्यक्ति की साफगोई के साथ ही गहरी संवेदनशीलता तथा अपने समय को लेकर ऐसी चिंता व्यक्त होती है जो चिंतन के लिए बाध्य करती है।
    वे कविता में अमूर्तन के बजाय चीजों को उनके सही नाम से पुकारने की कला में सिद्धहस्त हैं ताकि उसमें निहित सन्देश आम पाठक तक सम्प्रेषित हो जाय।
    अभी उनकी ‘मसखरा’ कविता याद आ रही है।
    साधुवाद।

    Reply
  17. Vivek says:
    3 years ago

    आह मज़ा आ गया

    Reply

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