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समालोचन

Home » ऑल्डस हक्सले से कृष्ण बलदेव वैद की बातचीत

ऑल्डस हक्सले से कृष्ण बलदेव वैद की बातचीत

64 वर्ष पूर्व हुई इस बातचीत को पढ़ना केवल एक पाठ नहीं, बल्कि एक अनुभव से गुज़रना है. यह उस समय के युवा भारत की सोच और उसके वैचारिक उड़ान को भी कहीं न कहीं प्रतिबिंबित करती है. लेखक मनोज मोहन इन दिनों सत्तर–अस्सी के दशक की हिंदी पत्रिकाओं के दस्तावेज़ीकरण के कार्य में जुटे हुए हैं. यह बातचीत उसी प्रयास का सुफल है. समालोचन ने इसे आपके लिए विशेष रूप से और अलग ढंग से तैयार किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
September 4, 2025
in बातचीत
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ऑल्डस हक्सले से कृष्ण बलदेव वैद की बातचीत
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ऑल्डस हक्सले से कृष्ण बलदेव वैद की बातचीत

 

ऑल्डस हक्सले (Aldous Huxley) से कृष्ण बलदेव वैद की यह बातचीत कृति पत्रिका के 1961 (सितम्बर–अक्टूबर) अंक में प्रकाशित हुई थी. उस समय तक श्रीकांत वर्मा का भटका मेघ (1957) प्रकाशित हो चुका था और वे नई कविता आंदोलन के एक प्रमुख कवि के रूप में जाने जाने लगे थे. कृति का संपादन उन्होंने 1958 से 1962 तक किया, और इस अल्पावधि में ही यह पत्रिका रचनात्मकता और विमर्श के एक अग्रणी मंच के रूप में स्थापित हो चुकी थी.

1961 में 67 वर्षीय ऑल्डस हक्सले एक बहुआयामी लेखक, दार्शनिक और सामाजिक चिंतक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे. उपन्यासकार के रूप में उन्होंने Brave New World (1932) जैसी कृति से आधुनिक सभ्यता की आलोचना प्रस्तुत की, विज्ञान, तकनीक और उपभोक्तावादी सभ्यता के खतरों का चित्रण किया, निबंधकार के रूप में विज्ञान, कला और संस्कृति पर गहन विवेचन किया, तथा व्याख्याता के रूप में पश्चिम और पूरब की आध्यात्मिक परंपराओं को जोड़ने का प्रयास किया. इस काल तक वे न केवल साहित्यिक जगत में बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक विमर्श में भी एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व बन चुके थे.

उस समय तक 34 वर्षीय कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास उसका बचपन (1951) तथा बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ (1959) प्रकाशित हो चुके थे और वे एक प्रयोगशील उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में स्थापित हो चुके थे. तो यह वह समय था.

आज़ादी को मिले अभी डेढ़ दशक भी नहीं हुए थे और हिंदी के बुद्धिजीवी यह देखने को उत्सुक थे कि भारत की छवि को एक प्रमुख समकालीन विचारक-रचनाकार किस रूप में देखता है. इस बातचीत में रचनाकार ऑल्डस हक्सले की उपस्थिति भी है और भारतीय तथा विश्व साहित्य पर उनके विचार भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं.

64 वर्ष पूर्व हुई इस बातचीत को पढ़ना केवल एक पाठ नहीं, बल्कि एक अनुभव से गुज़रना है. यह उस समय के युवा भारत की सोच और उसके वैचारिक उड़ान को भी कहीं न कहीं प्रतिबिंबित करती है.

लेखक मनोज मोहन इन दिनों सत्तर–अस्सी के दशक की हिंदी पत्रिकाओं के दस्तावेज़ीकरण के कार्य में जुटे हुए हैं. यह बातचीत उसी प्रयास का सुफल है. समालोचन ने इसे आपके लिए विशेष रूप से और अलग ढंग से तैयार किया है. प्रस्तुत है.

 

1-
कृष्ण बलदेव वैद:

मिस्टर हक्सले, क्या यह कहना सही होगा कि कलाकार के रूप में, पिछले अनेक वर्षों से आपका दृष्टिकोण, मुख्यतः धार्मिक रहा है?

ऑल्डस हक्सले:
मैं मुख्यतः तो नहीं कहूँगा. अवश्य ही यह मेरी एक महत्त्वपूर्ण रुचि है मगर और बहुत-सी चीज़ें है, जिनमें मेरी रुचि बहुत ज़्यादा है.

2-
कृष्ण बलदेव वैद:

अब मान लीजिए, मैं आप पर भारतीय चिंतन, अधिक साफ़ शब्दों में हिन्दू धर्म, के प्रभाव की चर्चा करूँ! क्या कोई ऐसी चीज़ है और वह कब और कैसे आरम्भ हुई?

ऑल्डस हक्सले:
मैं समझा नहीं. वस्तुतः आपका प्रश्न क्या है?

3-
कृष्ण बलदेव वैद:
प्रश्न है, हिन्दुत्व ने, यदि हम भारतीय चिंतन और धर्मों के इस पक्ष को दृष्टि में लें, तो आपकी विचारधारा को कहाँ तक प्रभावित किया है?

ऑल्डस हक्सले:
सामान्यतया विचार करें, तो हिन्दुत्व विशेष में तो नहीं, लेकिन पूर्वीय चिंतन के अनेक पक्षों में मेरी गहरी दिलचस्पी रही है. सबसे अधिक दिलचस्पी मेरी, मौलिक भारतीय चिंतन के महायान बुद्ध धर्म में रही है. उत्तर महायान पाठों से मुझे बड़ा संतोष मिला है.

4-
कृष्ण बलदेव वैद:

यह दिलचस्पी कैसे आरम्भ हुई? क्या आप इस पर कुछ कहना चाहेंगे?

ऑल्डस हक्सले:
कुछ समय से वह विकसित होती रही थी. बाद में मैं इस क्षेत्र के अनेक व्यक्तियों से मिला और मैंने पढ़ना और हर विशेषज्ञ से वार्ता करना आरम्भ किया.

5-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आप कुमार स्वामी के सम्पर्क में आये?

ऑल्डस हक्सले:
कुमार स्वामी से मेरी मुलाक़ात कभी नहीं हुई. काश! हुई होती. मैंने उनसे पत्र-व्यवहार किया. निस्सन्देह वह अत्यन्त प्रतिभावान व्यक्ति थे.

6-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आप सामान्यतया पश्चिम पर पूर्वीय चिंतन और धर्म के प्रभाव के विषय में कुछ प्रकाश डालेंगे? गत सात वर्षों में यह प्रभाव कुछ विद्वानों तक सीमित है या उससे व्यापक हुआ है ? क्या वह…

ऑल्डस हक्सले:
मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि वह विद्वानों से आगे बढ़ा है! स्पष्ट है कि विद्वज्जन ही इस क्षेत्र में अगुआ थे. डेढ़ सौ वर्ष पूर्व इस चिंतन में दिलचस्पी लेना किसी के लिए भी संभव न था. अनुवाद ही नहीं थे. ‘भगवद्गीता‘ का प्रथम अनुवाद १७८० में हुआ था, जिसकी भूमिका वारेन हेस्टिंंज ने लिखी थी. सर अर्नेस्ट जोन्स का अनुवाद १९वीं शती के उत्तरार्ध में प्रकाशित हुआ था. और यूरोपीय विश्वविद्यालयों में चीनी भाषा का अध्ययन सर्वप्रथम १८१० में सोरबोन में आरम्भ हुआ था. जब आप १९वीं शती के आरम्भिक काल के लेखकों पर दृष्टिपात करेंगे तो आपको यह बात आश्चर्यजनक प्रतीत होगी; उन्हें कतई अवसर प्राप्त न थे. लेकिन तभी शताब्दी के मध्य से विचारों और अनुभवों का हमारी दुनिया से भी परिचय आरम्भ हुआ. मैं यह अवश्य ही कहना चाहूँगा कि इस शती में अनुवादों की बाढ़ आयी है और लोग इस तमाम सबके अर्थ के प्रति जागरूक हुए हैं. कला के क्षेत्र में भी. जरा सोचिए. १८७० और ८० में चीनी और जापानी चित्रों में कितनी नवीनता नजर आयी होगी. और तभी से इन चीज़ों का पश्चिम के सांस्कृतिक जीवन में प्रवेश आरम्भ हुआ.

7-
कृष्ण बलदेव वैद:
मैं यह जानना चाहता था कि क्या वह समय आ गया है, जबकि इनमें से कुछेक क्लासिक्स अपने साहित्यिक मूल्य के लिए भी पढ़ें जाते हों?

ऑल्डस हक्सले:
मेरा ख़याल है. उदाहरण के लिए, अभी कुछ दिन हुए मुझे पता चला कि भगवत्गीता का प्रभावानन्द और आइशरवुड संस्करण पेपरबैक में ढाई लाख से कुछ अधिक बिका है. अच्छी ख़ासी संख्या है. वास्तविक रुचि जैसी भी चीज़ है. अब जेन में एक फ़ैशनपरस्त दिलचस्पी लोगों की है. मगर साथ ही साथ यह समझ भी है कि जेन कोई बहुत महत्त्वपूर्ण चीज़ है. और अगर अधिक लोकप्रिय धरातल पर विचार किया जाये तो मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि अंतर-विज्ञान तथा कुछ इसी प्रकार के किंचित आधुनिक विद्रोही निकायों को ग़रीब जनता का वेदान्त या महायान कहा जा सकता है. उन्होंने कुछ तत्व लिए हैं और उन्हें कुछ भ्रष्ट भी किया है लेकिन साफ़ नजर आता है कि पूर्व की यह बुनियादी धारणा लोक संस्कृति में काफ़ी गहरे उतर चुकी है. और मैं सोचता हूँ इस दृष्टि से टायनबी का यह कहना ठीक है कि हमारे युग की महान ऐतिहासिक घटना यह होगी कि पश्चिमी सभ्यता की क्रिया अन्य संस्कृतियों पर होगी और उनकी प्रतिक्रिया पश्चिमी सभ्यता पर होगी. धीर-धीर दोनों के समन्वय से एक भिन्न प्रकार का विश्व-विकास होगा.

और मुझे जान पड़ता है कि भविष्य के धर्म को एक ऐसा समन्वय देना पड़ेगा जिसमें वैज्ञानिक धारणा की स्पष्ट स्थान होगा और जहाँ तक धार्मिक पक्ष का सम्बंध है, मैं कहना चाहूँगा, एक रहस-धर्म (रहस्य) की स्थापना होगी- जिसकी असंगति वैज्ञानिक विचारधारा से किसी भी प्रकार नहीं.

8-
कृष्ण बलदेव वैद:

उस क्षेत्र में रहस्यानुभवों और आचारों के वैज्ञानिक आधार के विषय में आपने लोगों के सामने प्रकाश डाला है. क्या आप उस सम्बन्ध में कुछ और कहना चाहेंगे. उदाहरण के लिए आपका प्रयोग मेस्कालीन…

ऑल्डस हक्सले:
जैसे कि विलियम जेम्स के नाइट्रस ऑक्साइड के प्रयोगों के विषय में बर्गसाँ ने लिखा था… बहुत से लोगों का आरोप या कि जेम्स अपनी चेतना के स्तर को  बदलने के लिए रासायनिक साधनों को उपयोग करते हैं. बर्गसाँ ने टू सोर्सिज ऑफ़ रिलीजन एंड इथिक्स में जेम्स का बचाव किया है. वह कहते हैं, समझने की बात है कि मद (ड्रग) इन अनुभवों का प्रयोजन नहीं, वह इन अनुभवों का अवसर है. कुछ खास बाधाएँ दूर कर वह दूसरी प्रकार की चेतना को हमारी सामान्य चेतना में प्रवेशगम्य बना देता है और बाधाएँ अन्य अनेक विधियाँ दूर की जा सकती हैं. वे उपवास द्वारा दूर की जा सकती है, निद्राभाव द्वारा श्वासाभ्यास द्वारा .

मनोवैज्ञानिक केन्द्रीयकरण द्वारा तथा इसी प्रकार यह एक विधि है, जो प्रयोगात्मक ढंग से उन्हें दूर करती है. उन लोगों से असहमत होते हुए, जो यह आग्रह करते हैं कि भिन्न प्रकार रहस्यात्मकताओं में क्रान्तिकारी अन्तर है, मैं यह कहना चाहूँगा कि ऐसा कोई अन्तर नहीं. इस प्रकार के अनुभव के मार्ग की बाधाएँ दूर की जा सकती हैं. वे कुछ अज्ञात कारणों से तत्काल ही दूर हो जाती हैं; मेरा मतलब है ये अजीबो-गरीब तात्कालिक रहस्यानुभव लोगों को होते हैं. मैं नहीं जानता क्यों होते हैं, और कोई भी नहीं जानता. पर उन्हें कई ढंग से दूर किया जा सकता है और जो कुछ साफ़-साफ़ नज़र आता है. वह है एक ही प्रकृति….

9-
कृष्ण बलदेव वैद:

कोई गुणात्मक अन्तर नहीं…?

ऑल्डस हक्सले:
मेरा ख़याल है इसकी सघनता की मात्राओं में अन्तर है लेकिन मैं उन महाशय से सहमत नहीं जिन्होंने मुझपर आक्रमण करते हुए कहा कि एक होता है निरपेक्ष रहस्यवाद और दूसरा दैवी रहस्यवाद. यह मानने के लिए आपको कुछ विशेष प्रकार के धर्म-विज्ञानों में विश्वास करना होगा और मैं नहीं मानता कि दुनिया इस प्रकार के दो वाटरटाइट कम्पार्टमेन्टों में बँटी हुई है.

10-
कृष्ण बलदेव वैद:

मैं नहीं जानता मगर मैं सोचता हूँ, प्राचीन काल में भी, शायद भारत में भी कुछ ऋषि-मुनि गाँजा-भाँग आदि उत्तेजक पदार्थों का सेवन करते थे…

ऑल्डस हक्सले:
अंततः रामकृष्ण यदा-कदा द्रव्य लिया ही करते थे, और अधिकांश प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में सोम का उल्लेख है चाहे वह जो कुछ भी हो. सोम के बारे में बड़ी बहस है लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वह चित्त बदलने वाला द्रव्य था, ख़तरनाक होने के कारण ही वह असंतोषजनक था; यहाँ तक कि अत्यधिक सोम-पान से इन्द्र देव को भी बीमार होना पड़ा तो फिर साधारण लोगों की तो बात ही क्या !

11-
कृष्ण बलदेव वैद:

लेकिन क्या आप सोचते हैं कि योग के कुछ बहुत जटिल और विस्तृत अभ्यासों का पालन कुछ बहुत अर्थ नहीं रखता?

ऑल्डस हक्सले:
मैं सोचता हूँ एक ख़ास स्तर तक योग का पालन काफ़ी अर्थ रखता है. लेकिन मुझे, उदाहरणार्थ आमाशय के स्वभाव में परिवर्तन के लिए सात-सात साल बिताने क्या कोई अर्थ नहीं नज़र आता . लेकिन फिर भी, मैं सोचता हूँ पीड़ा और तनाव पर एक ख़ास मात्रा में नियंत्रण रखने और चक्षु सम्बन्धी अभ्यासों का अच्छा ख़ासा अर्थ है. विशेषकर तांत्रिक ग्रंथों में वृहत्तर चेतना के निर्माण की एक तैयारी के लिए इस प्रकार के बहुमूल्य अभ्यास मिलते हैं. ये सब बहुत मूल्यवान और उपयोगी हैं. हरेक को इनका अभ्यास करना चाहिए. पूर्व में इनका बहुत विकास हुआ है. लेकिन कोई कारण नहीं कि वे पूर्व तक ही सीमित रहें.

12-
कृष्ण बलदेव वैद:

आप ठीक कह रहे हैं. लेकिन यदि इस विषय,  रहस्यानुभव — में लक्ष्य एक जैसे ही हैं और उन्हें रसायनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, तो मैं नहीं जानता क्यों यह आग्रह किया जाए कि उन दीर्घावधि और जटिल…

ऑल्डस हक्सले:
नहीं, मैं उन अत्यधिक दीर्घावधि उपायों में कोई अर्थ है मगर में यह ज़रूर सोचता हूँ कि हर आदमी को स्वतः चालित नर्वस सिस्टम पर एक ख़ास मात्रा में नियंत्रण करना अवश्य सिखाया जाना चाहिए. मेरा मतलब है बहुत से लोग अपने स्वतः चालित नर्वस सिस्टम के शिकार हैं. रसायन विज्ञान ने हर दिशा में भयंकर प्राप्ति की है पर उन गड़बड़ियों में नहीं जो असंतुलित स्वतः चालित नर्वस सिस्टम से उत्पन्न होती हैं. जहाँ तक मैं जानता हूँ, कुछ नियंत्रण प्राप्त करने ने लिए ये एकमात्र विधिवत उपाय हैं और जैसा कि मैंने कहा मुझे उस छोर तक ले जाने का कोई अर्थ नज़र नहीं आता, जिस तक भारतीय योगी ले गये थे. लेकिन मैं सोचता हूँ इन विधियों पर विचार करने और यह पता चलाने की बड़ी ज़रूरत है कि बच्चों के प्रशिक्षण और सामान्य स्व-स्वास्थ्य में किन सहज और प्रभावशाली विधियों को शामिल किया जा सकता है.

13-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आपने कोएसलर के लेख— “योग अनएक्सपर्गेटेड” और “दि स्टिंक ऑफ़ जेन”—देखे हैं?

ऑल्डस हक्सले:
नहीं. मैंने नहीं पढ़ा है. उन्होंने उन तमाम पर आक्रमण किया है, न?

14-
कृष्ण बलदेव वैद:

नहीं, आक्रमण तो नहीं, लेकिन चीज़ों को इस तरह पेश किया गया है… कि यदि यह सही है, तो वे सब सचमुच ही बहुत हास्यास्पद हैं. उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इसमें कोई पूर्वग्रह नहीं और यह वैज्ञानिक है. पर निश्चय ही इस बारे में भ्रम (भटकाव) है. मैं नहीं जानता उनके स्रोत (सूत्र) कहाँ तक विश्वसनीय हैं क्योंकि भारतीय व्यवहारों व सिद्धान्तों में हर चीज़ के लिए कुछ न कुछ सामग्री जुट जाती है, पर कोएस्लर का समग्र प्रभाव इतना हास्यास्पद जान पड़ता है कि वह अविश्वसनीय लगने लगता है.

ऑल्डस हक्सले:
ख़ैर, इस बात में कुछ भी हास्यास्पद नहीं है कि महानतम् चीनी और जापानी चित्र असंदिग्ध रूप से जेन व्यवहार व नियमों से प्रेरित है. किसी भी चीज़ की सच्चाई अनुभव से प्रमाणित होती है.

…यदि ये सब चीज़ें जेन से प्रोत्साहित चेतना और वैसे हर दृष्टिकोण से पैदा हुई तो वे बहुत महत्त्व की चीज़ें हैं. यह मानने के काफ़ी कारण हैं कि इन तरीक़ों से, जिनको मैं बहुत महत्त्व देता हूँ, एक तरह की स्थिरता व शान्ति प्राप्त की जा सकती है.

१५-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आपका कभी श्री अरविन्द से सम्पर्क रहा है?

ऑल्डस हक्सले:
नहीं, मैं उनसे कभी नहीं मिला.

16-
कृष्ण बलदेव वैद:

महर्षि रमण ?

ऑल्डस हक्सले:
नहीं, दुर्भाग्यवश मैं दोनों से ही कभी नहीं मिल सका.

17-
कृष्ण बलदेव वैद:

आइये, हम साहित्य को लौटें. आपने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखा है पर मुख्यतया आप अपने को उपन्यासकार, निबन्धकार और विचारक, इन तीनों में से क्या कहलाना पसन्द करेंगे ?

ऑल्डस हक्सले:
मेरा ख़याल है कि मेरी मुख्य प्रतिभा निबंध लेखन में है पर मैं यह नहीं जानता कि मेरे उपन्यास कैसे हैं. उपन्यास की विधा में मुझे काफ़ी दिलचस्पी है.

18-
कृष्ण बलदेव वैद:

उपन्यास?

ऑल्डस हक्सले:
उपन्यास मुझे बहुत रुचता है, पर मैं यह जानता हूँ कि कुछ इस तरह के उपन्यास हैं जिन्हें लिखना मेरे लिए बिल्कुल असंभव है. मेरा मतलब तालस्ताय और दोस्तोवस्की के विशालकाय उपन्यासों से है. ऐसे उपन्यास लिखना मेरे बस की बात नहीं है.

19-
कृष्ण बलदेव वैद:

आपने चरित्रों के सम्बन्ध में कुछ दिक्क़त अनुभव करने की बात कही है. ‘पेरिस रिव्यू’ में छपी आपकी हाल की भेंट का जिक्र कर रहा हूँ. क्या यह उपन्यास के निर्माण और उसके सृजन में भी बाधक बनता है.

ऑल्डस हक्सले:
भेंट के अनुसार मैंने क्या कहा था, मैं यह भूल गया हूँ.

20-
कृष्ण बलदेव वैद:

चरित्राकंन (कैरेक्टराइजेशन) के बारे में आपने कहा था कि आप जन्मजात उपन्यासकार नहीं है और इस बात को आपने विस्तार से स्पष्ट करने की कोशिश की….

ऑल्डस हक्सले:
मेरे ख़याल में मैं शायद जन्म-जात उपन्यासकार नहीं हूँ, पर यदि मैं दूसरी तरफ़ भटकने को छोड़कर इसी पर जमा रहता तो मैं इसमें अधिक दक्ष (बेहतर) हुआ होता. पर मेरे ख़याल में जन्मजात उपन्यासकार होते हैं,  ऐसे लोग होते हैं जिनमें कहानी कहने की विलक्षण प्रतिभा होती है, पैनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि होती है, विभिन्न तरह के लोगों (चरित्रों) में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ने की प्रतिभा होती है. मेरे ख़याल में ये सब गुण मुझमें बहुत नहीं हैं. हाँ, एक हद तक मैं कुछ कर सकता हूँ, पर जैसा कि पहले मैंने कहा कि कुछ इस तरह के उपन्यास है जिनको लिखने का मैं प्रयत्न भी नहीं कर सकता.

21-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या ‘निबन्ध तत्व’ (ये आपके ही शब्द है) आपके उपन्यासों में अवरोध पैदा करता है?

ऑल्डस हक्सले:
यह समस्या हरदम रहती है, कथानक और व्याख्यात्मक विवरण के बीच संतुलन क़ायम रखने की यह समस्या बनी ही रहती है. व्याख्यात्मक विवरण देने (या करते) की चाह होती है. पर व्याख्यानों को ठोस बनाने के लिए उनका समर्थन करने के लिए चरित्रों को जैसा आवश्यक हो वैसा उभारना होता है. लिहाजा व्याख्यात्मक विवरण बहुत अधिक (भारी) लगने लगता है.

22-
कृष्ण बलदेव वैद:

कहा जाता है कि आप कथानक के रूप-गठन की समस्याओं के बारे में नहीं सोचते. क्या यह सही है कि उदाहरण के लिए, आपने संगीत के साथ भी प्रयोग किया है…

ऑल्डस हक्सले:
मुझे कथानक के रूप-गठन के प्रश्नों में बहुत दिलचस्पी है. प्वाइंट काउंटरप्वाइंट एक तरह का था, ब्रेव न्यू वर्ल्ड दूसरी तरह का था. और आईलैश इन गाज़ा एकदम दूसरी ही तरह का था. मेरे कहने का मतलब यह है कि रूप-गठन की समस्याएँ मुझे बहुत आकृष्ट करती हैं.

23-
कृष्ण बलदेव वैद:

पर यदि रूप-गठन (विधि) की समस्या को जिस हद तक हेनरी जेम्स ने उठाया उस हद तक लिया जाये तब ? आपको क्या कभी जेम्म में बहुत दिलचस्पी नहीं हुई, या कभी जेम्स के प्रति उत्साह नहीं हुआ?

ऑल्डस हक्सले:
नहीं! मुझे जेम्स में कभी बहुत दिलचस्पी नहीं हुई. जेम्स के प्रति लोगों के अति उत्साह को देखकर मैं हरदम थोड़े बहुत आश्चर्य में पड़ जाता हूँ.

24-
कृष्ण बलदेव वैद:

ज्वायस के बारे में आपकी क्या राय है ?

ऑल्डस हक्सले:
हाँ, मुझे यूलिसिज के कुछ अंश बहुत ही दिलचस्प लगे. पुस्तक कुछ स्टैटिक लगती है पर निश्चय ही यह एक विशिष्ट पुस्तक है. बाद की चीज़ों के बारे में मैं नहीं जानता . ज्वायस एक डेड एण्ड (अन्धी गली) की खोज व परख करता दीखता है. आम भाषा में इस तरह की दूरी (दुरूहता) पर पहुँचने पर मैं नहीं जानता कि वह चीज़ क्या है जो इस प्रकार के लेखन (कम्यूनिकेशन) में पैदा हो जाती है कि यह महसूस होने लगता है कि आख़िर दूसरी चीज़ों के साथ प्रेषण भी कला है.

25-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या यह भी एक वैसी बात है जिसे आपने अपने एक लेख में स्पष्टता के प्रति उदासीनता (स्पष्टता से बचना) कहा है. महान स्पष्टता घोर लघु स्पष्टता.

ऑल्डस हक्सले:
जहाँ तक ज्वायस का सवाल है, यह उसके लिए बिल्कुल स्वाभाविक था. भाषा के प्रति उसकी अनुभूति जादुई यंत्र की तरह की थी. मैंने ज्वायस को बिलकुल वैसे  नहीं जाना. मैं उससे बहुत कम मिला पर यह मैं देख सका कि भाषा के प्रति उसका इस तरह का जादुई दृष्टिकोण (मैजिकल एप्रोच) है. भाषा उसके लिए बहुत बड़े आकर्षण (जिसके आगे बस न चले) सरीखी थी और वह लगभग एक मध्य शताब्दी के व्यक्ति की तरह यह अनुभव करता था कि भाषा में एक स्वाभाविक शक्ति है. उसमें अप्रकट शब्दों के साथ खेलने और उनसे जादुई आकर्षण पैदा करने की  प्रवृत्ति थी. मेरे खयाल में इसमें कुछ भी आरोपित नहीं था. यह तरीक़ा उसके लिए स्वाभाविक था (उसको सहजता से उपलब्ध होता था) निस्सन्देह उसने अपनी यह शक्ति जहाँ तक संभव हो सही विकसित की, पर यह एक ऐसी शक्ति थी जो उसके पास बिना किसी प्रयत्न के अपने आप आयी.
मैं इस बारे में बिल्कुल निश्चित हूँ कि यह किसी भी तरह कृत्रिम या अपरिपक्व न थी.

26-
कृष्ण बलदेव वैद
:
इससे एक और प्रश्न उठता है. क्या आपके ख़याल में एकदम सामयिक उपन्यासकार,  हमारे समय का उपन्यासकार, तालस्ताय या अंग्रेजी उपन्यासकारों में डिकेन्स की तरह की तकनीक अपनाकर एक महान उपन्यास लिख सकता है?

ऑल्डस हक्सले:
यह बहुत अजीब बात है कि यह संभव नहीं है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह प्रायः असंभव है कि उस तरह से लिखा जाये. अतीत में जिस तरह उपन्यास शुरू होते थे उस तरह हम आज उपन्यास शुरू नहीं कर सकते. वह १८…की एक धूप भरी सुहानी सुबह थी और एक घुँघराले बालों वाला युवक लचकीले क़दमों से बढ़ रहा था.  अब इस तरह उपन्यास शुरू नहीं किया जा सकता, यह दुख की बात है कि ऐसा सम्भव नहीं है. क्योंकि यह चीज़ों का बहुत अधिक आसान (Simplification) बना देता है.

27-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या यह केवल कोई व्यक्तिगत अक्षमता है या कुछ और?

ऑल्डस हक्सले:
मेरा ख़याल है कि कलाकारों की हर पीढ़ी यह सोचती है कि वह, अपने से पहले वाली पीढ़ी ने जो बहुत अच्छी तरह किया, उसे नहीं कर सकती. मेरा मतलब यह है कि यदि उन्होंने बहुत अच्छी तरह किया तो आपको कुछ और शुरू करना होगा.

२८-
कृष्ण बलदेव वैद:

इसके बाद भी हमें उन चीजों में आनन्द आता है.

ऑल्डस हक्सले:
हाँ, हमें आनन्द आता है. मेरे ख़याल में यह दुख की बात है कि अब उन सहज व सीधे तरीक़ों को काम में लाने के प्रति एक निषेध भरा भय पैदा हो गया है यद्यपि कमोबेश उन तरीक़ों से आज भी काफ़ी पूर्ण व संगत उपन्यास लिखे जा सकते हैं.

29-
कृष्ण बलदेव वैद:

यदि आप चाहें तो अब मैं एक बहुत ही अलग विषय पर आना चाहूँगा. आपने अमरीका में रहने का बहुत पहले निर्णय किया. मैं यह जानना चाहूँगा कि आपने ऐसा क्यों किया? क्या यह निर्णय केवल व्यक्तिगत कारणों के आधार पर किया गया ?

ऑल्डस हक्सले:
अच्छा, यह बहुत ही आकस्मिक था. मैं अमरीका से गुज़र रहा था, मेरी पहली पत्नी और मैं न्यू मेक्सिको में फ्रेडा लारेंस के साथ ठहरे थे और मैं केलिर्फोनिया चला आया. मेरा इरादा पूर्व की ओर जाने का था पर तभी मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला जो मेरी आँखों के बारे में सहायता कर सकता था. मेरी आँखे बहुत बिगड़ रही थीं और मैं रुक गया (आँखें ठीक करने का अभ्यास करने). तभी युद्ध छिड़ गया और मेरी पहली पत्नी को सूखी जलवायु के लिए रेगिस्तान में जाकर रहना पड़ा. इसके बाद निश्छलता या जड़ता की शक्ति थी. मुझे केलिफोर्निया की जलवायु बहुत पसन्द है. यह मेरे माफ़िक पड़ती है.

30-
कृष्ण बलदेव वैद:

मैं सोच रहा था कि इतने दिन अमरीका में रहने से क्या आप अपने को अंग्रेज़ी साहित्य व वातावरण से कुछ कटा हुआ (असम्पृक्त) अनुभव नहीं करते?

ऑल्डस हक्सले:
मैं ऐसा सोचता हूँ. मुझे दुःख है कि मैं उतना समकालीन साहित्य नहीं पढ़ पाता जितना कि मुझे पढ़ना चाहिए, क्योंकि पढ़ने में मुझे दिक्क़त (आँखों की) होती है. लिहाज़ा मुझे अपने को जो आवश्यक है उसी को पढ़ने तक सीमित रखना पड़ता है. मैं किसी भी भाषा में उपन्यासों का अपनी चाहत का दसवाँ हिस्सा भी नहीं पढ़ पाता. मैं ऐसा नहीं कर पाता इसलिए सामयिक कहानी, उपन्यास-साहित्य के बारे में बहुत नहीं जानता.

३१-
कृष्ण बलदेव वैद:

यहाँ रह कर क्या आपका साहित्यिक-धाराओं से निकट सम्पर्क बना हुआ है या आप कमोबेश इनसे असम्पृक्त या अलग हैं?

ऑल्डस हक्सले:
मैं साहित्यिक-धाराओं के निकट सम्पर्क में नहीं रहा हूँ. मैं वैज्ञानिकों के अधिक सम्पर्क में रहा हूँ क्योंकि विज्ञान मुझे बहुत दिलचस्प लगता है.

३२-
कृष्ण बलदेव वैद:

आप भारत कितनी बार गये हैं?

ऑल्डस हक्सले:
केवल एक बार.

३३-
कृष्ण बलदेव वैद:

इसी पर आपकी यात्रा पुस्तक निकली?

ऑल्डस हक्सले:
हाँ.

३४-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आपने फॉरेस्टर की तरह भारतीय पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने की बात सोची?

ऑल्डस हक्सले:
मैं भारत के बारे में बहुत कुछ नहीं जानता. फॉरेस्टर भारत में काफ़ी दिन रहे थे, ठीक है न?

३५-
कृष्ण बलदेव वैद:

फॉरेस्टर दो वर्ष भारत में रहे थे.

ऑल्डस हक्सले:
मैं
तो केवल कुछ महीनों ही रहा. फॉरेस्टर ने भारत को एकदम पूर्ण रूप से नहीं तो काफ़ी ठीक ढंग से जाना.

३६-
कृष्ण बलदेव वैद:
ए पैसेज टु इण्डिया
के बारे में आपकी क्या राय है?

ऑल्डस हक्सले:
मैंने इसे ५-६ साल पहले फिर पढ़ा था और यह मुझे बहुत पसन्द आया.

३७-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आप सोचते हैं कि पूर्व के प्रति यह दिलचस्पी बढ़कर (उन्नत होकर) पुरानी संस्कृतियों तक पहुँचकर समकालीन संस्कृतियों में भी आएगी? यह एक बेवकूफी भरा सवाल है पर मेरा मतलब है क्या लोग…

ऑल्डस हक्सले:
यह सामयिक प्रतीयमानों (मैनिफेस्टेशन्स)  में क्या है. इस पर पूरी तरह निर्भर करता है. यदि वे दिलचस्प हैं तो निश्चय ही आदान-प्रदान होगा. मैं यह फिर कह दूँ कि मैं इस सम्बन्ध में बहुत कम जानता हूँ. मैंने केवल एक या दो समकालीन भारतीय उपन्यास पढ़े हैं जो काफ़ी दिलचस्प थे.

३८-
कृष्ण बलदेव वैद:
आपने पढ़े हैं? कौन से ?

ऑल्डस हक्सले:
आर.के. नारायण के कुछ और एक मर्मस्पर्शी उपन्यास Nectar in a Sieve.

३९-
कृष्ण बलदेव वैद:

कमला मार्कण्डेय का .

ऑल्डस हक्सले:
हाँ, मैंने और एक दो पढ़े हैं.

४०-
कृष्ण बलदेव वैद:

मैं सीधे अंग्रेजी में लिखे गये उपन्यासों की बात नहीं सोच रहा था. अंग्रेजी में लिखे गये कुछ उपन्यास हैं— पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखे गये उपन्यासों के बारे में सोच रहा था. क्या उनका कुछ योग्य पेशेवर अनुवादकों द्वारा अनुवाद उपलब्ध करने की कोशिश हो रही है?

ऑल्डस हक्सले:
इस बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता. क्या उनका अनुवाद हुआ है?

४१-
कृष्ण बलदेव वैद:

नहीं? लगभग नहीं. कुछ लोगों ने इधर-उधर अनुवाद किये हैं ? उदाहरण के लिए..

ऑल्डस हक्सले:
क्या बंगला में अभी कुछ अच्छे उपन्यास हैं?

४२-
कृष्ण बलदेव वैद:

हिन्दुस्तानी लेखकों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे गये उपन्यासों से निश्चय ही कहीं अधिक हैं और निश्चय ही वे अच्छे उपन्यास हैं. सत्यजीत राय की फ़िल्मों वाला उपन्यास अंग्रेज़ी में हिन्दुस्तानी लेखकों द्वारा लिखे गये उपन्यासों से कहीं अधिक अच्छा है. बंगला के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में भी मेरे ख़याल में कई कहानियाँ और कुछ उपन्यास हैं जो निश्चय ही भिन्न है, बेहतर है. हाँ, यह मेरी अपनी निजी राय है.

ऑल्डस हक्सले:
पर अनुवाद की समस्या बहुत बड़ी है. एक किताब के बहुत अच्छी होने के बावजूद (यदि वह बहुत दूरवर्ती विषय पर हो) अनुवाद की समस्या विकट है. उदाहरण के लिए ब्राजील में कुछ बहुत ही अच्छी चीज़ें लिखी जा रही हैं पर उनकी पृष्ठभूमि और विषय-वस्तु अंगरेज या उत्तरी अमरीकी वातावरण से इतनी दूर है कि उनका अनुवाद किसी तरह जमता नहीं.

मतादो यासीसी लगभग एक अन्तरराष्ट्रीय उपन्यासकार हैं और उसके उपन्यासों का अनुवाद संभव है पर मेरे ख़याल में किसी विशेष संस्कृति में कई ऐसी किताबें होंगी जो अपनी संस्कृति के भीतर (दायरे में) बहुत अच्छी होंगी पर वे अपनी विषय-वस्तु के कारण दूसरी जगहों के लोगों के लिए इतनी विदेशी होंगी कि उनमें दिलचस्पी लेना कठिन होगा. यह एक बहुत गम्भीर समस्या है यह प्रेषण का एक बुनियादी प्रश्न है.

४३-
कृष्ण बलदेव वैद:

यह सही है. पर क्या १९ वीं सदी के रूसी उपन्यासों को अंग्रेजी में पढ़ते वक़्त इसी तरह की अनुभूति नहीं होती. पर इसके बावजूद बहुत कुछ जमता है, ग्राह्य होता है.

ऑल्डस हक्सले:
हाँ ! बहुत कुछ!

44-
कृष्ण बलदेव वैद:

यदि एक रूसी फ्रेंच या अंग्रेज़ी में (बहुत से रूसी फ्रेंच जानते थे) लिखता तो इससे अधिक ग्राह्य नहीं होता.

ऑल्डस हक्सले:
हाँ.

४५-
कृष्ण बलदेव वैद:

मेरी राय में यदि एक बार ये अड़चनें दूर हो जाएँ तो भी गुणात्मक अन्तर बहुत बड़ा है. विषयवस्तु की बहुत दूरी के बावजूद यूनिवरसेलिटी अधिक बड़ी चीज़ होती है.

ऑल्डस हक्सले:
हाँ, ठीक है. पर यह भी याद रखना चाहिए कि १9 वीं सदी के रूस के जिन महान उपन्यासकारों को हम पढ़ते हैं वे विशालकाय थे, बिलकुल महाकाय थे. वे आज तक किसी भाषा में लिखने वाले महान से महान उपन्यासकारों की तुलना में अधिक महान और अच्छे थे मेरा मतलब… तालस्ताय और दास्तोवस्की.

४६-
कृष्ण बलदेव वैद:

मिस्टर हक्सले, आप जब चाहें मुझे रोक सकते हैं, अब शायद इस बातचीत को समाप्त होने को १-२ मिनट रह गये हैं. मुझे परम्परा के बारे में एक और प्रश्न पूछना है. परम्परा जिससे कुमारस्वामी का आशय था. ट्रैडिशन विथ कैपिटल टी.

ऑल्डस हक्सले:
कैपिटल ‘टी’, हाँ!

४७-
कृष्ण बलदेव वैद:

भारत जैसे देश में जीवन, विचार और काम करने के परम्परागत तरीक़ों को क़ायम रखना किस हद तक संभव है जब कि वहाँ .’…

ऑल्डस हक्सले:
मैं कुमारस्वामी का आशय समझ नहीं पाया हूँ. ऐसा लगता है कि ट्रेडिशन विथ कैपिटल टी से उनका भाव यह था कि ‘ट्रूथ (सत्य) विद कैपिटल टी सुदूर अतीत में प्रकट हुआ और अब हमें उस सत्य से जुड़े रहना है. पर मेरा इस बात में विश्वास नहीं. मेरी राय है कि सभी युगों में लोगों की पैनी अन्तर्दृष्टि होती है. मेरा ख़याल है हमें अन्तर्दृष्टि मिलती रहती है. कम-से-कम यह मेरा अपना विश्वास है. मुझे ऐसा नहीं लगता कि परम्परा (जिस अर्थ में कुमारस्वामी और रेने गुएनन इसे लेते हैं) कोई ऐसी चीज़ है जो कभी भूल न करे. यह कुछ मामलों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण (लाभप्रद) है पर सबमें नहीं !

४८-
कृष्ण बलदेव वैद:

मैं भारत का ही, जहाँ पुरानी चीज़ें नष्ट हो रही हैं, बदल रही हैं, उदाहरण लेता हूँ. ऐसे भारतीय जो आपकी ही तरह पश्चिमी संस्कृति से असन्तुष्ट हैं, (अमरीका में काफ़ी बुद्धिमान लोगों ने पश्चिमी संस्कृति पर विभिन्न प्रकार का असन्तोष व्यक्त किया है) सोचते हैं कि स्थिति का यह तकाज़ा है कि हम औद्योगीकरण की ओर भी जितनी तेज़ी से बढ़ सकते हैं बढ़ रहे हैं. पूर्व और पश्चिम के समन्वय की अक्सर कही जानेवाली निरर्थक-सी बात के आगे क्या हो सकता है और इस तरह का समन्वय किस प्रकार संभव हो सकता है.

ऑल्डस हक्सले:
मेरी राय में यह केवल व्यक्तिगत मनोविज्ञान की गंभीर परीक्षा और संस्कृति के ऐसे तत्वों की परख से, जो आगे बढ़ सकते हैं, चल सकते हैं, संभव हो सकता है. उदाहरण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तंत्र में बोध, आन्तरिक अनुभूतियों और ऐसी हो चीज़ों पर जो पूरा ज़ोर दिया जाता है वह काम बहुत ही महत्त्व का है. इसी बात को सामयिक चिकित्सकर वैसे गेशटाल्ट (एक समग्र जिसके प्रत्येक अंग का दूसरे अंग पर प्रभाव पड़ता है) जिस सिद्धान्त में विश्वास करने वाले चिकित्सक पुनः महसूस कर रहे हैं, और खोज रहे हैं. मेरी राय में यही अति यंत्रीकरण व अति संगठन के खतरे को शमन करने का सच्चा हल है. इसी तरह के तरीक़ों द्वारा आज पूरी तरह अति संगठन और अति यंत्रीकरण की ओर के ज़बरदस्त सम्मान के आगे व्यक्तिगत मूल्यों की रक्षा की जा सकती है.

जहाँ तक पूर्व का इस दिशा में योगदान है, आख़िरकार जेन ने इस पर बहुत ज़ोर दिया है, तंत्र ने इस पर ज़ोर दिया है. इससे बहुत कुछ सीखने को है और सीखा जा सकता है. समस्या यह है कि जहाँ औद्योगीकरण बहुत आगे बढ़ गया है और भारत जहाँ बढ़ने जा रहा है (शायद बहुत दूर तक नहीं पर काफ़ी दूर तक) वहाँ दोनों जगतों से अधिक सारवान् लाभ कैसे उठाया जाये. किस प्रकार इस तरह के आवश्यक संगठन व यंत्रीकरण के साथ ही एक समृद्ध व मूल्यवान व्यक्तिगत जीवन जिसके लिए परम्परा के विभिन्न पहलुओं ने बहुत कुछ किया है, उपलब्ध हो.

मुझे लगता है कि इस बात पर गम्भीरता से ग़ौर करने की ज़रूरत है जिससे कोई तरीक़ा निकाल कर दोनों संस्कृतियों के मूल्यवान व सारवान पहलुओं को एक व्यक्तिगत ट्रेनिंग (वर्क्ड इन टू इनडिविजुअल ट्रेनिंग) में लाया जा सके. मेरा विश्वास है कि हमारे लिए वैज्ञानिक स्पेशलाइजेशन आवश्यक हैं और साथ ही यह उचित व वांछनीय है कि अनुभूति समृद्ध व्यक्तिगत जीवन हो. यदि पूर्व, पूर्व की परम्परागत संस्कृति और उसके कुछ पहलू अनुभूति समृद्धि व्यक्तिगत जीवन का विकास करने की दिशा में तरीक़े सुझा सकें (व्यवस्था कर सकें) तो बहुत अच्छा है. पर यह ऐसे ही आसानी से, अनायास नहीं हो सकता. यह तभी हो सकता है जब कि हम इसको गंभीरता से देखें और पता लगाएँ कि किस प्रकार अतीत की अंतर्दृष्टि और विधियाँ आधुनिक युग में काम में लायी जा सकती हैं.

४९-
कृष्ण बलदेव वैद:

ऐसा कुछ व्यक्तियों ने किया है. आपके कहने का आशय यह है कि क्या कुछ और वैज्ञानिक संगठन…

ऑल्डस हक्सले:
ठीक है. मेरे ख़याल यहाँ के किसी भी फाउण्डेशन को इस बारे में कुछ करना चाहिए. वह २०-३० लाख डॉलर और ३-४ वर्ष ख़र्च कर (जो इसके लिये कुछ भी नहीं है) कुछ-लोगों मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, धार्मिक व्यक्तियों को इक‌ट्ठा करे जो अतीत में क्यों प्रयोग सिद्ध है, उसे देखें और यह पता लगाएँ कि किस प्रकार उनसे सारवान और ग्राह्य वस्तुओं को श्राधुनिक जीवन में शैक्षणिक विधियों-व्यवस्थाओं में फिट किया जाय. यह स्पष्ट है कि हम शिक्षा में बहुत पैसा, समय, शक्ति व सौहार्द ख़र्च करते हैं पर इसका नतीजा हमारे प्रयत्नों की तुलना में नगण्य है. मेरे खयाल में इसमें निश्चय ही सुधार किया जा सकता है. और सुधार करने का एक तरीक़ा यह है कि पूर्व में परम्परागत रूप में क्या किया गया है और उसमें से क्या हमारी ट्रेनिंग और ‘सेल्फ ट्रेनिंग’ के तरीक़े में लिया जा सकता है, पता चलाया जाए.

50-
कृष्ण बलदेव वैद:

आप जानते हैं कि संघर्ष मौजूदा आर्थिक परिस्थिति की पूरी शक्ति व जाति के साथ आता है. ऐसा नहीं है कि लोग इसे जानते ही नहीं. मेरे ख़याल में अमरीका और पूर्व दोनों ही में ऐसे लोग हैं. वे शायद यह भी जानते हैं कि क्या करना चाहिए. यह बात अलग है कि बहुत स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि उसे क्या करना चाहिए और इसीलिए पूर्व-पश्चिम के बीच समन्वय की यह फैशनेबल धारणा है. जबकि असल जीवन में बात यह है कि यह गत ६० वर्षों की बुनियाद के ही विरुद्ध है.

ऑल्डस हक्सले:
शायद यह हमारी नियति हो कि हमें टेलीविजन के सामने और अधिक बैठे रहना पड़ा. मैं नहीं जानता. मैं शायद कुछ अधिक आशावादी हूँ. आाख़िर एक सीमा तक टेलीविजन अच्छा और लाभप्रद है और यदि लोगों को जब वे युवा हों तब आगे बढ़ना और चीजों के प्रति जागरूक रहना सिखाया जाय तो शायद उनको जीवन में इतनी दिलचस्पी पैदा हो कि वे दिन में आठ घण्टे टेलीविजन देखना पसन्द न करें. यह मेरी आशा है.

५१-
कृष्ण बलदेव वैद:

एक बार फिर रहस्यात्मक व आध्यात्मिक चीज़ों को लौटाता हूँ. कहा जाता है कि आपने कुछ विधियों से, योग या मनोयोग से, जहाँ तक यह केवल चमत्कार नहीं है, आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त किया है. ऐसा होने पर आपके व्यक्तित्व और बाद के कामों पर एक तरह के अनवरत प्रभाव पड़ने की संभावना बनी रहती है. क्या आप यह सोचते हैं कि ऐसी ही उपलब्धि (यदि दावा सच है तो) मेस्कालिन और अन्य दवाओं से संभव है.

ऑल्डस हक्सले:
मैं ऐसे लोगों को जानता हैं जिनका जीवन इससे पूरी तरह बदल गया. इन सब अनुभवों के संदर्भ में कैथोलिक धर्मशास्त्र की ग्रेचुअस ग्रेस वाली बात मुझे काफ़ी लाभप्रद मालूम पड़ती है. ग्रेचुअस ग्रेस एक ऐसा अनुभव है जो मुक्ति के लिए न अनिवार्य है न समुचित. पर यदि इसका ठीक व्यवहार हो तो इसका बहुत महत्त्व है. यह एक वैसी ही चीज़ है. तात्कालिक दिव्यानुभव, जिसका अनुभव बहुत लोगों को हुआ है, आपके लिए बहुमूल्य हो सकता है बशर्ते आप उसके विषय में कुछ करने का निर्णय करते हैं, पर यदि आप उसे विस्मृत करने का निर्णय करते हैं, तो वह आपके लिए बेकार ही है.

इसी प्रकार प्रलम्बित योगाभ्यासों के ये परिणाम लोगों के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं. हमारी अक्सर, ऐसे अनेक लोगों से भेंट होती है, जिन्होंने विशेषकर हठ-योग का काफ़ी अभ्यास किया है, लेकिन जो अन्त में पहले से भी अधिक बेकार लोग सिद्ध होते हैं.  उन्हें इसकी सिद्धि पर इतना गर्व होता है कि वे असह्य हो जाते हैं, उनके अंदर का सबसे बुरा हिस्सा उभर आता है. लेकिन, मेरे ख़याल में इनका भली प्रकार उपयोग कर सकना संभव है. इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इसका उपयोग सदुपयोग हो ही जायेगा. यह हम पर निर्भर करता है. यह ईसाई, और मैं सोचता है,  हिंदू धर्मशास्त्र में इच्छा-शक्ति और दैवी शक्ति का सहयोग कहलाता है,. ‘दैवी’ शब्द का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं लेकिन दैवी प्रकृति की न होने पर भी, इस संदर्भ में शक्ति का कुछ अर्थ होता है. और मैं यह कहूँगा कि यही वह संदर्भ है, जहाँ ये चीज़ें फिट बैठती हैं.

आप तात्कालिक तथा अतिशय रहस्यानुभव कर सकते हैं और उनका कोई उपयोग न करने का निर्णय कर सकते हैं. दूसरी और आपका अनुभव एकमात्र, बल्कि असम्पृक्त हो सकता है… साहित्य में कई बार ऐसा हुआ है कि लोगों को ये तात्कालिक अनुभव हुए हैं या ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उन पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उनका सारा जीवन ही बदल गया; उनका जीवन आलोकित हो उठा है और वे इस अंतदृष्टि द्वारा आलोकित पथ पर चलते रहे हैं. इसकी कोई गारंटी नहीं कि इससे आपका कल्याण होगा. यह पूरी तरह व्यक्ति पर निर्भर करता है. में यह सोचता हूँ कि ईसाई धर्म तथा पूर्वी धर्म, बुद्ध धर्म और हिन्दू धर्म दोनों ही बिलकुल सही बात कहते हैं. यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह प्राप्त ‘शक्ति’ के उपयोग का निर्णय करे, वह शक्ति चाहे जो हो “मेरा मतलब है वह आपके स्व-प्रयत्नों की सीमा से परे आती है, चाहे कहीं से भी आए.

५२-
कृष्ण बलदेव वैद:

मेस्कालिन प्रयोगों के बाद, क्या आपने उसे प्रयोग पक्ष से परे रखना जारी रखा ? क्या उसे जारी रखने का उत्साह आपने अनुभव किया ?

ऑल्डस हक्सले:
इस मन:स्थिति में प्रतिफलन का एक तत्व होता है और उसकी स्मृति काफ़ी तीव्र होती है और उससे कई बातें आपकी समझ में आती है. उदाहरण के लिए मुझे उसके बाद से कला के सन्दर्भ में घार्मिक साहित्य समझ में आने लगा जो कि पहले मैं नहीं समझ सका था. अब मेरा ख़याल है, मैं समझता हूँ..

५३-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या इसका सम्बंध आपके लेखन में से व्यंग्य के, लोप तो नहीं कहूँगा, कम होते जाने का कोई सम्बन्ध है या यह बिलकुल ही सच नहीं कि आपके लेखन में व्यंग्य का तत्व आज पहले की अपेक्षा कम है ?

ऑल्डस हक्सले:
मेरा खयाल है कि में व्यंग्य (सैटायर) के पूरे पक्ष में हूँ. यह ज़रूरी है कि जहाँ तक संभव हो गुब्बारों में सूराख़ करना जारी रखा जाय. पर इसके विपरीत यह अनुपात में कम है. मैं बिलकुल व्यंगकार न रह पाया तो मुझे बहुत दुख होगा. मुझे व्यंग्य में आनन्द आता है और हँसना पसन्द करता हूँ. मैं एक कॉमिक लेखक हो सका तो होना चाहूँगा पर साथ ही मैं एक उदात्त (सबलाइम) लेखक भी. लेकिन मैं शायद दोनों ही एक सीमा तक नहीं हो सकता.

५४-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आप सोचते हैं कि आपने अपनी किसी पुस्तक में उदात्त और व्यंग के बीच संतुलन स्थापित करने में सफलता पायी है?

ऑल्डस हक्सले:
नहीं, नहीं. मैंने कभी कुछ ऐसा नहीं लिखा जिससे मुझे पूरा सन्तोष हो. मैं केवल यही सोचता हूँ कि मेरी कुछ पुस्तकें अन्य पुस्तकों से अच्छी हैं.

५५-
कृष्ण बलदेव वैद:

क्या आपने कभी ट्रैजेडी (जिस अर्थ में इसे समझा जाता है) लिखना नहीं चाहा क्योंकि…

ऑल्डस हक्सले::
नहीं, क्योंकि इस तरह का एक घेरा, एकतरफ़ा रुख, जो ट्रॅजेडी में बहुत कुछ पाया जाता है, मुझे पसन्द नहीं है. मैं सोफोक्लिय और स्काइलस से अधिक होमरिक दृष्टिकोण जैसा विराट् अंतःस्वप्न पसन्द करता हूँ.

५६-
कृष्ण बलदेव वैद:

धन्यवाद मिस्टर हक्सले ! मुझे भय है इंटरव्यू कुछ लम्बा हो गया.

ऑल्डस हक्सले:
उम्मीद है टेप पर भी यह ठीक-ठीक आया है.

५७-
कृष्ण बलदेव वैद:

मेरा ख़याल है. लेकिन मैं देख लूँगा.

आभार सहित : कृति / संपादक: श्रीकांत वर्मा तथा कांता / अंक : सितम्बर -अक्टूबर १९६१: वर्ष ३-४: अंक १२ १

 

मनोज मोहन वरिष्ठ पत्रकार व लेखक. वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमानः समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक.

इन दिनों सीएसडीएस की आर्काइव परियोजना के अंतर्गत आज़ादी से दशक भर पहले से लेकर सातवें-आठवें दशक की हिंदी पत्रिकाओं के आलेखों, कविताओं और कहानियों के दस्तावेज़ीकरण जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं.
manojmohan2828@gmail.com

Tags: 2025ऑल्डस हक्सलेकृतिकृष्ण बलदेव वैदमनोज मोहन
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Comments 5

  1. महेश मिश्र says:
    2 months ago

    शानदार के आस पास का साक्षात्कार है!

    Reply
  2. तेजी ग्रोवर says:
    2 months ago

    मनोज मोहन बढिया काम कर रहे हैं। इस बातचीत को हिंदी पाठको के लिए उपलब्ध करवाने के लिए उनका तहे दिल से शुक्रिया।

    यह ज़ाहिर है कि वैद ने huxley से बातचीत से पूर्व काफ़ी तैयारी की है। वे बातचीत को बार बार उन्हीं विषयों की ओर मोड़ रहे लगते हैं जिनमें उनकी विशेष रुचि थी। जैसे joyce और james। उन्होंने पीएचडी के लिए भी Henry James को ही चुना। शायद युवा वैद को किंचित निराशा का सामना करना पड़ा जब huxley ने इन दोनों उपन्यासकारों को लेकर कोई खास रुचि नहीं दिखाई।

    वैद की उम्र में mescalin जैसे पदार्थ को लेकर हक्सले के एक्सपेरिमेंट्स में गहरी रुचि का होना एकदम सहज था। हक्सले के उन एक्सपेरिमेंट्स से बहुत लोग प्रभावित हुए। इस प्रभाव से संचालित बहुतेरे कवि अलौकिक अनुभूति तक इस मार्ग से पहुंचने को लालायित हो उठे।

    यह भी ज़ाहिर है कि वैद तब तक अपने घनघोर एक्सपेरिमेन्टल धरातल तक नहीं पहुंचे थे, और उनके कई प्रश्न ऐसे हैं मानो वे ख़ुद को उस धरातल पर ले जाने के लिए अपने डैने पसार रहे हों।

    इस साक्षात्कार में युवा वैद से अप्रतिम मुलाक़ात भी हुईं। वैद के पाठकों के लिए यह दस्तावेज बहुत महत्वपूर्ण है।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    2 months ago

    ऑल्डस हक्सले और कृष्ण बलदेव वैद का वार्तालाप, वैद के प्रश्नों की झड़ी लगाता है । स्पष्ट है कि प्रोफ़ेसर कृष्ण बलदेव तैयारी [अपने विस्तृत अध्ययन के आधार पर] हक्सले से सवाल करते हैं । मिस्टर हक्सले अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हैं । उदात्त हैं । वैद साहब ने हिन्दुत्व पर विचार जानने की कोशिश की । महसूस हुआ कि कम से कम वर्तमान समय में हिन्दुत्व की आक्रामकता तब वैचारिक स्तर पर हुई हो लेकिन वर्तमान से रू-ब-रू नहीं रही होगी ।
    सावरकर ने नये विचार का जन्म सनातन की उदारता को क्षीण करने के लिए किया ।
    लेकिन हक्सले साहब गीता का संदर्भ देना माक़ूल समझते हैं । अध्यात्म और रहस्यवाद में फ़र्क़ को समझाना चाहते हैं । स्वीकार करते हैं कि वे कुशल उपन्यासकार नहीं हो सके । साथ ही उपन्यासकारों के विस्तृत ज्ञान की तारीफ़ करते हैं । व्यंग्यकार होना बहादुरी है । मेरी नज़र में यह गुण जन्मजात होता है ।
    वार्तालाप में अध्यात्म का विस्तार नहीं हो सका । ऑल्डस स्वीकारते हैं कि वे योगी अरविंद और महर्षि रमण के संपर्क में नहीं आए । साफ़गोई क़ाबिल-ए-तारीफ़ है ।
    मुझसे आज का अंक आज ही पढ़ा जा सका । ख़ुश हूँ । प्रोफेसर अरुण जी, निश्चित रूप से आप योग विद्या में निष्णात हैं ।

    Reply
  4. Jyoti Shobha says:
    2 months ago

    पूरी बातचित बहुत बढ़िया है। वैद के प्रश्नों में ठोस ज़मीन दिखती है और हक्सले के जवाबों की साफ़गोई सुन्दर है. खासकर विज्ञान, मनोविज्ञान और योग में सेल्फ ट्रेनिंग के संदर्भ में उनकी दृष्टि साफ है। पूर्वी देशों का रहस्यवाद और अध्यात्म के संबध में बातें बनती बिगड़ती सी लगी जिसमें ज़ेन परम्परा की तरफ़ हक्सले का झुकाव अनोखा लगा । हक्सले उपन्यासकार से अलग एक समावेशी ( प्राचीन और आधुनिक को लेकर चलने वाली) चेतना की रौशनी में देखे जा सकते हैं। योग और उसके नियमन की तरफ वैद के झुकाव का पहलू भी नया है यहाँ। और भी कई बातें हैं जिसने लय को टूटने नहीं दिया। रोचक लेख के लिए धन्यवाद।

    Reply
  5. Arun Maheshwari says:
    1 month ago

    ऑल्डस के साथ कृष्ण बलदेव वैद के इस साक्षात्कार से दोनों की ही प्रमुख चिंताओं का अनुमान मिलता है । विज्ञान के लिए रहस्य उसकी अतृप्त वासना की भूमिका अदा करता है । यदि रहस्यों को भेदने का लक्ष्य हो तो विज्ञान ही ठहर जायेगा । लकानियन भाषा में यह प्रमाता का आब्जेक्ट पेतित-ए है; कभी न पूरी होने वाली लालसा जो प्रमाता को मरीचिका की तरह खींचती रहती है । यह उसके जुएसॉंस का, उल्लासोद्वेलन और हमारे अभिनवगुप्त की भाषा में आमोद विसर्ग का स्रोत होता है । ऑल्डस ने भारत के तंत्र और चीन-जापान के जेन के महत्व की ओर सही ध्यान खींचा है । कृष्ण जी इस आत्मानुभूति की साधना में मादक द्रव्यों की उपयोगिता के बारे में हक्सले से जानना चाहते थे । तंत्र में पंच मकार का प्रयोग रहस्यानुभूति के मार्ग के अवरोधों को हटाने के लिए करने के अतिचार के रूप में होता रहा है जिसकी अनुपादेयता को हक्सले ने सही पहचाना है ।
    बहरहाल, इस साक्षात्कार का सबसे महत्वपूर्ण अंश उपन्यासों के शास्त्रीय विन्यास से लेकर जेम्स जॉयस के अद्भुत और नैसर्गिक भाषाई प्रयोगों के आकर्षण के बारे हैं । जॉक लकान ने जॉयस की इसी नैसर्गिकता को व्याख्यायित करते हुए सिंथोम की अपनी पूरी अवधारणा को विकसित किया था । प्रमाता के symptoms में उसकी स्वयं के बारे में फैंटेसी का योग होता है । इस सचाई को व्यक्त करने के लिए ही उन्होंने एक सर्वथा नई sinthome की अवधारणा पेश की । हक्सले जॉयस की इसी नैसर्गिकता पर मुग्ध है जैसा कि पूरा अंग्रेज़ी साहित्य जगत है । लकान ने इस बारे में जिस महत्त्वपूर्ण बात की खोज की, वह यह कि जॉयस अपने इन चमत्कारपूर्ण ध्वन्यात्मक भाषाई प्रयोगों से जुड़ी अपनी गुत्थी से पूरी तरह वाक़िफ़ थे और इसीलिए वे यह सचेत रूप से मानते थे कि जब तक अकादमिक जगत का यह विश्वविद्यालयी तंत्र कायम रहेगा, वह उनके लेखन की ध्वनियों के रहस्य में खोया रहेगा, उसी में सिर खपाता रहेगा ।
    इस दिलचस्प साक्षात्कार के प्रकाशन के लिए बहुत धन्यवाद ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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