दण्डकारण्यतरुण भटनागर
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दूर जंगलों के एक अस्पताल की मर्चरी.
मर्चरी में घुसने से पहले डॉक्टर जे. जोसेफ ऊपर लिखे बोर्ड को देखते हैं. अंगरेजी में लिखा है- पोस्टमार्टम रुम, हिंदी में-शव विच्छेदन कक्ष.
कमरे में ठीक सामने टेबिल पर एक लाश पडी है. सफेद कपडों में लिपटी. डॉक्टर जोसेफ ने पहले प्लास्टिक के दस्ताने पहने फिर मुँह पर एक हरी पट्टी बाँधी. डॉक्टर जोसेफ का पूरा चेहरा ढंका है. चेहरे पर सिर्फ दो आँखें दीखती हैं. ऐसे वक़्त में वे आँखों से ही बातें करते हैं. पोस्टमार्टम रुम वाला स्वीपर उनकी आँखों के इशारे को पढकर आगे का काम करता है.
उन्होंने अभी-अभी लाश के साथ आये कागजों को उलट पलटकर देखा है.
उम्र- लगभग अठाईस साल. मजहब – मुसलमान.
नाम – अब तक पता नहीं.
स्वीपर लाश को फाडने के लिए खंजरों की धार की पडताल कर रहा है. उसने सुबह ही औज़ार तैय्यार कर लिये थे. वह ख़ंजरों को तेज़ धार रखता है. कभी-कभी पुरानी लाशों में ख़ाल इस तरह माँस पर चिपक जाती है कि उसे माँस से अलग काटना मुश्किल हो जाता है. इसलिए ख़ंजरों की धार तेज रखना जरुरी है. कुछ लाशें इतनी नाज़ुक हो जाती हैं कि खंजर की तेज़ धार भी कुछ नहीं कर पाती. चलती धार पर ख़ाल, माँस, हड्डी सब कटता जाता है. वह हथौडी और छेनी को परख लेता है. ये खोपडी को खोलने के काम आती हैं. माथे के ठीक बीच हड्डी में एक जोड होता है, उस पर छेनी रख हथौडी मारने पर माथा खुलता जाता है. वह सूजे की नोक और धागे की मजबूती पर तसल्ली होने पर ही यकीन कर पाता है. अगर लाश ही साथ न दे तो दीगर बात है, वर्ना उसका सारा सामान चाक चैबंद रहता ही है.
वह इतना परफेक्ट है कि डॉक्टर के कहने पर विसरे के लिए लाश की आँत, पेट, गले की नली, एक तरफ का पूरा फेफडा या कोई और भी अंग काटकर बाटल में कैमिकल में डालकर सुरक्षित रख देता है. उसने सुबह ही इस लाश पर निशानात बना दिये थे. गर्दन के नीचे से छाती के नीचे तक और माथे पर एक लकीर खींच दी थी. इसी लकीर पर से उस लाश को फ़ाडा जाना था. डॉक्टर जोसेफ रोज पोस्टमार्टम करते हैं. कहीं कोई नई बात नहीं है.
स्वीपर लाश के ऊपर बने निशानों पर धारदार खंजर रखता जा रहा है.
डॉक्टर के आने से पहले ही स्वीपर ने लाश का सफेद कपडा काटकर अलग कर दिया था. जिस्म को फाडने से पहले डॉक्टर जोसेफ ने उसका मुआयना किया. वे पल भर को ठिठके. लाश पर सरकती उनकी आँखें पल भर को आहिस्ता हुईं और लाश के एक हिस्से को देखतीं थिर सी हो गईं. माथे पर पसीने की कुछ बूँदें उभर आईं. उनके जेहन से अंधेरों में जज़्ब एक दुनिया के अक्स गुजरते गये. काले पर्दों के पीछे की एक ख़ामोश दुनिया.
याद आया जैसे गुजिश्ता दिनों में कहीं उन्होंने ऑपरेशन के कई दिनों के बाद बडी हिम्मत के साथ मरीज से आँख मिलाई हो. जब वे मरीज से पूछते हैं- कैसे हो तुम- तो उनके भीतर कुछ दरकता है, कुछ चटक कर बिगडता है. वे दुनिया के उन सबसे कमतर शल्य चिकित्सकों में से एक हैं जो उस काली दुनिया को देखकर आया है. कहते हैं यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में आज भी कई डॉक्टर भिडे हैं उसी काली दुनिया में…. हिंदोस्तान में ऐसे डॉक्टर गिनती के ही हैं. डॉक्टर जोसेफ उनमें से एक थे.
पर एक दिन…….
एक दिन उन्होंने उस बडे अस्पताल के सुपरिटेण्डेन्ट के सामने अपना स्तीफा रखते हुए कहा था कि अब वे इस तरह का ऑपरेशन न करेंगे. सुपरिटेण्डेन्ट उन्हें मनमाफ़िक तनख़्वाह देने को तैय्यार था. पर वे राजी न हुए. इस तरह वे उस काम को छोडकर सरकारी महकमे में नौकरी पर आ गये.
दण्डकारण्य के इन जंगलों में हाल छह महीने पहले ही उनका तबादला हुआ है. सरकारी महकमें में दण्डकारण्य में तबादले को सजा के तौर पर देखा जाता है. दण्डकारण्य में तबादला याने सजा. लाल-धूसर मिट्टी पर पसरे सागौन और साल के जंगलों को देखते हुए उनके दिमाग में यही लफ़्ज सरकता है – सजा…..सजा – और वे मुस्कुराते हैं. अक्सर कालिख़ में लिपटी काली-सलेटी रात की ख़ामोशी जब पेडों के साथ गुर्राती है, तब यह लफ़्ज उनको देख मुस्कुराता है – सजा…सजा….सजा – वे मुँह फेर लेते हैं .
मरे हुए जिस्म को पल भर देखने के बाद उन्हें लगा कि वे यहाँ से कहीं चले जायें. काला अतीत उनकी आत्मा की सीढियों पर चढ रहा है, धमकता हुआ. उनके पास उससे छुटकारे का कोई उपाय ही न हो जैसे.
डॉक्टर जोसेफ को गुजिश्ता दिनों के पोस्ट आपरेटिव वार्ड से आती कराहें और चीखें सुनाई देती हैं…. वे मरीज़ को ढांढस बंधाते हैं. मरीज़ चीखता रहता है.
हर जिस्म में कुछ बेहद नाज़ुक अंग होते हैं. माँस और तंत्रिकाओं से बने अंग. उन अंगों से लिपटी होती है उस जिस्म की सबसे अहम संवेदना. डॉक्टर जोसेफ को कई मर्तबा उन अंगों को काटकर उस जिस्म से अलग करना पडता था. वे जानते थे कि उस जिस्म से सिर्फ वह अंग ही कटकर अलग नहीं होता था, उसके साथ-साथ कटकर अलग होती थी कोई बहुत अपनी सी संवेदना, कोई आत्मिक सा जज़्बात…..कटकर अलग होता था कोई ख़्वाब, कोई अक्स जिसमें अपने रंग भरती रहती थी वह बहुत गोपन सी भावना……
डॉक्टर जोसेफ ने लाश के सिर पर, बालों पर, दस्ताने में लिपटे अपने हाथ को रखा. जैसे माँ अपने बच्चे के सिर पर हाथ रखती है. स्वीपर ने पल भर को भौंचक नजरों से डॉक्टर जोसेफ को देखा. डॉक्टर जोसेफ सचमुच कहीं चले जाना चाहते हैं. पर इस तरह चले जाना आसान नहीं है. उन्हें अपना काम निबटाना है. जाने से पहले उन्हें कागजों पर दर्ज करनी है पोस्टमार्टम की रिपोर्ट.
लाश के साथ आई पुलिस की डायरी में सबसे ऊपर लिखा है – बेदावा लावारिस लाश…
डॉक्टर जोसेफ अपनी आँखें बंद कर लेते हैं. स्वीपर उन्हें घूरता रह जाता है.
डॉक्टर जोसेफ के जेहन में ओल्ड टेस्टामेण्ट की कोई इबारत गूँजती है. बंद आँखों के अंधेरों में पुलिस की डायरी पर लाल स्याही से अंकित तीन शब्द गुजरते रहते हैं – बेदावा लावारिस लाश…. शल्य चिकित्सा की उस स्याह दुनिया से आती कराहें सुनाई देती रहती हैं, कोई एकाकी विलाप उनके जेहन को काटता जाता है. आँखें बंद किये-किये दाहिने हाथ की उंगलियों से अपने माथे, गले, कंधे और छाती को छूते हुए वे क्रास का निशान बनाते हैं. ओल्ड टेस्टामेण्ट की प्रार्थना की अंतिम लाइनें बुदबुदाते हैं. अचानक आँखें खोल स्वीपर को आँखों से इशारा करते हैं, याने – लाश पर रखे खंजर हटा दो- स्वीपर उन्हें अचरज से देखता है.
डॉक्टर जोसेफ के मन में एक पाप आ गया है. अपने पेशे से दगा करने का पाप. एक ऐसा दगा जिसकी इंतिहा उनकी जिंदगी तबाह कर सकती है.
डॉक्टर जोसेफ ने फिर से लाश के साथ आये कागज पत्रों को पलटा. कागज के एक टुकडे पर वे रुके. एक फटी हुई मार्कशीट. जिसका ऊपरी और निचला हिस्सा फाडकर अलग किया जा चुका है. सिर्फ बीच का एक हिस्सा बचा है. जिसमें अल्हदा विषयों के नाम और उनके सामने उन विषयों में मिले नंबर लिखे हैं. उन्होंने विषयवार प्राप्त नंबरों पर सरसरी नजर दौडाई. गणित के नंबरों को उन्होंने गौर से देखा. चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे. उन्होंने फिर से गणित में प्राप्त नंबरों को पढा – चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे – उन्होंने तिबारा पढा – चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे – फिर कागज पत्रों को बंद कर दिया.
पुलिस के सबसे ऊपर के कागज में सबसे नीचे लिखा है – मृत्यु का कारण.
डॉक्टर जोसेफ को इन कागज़ों में ‘मृत्यु का कारण’ अंकित करना है. मृत्यु के कारण के नीचे ब्रैकेट में लिखा है – पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सक का अभिमत, याने वे क्या मानते हैं कि मृत्यु का कारण क्या है ? क्या वजह थी कि यह शख़्स मारा गया? मौत की वजह? वाजिब वजह?
उन्हें शल्य चिकित्सा के दौर के वे जिस्म फिर से याद आये.
एक अधेड उम्र का बाप और उसके पीछे चलती उसकी कम उम्र वाली घरवाली डॉक्टर जोसेफ को अक्सर याद आते. बाप अक्सर गुजारिश सी करता कि वे उसकी औलाद को लडका बना दें. एक बार उनके सामने हाथ जोडकर खडा हो गया. उन्होंने उसे समझाया कि उनकी औलाद का जिस्म ऐसा है कि वह लडकी तो आसानी से बन सकता है पर लडका नहीं. पर वे न माने. वे उसे समझाते रहे पर उस पर इसका कोई असर न होता. बाद में एक दूसरे डॉक्टर से पता चला कि वह अस्पताल को मुँहमागी रकम देने को तैय्यार है. अस्पताल के लागे भी रजामंद थे – जब बाप चाहता है तो हमें क्या – वही दूसरा डॉक्टर उन्हें समझाता है – वह काफी पैसे दे रहा है, अस्पताल का डीन भी ऐसा ही चाहता है, कोई ऊपर से फोन भी आया है, क्यों पचडा पालना, कर देते हैं आपरेशन. ऑपरेशन के बाद वह मरीज पोस्ट आपरेटिव वार्ड में सो रहा था.
पता नहीं वह क्या हो पाया है – डॉक्टर जोसेफ का मन ग्लानि से भर उठता – राम जाने वह क्या बन गया होगा, शायद थोडा लडका, शायद थोडा लडकी – वे उसके सोते चेहरे को गौर से देखते हैं – जैसे कोई लडकी, जैसे कोई लडका, जैसे इंसान की कोई औलाद, बस एक ही अंतर है कि उसे बार-बार अपने जिस्म पर चलवाने हैं चाकू, कटवाने हैं जिस्म के कुछ बेहद अंतरंग हिस्से – डॉक्टर जोसेफ सोचते हैं एक दिन वे यह काम बंद कर देंगे, एकदम बंद……
उन्होंने पल भर को लाश की ओर देखा और फिर खिडकी के बाहर देखने लगे.
मृत्यु का कारण…..
खिडकी के पार टीन की एक छत है. छत पर एक कौवा बैठा है. कव्वे के मुँह में माँस का एक टुकडा है. एक दूसरा कौवा उससे उस टुकडे को छीनने के लिए झपट रहा है.
मृत्यु का कारण…..
खिडकी के पार कचरे का ढेर है. ढेर में अस्पताल से फेंके गये कटे-फटे मानव अंग पडे हैं, रक्त रंजित पट्टियों के टुकडे, पुराने सडे विसरे की बोतलें……ढेर में काले-लाल रक्त से सना एक प्लेसेन्टा पडा है जिसे एक कुत्ता अपने जबडों से खींच रहा है.
मृत्यु, मृत्यु….मृत्यु का कारण…..
सजा…दण्डकारण्य…..सजा….दण्डकारण्य…..
ऊपर गिद्धों का एक झुण्ड है. नीले आकाश में इत्मिनान से तैरता. कचरे के ढेर में पडे इंसानी जिस्म के टुकडों पर ललचाते. इंसानी माँस के टुकडों पर झपटने को आतुर….
मृत्यु का कारण….
वे लाश का मजहब जानते हैं, पर वे लाश का नाम नहीं जानते…..
पढाई के सबसे बेहतरीन नंबरों के आगे वे बडे इत्मिनान से लिख देते हैं – बेदावा लावारिस लाश….
स्वीपर हठात खडा है. उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं.
कौवों की काँव-काँव और गिद्धों की चाँव-चाँव से टूटती रहती है पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी. पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी एक तवायफ़ है. चुप्पियों के दलाल की तवायफ़. ख़ामोशी की बदचलनी पर बोलने का उसूल नहीं है. दुनियादारी के बीच उसकी हरमज़दगी का किस्सा कोई नहीं कहता. पैसों कि ख़ातिर जो सबकुछ बेचने को आतुर हो ऐसी बेगैरत ‘ख़ामोशी’ से लोग मुस्कुराकर बात करते हैं. ठीक वही ख़ामोशी…..वही असीम, अनंत और परम शांति….अनवरत, मुसलसल….क्या फ़र्क पडता है किसका जिस्म….क्या अंतर कि किस- किसकी लाश….शांति, शांति, शांति….क्या फ़र्क कि किसका पोस्टमार्टम, क्या मतलब कि कहाँ का, किसका और कौन सा जंगल…?
ख़ामोश, ख़ामोश… ऑर्डर- ऑर्डर. चुप बे,चुप…..
मृत्यु का कारण……
डॉक्टर जोसेफ लाल स्याही से पुलिस के कागज़ों में जल्दीबाजी में लिखते हैं – पीठ, छाती और चेहरे पर खरोंच के गहरे निशान (संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने चैस्ट की पाँच पसलियाँ टूटी हुईं, पेट के दाहिने हिस्से में गहरा घाव (किसी धारदार हथियार से हमले की वजह से), गर्दन के पीछे सरवाइकल स्पाइन टूटी हुई (वही संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने टैम्पोरल में गहरा घाव खोपडी के भीतर तक ( बंदूक की गोली लगने से), बाईं ह्यूमरस टूटी हुई……
मृत्यु का कारण……
लगातार हुआ रक्तस्राव और ब्रेन के अंदरुनी हिस्सों में गंभीर चोट……
कचरे के ढेर के पास कुत्ता भौंकता है. उसके रक्त रंजित दाँत दीखते हैं. अधखाया प्लेसेण्टा उसके मुँह से लटका है.
डॉक्टर जोसेफ तत्काल मर्चरी के बाहर आ जाते हैं. हडबडाये. और सीधे चलते चले जाते हैं. नाक की सीध में. लंबे डग भरते. बेचैन. कभी भी पलटकर न देखने.
मृत्यु का कारण….
खिडकी से सिर बाहर कर कातर आवाज़ में स्वीपर पुकारता है –
‘कहाँ चल दिये सर. एकदम अचानक.’
डॉक्टर जोसेफ पलटकर नहीं देखते. सीधे चले जाते हैं. सामने की ओर मुँह उठाये. खिडकी के बाहर झाँकता स्वीपर चीखता है-
‘कोई काम याद आ गया क्या सर…..?’
फिर वह पुलिस के कागज़ों पर लाल स्याही से दर्ज़ डॉक्टर की रिपोर्ट देखता है. रिपोर्ट के नीचे डॉक्टर जोसेफ ने दस्तख़त नहीं किये हैं. वह फिर से खिडकी की ओर लपकता है. डॉक्टर जोसेफ उसे दूर-दूर तक कहीं नहीं दीखते.
कहानी का एक हिस्सा किसी को नहीं पता. किसी को भी नहीं.
कहते हैं वह दण्डकारण्य के घने जंगलों में वह एक नई-नई रात थी.
अपने एक दोस्त की समझाइश पर अदीब ने अपनी मार्कशीट के तीन टुकडे किये. एक टुकडा जिसमें उसका नाम, उसकी वल्दियत, उसकी उम्र, उसका पता लिखा था, दूसरा टुकडा जिसमें उसके कालेज और विश्विविद्यालय का नाम लिखा था और जिसके नीचे विश्विविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त थे और तीसरा टुकडा जिसमें सब्जैक्टवार नंबर लिखे थे. दोस्त ने उससे कहा कि वह सिर्फ सब्जैक्टवार नंबर संभाल कर रख सकता है. दोस्त जाने के लिए उठा और उससे मुख़ातिब हुआ –
‘नंबर गणित की इजाद हैं. नंबरों की कोई जात नहीं. नंबरों का कोई मजहब नहीं. नंबर न आदमी होते हैं, न औरत. नंबरों का कोई मुल्क नहीं.’
अदीब उसे एकटक देखता रहा. सामने आग जल रही थी. आग की लपटें दोस्त की आँखों में दमकती थीं-
‘नंबर ख़ालिस गणित हैं. नंबर सिर्फ और सिर्फ उसी के होते हैं जिसके ये होते हैं. नंबरों पर किसी और का अख़्तियार नहीं होता. नंबर इंसाफ़ का दूसरा नाम हैं.’
वह जाने को मुडा. पर फिर उसकी ओर देखा-
‘हाँ….एक और बात.’
‘क्या…?’
‘नंबरों का कोई घर नहीं होता. उनका कोई पता ठिकाना नहीं होता. सारी दुनिया उनका घर है……तुम सिर्फ नंबरों को सहेज कर रख सकते हो.’
दूर कहीं सुधीर के पास अपर्णा बैठी थी. उसके हाथों में अदीब के स्टडी रुम से लाये कुछ कागज़ थे, जो वह वहाँ से उठा लाई थी. कागज़ों में वही सब था. इश्क के नंबरों की वही थ्योरम. उसने बडी मुश्किल से उस थ्योरम को समझ लिया था. वह सुधीर को वह थ्योरम बाँच रही थी. उसे सफेद बोर्ड पर हाईलाइटर चलाती अदीब की उंगलियाँ दीखीं, थ्योरम और एनामेलीज़ का सही-सही जवाब निकाल लाने को आतुर बेचैन उसकी आँखें दीखीं. उसने सुधीर को चूम लिया –
‘गणित के नंबरों में से इश्क की ख़ुशबू आती है…..है न.’
‘गणित के नंबरों को देखो तो किसी सौदाई इश्कबाज़ की याद आती है….है न.’
जाने से पहले दोस्त ने अदीब के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था.
अदीब ने सधे हाथों से मार्कशीट के दो टुकडों को आग में जला दिया. इस तरह धधकती आग में जल गया उसका नाम, उसकी वल्दियत, उसकी उम्र……रफ़्ता-रफ़्ता जला था उसके घर का पता….धूँ,धूँ कर जलता रहा था उसका कालेज, विश्वविद्यालय….लपटों में भस्म होते गये थे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त…… दूर खडा दोस्त मुस्कुरा रहा था. उसने गौर से देखा था, कि इन टुकडों को जलाते समय अदीब के हाथ जरा भी नहीं झिझके.
उन तमाम राखों में जो इश्क के अनकहे अफ़साने होकर सबसे पहले चिता पर ख़ाक होते हैं. जो दफ्न होते हैं मिट्टी होने किसी अनाम कब्र में. उडते फिरते धूल और राख़ होकर. उन्हीं में शुमार थी वह राख़ भी जो कागज़ के उन टुकडों को जलाने से उठी थी, बिखरी थी दण्डकारण्य के उस बियाबान में.
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तरुण भटनागर
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