तसलीमा नसरीन की कविताएँ |
1.
कविता
मैं कविता नहीं लिखती हूँ,
मैं जीवन लिखती हूँ काग़ज़ पर.
कविता नहीं लिखती हूँ,
पहाड़ की चोटी पर खड़े होने से जो हवा आकर
शरीर से धक्का खाती है, उसे लिखती हूँ.
गहन रात में समुद्र के बहुत पास बैठे-बैठे जो
जल के रुदन की हूहू ध्वनि सुनती हूँ, उसे लिखती हूँ.
नदी के पास जाकर मछलियों, मछरेंगा
और मनुष्यों के कोलाहल को लिखती हूँ.
मैं कवि नहीं हूँ, एक प्यासा पथिक मात्र हूँ.
पृथ्वी का भ्रमण करते-करते घृणा की छी-छी लिखती हूँ,
युद्ध लिखती हूँ,
लाशों के ढेर से जो दुर्गंध आती है, उसे लिखती हूँ.
मैं प्रेम भी लिखती हूँ.
खूब गोपनीयता से लिखती हूँ.
ख़ूनखराबा में लोगों के व्यस्त हो जाने पर लिखती हूँ.
लिखकर रख देती हूँ.
क़लम दवात कुछ न मिलने पर
उंगली के खून से ही लिखती हूँ. फिर भी लिखती हूँ.
जितने दिन पथ है, पथ के कांटों को लिखकर जाऊँगी.
दुःख दर्द लिखकर जाऊँगी,
हाहाकार लिखकर जाऊंगी.
मनुष्य की ईर्ष्या और क्रोध की आवाज़ लिख जाऊँगी.
जंगल जलने की आग को लिखकर जाऊँगी.
गौरैया, चीता और चित्रा हिरणों की
तेज़ भागदौड़ को लिखकर जाऊँगी.
सब खेला शेष होने पर,
सबके सो जाने पर,
प्रेम लिखकर जाऊँगी.
2.
मृत्युहीन लड़की
त्रिपोली की जो लड़की, बुर्का नहीं पहना इसलिए सड़क पर पीटी गई,
वह मैं हूँ,
ढाका की जो लड़की, जर्सी पहन कर फ़ुटबॉल खेली है इसलिए अपमानित हुई,
वह मैं हूँ,
रियाद की जो लड़की, देश के बाहर अकेली जाना चाह रही थी इसलिए जेल में डाली गई
वह मैं हूँ,
काबुल की जो लड़की, प्रेम करने के अपराध में पत्थर फेंक कर मारी गई, वह मैं हूँ,
दमिश्क की जिस लड़की की, उसके पति ने पीट पीटकर हत्या की, वह मैं हूँ,
काहिरा की जिस लड़की का खून किया गया, शादी के लिए राज़ी नहीं थी इसलिए, वह मैं हूँ,
मोगादिशु की जो लड़की, शांति के लिए पथ पर उतरी थी इसलिए खून किया गया,
वह मैं हूँ,
तेहरान कि जिस लड़की की हत्या की गई हिजाब नहीं पहना था इसलिए, वह मैं हूँ,
मेरा एक ही दोष है, कि मैं लड़की हूँ.
लड़की हूँ इसलिए मुझे घरबंद किया जाता है,
मेरी नाक आँख मुख ढक कर रखे जाते हैं,
आड़ में रखी जाती हैं मेरी खाल, मेरे बाल,
मेरे सारे अंग, मेरा शरीर,
जैसे शरीर नहीं, यह पाप का घड़ा हो.
मेरा दोष कि मैं लड़की हूँ,
लड़की इसलिए पृथ्वी के रूप रस गंध से मुझे हटा कर रखा जाता है,
मुझे देखने नहीं दिया जाता है रौशनी,
मुझे खड़े होने नहीं दिया जाता है अपने दोनों पैरो पर,
जैसे मैंने लकवा ग्रस्त होकर जन्म लिया हो.
अधिकार पाना चाहती हूँ तो मेरा टेंटुआ दाब कर पकड़ा जाता है,
अधिकार पाना चाहती तो धर्म की चक्की में मुझे पीसा जाता है,
अधिकार पाना चाहती हूँ तो मुझे वेश्या कहकर गाली दी जाती है,
अधिकार पाना चाहती तो मेरी देह में, पैरो में ही ज़ंजीर डाल दिया जाता है,
अधिकार पाना चाहती तो मेरी हत्या कर दी जाती है.
मुझे आग में जला दिया जाता है.
जल-जल कर मैं अंगार नहीं बनी, इस्पात बन गई.
मुझे लात मारने नहीं आना, चूर-चूर हो जाओगे.
मुझ पर चाबुक चलाने मत आना, देह पर एक भी स्याह दाग नहीं पड़ेगा,
मेरा घर्षण करने नहीं आना, मैं रक्तरंजित नहीं होऊँगी.
मुझ पर वार करने नहीं आना, मेरी मृत्यु नहीं होगी.
3.
मुहूर्त
प्रेम तो है पल भर का अतिथि
फिर भी बदल देता है घर द्वार, रीति नीति
अचानक एक दिन उड़ जाती है प्रीति
शोरगुल के अंत में रह जाती है सिर्फ स्मृति.
कुछ दिन में हँसी ख़ुशी, उसके बाद विदा
कौन जाने कहाँ चला जाता है
प्रेम कहाँ खो जाता है.
कौन गिद्ध और सियार उसे खा जाते हैं.
उसे भूल कर भी बदीं न बनाना
उसके सारे अंगों में है विष, काँटों में भी,
उसके घने काले बालों में भी,
मर जाओगे सिर्फ उसे छू लेने पर.
इससे अच्छा उसे दूर से देखो,
प्रेम दूर ही रहता है,
पास आने पर न सोचना कि वह नहीं भागेगा किसी भी मौक़े पर.
वह भागेगा ही, और खो जाएगा किसी भी मोड़ पर.
जितने पल रहता है वह,
उस थोड़े को ही रख लो
उस थोड़े से ही मान लो
उस थोड़े को ही चूम लो
उस थोड़े को पाने के लिए ही
फिर से दोनों हाथ बढ़ाओ.

4.
वह आदमी
एक आदमी को मैंने लंबे समय तक प्रेमी समझा
एक आदमी को लंबे समय तक समझा अपना आदमी,
एक आदमी को लंबे समय तक मैंने समझा अपने घर का आदमी.
असल में वह आदमी मेरा कुछ भी नहीं था.
न था प्रेमी, न अपना आदमी, न घर का आदमी.
उस आदमी के मन में, मस्तिष्क में किसी और का निवास था.
उसके हृदय में कोई अन्य थी
मैं नहीं.
एक दिन आँख खुलते ही निगाह में आया कि वह आदमी प्रेमी नहीं है.
वह आदमी मुझे प्रेमी लगता था, तब बंद थी मेरी आँखें.
वह आदमी मुझे सुदर्शन लगता था, तब बंद थीं मेरी आँखें.
वह आदमी मुझे हृदयवान लगता था तब बंद थी मेरी आँखें.
वह आदमी मुझे सज्जन लगता था, तब बंद थी मेरी आँखें.
तब नाक बंद थी, जब लगता था उस आदमी की देह से सुगंध आती है
तब बंद थे कान, जब उस आदमी की कोई भी बात संगीत की तरह सुनाई देती थी
स्पर्श लगता था शुद्ध प्रेम का स्पर्श, तब बंद थे स्नायु.
इन्द्रियों के घर में ताला लगा देता है प्रेम.
एक दिन ताला खोलते ही देखती हूँ वह आदमी प्रेमी नहीं है,
वह आदमी है कोई भी एक आदमी,
सड़क से चल कर जाता हुआ कोई भी,
घर परिवार चलाने वाला, दस से पाँच तक ऑफिस करने वाला,
छुट्टियों में घूमने जाने वाला कोई भी एक आदमी.
एक दिन उस आदमी का हृदय खोल कर उसकी रमणी को बेबस होकर ढूँढ़ती रही,
किसको उसने अपने हृदय में रखा है, किसे वह सचमुच में प्यार करता है, खोजती रही.
देखा की हृदय भर में विराज कर रहा है सिर्फ़ एक ही आदमी,
सिर्फ उसी की तस्वीर चारों ओर, और किसी की नहीं.
वह कोई रूपवती नहीं, वह कोई गुणवती नहीं,
वह कोई विदुषी नहीं, वह कोई प्रेमिका नहीं.
वह स्वयं, वह स्वयं ही निवास करता अपनी हृदय में.
अपने को ही बिना किसी शर्त के प्यार करता है.
स्त्री से वह उतना ही प्यार करता है, जितना कि स्त्री उसकी दासी है इसलिए,
दूसरा कोई कारण नहीं.
संतान से वह जितना भी प्यार करता है,
संतान उसके अपने वीर्य की फ़सल है इसलिए,
दूसरा कोई कारण नहीं.
मुझसे वह प्यार नहीं करता, आँख-कान- नाक खोल लिया है इसलिए,
मुझसे वह प्यार नहीं करता,
मैंने अपने स्नायु को बंधन मुक्त कर लिया है इसलिए,
मुझसे वह प्यार नहीं करता, मेरी रीढ़ की हड्डी कुछ हद तक सीधी है इसलिए.
5.
तुम्हारा न रहना
बाहर जब हवा खाने जाती हूँ, तब तुम नहीं होते साथ.
रेस्तरां में, सिनेमा में, थियेटर, कंसर्ट, दुकान बाज़ार में तुम नहीं.
घर लौटकर आती हूँ क्लांत, तुम नहीं हो.
बिस्तर में तुम नहीं हो बग़ल में.
मैं हूँ अकेली.
तुम कहीं और हो.
शायद कोई नई साथी हुई है तुम्हारी,
या फिर पुरानी साथी के साथ ही झगड़ा किया है शायद.
मुझे आजकल जानने की भी इच्छा नहीं होती है
कहाँ हो, किसके साथ क्या कर रहे हो.
चाहती हूँ, जहाँ हो, वहीं रहो.
चाहती हूँ, मेरे जीवन की ओर कभी हाथ न बढ़ाओ.
चाहती हूँ मेरे पथ की ओर किसी दिन पैर न बढ़ाओ.
मैं सिर्फ यह सोचकर शांति पाती हूँ कि तुम नहीं हो
मेरे भुवन भर में मैं हूँ,
मेरा यह भुवन अब केवल मेरा है.
इतने दिनों तक तुम्हारा भुवन तो तुम्हारा था ही,
मेरा भुवन भी तुम्हारा था,
तुमने छीन लिया था.
छीन लेने का नाम दिया था प्रीति.
जब मेरे बालों को पकड़कर खींचते थे, गाल पर थप्पड़ मारते थे,
सोचती थी यह तुम्हारे प्रेम का अधिकार है.
प्रेम के अधिकार में मेरे पूरे जीवन को तुमने हथेली पर लेकर लट्टू की तरह घुमाया है,
बालक की तरह जैसा मन हुआ खेला है.
जिस दिन पीठ पर लात मारा,
उस दिन भी सोचा था, तुम्हारे ग़ुस्सा होने के पीछे मैं हूँ, अपराध मेरा है.
पर्याप्त प्यार नहीं किया इसलिये भलेबुरे का ज्ञान भी खो दिया.
पर्याप्त प्यार देने जाकर अपने को ख़ाली किया है बार- बार.
तुम नहीं हो,
मैं अब तुम्हारी खिलौने की गुड़िया नहीं.
मार्बेल की लट्टू भी नहीं, लटाई की पतंग नहीं.
मैं अब धूल मिट्टी नहीं, कूड़ा करकट नहीं.
मेरुदंड सीधा करके खड़ा हो सकने वाला मनुष्य मैं.
तुम्हारे न रहने ने मेरे मैं को आलोकित किया है,
तुम्हारे न रहने ने प्यार करना सिखाया है अपने से,
तुम्हारे न रहने ने मुझे शक्तिमयी बनाया है.
तुम इतने कल्याणकारी नहीं हो, जितना तुम्हारा न रहना
तुम इतने अर्थवान नहीं हो, जितना तुम्हारा न रहना
तुम इतने उत्सव नहीं हो, जितना तुम्हारा न रहना.
तुम्हारे न रहने को मैं मनप्राण से चाहती हूँ.
प्यार से कभी भी अगर कुछ देना चाहो तो
हीरे मोती नहीं, लाल गुलाब नहीं,
स्पर्श नहीं, आलिंगन नहीं,
चुम्बन नहीं, प्यार करता हूँ शब्दों का उच्चारण नहीं,
पास में रहना नहीं, यहाँ तक कि दो पल के लिए भी नहीं.
देना हो तो तुम्हारा न रहना ही देना.

6.
पुरुष
मैं अब और किसी सुदर्शन पुरुष की ओर तृष्णा भरी निगाहों से नहीं देखती हूँ
मुझे नहीं लगता है कि अब किसी पुरुष के साथ मेरा कोई व्यक्तिगत गद्य या पद्य शेष रह गया है,
या मान-अभिमान है बाक़ी,
हाथों में हाथ लिए कठगुलाब के बाग़ान में टहलते रहना शेष है,
या फिर समुद्रतट है बाकी.
पुरुष के साथ तो कब का ही चुक-चुका है सब कुछ
हिसाब वगैरह ख़त्म करके ही तो हल्का किया है अपना बोझा,
सिर्फ़ शेष बचे जीवन को पीठ पर लेकर
चल रही हूँ पृथ्वी के पथ पर.
मेरी यात्रा में नहीं है कोई पथप्रदर्शक,
नहीं है प्रभु.
जान या अनजान में किसी पुरुष की कामना नहीं की है किसी दिन,
अगर किया भी है, तो वह मैं नहीं, ग्रन्थिरस ने किया है.
वह मेरा दोष नहीं,
शरीर में जिस ईश्वर का निवास है उसका दोष है,
प्रकृति जिस ईश्वर को नाच नचाती है, उसका.
जयश्री पुरवार लेखन, अनुवाद, अध्यापन, संपादन बांग्ला से हिंदी व हिंदी से बांग्ला में प्रचुर अनुवादहिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा अनुवाद सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित. |
बहुत खूब, बहुत सुंदर। आप दोनों को बधाई और शुभकामनाएं।
सुंदर कविता चयन। वस्तुत:कितना त्रासद है एक अकेली स्त्री की ऐसी एकांतिकता। ऐसे संघर्ष में सृजन ही संबल बनता है,यह महत्वपूर्ण। बेहतर अनुवाद की बधाई!
महत्त्वपूर्ण। जबरदस्त कविताएँ और अनुवाद
तसलीमा नसरीन की एक कविता
“एक दिन आएगा”
अनुवाद @ गरिमा श्रीवास्तव
मैं तुम्हारे घर लौटने की प्रतीक्षा करुँगी
कि तुम्हारे लिए चाय बना दूँ
रख दूँ स्नानघर में तौलिया
स्नान के बाद पहनने के कपड़े भी दूंगी
टॉयलेट सीट जो तुमने उठा छोड़ दी होगी
उसे नीचे गिरा दूंगी
भूल जाओ यदि फ्लश करना
मैं फ्लश कर दूंगी
मेज सजा रखूंगी तुम्हारे पसंदीदा व्यंजनों से
खाओगे ,परोस दूंगी तुम्हारी थाल में दोहरावन
खाओगे तुम जितना, ख़ुशी होगी मुझे उतनी
खाते -खाते ही तुम बताओगे कि आज क्या -क्या हुआ तुम गए कहाँ -कहाँ
धन्य होती रहूंगी मैं सुन -सुनकर
तुम अपना तो समझ रहे हो मुझे
कर रहे हो प्यार
प्यार कर रहे हो इसीलिए तो अपना समझ रहे हो
धन्य होती रहूंगी जब तुम मुझे छुओगे
क्योंकि किसी और शरीर को नहीं
बल्कि प्यार कर रहे हो मेरे शरीर को
प्रेम कर रहे हो इसीलिए तो मुझे छू रहे हो .
तुम्हें ज्वर होने पर हो उठूंगी मैं पृथ्वी की श्रेष्ठ परिचारिका
बुला लाऊंगी डाक्टर ,जागती रहूंगी सारी रात
माथे पर पानी की पट्टी दूंगी ,शरीर पोंछ दूंगी
घड़ी देखकर खिलाऊँगी दवा पथ्य
मुझे बुखार होने पर
तुम कहोगे मौसम बदल रहा है
खांसी होने पर कहोगे ‘यह एलर्जी है ‘
पेट -दर्द होने पर कहोगे -क्या अंट-शंट खा लेती हो तुम.
पीठ -दर्द होने पर कहोगे -इसी उम्र में यह सब ?
घुटने में दर्द होने पर कहोगे रोग का अखाड़ा बन गयी हूँ मैं
सिर-दर्द होने पर कह उठोगे -अरे वो कुछ नहीं है चला जाएगा अपने -आप
दो -एक बाल पकने पर कहोगे -तुम्हारी असल उम्र क्या है -बताओ तो ज़रा !
मुझे श्वास कष्ट होने पर बोलोगे ‘तुम्हारी अपनी लापरवाही से ही हो रहा है श्वास कष्ट ‘
एक दिन मुझे पहाड़ घूमने की इच्छा होगी
तुम बोलोगे -मुझे समय नहीं है
मैं कहूँगी -मेरे पास है
जाऊं ?
तुम अकेली जाना चाहती हो ?
हँस कर बोल उठूंगी -हाँ अकेली ही जाऊँगी
तुम अट्टहास कर उठोगे सुनते ही
बोलोगे ‘पागल हुई हो तुम!मेरी देखभाल कौन करेगा ?
मेरा खाना कौन बनाएगा
खाना परोस खिलायेगा कौन ?
मेरे कपड़े कौन धोएगा
कपड़े तह कर रखेगा कौन ?
मेरा घर -द्वार ,बिस्तर सामान साफ़ करेगा कौन ?
घर की रखवाली करेगा कौन ?
पानी देगा कौन बगीचे में
कह उठूँगी मैं
‘तुम’
चढ़ जायेंगी तुम्हारी त्योरियां
संभल कर कह उठूँगी मैं
‘तुम्हारी नौकरानी करेगी”
तुम कहोगे
नौकरानी का बनाया खाना पसंद नहीं आता मुझे
तुम जिस अपनापे से करती हो सब कुछ
वैसा नौकरानी तो नहीं करती न.
मैं हँस पडूँगी
फव्वारा फूट पड़ेगा आतंरिक सुख का
क्योंकि नौकरानी के बनाये खाने से मेरे भोजन को अच्छा बताया है तुमने .
मैं जो दासी नहीं ,दासी से अलग हूँ
ये गृहस्थी जो दासी की नहीं ,मेरी है
मन -मयूर नाच उठेगा मेरा इस स्वीकृति से तुम्हारी
एक दिन समंदर देखने जाने की इच्छा से मैं सजाऊँगी
अपना सूटकेस
देखते ही हरिण पर अचानक झपटते लकड़बग्घे की तरह मुझपर झपट पड़ोगे
मुझको चींथते रहोगे
कर दोगे मुझे लहूलुहान
रक्त देख कर आत्मीय -मित्र कहेंगे
ये रक्त नहीं प्रेम का प्रतीक है .
बोलेंगे प्यार करता है तभी तो तुम्हें अपने पास चाहता है.
दूर होकर मुझसे दो घड़ी भी जी नहीं पाओगे इसलिए मुझे चाहते हो
मैं आँख का पानी पोंछकर हंसूंगी
तुम्हारी पसंद की रसमलाई बनाने को घुसूंगी
एक दिन मैं तुम्हें चाय बनाकर नहीं दूंगी
चप्पल का जोड़ा पैर के आगे नहीं रखूंगी
तुम्हारा टायलेट फ्लश नहीं करुँगी
तुम्हारी पसंद का भोजन नहीं बनाऊँगी
एक दिन तुम्हारी बीमारी में जागी नहीं रहूंगी
खुद अस्वस्थ होने पर डाक्टर बुलाऊंगी
घड़ी देखकर दवा -पथ्य खाऊँगी
एक दिन अपने दोस्तों के साथ ढेर -सा समय बिताऊंगी
एक दिन ऐसा होगा कि पहाड़ देखने की चाहत होने पर पहाड़ घूम आऊँगी,
समंदर में नहाने की चाहत होने पर नहा आऊँगी समंदर में एक दिन!
स्त्री को स्वयं के वजूद को स्वीकार करने के लिए कितना कुछ खोना पड़ता है, मानों उसका नहीं होना ही चाहिए सबको। कितना हाहाकार है इन कविताओं में। अंतर्मन की कचोट कितनी गहरी है। बहुत अच्छी कविताएं और उसके बेहतरीन अनुवाद के लिए बधाई।
“समालोचना” में बांग्लादेशी साहित्यकार तस्लीमा नसरीन जी की छै कविताएं प्रकाशित हुई हैं। इसका हिन्दी अनुवाद डॉ जयश्री पुरवार जी ने किया है। तस्लीमा नसरीन जी की सभी कविताएं धधकते आंवा से निकली गगरी की तरह है। तुरंत छुओगे तो जल जाओगे और ठंडा होने पर जल भरोगे तो वह जल मन को तृप्त कर देगा। ये कविताएं अमानवीयता के खिलाफ ऐसे ही ठंडक प्रदान करती हैं।
ये सारी कविताएं झकझोरती है। इनमें *मृत्युहीन लड़की* व *वह आदमी* बहुत विशेष कविताएं हैं।
मृत्युहीन लड़की मात्र एक देश की लड़की नहीं है। वह संपूर्ण विश्व की लड़की है। कहीं भी वह आजाद नहीं है। जब भी उसने अपनी उड़ान की कोशिश की, उसके पंख कुतर दिए गए ताकि अन्य लड़कियां उड़ान के बारे में सोचे ही नहीं। त्रिपोली की लड़की बुर्का न पहनने पर पीटी गई , ढाका की लड़की फुटबाल की जर्सी पहनने पर अपमानित हुई, रियाद की लड़की देश से बाहर गई तो जेल में डाल दी गई, काबुल की लड़की ने प्रेम किया तो पत्थर से मार दी गई, काहिरा की लड़की ने शादी से इन्कार किया तो खून कर दी गई, तेहरान की लड़की ने हिजाब नहीं पहना तो हत्या कर दी गई। लेखिका (कवयित्री) लिखती है कि उन सभी लड़कियों में मैं ही थी। हर जगह मैं मौजूद हूं और हर जगह मेरे साथ अमानवीय व्यवहार किया गया है।
*वह आदमी* जो एक स्त्री उसे प्रेमी समझती रही क्योंकि वह सुदर्शन था, उसने उसे अपना आदमी समझा, घर का आदमी समझा। दरअसल वह आदमी उसका कोई नहीं था।
वह आदमी को समझ ही नहीं पाई थी। जब उसकी आंखें बंद थीं तब वह उसे सुदर्शन लगा, नाक बंद थी तब उसकी देह से खुशबू महसूस की ,जब कान बंद थे तब उसकी आवाज में संगीत सुनाई दिया। कौन था वह आदमी? कोई भी – सड़क चलता हुआ, आफिस जाता हुआ, दुकान पर जाता हुआ, राह चलते सड़क पर यूं ही छेड़ने वाला। वह स्त्री से कितना प्यार करता था? यहां लेखिका सधे अंदाज में मारक जवाब देती है कि वह स्त्री से उतना प्यार करता था जितनी स्त्री उसकी *दासी* थी। अपनी संतान से वह इसलिए प्यार करता था क्योंकि संतान उसके वीर्य की फसल थी। स्त्री से अब वह प्यार नहीं करता है क्योंकि स्त्री की रीढ़ की हड्डी सीधी हो गई है। स्त्री प्रश्न करने लगी है।
तस्लीमा नसरीन जी की ये कविताएं स्त्री विमर्श की सशक्त कविताएं हैं। ये कविताएं मात्र कागज पर लिखे हर्फ़ भर नहीं है बल्कि स्त्री सशक्तीकरण का मापदंड है।
आदरणीया डॉ जयश्री पुरवार जी उरई में मेरे ही मुहल्ले में रहती रहीं हैं। उनके द्वारा इन रचनाओं का किया गया अनुवाद मुझे गर्व की अनुभूति करा रहा है। डॉ जयश्री पुरवार जी को मेरा सादर प्रणाम 🙏🌹💐
तस्लीमा नसरीन की कविताओं का जयश्री पुरवार जी ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है। उन्हें और समालोचन को बधाई।
तसलीमा नसरीन जी का गद्य तो मै पहले भी पढ़ चुका हूँ किन्तु उनकी कवितायेँ आज पहली बार पढ़ी हैं । ऐसा लगता है कि तसलीमा नसरीन जी के शब्दों में एक लावा है जो स्त्री पर किये गये पुरुष के अत्याचारों को भस्म कर डालेगा उसे जला देगा ।
जयश्री जी ने भी अनुवाद पर बहुत अच्छा काम किया है ।
इतनी अच्छी कविताओं से परिचय कराने के लिए समालोचन का ह्रदयतल से आभार । 🙏
तसलीमा का हर शब्द हमारे वक्त की सबसे साहसी आवाज है!भारतीय महाद्वीप के किसी भी लेखक से ज्यादा प्रासंगिक!ऐसी आवाज ही समाज को बदलती है।
‘तुमने छीन लिया था
छीनने को नाम दिया प्रीति’
Misogyny का पर्यायवाची है पुरुष । भिन्न भिन्न रूपों से पुरुष की सोच को व्यक्त किया । यही मानसिकता है सभी तरफ़ ।
पुरवार जी का अनुवाद प्रस्तुत किया । बधाई ।
गरिमा जी ने कविताएँ लिखी ।
सभी मित्रों और शुभचिन्तकों का आभार जिन्हें तसलीमा नसरीन की कवितायें पसंद आई और जिन्होने मेरे अनुवाद को सराहा।वास्तव में तसलीमा जी स्त्री को सच्चे अर्थ में आजादी देने ,स्त्री पुरुष भेदभाव को खत्म करने की प्रबल पक्षधर हैं ।