तेजेन्द्र शर्मा से कालु लाल कुलमी की बातचीत |
आप अपने बारे में बतायें ? आप कैसे लेखक बन गये ? शहर-दर-शहर होते हुए लंदन कैसे जा पहुंचे ? आपकी हमसफर जो आज आपके साथ नहीं है. अपने पीछे के सफ़र में वह कहां हैं? और आगे आपके सपनों में किस तरह है ?
मेरा जीवन एक खुली किताब है. हरि भटनागर द्वारा संपादित ग्रंथ – वक़्त के आइने में तेजेन्द्र शर्मा – में मैनें अपने बारे में खुल कर बताया है. फिर भी आपके पाठकों को बताना चाहूंगा कि मैं एक निम्न मध्य-वर्गीय परिवार की उपज हूं. पिता दिल्ली में रेल्वे में कार्यरत थे. वे स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्हें ईमानदारी की बीमारी थी. इसलिये मेरा बचपन अभावों में ही बीता. कांग्रेसी नेताओं के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं बचा था. देश में बढ़ता भ्रष्टाचार उन्हें परेशान करता था. वे उर्दू और पंजाबी में लिखते थे. उपन्यास, अफ़साने, ग़ज़लें और नज़में – सभी विधाओं में लिखते थे. इस तरह मैं आसानी से कह सकता हूं कि लेखन मुझे विरासत में मिला. दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. अंग्रेज़ी में की थी. इसलिये पहले अंग्रेज़ी में ही लिखता था. घर में पंजाबी बोली जाती और बाहर अंग्रेज़ी. हिन्दी के साथ जुड़ाव जैसी कोई बात नहीं थी. जब इंदु जी से विवाह हुआ तो जैसे सही मायने में हिन्दी से परिचय हुआ. वे दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. हिन्दी कर चुकी थीं. मुंबई में उन्होंने हिन्दी उपन्यास पर शोध शुरू किया तो मुझे भी 1975-80 के बीच प्रकाशित उपन्यास पढ़ने का अवसर मिला. हिन्दी में लिखने की प्रेरणा भी इंदु जी से ही मिली. वे मेरी कहानियों का व्याकरण ठीक करतीं और मेरा अपना स्टाइल बनाने में सहायती करतीं. उनके साथ बिताया हुआ एक एक पल मेरे जीवन की धरोहर है. परिवार को बहुत बड़ा झटका लगा जब पता चला कि उनको कैंसर है.
1995 में वे मेरे पास दीप्ति और मयंक को छोड़ कर देह त्याग गईं. डा. धर्मवीर भारती, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, एवं विश्वनाथ सचदेव के मार्गदर्शन में उसी वर्ष से उनके नाम पर इंदु शर्मा कथा सम्मान की स्थापना की. यह सम्मान चालीस वर्ष से कम उम्र के कथाकारों के लिये शुरू किया था क्योंकि इंदु जी स्वयं 39 वर्ष की आयु में चल बसी थीं. टुकड़ा टुकड़ा इंदु युवा कहानीकारों में बांट रहा था. मन में कहीं यह चाह थी कि इंदु जी का नाम आकाश पर लिख दूं. भारत में दिल लग नहीं रहा था. बस लंदन में आ बसा. बच्चों की पढ़ाई भी यहीं शुरू हो गई. अब इंदु शर्मा कथा सम्मान का आयोजन हर वर्ष ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स या हाउस ऑफ़ कॉमन्स में होता है. हां अब सम्मान पर कोई आयु सीमा नहीं है. कहानी के साथ साथ उपन्यास विधा भी सम्मान के साथ जुड़ गई है. अगर इंदु जी न होतीं तो मैं हिन्दी का लेखक न होता. वे आज भी कहीं न कहीं से मेरा मार्गदर्शन करती हैं. मेरे लेखन के साथ भी एक खेल हो गया है. मेरे लंदन में बस जाने के कारण जो तीन कहानी संग्रह भारत में प्रकाशित हुए थे, आज वे भी प्रवासी साहित्य का हिस्सा बन गये हैं.
आज के समय के बारे में आप की क्या टिप्पणी है ?
आज का समय बाज़ारवाद का है, मार्केटिंग का है. आपको शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई जैसे गीत भी पसन्द आने लगते हैं क्योंकि उनकी ज़बरदस्त मार्केटिंग होती है. अब फ़िल्में अपनी लागत रिलीज़ के पांच दिन के भीतर निकाल लेती हैं, उन्हें सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली तक चलने की आवश्यक्ता नहीं होती. साहित्य में अब किताबों का पहला संस्करण केवल तीन सौ से पांच सौ पुस्तकों का ही होता है. पुस्तकों के निजी पाठक हैं ही नहीं. प्रकाशक भी निजी विक्रय में रुचि नहीं रखता. उसे भी सरकारी ख़रीद में अधिक ध्यान रहता है. आज का समय भ्रष्ट सरकार का है. आज अन्ना हज़ारे को एक बार फिर गांधी का रूप धरना पड़ता है. अन्ना लोकपाल की बात करते हैं तो सरकार जोकपाल की. घोटाले अब किसी को हैरान नहीं करते. मंत्रियों को जेल जाने में शर्म महसूस नहीं होती. 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला; कॉमनवेल्थ गेम्ज़ घोटाला जैसे मामलों ने संसद में हंगामाख़ेज़ स्थिति पैदा कर रखी है. ऐसे माहौल में साहित्य रचना आसान काम नहीं. समस्या तो यह है कि हिन्दी लेखक के पास पाठक तो है ही नहीं. जो स्वयं लेखक या आलोचक हैं वे केवल अपने गुट के लोगों का साहित्य ही पढ़ना चाहते हैं. गुटबाज़ियां साहित्य को नुक़सान पहुंचा रही हैं. याद रहे कि हिन्दी साहित्य केवल पार्ट-टाइम एक्टीविटी है; पार्ट-टाइम नौकरी भी नहीं है. लेखकों के पास शोध करने का ना तो समय होता है और न ही इच्छा. ऐसे माहौल में आशंकाएं अधिक होती हैं, संभावनाएं नहीं दिखाई देतीं.
यह वर्ष कई महान रचनाकारों का शताब्दी वर्ष है.
अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर और फ़ैज़ की जन्म-शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है. हैरानी की बात यह है कि लंदन में केवल फ़ैज़ की जन्म-शताब्दी के समारोह मनाए जा रहे हैं. बाक़ी नामों में किसी को रुचि नहीं. फ़ैज़ की ख़ासियत यह है कि वे आम आदमी के भी शायर हैं और ख़ास आदमी के भी. जैसे कि नागार्जुन आम आदमी के कवि हैं. गंवई हैं और गांव के अनपढ़ किसान तक के दिल में अपने लिये जगह बना लेते हैं. अज्ञेय पाठक के एकान्त की बात करते हैं. वे तार-सप्तक के कवियों के लिये विशेष हैं. वे कवियों के कवि वाली बात कहते हैं, पाठक के कवि वाली नहीं.
नागार्जुन एक मायने में कबीर के स्कूल के कवि माने जा सकते हैं. नागार्जुन इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लिखने की हिम्मत रखते थे. फ़ैज़ पर ग़ालिब और मार्क्स दोनों का असर था. मगर फ़ैज़ पार्टी-लाइन पर ही शायरी नहीं करते थे. मुझे चिन्ता इस बात की है कि हमारे महान कवियों की पहुंच केवल आलोचकों एवं साहित्य के विश्वविद्यालयी छात्रों तक सीमित है. उनकी रचनाएं फ़ैज़ की तरह आम आदमी की ज़बान तक नहीं पहुंच पाईं. हिन्दी में साहित्यिक कृति और जनसाहित्य अलग अलग ख़ेमों में बंटे हैं. जबकि उर्दू में ऐसा नहीं है. इन जन्म शताब्दियों से मुझे एक ही सबक़ हासिल हुआ है कि लेखन केवल आलोचकों या बुद्धिजीवियों को ध्यान में रख कर नहीं किया जाना चाहिये. हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा केवल पांच सौ से एक हज़ार लोगों का खेल है. जबकि हिन्दी पढ़ने और उसका आनंद उठाने वालों की संख्या करोड़ों में है. मैं स्वयं फ़ैज़ या नागार्जुन जैसा लेखक बनना पसन्द करूंगा.
आप भारत के समाज को कैसे देखते हैं?
आज इंटरनेट की वजह से भारत विदेशों से दूर नहीं रह गया. बहुत बार तो ऐसा हुआ है कि हमे भारत के बारे में कोई ख़बर लंदन में टेलिविज़न समाचार में मिली और अपने मित्रों को मुंबई में फ़ोन किया तो उनको उस समय तक इस बारे में कुछ भी नहीं पता था कि उनके शहर में कोई हादसा हो गया है. हम भारत से बाहर भी रहते हैं और भारत से दूर भी, इसलिये हमारी दृष्टि किसी राजनीतिक विचारधारा से संचालित नहीं होती. हम कांग्रेसी, भाजपाई या मार्क्सवादी होकर भारत के बारे में नहीं सोचते. हम पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं. भारत में हमारी जड़ें हैं और हम विदेश में काम के सिलसिले में बसने आ गये हैं. हम आज भी यहां भारतीय टीवी चैनलों पर समाचार देख कर भारत से जुड़े रहना चाहते हैं. हम ऐसे देशों में रहते हैं जहां टुच्चा भ्रष्टाचार नहीं है. आप यदि रेलवे का टिकट ख़रीदते हैं तो आपको एक पेंस तक वापिस किया जाता है. यहां शारीरिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति की ख़ास परवाह की जाती है. यहां मंत्री भी लोकल अण्डरग्राउण्ड रेल्वे से यात्रा करता है और अपने साथियों के साथ कार्यक्रम के लिये कुर्सियां लगाता नज़र आता है. भारत के समाज में दिखावा बहुत प्रचलित है. भारत में ऐसा लगता है जैसे कि भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिल गई है. अब किसी को भ्रष्टाचार से ना तो शिकायत है और ना ही कोई हैरानी. हम चाहते हैं कि हम जिस संस्कृति और कल्चर की डींग मारते रहते हैं उसे अपने व्यवहार का हिस्सा भी बनाएं.
डायसपोरा के साहित्य को आप किस तरह समझना पसंद करते हैं?
बात यह है कालू भाई कि प्रवासी दो तरह के हैं. एक जो 150 साल पहले जहाज़ों पर लाद कर मॉरीशस, फ़िजी, सुरीनाम, त्रिनदाद ले जाए गये और उनसे मज़दूरी करवाई गई. उनके लिये भारत एक तीर्थस्थल है. जबकि पश्चिमी देशों जैसे कि अमरीका, युरोप, ब्रिटेन, खाड़ी देशों में भारतीय मूल के लोग प्रोफ़ेशनल लोग हैं जो अपनी मर्ज़ी से विदेश में आए हैं और अच्छी नौकरी या बिज़नस कर रहे हैं. अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप, खाड़ी देशों में हिन्दी साहित्य रचनाकार पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं. उनका लेखन ज़ाहिर तौर पर 150 वर्ष पुराने भारतवंशियों से भिन्न होगा ; क्योंकि उनके सरोकार अलग हैं. डायसपोरा के साहित्य को प्रवासी कह कर किसी षड़यंत्र के तहत हाशिये पर ना डाला जाए. मैं मानता हूं कि प्रवासी लेखक हिन्दी साहित्य में एक नये तेवर का साहित्य जोड़ रहे हैं. उनके साहित्य को समझने के लिये आलोचकों को अपने पुराने मानदण्ड छोड़ने होंगे और स्वयं सीखना होगा कि अलग अलग देशों की सामाजिक एवं राजनीतिक मान्यताएं क्या हैं. प्रवासी लेखक ना तो मार्क्सवादी है और ना ही भाजपाई; और ना ही उसे कांग्रेस पार्टी से कोई लगाव है. उसे अपनी भारत की यादों से प्यार है. नॉस्टेलजिया उसके व्यक्तित्व का हिस्सा है. प्रवासी लेखन को राजनीतिक मानदण्डों पर ना कसा जाए. वहीं प्रवासी लेखकों को भी ध्यान रखना होगा कि उनका साहित्य हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में कुछ नया जोड़े. वे केवल नॉस्टेलजिया को ही साहित्य ना मान बैठें.
भारत में कई विश्वविद्यालय इसके विभाग शुरु कर रहे हैं. आपको क्या लगता है इसको किस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए?
कथा यू.के. और डी.ए.वी. गर्ल्ज़ कॉलेज, यमुना नगर ने संयुक्त रूप से एक तीन दिवसीय प्रवासी कहानी सम्मेलन आयोजित किया था. वहां दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. गोपेश्वर सिंह से मुलाक़ात हुई थी. उन्होंने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवासी साहित्य विभाग अलग से खोला गया है और प्रवासी लेखकों द्वारा लिखे गये साहित्य को गंभीरता से लिया जा रहा है. ठीक उसी तरह मेरठ विश्वविद्यालय ने एम.ए. के चतुर्थ सेमेस्टर में प्रवासी लेखन भी शामिल किया है, जिसमें कहानी, कविता एवं लेख आदि विधाएं शामिल की गई हैं. मुझे याद आ गया कि जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. अंग्रेज़ी में कर रहा था तो हमें अमरीकन अंग्रेज़ी साहित्य एवं भारतीय अंग्रेज़ी लेखन के अलग अलग पेपर हुआ करते थे. मेरा कहना है कि प्रवासी लेखन भी अलग अलग ढंग से देखा जाना चाहिये.
पहली श्रेणी में भारतवंशियों का साहित्य जिसमें मॉरीशस, सुरिनाम, फ़िजी एवं त्रिनिदाद का साहित्य हो. दूसरी श्रेणी में ब्रिटेन, अमरीका-कनाडा, युरोप, खाड़ी देश आदि आदि का हिन्दी साहित्य हो. प्रवासी लेखकों को आलोचकों की पुरानी पीढ़ी को तरफ़ नहीं देखना चाहिये. प्रवासी लेखकों को पढ़ने वाले आलोचक मौजूद हैं. विजय शर्मा (जमशेदपुर), अजय नावरिया, साधना अग्रवाल (दिल्ली), हरियश राय (मुंबई) गंभीरता से प्रवासी लेखन की पड़ताल कर रहे हैं. साहित्य निर्माण शहरों की तरह प्लैन करके नहीं किया जाता. इसका एक प्राकृतिक तरीक़ा है. हमारे आलोचक भी ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आएंगे.
भारतीय राजनीति में ‘प्रवासी’ के मायने अलग है! सरकार उनको जल्दी ही मताधिकार देने जा रही है. आप प्रवासी, भारत सरकार और भारतीय जनमानस के संदर्भ में, इसे कैसे देखते हैं?
भारतीय राजनीति के लिये प्रवासी के मायने सच में अलग हैं. प्रवासी मेला भारत में जनवरी के पहले सप्ताह में आयोजित किया जाता है. मैनें देखा है कि भारत सरकार के लिये प्रवासी का अर्थ है आर्थिक रूप से सक्षम भारतीय जिसने विदेश में रह कर तगड़ा माल कमाया है या फिर कोई राजनीतिक उपलब्धि प्राप्त की है. यानि कि बाज़ारवाद के इस समय में भारत सरकार के लिये आम आदमी का कोई महत्व नहीं है. जैसा कि मैनें पहले कहा है कि हमारे देश (ब्रिटेन) में आम आदमी की सही मायने में कदर है. भारत सरकार या सरकारी संस्थाओं (जैसे कि साहित्य अकादमी, दिल्ली हिन्दी अकादमी आदि) ने प्रवासी लेखन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया. हां वोट का अधिकार उन भारतवंशियों को देने के बारे में सरकार ज़रूर सोच रही है जो कि ओवरसीज़ सिटिज़नशिप ऑफ़ इंडिया ग्रहण कर लेते हैं. उनका उद्देश्य शायद प्रवासी वोट-बैंक बनाने का हो सकता है. मगर याद रहे कि प्रवासी भारतीयों को इस तरह एक रेवड़ के तौर पर नहीं हांका जा सकता है. हमारे भारतीय मित्र हमें बैंक समझें और सरकार वोट बैंक, तो यह हमें मन्ज़ूर नहीं होगा.
भारतवंशी साहित्य और भारतीय साहित्य में क्या अंतर देखते हैं?
जैसा कि मैनें पहले भी कहा है कि भारतीय हिन्दी साहित्य एक विशेष विचारधारा (मार्क्सवाद) से संचालित होता है. इसी विचारधारा को मानने वाले मुख्यधारा के लेखक माने जाते हैं. जो लेखक इस विचारधारा से इत्तेफ़ाक नहीं रखते उन्हें लेखक ही नहीं माना जाता. लगभग तीन दशकों से भारत में हिन्दी साहित्य केवल दो लोगों को ध्यान में रख कर लिखा जाता है – नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव. पाठक के बारे में कोई लेखक नहीं सोचता. मुझे लगता है कि शायद इसी कारण से हिन्दी साहित्य के पाठक सिरे से ग़ायब हो गये हैं. भारतीय हिन्दी लेखन में भ्रष्टाचार, मज़दूर, किसान, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, मुख्य मुद्दे हैं. लेखन दुरूह से दुरूह होता जा रहा है. चाहे कविता हो या कहानी या फिर उपन्यास, आम पाठक को ना तो समझ आते हैं और न ही उसके दिल में जगह बना पाते हैं. प्रवासी लेखक अपने अपनाए हुए देश के बारे में लिखता है; अपनी जन्मभूमि के प्रति नॉस्टेलजिया के बारे में लिखता है; उसकी भाषा में एक नयापन होता है. प्रवासी लेखक भारत के प्रति प्रेम की भावना रखता है, मगर भारत को दूर से देखता है तो तटस्थ होकर सोच पाता है. प्रवासी लेखक एकदम नये थीम हिन्दी साहित्य को दे रहा है. ज़रूरत है कि भारतीय आलोचक इस लेखन को पढ़ें और उनका विश्लेषण करे. बिना पढ़े हमारे साहित्य को नकारने की प्रवृति को त्यागना होगा.
आज प्रवासी भारतीय अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अच्छी खासी दखल रखते हैं. क्या यह भारतीय जनता के लिये संभावना है?
यह सच है कि आज प्रवासी भारतीय बहुत से देशों में राजनीतिक रूप से खासे सक्रिय हैं. यही नहीं, कुछ देशों में तो वे प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गये हैं. हमें याद रखना होगा कि भारतवर्ष का जो वर्तमान स्वरूप है वो केवल चौंसठ वर्ष पुराना है. उस हिसाब से प्रवासी भारतीयों की भूमिका बहुत प्रभावशाली कही जा सकती है. आज ब्रिटेन में भारतीय मूल के लॉर्ड तरसेम सिंह किंग, लॉर्ड देसाई, लॉर्ड बागड़ी, लॉर्ड ढोलकिया, लॉर्ड कर्ण बिलिमोरिया आदि व वीरेन्द्र शर्मा जैसे एम.पी. भारतीय मूल के लोगों के लिये नये गोल स्थापित करते हैं. काउंसलर जगदीश शर्मा, ज़किया ज़ुबैरी, ग्रेवाल, के.सी. मोहन जैसे सौ से अधिक काउंसलर ब्रिटेन की लोकल गवर्नमेंट में शामिल हैं. अमरीका में बॉबी जिन्दल जैसे लोग भारत की उपस्थिति वहां दर्ज करवा रहे हैं. इसका असर भारत पर भी सकारात्मक रूप में पड़ सकता है.
अभी तक भारत में राजनीति शरीफ़ घरों के पढ़े लिखे लोगों का खेल नहीं मानी जाती. उसे कैरियर के रूप में विद्यार्थी या अभिभावक नहीं सोचते. अपने वेदश में बसे पढ़े लिखे भारतवंशियों की यह उपलब्धियां भारतीय युवा पीढ़ी को एक नई सोच दे सकते हैं कि उन्हें भी आगे आकर अपने देश में वो अच्छाइयां पैदा करनी हैं जो कि इन विकसित देशों में सहज रूप से देखने को मिल जाती हैं. अब भारत से केवल डॉक्टर, इंजीनियर, आई. टी. स्पेशलिस्ट या फिर अकाउंटेण्ट ही विदेश नहीं जाएंगे. अब यह भी संभव है कि विदेशों की राजनीति को समझने वाले युवा वहां इस उद्देश्य से प्रवास करने जाएं.
आज के बाज़ार के प्रवाह में साहित्य की क्या भूमिका देखते है?
हिन्दी साहित्य से पाठक बहुत पहले से विमुख होने लगे थे. उसमें बाज़ार की कोई भूमिका नहीं थी. धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका बाज़ार के प्रबल होने से पहले ही आख़री हिचकी ले चुकी थीं. हिन्दी में साहित्य केवल गिने चुने लोगों के लिये ही लिखा जाता है और गिने-चुने लोग ही उसे पढ़ते भी हैं. हम जन साहित्य की चर्चा तो कभी करते ही नहीं है. यदि बाज़ार से किसी का मुक़ाबला है तो वो जन-साहित्य का है. गृहशोभा, सरिता, मुक्ता, और समाचारपत्रों में प्रकाशित साहित्य तो बाज़ार में डटा हुआ है. हमने पहले मंच खो दिया. जिस मंच पर दिनकर, बच्चन, और दूसरे उच्चकोटि के कवि विराजमान हुआ करते थे, वहां हमने चुटकलेबाज़ों को जमने का मौक़ा दे दिया. अब आहिस्ता आहिस्ता कहानी और उपन्यास का हाल भी साहित्यिक कविता जैसा होने जा रहा है. हमें उर्दू शायरों से सबक़ लेना चाहिये और आसान शब्दों में बड़ी बात कहनी चाहिये. वैसे हिन्दी फ़िल्मों में हम शैलेन्द्र से सीख सकते हैं कि जनमानस की बात को आसान मगर गहरे ढंग से कैसे कहा जाए. बाज़ार के सामने हिन्दी साहित्य कोई चुनौती खड़ी नहीं करता. बल्कि मैं तो प्रसन्न हूं कि बाज़ार के चलते हमारे कुछ एक रचनाकार अनुवाद के माध्यम से इटली, जर्मनी और फ़्रांस में पढ़ाए जाने लगे हैं.
विचारधारा और साहित्य के रिश्ते को आप किस तरह से देखते हैं?
साहित्य के लिये विचार आवश्यक है विचारधारा नहीं. मैं विचारधारा को साहित्य के लिये कतई महत्वपूर्ण नहीं मानता. विचारधारा ऊपर से आरोपित की जाती है. हिन्दी साहित्य में विचारधारा का अर्थ राजनीतिक विचारधारा से है. और वो भी मार्क्सवादी विचारधारा. मेरा मानना है कि राजनीतिक विचारधारा से पैम्फ़लेट तो बनाए जा सकते हैं, अच्छे साहित्य की रचना नहीं हो सकती. हम बिना किसी राजनीतिक विचारधारा के दबाव के भी उच्चकोटि का साहित्य रच सकते हैं. मैं तो कहूंगा कि बिना राजनीतिक विचारधारा के ही बढ़िया साहित्य रचा जाता है. साहित्य के लिये विचार ज़रूरी है विचारधारा नहीं. विचार लेखक के भीतर से जन्म लेता है और साहित्य को गरिमा प्रदान करता है. आम आदमी का दर्द किसी विचारधारा का मोहताज नहीं होता.
आम आदमी की समस्या समझने के लिये हमें एक संवेदनशील व्यक्तित्व की आवश्यक्ता होती है. याद रहे यह आम आदमी गांव का भी हो सकता है और शहर का भी. यह आदमी भारत का भी हो सकता है और विदेश का भी. जब तक लेखक आम आदमी के दर्द को अपना दर्द समझेगा उसे किसी भी राजनीतिक विचारधारा की आवश्यक्ता नहीं है. जैसा कि मैनें पहले ही कहा है कि प्रवासी लेखक को भारत की राजनीतिक विचारधारा को समझने की क्या आवश्यक्ता है. वह जिस मुल्क़ में रह रहा है, उसी मुल्क़ के कमज़ोर तबके की बात अगर वह उठाता है तो उच्चस्तरीय साहित्य की रचना करेगा. वैसे एक बात और भी है, भारत का हिन्दी साहित्य एक ही विचारधारा का दबाव के कारण एकरस भी होता जा रहा है. साहित्य में कुछ भी सकारात्मक नहीं दिखाई देता. केवल आक्रोश, निराशा, आलोचना आदि ही साहित्य बन कर सामने आ रहे हैं. विचारधारा से कहीं बेहतर है शोध. हिन्दी लेखकों को मी बोरिशाइल्ला और मैक्लुस्कीगंज की तरह शोध करके लिखना चाहिये.
विश्व साहित्य में हिन्दी साहित्य को कहां देखते हैं?
बंधु एक बात याद रखिये कि हिन्दी साहित्य सब पार्ट-टाइम का खेल है. यहां अधिकतर लेखक खा कर लिखते हैं – लिख कर नहीं खाते. जबकि अधिकतर विकसित देशों में लेखक होना एक फ़ुल-टाइम जॉब है. वहां का लेखक अपने विषय पर गहरा शोध करता है. फिर यहां के लेखन पर कोई एक विचारधारा ने कब्ज़ा नहीं कर रखा. लेखन में बहुत विविधता है. यहां तक की भारतीय अंग्रेज़ी लेखक भी अपने साहित्य के लिये विषयों का चयन बहुत सोच विचार के बाद करता है. हाल ही की बात है कि भारतीय मूल की एक लेखिका संगीता भार्गव के पहले उपन्यास दि वर्ल्ड बियॉण्ड का ‘साइनिंग दि बुक’ आयोजन था. लेखिका ‘हैरो ऑन दि हिल’ की किताबों की दुकान ‘वाटरस्टोन्स’ में सुबह 10 बजे आकर बैठ गईं और दोपहर के दो बजे तक अंग्रेज़ और भारतवंशियों ने क़रीब 57 किताबें ख़रीद लीं. संगीता हैरो की ही रहने वाली है. उसने 1855 के अवध के बारे में शोध किया और अपना पहला उपन्यास लिखा. मैं हिन्दी साहित्य का मुक़ाबला विदेशी साहित्य से इसलिये भी नहीं करता कि हिन्दी के लेखक का पहला संस्करण तीन सौ से पांच सौ किताबों का होता है. भला ऐसे में उसका मुक़ाबला विश्व साहित्य से कैसे कर सकते हैं. फिर भी फिर भी उदय प्रकाश, महुआ माजी और अलका सरावगी जैसे लेखकों ने अनुवाद के माध्यम से विश्व में हिन्दी साहित्य को बेहतर मुकाम दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाई है.
आप पुरस्कार देते हैं. क्या कहते हैं पुरस्कार के बारे में? यह कितने निष्पक्ष होते हैं? नोबेल से लेकर हर क्षेत्र में इनकी क्या दशा है?
विश्व का कोई भी पुरस्कार या सम्मान सभी को संतुष्ट नहीं कर सकता. हर घोषणा पर कोई न कोई आपत्ति उठेगी ही. नोबेल पुरस्कार तो राजनीति से प्रेरित है ही. और साफ़ दिखाई भी देता है. जब मैं साहित्य में राजनीति के दख़ल के विरुद्ध हूं तो ज़ाहिर है कि सम्मान के मामले में मेरी सोच अलग नहीं होगी. अब जैसे पहल पत्रिका किसी ख़ास विचारधारा का साहित्य प्रकाशित करती रही. उसके संपादक अपनी पत्रिका में छापते रहे कि लेखक हमें कृपया रचना ना भेजें. हमें जिस किसी लेखक से रचना मंगवानी होगी, उसे स्वयं ही संपर्क कर लेंगे. भला ऐसी पत्रिका द्वारा दिया जाने वाला सम्मान सर्वमान्य कैसे हो सकता है. सम्मानों की अपनी राजनीति है फिर वो चाहे साहित्य अकादमी का पुरस्कार हो आ अन्य कोई.
जहां तक कथा यू.के. द्वारा दिये जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ का सवाल है, यह एक भावनाओं का मामला है. यह जिस व्यक्ति के नाम पर दिया जाता है उसके साथ मेरा भावनात्मक रिश्ता रहा – क़रीब 17 साल का रिश्ता. इस रिश्ते की भावनाओं के साथ बेईमानी नहीं की जा सकती. दूसरे, कथा यू.के. कभी भी लेखक को सम्मानित नहीं करती. हमारा सम्मान कृति के लिये होता है. हम लेखक के क़द से ना तो आतंकित होते हैं और ना ही शर्मिन्दा. हमारे लिये किसी लेखक की पहली कृति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि दसवीं. फिर हम उसमें किसी विशेष राजनीतिक सोच को नहीं खोज रहे होते. हमारी सोच का दायारे में गुणवत्ता के अतिरिक्त कुछ और नहीं आता. देखिये कभी कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही स्तर के 2 या 3 उपन्यास हो सकते हैं. हम आख़्रिरकार उनमें से किसी एक कृति को ही तो सम्मानित कर सकते हैं न. कथा यू.के. अपनी सोच के मुताबिक रचना का चयन कर लेती है. हमारे 17 वर्षों के सम्मानित साहित्यकारों की सूची किसी भी संस्था के लिये गर्व का विषय हो सकता है.
आजकल क्या लिख पढ़ रहे हैं?
इस सवाल का जवाब देना थोड़ा मुश्किल है. यदि मैं हिन्दी के किसी भी उपन्यास या कहानी संग्रह का नाम ले लेता हूं तो लोग खट से क़यास लगाने लगेंगे और भविष्यवाणियां करने लगेंगे कि अगले वर्ष का ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ किसे मिलने वाला है. पिछले वर्ष मनीषा कुलश्रेष्ठ को इन भविष्यवाणियों का शिकार बनना पड़ा था – शिगाफ़ के लिये. जैसा कि आपको अभी बताया संगीता भार्गव का अंग्रेज़ी उपन्यास पिछले हफ़्ते ही ख़रीदा है – दि वर्ल्ड बियॉण्ड. वही पढ़ रहा हूं. वैसे मैं आजकल अमरीका के प्रवासी हिन्दी लेखकों का साहित्य भी पढ़ रहा हूं. मुझे अमरीकी हिन्दी लेखन की बहुत जानकारी नहीं है. कुछ नामों की कुछ रचनाएं अवश्य पढ़ी हैं, मगर गहराई से नहीं. एक कहानी संग्रह दिशान्तर हाल ही में आया है. उसे भी बीच बीच में समय दे रहा हूं. पिछले सप्ताह ही दिल्ली हिन्दी अकादमी के लिये एक प्रवासी कहानी संग्रह तैयार किया है. लम्बी भूमिका लिखी है उसके लिये. इस समय एक कहानी पर काम कर रहा हूं. अपना पहला उपन्यास भी दिमाग़ में शेप ले रहा है.
तेजेन्द्र शर्मा (२१ अक्टूबर १९५२, जगरांव, पंजाब) कथाकार, कवि,धारावाहिक लेखन और अभिनय भीकहानी संग्रह:: काला सागर (1990), ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) ,यह क्या हो गया (2003), बेघर आंखें (2007), सीधी रेखा की परतें – समग्र भाग 1 (2009), क़ब्र का मुनाफ़ा (2010) दीवार में रास्ता (शीघ्र प्रकाश्य), कविता संग्रह :: ये घर तुम्हारा है – (2007)पंजाबी, उर्दू, नेपाली और अंग्रेजी में अनूदित सम्मान: ढिबरी टाइट को महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार – 1995,सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार – 1998,सुपथगा सम्मान-1987,प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007) तितली बाल-पत्रिका साहित्य सम्मान – बरेली (2007),भारतीय उच्चायोग द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान (2008). कथा यू. के. के महासचिव और संस्थापक. कथा यू.के के माध्यम से ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में कार्यशालाओं का आयोजन ई-पता : kahanikar@gmail.com; |
कालु लाल कुलमी |