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समालोचन

Home » थाईलैंड : रामजी तिवारी

थाईलैंड : रामजी तिवारी

कवि, कथाकार रामजी तिवारी ने थाईलैंड के इस यात्रा संस्मरण में मौज़ और मज़े के टूरिज्म से परे देह-व्यापर पर पर टिकी उस देश की अर्थव्यवस्था के पीछे की विद्रूपताओं और विवशताओं की यात्रा की है. हमेशा से स्वाधीन रहे इस देश की यह आर्थिक गुलामी विस्मित करती है और सचेत भी. इस यात्रा विवरण में रंगीन रातों की फीकी सुबहों जैसा अवसाद है.  यह दिलचस्प तो जरूर है पर सुविधाजनक नहीं.

by arun dev
February 19, 2012
in Uncategorized
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थाईलैंड : रामजी तिवारी
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थाईलैण्ड : स्वतन्त्रता की भूमि     

रामजी तिवारी

 

नव वर्ष की पहली सुबह थी. कोलकाता अभी अलसाया हुआ था. देर रात तक चले जश्न के बाद की थकान उस शहर पर साफ दिख रही थी. हमारी जेट एयरवेज की कोलकाता से बैंकाक की उड़ान का समय सुबह 10बजे का था लेकिन अपनी पहली विदेश यात्रा के रोमांच और उत्साह के कारण हम अपने अतिथिगृह से सुबह 5 बजे ही निकल लिए थे. लगभग 6 बजे मैं अपने मित्र मजूमदार के साथ हवाई अड्डे पर पहुँचा. अगले दो घण्टे तक हम उस एयरपोर्ट की जन सुविधाओं का लाभ उठाते रहे. हमारे ग्रुप-लीडर पाठक जी का आगमन हुआ. उन्होंने हर एक आदमी को गिना. कुल 32 लोग होने चाहिए, उन्होंने कहा. संख्या एक कम पड़ रही थी, जो देश के प्रतिष्ठित मन्दिर के पुजारी की थी. पाठक जी परेशान ये पुजारी हमेशा यह क्यों सोचते हैं कि उन्हें लाईन में नहीं खड़ा होना पड़ेगा. वो लगातार फोन मिला रहे थे लेकिन नेटवर्क व्यस्त. नये साल पर ऐसा होना पुरानी बात थी. बहरहाल पुजारी जी का आगमन हुआ.

हम लोग चेकिंग के बाद लाउन्ज में बैठे. समाचार चैनलों पर यह खबर फ्लैश होने लगी कि बैंकाक के एक क्लब में लगी आग से गत रात 55 लोग मारे गये, जिसमें अधिकतर संख्या विदेशी पर्यटकों की थी. किसी ने चुटकी ली ‘हम लोग जहाँ भी जायेंगे, आग ही लगेगी.’ बहरहाल हम लोग बैंकाक के लिए रवाना हुए. विमान को बंगाल की खाड़ी और वर्मा को पार करने में 2.30 घण्टे का समय लगा और यह थाईलैण्ड के स्थानीय समय के अनुसार दोपहर बाद 3 बजे बैंकाक के सुवर्णभूमि अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरा. 2.30 घण्टे का सफर और 2.30 घण्टे का भारतीय और थाई मानक समय का अन्तर. उनका समय हमसे आगे. हमने अपना पासपोर्ट निकाला, वीसा का आवेदन फार्म भरा, अपने अहंकार को जेब में रखा और पंक्तिबद्ध खड़े हो गयें. क्या हम उत्तर प्रदेश या बिहार में होते तब भी यह हमारे जेब में समा जाता ?

सामने की दीवार पर सूची लगी थी. तीन तरह की. एक जिन देशों के नागरिकों को थाईलैण्ड में वीसा की आवश्यकता नहीं, दूसरे जिन्हें आगमन पर यह सुविधा उपलब्ध है और तीसरे जिन्हें इसके लिए पूर्व आवेदन करना पड़ता है. यदि ऊपर बताए हुए विवरण को ढक दिया जाय तो यह सूची कुछ इस प्रकार दिखती. एक-जिनकी जेब डालर, पौण्ड या यूरो से भरी हो, यथा-पश्चिमी यूरोपीय और अमेरिकन देश, दो जिनकी जेब में इसकी सम्भावना हो यथा-भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देश और तीसरे जिनके पास इतने कपड़े ही नहीं हो कि वे जेब सिल सकें, यथा अधिकांश अफ्रीकी देशों का समूह.

हम एयरपोर्ट से बाहर आए. ए.पी.एस. टूर्स एण्ड ट्रेवेल्स की बस हमारा इन्तजार कर रही थी. हमारा थाई गाईड चालू हो गया, अपनी सामान्य सी अंग्रेजी में. वही पुराना राग अपना पर्स और पासपोर्ट बचाकर. अकेले नहीं निकलना यह देश बेहद रंगीन है. उसने आँख दबायी लेकिन समझदारी के साथ. हमारे एक साथी ने कहा लेकिन आप तो हमारे साथ रहेंगे न? हाँ! क्यों नही? उसने कहा लेकिन इस यात्रा में वह समय जल्दी ही आ जायेगा जब कोई किसी के साथ नहीं रहेगा और न ही कोई किसी को ढूँढेगा. ग्रुप में तीन कपल भी थे. उसने तुरन्त बात बदली मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आप लोगों से परिचय नहीं पूछ पाया. सभी ने अपने-अपने तमगों के साथ अपनी पहचान करायी. प्रोफेसर, डाक्टर, इन्जीनियर, वकील और व्यवसायी के रूप में. दरअसल यह सूची इन व्यवसायों से आगे बढ़ भी नहीं सकती थी.

उसने अपना परिचय दिया. जैकी नाम है मेरा! आप मुस्कुरा सकते हैं कि आप थाईलैण्ड में हैं. यह देश पर्यटकों की खुशी के सारे भौतिक और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध करता है. दुनिया के पर्यटन मानचित्र का सबसे अधिक चमकता हुआ सितारा. क्षेत्रफल-5 लाख वर्ग किमी, आबादी-6.20 करोड़, भाषा-मुख्यतया थाई, धर्म-बौद्ध, मुद्रा-बाट और शासन-राजतन्त्र की ऊँगली पकड़कर चलना सीखता हुआ लोकतंत्र. राजा-भूमिबोल और प्रधानमंत्री-अभिजीत बेजाजीवा. मैं यहाँ एक बात जरूर कहना चाहूँगा इस देश में राजा का बहुत आदर और सम्मान किया जाता है. वह यहाँ के लोगों के लिए ईश्वर का प्रतिनिधि है, इसलिए आप इस यात्रा में राजा की गरिमा को ठेस लगने वाली कोई भी बात न तो कहेंगे और न ही करेंगे. जैसा मैने पहले बताया, पर्यटन इस देश की धड़कन है. मुझे एक साल पहले का घटनाक्रम याद आ गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री थाक्सिन सेनेवात्रा के ऊपर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लग रहे थे. देश भर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए सरकार आमादा थी कि प्रदर्शनकारियों को उपाय सूझा. उन्होंने  बैंकाक अन्तर्राष्ट्रीय अड्डे को घेर लिया. 6 लाख लोगों से घिरा हवाई अड्डा. सारी उड़ाने ठप्प. देश भी ठप्प. राजा ने सेना से सलाह ली. सरकार घुटनों पर आ गयी. थाक्सिन को देश छोड़कर भागना पड़ा. जैकी ठीक ही कहता है पर्यटन इस देश की धड़कन है.

हमारी बस एक घण्टे तक बैंकाक के मलाईदार रास्ते पर चलती रही. गगनचुम्बी इमारतों और कंक्रीट के जंगलों के बीच जैकी हमें  थाईलैण्ड के बारे में बताता रहा. यह देश दक्षिण पूर्व एशिया का हृदय है. वर्मा, लाओस, कम्बोडिया और मलेशिया की जमीनी सीमाएँ और दक्षिणी हिस्से में समुद्र से घिरा हमारा देश इस हिस्से का अकेला सितारा है, जो किसी देश की कालोनी नहीं बना. थाई का मतलब स्वतंत्रता होता है और यह अनायास नहीं है कि इस देश का नाम थाई लैण्ड है. स्वतंत्रता की भूमि. हाँलाकि 20वी सदी के आरम्भ में इसका एक बड़ा हिस्सा वर्मा के पास चला गया और कुछ समय के लिए यह ब्रिटिश और फ्रेंच साम्राज्यों के बीच बफर स्टेट भी बना रहा, लेकिन हमें इस बात का सदैव गर्व रहता है कि हम किसी के गुलाम नहीं हुए. पर्यटन की दृष्टि से थाईलैण्ड के पाँच सितारों (शहरों) को याद किया जाता है. बैंकाक, पटाया, फुकेट, चियांग थाई और कोसामुईं. आप सौभाग्यशाली हैं कि इनमें से तीन सितारों से आप रूबरू होंगे.

यह इण्डोनेशिया के बाद की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला क्षेत्रीय ताकत है और गैर नाटो देशों में अमेरीका का सबसे नजदीकी सहयोगी. चावल के सबसे बड़े निर्यातक देशों में इसका शुमार होता है और यहाँ के खाने में भी इसका प्रयोग अधिकतम होता है. यहाँ की व्यवस्था बहुत कुछ भारत से मिलती है. परिवार का बुजुर्गों द्वारा संचालन और यहाँ के पौराणिक ग्रन्थ का रामायण से लिया गया प्रभाव. विवाह, जन्म और मृत्यु के संस्कार बौद्ध धर्म से संचालित है. हमारी बस होटल के पार्किंग एरिया में दाखिल हुयी. जैकी ने बस से उतरते हुए एक और निर्देश दिया. ‘ठीक आठ बजे यहीं मुलाकात होगी, खाने के लिए रेस्टोरेन्ट चलना है.’ हमने अपने रूम पार्टनर्स चुने, चेक-इन किया और कमरों में  दाखिल हो गये.

ठीक आठ बजे मेरे पार्टनर मजुमदार तैयार रामजी भाई चलो, यह भारत नहीं है. आठ बजे का मतलब आठ बजे होता है. उन्होंने कहा. ‘लेकिन हमारा ग्रुप तो भारतीयों का ही है न ? मैंने अपनी देरी का बहाना बनाया. बहरहाल हम लोग नीचे लाबी में पहुँचे. तीनों कपल के अलावा कोई नहीं वहाँ पर. मजुमदार की ओर देखते हुए मैं मुस्कुराया हम लोग कभी नहीं सुधर सकते. अगले 9 दिनेां तक इस बीमारी से हमारा ग्रुप लगातार सड़ता रहा. हमने दिये गये समय की हमेशा धज्जी उड़ायी, भले ही उससे उतपन्न तमाम कठिनाईयाँ झेली. जैकी के व्यंग बाण और भारतीयों के लिए उसके मन में उत्पन्न वितृष्णा भी.

हमारा डिनर ‘करीपाट’ रेस्टोरेन्ट में था. करीपाट’! ठीक समझा आपने. भारतीय रेस्टौरेन्ट.एक मारवाड़ी का लेकिन उसमें काम करने वाले अधिकतर थाई हिजड़े, जिन्हें “lady-boy” या थाई भाषा में “kay-toy” भी कहा जाता है और बर्मीज युवक यवुतियाँ, जो अपनी सरकार की मदद से अवैध अप्रवासन के जरिए थाईलैण्ड में दाखिल हो जाते हैं. हथियारेां की खरीद, मादक द्रव्यों की तस्करी और आँग सान सू ची की नजरबन्दी के अलावा यह जिम्मेदारी भी आजकल सरकार ही उठा रही है. ‘और थाई सरकार?’ ‘रोकती है या कहें तो रोकने का दिखावा करती है, परन्तु रूकता नहीं. एक तो दोनों देशों के बीच इतनी लम्बी सीमा रेखा और दूसरे इतने सस्ते और बेहतर श्रमिकों का थाईलैण्ड में अभाव. फिर रंग-रूप से आप पहचान भी नहीं सकते कि कौन थाई है और कौन बर्मीज. ‘और ये हिजड़े’ मैने जैकी से फिर पूछा. यह थाई जेनेटिक दोष है. इतनी संख्या में इनका जन्म लेना वास्तव में देश के लिए समस्या है.’ उसने बताया. ‘और यह भी कि पूरे थाईलैण्ड में होटलों का कार्य इन्हीं हिजड़ों और बर्मीज अवैध आप्रवासियों के सहारे चलता है.

उसी रेस्टौरेन्ट में हमारी मुलाकात हुई हमारे मेजबान और ए.पी.एस.टूर्स एण्ड ट्रेवेल्स के मालिक सैम से. लेकिन ‘सैम’ तो हिन्दी बोलते हैं और भोजपुरी भी. हाथ मिलाता हूँ उनसे. ‘मैं रामजी’’. ‘अरे…रामजी. का हो काल हाल बा ठीक बा ना?’ वो कहते हैं  आपके मित्र अन्जनी देर रात तक पहुँचेंगे, उन्होंने बनारस से फ्लाईट पकड़ी है. आप थोड़ी भी चिन्ता मत कीजिएगा.  ‘सैम’ दरअसल ओंकार नाथ दूबे हैं. आजादी से पहले उनके पिताजी थाईलैण्ड आये थे. यहाँ काम भी मिल गया लेकिन भारत से रिश्ता कायम रहा. गोरखपुर जिले के रहने वाले. अब बनारस में भी अपना घर है. लेकिन ‘सैम’ नाम कैसे पड़ा, मैंने अन्जनी से पूछा था. उसने बताया, ‘ओंकार हमारे साथ बनारस में पढ़ते थे. हम लोग दोस्त थे. फिर ये बैंकाक चले आये. अपने पिता के काम में हाथ बँटाने के लिए. वहाँ उनका नाम हुआ  सनश्याम प्रसाद दुबे . 1938 के पहले थाईलैण्ड का एक नाम श्याम भी था. ऐसे नाम की शायद वही वजह रही होगी. पिताजी के गुजरने के बाद उनका कारोबार पर्यटन का हो गया, जिसमें एक ग्लोबल नाम की आवश्यकता थी. जो बाद में चलकर ‘सैम’ हो गया.’ बढ़िया नाम है, ‘मैने सोचा’. किसी भी राष्ट्रीयता से ऊपर. वह थाई भी हो सकता है, अमेरीकी, अफ्रीकी, यूरोपीय या भारतीय भी.’

हमने छककर खाना खाया. बेहद स्वादिष्ट. हम होटल वापसी के लिए बस में बैठे. जैकी ने कहा ‘आपके ग्रुप के कुछ साथियों ने मुझसे बेहद दिलचस्प सवाल पूछे हैं. होटल चलने के बाद इन तीनों जोड़ों को उतार कर मैं इसका जवाब दूंगा. हमारी बस होटल के सामने रूकी, उन तीनों जोड़ों को उतारा गया और पूछा गया कि कौन-कौन लोग बैंकाक की जवानी देखना चाहेंगे. एक दो लोग और उतरे. उन्हीं के साथ मैं भी उतर गया. बस चली गयी. मुझे थोड़ा बुखार महसूस हो रहा था, सो मैने आराम करना ही बेहतर समझा. होटल के सामने लगी कुर्सियों पर बैठा ही था कि एक आटो आकर रूकी. उसने कुछ रंगीन पोस्टर दिखाते हुए इशारा किया. मैने ‘ना’ में सिर हिलाया. सोचा इशारों की भाषा कितनी वैश्विक है, भारतीय और थाई का भेद एक झटके में मिट जाता है.  अगले दस मिनट में ऐसा दस बार हुआ.’ मुझे लग गया, यहाँ अकेले बैठना मुश्किल है. अपने कमरे की तरफ वापस लौटा तो देखा कि ‘नीचे के फ्लोर’ पर चल रहे मसाज पार्लर भी जवान हो उठे हैं. सीसे लगे पार्लर के भीतर बैठी लड़कियाँ अपनी जवानी का इम्तिहान देने को आतुर हैं. मैंने अपने कदमों को तेज किया. कमरे में  दाखिल हुआ, पैरासिटामाल लिया और सो गया. मेरे पार्टनर एक बजे लौटे. ‘सारी यार रामजी देर हो गयी.’ मैने कहा ‘कोई बात नही, चलो सो जाओ, सुबह बात होगी.’

एक रात गुजरी थी पर सबके पास कोई न कोई किस्सा जरूर था. मैंने मजूमदार से पूछा कहाँ गये थे रात को तुम लोग?  मजूमदार मुस्कुराया मत पूछो यार ऐसे-ऐसे शो थे वहाँ जिसका नाम भी हमने सुना नहीं. लेकिन सब बेकार क्योंकि ‘बाट’ तो किसी के पास था नहीं. सब लोग बैरंग वापस लौटे हैं’. उसने कहा. ‘‘यार बाट तो जरूरी है, देखो ना रात से ही मुझे बुखार आ रहा है. कुछ दवा भी लेनी होगी.’’ मैने कहा. हम दोनों नाश्ते के बाद मुद्रा विनिमय की तलाश में निकल पड़े. पता चला, घर में छोरा, गली-गली ढिंढोरा. ये तो हमारे होटल में भी हो सकता है और हमारे ही क्यों, किसी भी होटल में हो सकता है. 100 डालर = 3400 बाट. डालर नहीं है तब भी कोई बात नहीं. 1000भारतीय रूपये में 680 बाट के आसपास मिल जायेगा. भारतीय रूपया नहीं तब भी चलेगा. ग्लोबल डेविट कार्ड होना चाहिए, किसी भी ए.टी.एम. से आप पैसा निकाल सकते हैं. अब यह भी नहीं तो फिर थाईलैण्ड के लिए ही क्यों? किसी भी देश, समाज या परिवार के लिए आप एक बेसुरे राग से अधिक कुछ नहीं हैं.

दूसरे दिन का नियत कार्यक्रम मानवाधिकार पर आयोजित सेमिनार  था. दोपहर 12 बजे से. हमे भारत से आये एक और ग्रुप ने ज्वाइन किया. 40 सदस्यों का यह ग्रुप देर रात पहुँचा था. मेरा मित्र अंजनी मिला, वह मेरे साथ ही काम करता है. सैम का जिगरी दोस्त. मेरे थाईलैण्ड आने का श्रेय भी उसी को है. उसकी जिद थी कि तुम भी कुछ बोलो यहाँ पर. मेरी तबियत ठीक नही थी और ऊपर से संकोच भी मन में था. बड़े-बड़े डाक्टर्स, इन्जीनियर्स, वकील, प्रोफेसर्स और मानिन्द लोगों के बीच में मैं क्या बोलूँगा , वह तब भी नहीं माना. मेरे नाम की स्लीप उसने संचालक के पास भेज दी. अलग-अलग राज्यों से लोग आते, अपने राज्यों की रिपोर्टिंग करते और चले जाते. कुल जमा उपलब्धि कि सेमिनार बैंकाक में हो रही है. दूसरा अगले साल सिंगापुर जाने का और फिर न्यूयार्क. और हो भी क्यों न ? पूरी दुनिया इसी सपने को देखने में मग्न है. आखिर हम भी तो उसी ग्लोबल दुनिया का ग्लोबल नागरिक हैं. मैनहटन की तरफ ललचाई नजरों से देखने वाले.

3 जनवरी की सुबह सभी के चेहरे पर रौनक के साथ आयी. गुजरी रात ने किस्सों में फैंटेसी की जगह यथार्थ भर दिया था. फिर आज हमें पटाया के लिए प्रस्थान भी करना था, सो उसका उत्साह अलग ही था. नाश्ते के बाद ‘चेक-आउट’ और बैंकाक शहर का आधा दिन का भ्रमण. हम वाल-अरूण  (temple of dawn) देखने गयें. बुद्ध की सोई हुयी लगभग 100 फीट की प्रतिमा. मन्दिर की बेहद खूबसूरत नक्काशी. टिकट-50 बाट का. जैकी ने बताया यहाँ कोई पार्किंग एरिया नहीं है, आप सभी को लगभग चलती हुई बस से ही उतरना होगा. हमारी बस के साथी तो उतरने में कामयाब रहे लेकिन दूसरी बस के साथी ऐसा नहीं कर पाये. उस बस को लगभग 3 किमी का चक्कर लगाकर आना था और वह भी रेंगते हुए. हमने टिकट लिया, मन्दिर देखा तब कहीं जाकर वह दूसरा दल पहुँचा. हम भारतीयों की बुद्धि वहाँ भी दौड़ी. मन्दिर प्रवेश के समय हमारा टिकट कहीं भी चेक नहीं हुआ था. साथियों ने उसे दूसरी बस के लोगों को हस्तान्तरित कर दिया. मजे कि बात यह हुयी कि वो भी उसे सलामत बचा लाए. अब यदि हमें पटाया नहीं जाना होता तो हम उन टिकटों को इतनी बार हस्तान्तरित करते कि मन्दिर प्रशासन एक व्यक्ति को रोजगार देने के लिए बाध्य हो जाता. परन्तु हमें तो पटाया पहुँचना था और हमारी यह ईच्छा इतनी तीब्र थी कि साथियों ने मन्दिर से सटे ग्रैन्ड पैलेस  को देखने का विचार बहुमत से ठुकरा दिया.

हमनें बैंकाक को अलविदा कहा और पटाया की ओर निकल पड़े. आठ लेन का हाइवे 120 किमी दूर पटाया को एक झपकी लगने से पहले ही नाप देता है. शहर में हमारा प्रवेश जेम्स गैलरी के रास्ते हुआ. सोने, चांदी और उससे बने आभूषणों  का ‘माल’ जेम्स गैलरी. माल में प्रवेश करते ही हमें एक टाय ट्रेन पर बिठा दिया गया. यह ट्रेन विभिन्न जगहों पर रूकती है, जहाँ दृश्य-श्रव्य माध्यम से यह बताया जाता है कि ये बेशकीमती धातुए कैसे निकाली और तराशी जाती हैं. हालाँकि यह जानकारी मात्र तकनीक तक ही सीमित होती है. वह इन धातुओं की प्राप्ति के पीछे मचे, रक्तपात को साफ भूल जाती है, जिससे सम्पूर्ण अफ्रीका महाद्वीप जूझ रहा है. आस्कर विजेता फिल्म ब्लड डायमण्ड में उसकी थोड़ी सी झलक मिलती है. बहरहाल आप उस ‘माल’ से अपेक्षा भी नहीं कर सकते कि वह इस स्याह चेहरे पर रोशनी डाले. इस जानकारी का उद्देश्य आपके दिल-दिमाग को अपनी जेब को हल्का करने की तैयारी मात्र है. एक से बढ़कर एक आभूषण, जिसे न कभी देखा, न सुना. हम तो फौरन बाहर निकल आए, यह कहते हुए कि ये सब मूर्ख बनाने का तरीका है. जबकि सच तो यह था कि मेरी जैसी हल्की जेब वाले की पहुँच में वह ‘माल’ था ही नहीं. कुछ साथी विजयी मुद्रा में निकले. तमाम खूबियों को गिनाते हुए. ‘यहाँ का सोना बहुत शुद्ध है और भारत से सस्ता भी.’

भूख सबको महसूस हो रही थी. हमने सीधे रेस्टोरेन्ट चलने का फैसला किया. भारतीय रेस्टोरेन्ट अलीबाबा . बिल्कुल समुद्र के किनारे, बीच से सटा हुआ. बेहतरीन लोकेशन और स्वादिष्ट खाना. खाने के बाद हम होटल पहुँचे. इधर शाम हो रही थी और उधर पटाया अपनी आँखे खोल रहा था. हजारो सैलानियों के इन्तजार में अपने हाथों को फैलाए हुए कि अब वे अपने होटलों से निकलेंगे और इस शहर को जवान कर देंगे. जैकी ने ठीक कहा था ‘यात्रा में एक ऐसा पड़ाव भी आयेगा, जब कोई किसी को नहीं ढूँढेगा, सब अकेले गुम हो जाना चाहेंगे. चेक इन के एक घण्टे बाद हमने पाया कि सारे साथियेां के कमरों पर ताला लगा हुआ है. मैं भी अपने पार्टनर मजूमदार के साथ निकल पड़ा. बुखार अब उतरने लगा था. अगले दिन ‘जैकी’ ने चुटकी ली, ‘यहाँ सभी का बुखार उतर जाता है.’

पटाया की झलक मिलनी शुरू हो गयी थी. आप जिधर भी नजर दौड़ाए, बार की श्रृंखलाएं ही दिखेंगी. बाहर लगभग अर्धवृताकार एक बड़ी सी मेज. बार की साईज के अनुसार 20 से लेकर 50 फीट तक लम्बी. सामने बाहर की तरफ कुर्सियाँ, उस पर बैठा विदेशी सैलानियों का हुजूम और भीतर मेज के दूसरी और उन्हें जाम परोसती हुयी लड़कियाँ. जितने पीने वाले उतनी संख्या पिलाने वाली बार बालाओं की. एक पर एक.

तो पटाया केवल पटाया जैसा ही है. अगर आप प्राकृतिक साम्यता देखेंगे तो इसने केवल दूसरों की अच्छाईयों को ही लिया है. हमने सड़क पार की और पाया कि एक समुन्दर इस पैदल पथ पर भी इठलाता हुआ अपने दोनों हाथों को फैलाए इन्तजार कर रहा है. सैकड़ों की संख्या में लड़कियाँ बन-सँवरकर ग्राहकों के इन्तजार में खडी है. हम आगे बढ़ते चले गयें. जहाँ यह सड़क शहर में प्रवेश करती है, वहीं से दूसरा रास्ता भी फूटता है. वाकिंग स्ट्रीटके नाम से. तो अभी तक जो हम देखते आ रहे थे, क्या वह ‘वाकिंग स्ट्रीट’ का पासंग था? हमारा मुँह खुला का खुला रह जाता है और आँखे फटी की फटी. दुनिया के किसी हिस्से में ऐसा भी हो सकता है क्या ? लगता है कि कोई लम्बा सपना चल रहा है.

कल सेमिनार में बैंकाक विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर आये थे. उन्होंने अपना नाम जो भी बताया, हमने किम  ही सुना. अन्जनी ने सेमिनार के बाद उनसे काफी लम्बी बातचीत की. कुछ सवाल मेरे जेहन में भी थे, लेकिन यह पटाया देखने से पहले के सवाल थे. तो क्या इस देश में वेश्यावृत्ति वैध है? अन्जनी ने पूछा. नहीं, लेकिन केवल कानूनी रूप से.’ किम का कहना था जमीनी हकीकत इस कानूनी सच्चाई के उलट है. 1966 में संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में  यहाँ वेश्यावृत्ति पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा दिया गया था और यह कानून कमोवेश तब तक चलता रहा, जब तक कि 1996 की आर्थिक मन्दी ने दक्षिण पूर्व एशियाई टाईगर अर्थव्यवस्थाओं को झकझोर नहीं दिया. यही वह समय था जब इसकी समर्थक लाबी ने उस कानून में अपने सहूलियतों के मुताबिक संशोधन करा दिया. मसाजपार्लर, गो-गो वार्स, कराको बार्स और बाथ हाउसेज यहाँ वैध हो गये और उन्हें इतनी स्वतंत्रता हासिल है कि वेश्यावृत्ति पर लगा कानूनी प्रतिबन्ध मजाक बनकर रह जाता है. उन्होंने एक उदाहरण दिया ‘बाथ हाउसेज में आप जायेंगे तो देखेंगे कि लड़कियाँ सीसे के भीतर बैठी हैं. उनका नम्बर उस सीसे पर अंकित है. आप चुनाव करें,उनका मूल्य अदा करें और अन्दर बने स्नान घरों में उन्हें ले जाएँ. वो विभिन्न तरीके से मसाज करेंगी और आपको नहलाएंगी. यह सब कानूनन वैध है. लेकिन वास्तव में बात तो यहीं खत्म नहीं होती वरन आगे भी जाती है. अब आप ही तय करें कि इस देश में वेश्यावृत्ति वैध है या अवैध ? और थाईलैण्ड ही क्यों ? यह बीमारी तो दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों में भी फैल चुकी है.

हम वाकिंग स्ट्रीट पर आ चुके थे. एक ऐसी सड़क जिस पर वाहनों का चलना प्रतिबन्धित है. मनाली या शिमला के माल रोड जैसा. यहाँ आप केवल पैदल ही चल सकते हैं. लगभग 50 फीट चौड़ी सड़क. दोनों और बार एवं मसाज पार्लर. एक से बढ़कर एक आकर्षण वाले शो. देखने की बात तो भूल ही जाइये, अधिकतर का नाम भी हमने नहीं सुना. उनके बाहर खड़े लेडी ब्वाय आपको भीतर चलने का निमंत्रण देते हुए. शराब और शबाब में डूबी हुयी वाकिंग स्ट्रीट. मजूमदार कहता है यहाँ पानी पीना मंहगा है, बनिस्बत बीयर पीने से. मैं हामी भरता हूँ और मन ही मन अफसोस करता हूँ कि काश. मैं भी शराब का शौकीन होता. यह गोरे विदेशी पर्यटकों से अटी-पड़ी है. अधिकतर पुरूष पर्यटक. महिला पर्यटकों की संख्या काफी कम. एक पत्थर का टुकड़ा उठाकर आप किसी भी दिशा में फेंक दें, इसे तीन गोरे पर्यटकों और एक लेडी ब्वाय के शरीर से टकराकर ही धरती की गोद नसीब होगी. अधिकतर बार्स और शो की फीस यहाँ 50 बाट है. साथ में एक बीयर की केन फ्री. आप बीयर नहीं पीते तो कोल्ड ड्रिंक्स उपलब्ध है. अन्तः वस्त्रों में लड़कियाँ एक खम्भे को पकड़कर मादक मुद्रा में नाचती है. पृष्ठ भूमि में पाश्चात्य संगीत चलता है. आप यहाँ भी चुनाव कर सकते हैं. अपनी जेब के मुताबिक चुनाव.

वाकिंग स्ट्रीट के सारे रंग निराले हैं. कहा जाता है कि शराब और शबाब में किसी एक की उपस्थिति ही कानून व्यवस्था की समस्या का कारण बन जाती है लेकिन यहाँ इन दोनों का मिलना भी व्यवस्था के दायरे में ही रहता है. न तो किसी पर्यटक को शिकायत है कि उसे लूट लिया गया और न ही किसी बार मालिक को कि पीने के बाद उसे पुलिस को बुलाना पड़ा. यदि ऐसा है भी तो अपवाद स्वरूप ही. मजूमदार कहता है खाना का समय खत्म हो जाएगा. 10 बजे के बाद पहुँचे तो अपनी जेब ढीली करनी पड़ेगी. हम लोग वापस होते हैं. मैं चुटकी लेता हूँ ‘क्या अब भी भूख बाकी है ?’ वो मुस्कुरा देता है. निर्धारित होटल में डिनर लगा हुआ है. वेटर अब समेटने की तैयारी में है. जैकी परेशान. कुल 72 लोगों में से अभी तक 15 या 20लोगों ने ही डिनर किया है. वह मुझसे पूछता है ‘साथी लोग भी आ रहे हैं क्या ?’ मुझे उसकी कही बात पुनः याद आती है. कुछ समय बाद कोई किसी को नहीं ढूढेंगा?

डिनर के बाद हम लोग लाबी में बैठे हैं मजुमदार मुझे टोकता है ‘वो देखो रामजी भाई, बूढऊ कों ‘यार ये तो अपने ही देश का लग रहा है.’ मै मुँड़ता हूँ. एक बूढ़ा व्यक्ति कुर्ता-पायजामा पहने, गर्दन में गमछा लपेटे, एक कमसिन लड़की के कन्धे पर हाथ रखे होटल में प्रवेश कर रहा है. हमारी उत्सुकता बढ़ जाती है. हाँलाकि वहाँ कुछ गोरे पर्यटक भी बैठे हैं लेकिन हम भारतीयों के अलावा और किसी के लिए यह कौतूहल का विषय नहीं.

वो जैसे ही लिफ्ट की ओर बढ़ते हैं, रिशेप्सन से एक लेडी-व्याय दौड़ता हुआ आता है, उन्हें रोकता है और रिशेप्सन की और चलने का इशारा करता है. लड़की भी कुछ बोलती है. अपनी ही भाषा में. हम लोग दूर बैठे इस वार्तालाप का आनन्द उठा रहे हैं सहसा लड़की गुस्से में जाने लगती है. हमारे दल के एक सदस्य, जो हरियाणा के रहने वाले है और बांसुरी बहुत अच्छा बजाते हैं, हमसे उठकर देखने का आग्रह करते हैं पता चलता है कि बूढ़ऊ अपने ही इलाके के रहने वाले हैं. ‘लेकिन समस्या क्या है? मजूमदार पूछता है. लड़की बेहद गुस्से में है. वह टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलती है. ‘यह आदमी मुझे 1000 बाट में ले आया. होटल वाला 500 वाट अलग से माँगता है. यह यहाँ का नियम है. सभी होटल वाले लेते हैं. ये बूढा आदमी कहता है कि इस 500 वाट को हम लोग आधा-आधा बाँट लें. इससे तो मुझे 750 वाट ही मिलेंगे न ? मैं वापस जाती हूँ. इसने मेरी रात खराब कर दी. हम लोग दादा को समझाते हैं. वो पूरा पैसा देने को तैयार हो जाते हैं. लेकिन कन्या का गुस्सा अभी भी कायम है. बाँसुरी वाले साथी उससे दया की अपील करते हैं. अपील मंजूर हो जाती है. दादा उत्साह के साथ कचहरी में प्रवेश करते हैं, मुकदमा लड़ने की खातिर.

सुबह होती है. लोगों के किस्सों में कई रंग और भर जाते हैं. आज का कार्यक्रम कोरल द्वीप समूह  जाने का है. हमारा होटल समुद्री किनारे से कुछ ही दूरी पर स्थित है. सोचा कि ‘कोरल द्वीप’ पर तो 10 बजे जाना है क्यों न समुद्री बीच पर टहल आया जाय. अकेले ही निकल पड़ा. यही कोई सुबह के 8 बजे होंगे. पूरी सड़क सुनसान, सारी दुकाने बन्द. एकदम कफ्र्यू जैसी स्थिति. इक्का-दुक्का विदेशी पर्यटक ‘मार्निंग वाक’ पर हैं. तो रात वाले लोग कहाँ बिला गये? खुली है तो केवल जनरल स्टोर की चेन ‘7/11’. पूरे थाईलैण्ड में प्रभावी रूप से फैली हुयी. यहाँ सब कुछ बिकता है. कण्डोम से लेकर शराब तक. चैकिए मत, मैंने ये दोनो नाम पूरे होशो-हवास में लिए हैं. अगर यही दोनों चीजें यहाँ मुख्यतया बिकती हैं तो मैं दूसरा उदाहरण क्यों और कहाँ से चुनूँ?

मैं उस पैदल पथ पर आता हूँ, जहाँ पिछली रात तिल धरने की जगह नहीं थी. क्या सुबह भी कहीं इतनी भयावह हो सकती है? दिन तो हमारे जीवन जैसा ही होता है. यदि बचपन में चलना सीखा लिया तो जवानी में पैर नहीं लड़खड़ायेंगे और जब तक बुढ़ापा आयेगा, हमारी अगली पीढ़ी चलना सीख चुकी होगी. लेकिन जिस समाज का बचपन और जवानी यानी सुबह और दोपहर नींद में बीत जाए, वह बुढ़ापे यानी शाम में जितना भी स्टेयोराइड ले ले, अपने पैरों पर कितनी देर खड़ा रह पायेगा? और फिर यह भी कि वह अपनी अगली पीढ़ी को कैसी सुबह सौंपेगा?

मैंने सुबह-ए-बनारस देखी है. सबकी आँखों में एक उम्मीद होती है. पं. जसराज और भीमसेन जोशी अपनी आत्मा की आवाज से इस शहर को जागृत कर देते हैं बिस्मिल्लाह खान की शहनाई और प. हरिप्रसाद चैरसिया की बाँसुरी कीधुनों पर यह शहर थिरकने लगता है. व्यवस्था जनित समस्याओं की मार दिन भर झेलने के बावजूद यह शहर ‘भोर के सपने’ की उम्मीद लिए ही अपनी आँखे बन्द करता है.

फिर ऐसा क्यों हुआ कि इस प्राकृतिक सौन्दर्य से रूबरू होने के बजाए यह शहर नींद में बेसुध पड़ा है. क्या विकास की शर्तें इतनी क्रूर होती हैं कि वो किसी समाज से उसकी पूरी सुबह ही खरीद लें. जैकी तो गर्व करता है कि हमारा देश कभी गुलाम नहीं हुआ लेकिन क्या गुलामी सिर्फ बाहरी और भौतिक ही होती है? हजार सालों का इतिहास इस स्वतंत्रता की भूमि को चाहें जितना गर्व करने का अवसर देता है, इसका वर्तमान इसके शर्म के इतिहास की पटकथा लिखने जा रहा है. भविष्य में फिर कोई ‘जैकी’ अपने इतिहास पर गौरवान्वित नहीं हो सकेगा. यह कैसा सौदा है, जिसमें हमने सपनें बेंचकर नींद खरीद ली है और पानी बेचकर आँखे ? मुझसे वहाँ रहा नहीं गया.

लगभग 11.30 बजे हमनें कोरल द्वीप के लिए प्रस्थान किया. छोटे-छोटे ग्रुपों मे, स्पीड बोट के सहारे. 5 कि0मी0 भीतर जाने पर एक बड़े समुद्री जहाज का प्लेटफार्म हमारा इन्तजार कर रहा था. यहाँ पर पैराग्लाइडिंग की व्यवस्था थी. एक छोटी सी स्पीड बोट जो रस्सी से आपको जोड़कर पीछे लगे पैराशूट के सहारे हवा में उड़ा देती है. समुद्र के बीचो-बीच आप हवा में टंगे हुए. आधा किमी का वृत बनता और आप वापस उसी प्लेटफार्म पर. हम सभी ने उसका लुत्फ उठाया. हम आगे बढे़, उसी स्पीड बोट के सहारे. एक और जहाज हमारा इन्तजार कर रहा था. समुद्र के भीतर डूबकर चलना, मछलियों को छूना और उन्हीं के जैसा महसूस करना. पूरा सिर एक आक्सीजन मास्क से ढँका हुआ, जो पाईप के सहारे उस जहाज से जुड़ा है, जहाँ सिलिण्डर लगे हैं. दो गाईड आपके साथ भीतर मौजूद हैं. 30 मिनट से लेकर एक घण्टे का यह समुद्री जीवन.

दिन अच्छा गुजर रहा था. हम पुनः स्पीड बोट में बैठे और कोरल द्वीप पर पहुँचे. बेहद खूबसूरत. विदेशी सैलानियों के जोड़े यहाँ पहली बार दिखाई पड़े. नहाने के लिए आदर्श. केरल के कोवलम बीच जैसा. बालू पैर में नहीं लगता और समुद्र आपको भीतर तक जाने की इजाजत देता है. पृष्ठभूमि की हरियाली इसकी सुन्दरता में चार-चाँद लगाती है. लेकिन सबसे अधिक विस्मयकारी यहाँ का साफ पानी है. गोवा और केरल के मुकाबले कहीं बेहतर, कहीं साफ.

दल के सभी सदस्य आज के दिन का भरपूर लुत्फ उठाते हैं घण्टो स्नान चलता है और जब स्नान का ब्रेक होता है तो छिछले पानी में बैठकर शराब की महफिल सजती है. लगभग 5 बजे हम पटाया वापस लौटते हैं, जहाँ जीवन के निशान दिखने लगे हैं. अंजनी कहता है कि आज की शाम हमारे साथ गुजरेगी. हम लोग शाम को अल्काजार शो  देखने जाते हैं. थाई संस्कृति और समाज की शानदार झलक देने वाला यह शो, पटाया का दूसरा ही चेहरा प्रस्तुत करता है. यहाँ का साहित्य हिन्दू धर्मग्रन्थों से बेहद प्रभावित रहा है. हाथ जोड़कर झुकते हुए नमस्ते करना यहाँ की गौवपूर्ण परम्परा है. इसे ‘वाई’ वहा जाता है. एक घण्टे तक चलने वाले इस शो के जरिये हम साहित्य, कला और संस्कृति के उस चेहरे से परिचित होते हैं, जिसे ‘वाकिंग स्ट्रीट’ की भीड़ ने रौद डाला है.

अल्काजार-शो जितनी देर चलता है, यह दुनिया काफी समृद्ध नजर आती है. शो के बाद मैं, अन्जनी और मजूमदार समुद्र के किनारे बने पैदल पथ पर पहुँते हैं. ‘अल्काजार’ देखने के बाद आज ‘वाकिंग-स्ट्रीट’ जाने की इच्छा नहीं होती. पत्थर की बनी बेंच पर हमें जगह मिल जाती हैं. पटाया  अपने शबाब पर है. मन में वही सवाल बार-बार उठता है,आखिर यह समाज कैसे इस दलदल तक चला आया ?  अन्जनी कहता है, युद्धों ने दुनिया को कई गहरे जख्म दिए हैं. कुछ तो खड़ी फसलों को नेस्तनाबूद कर देते हैं और कुछ उस समाज या देश की जड़ों में चले जाते हैं, जहाँ से भविष्य की फसलों को उगना है.यह जख्म भी उनमें से एक है, जिसे शीत युद्ध की प्रतिद्वन्दिता ने और गहरा कर दिया.  मेरी उत्सुकता बढ़ जाती है और मैं द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर कालीन परिस्थितियों में चला जाता हूँ, जहाँ महान लोकतंत्र का महान अगुआ अमेरीका अपने दोनों कन्धों पर दुनिया भर के सैन्य-शासकों और अधिनायकों को उठाए घूम रहा है और सर्वहारा का रहनुमा ‘सोवियत संघ’ टैंको और बुल्डोजरों के सहारे अपने देश पर राज करने वाले आतताइयों को अपनी पलकों पर उठाए हुए है.

मैं पूछता हूँ कि शीत युद्ध और यह बदलाव ?  उसने थाई इतिहास का अध्ययन किया है. ‘हाँ! शीत युद्ध. थाईलैण्ड में लोकतंत्र और सैन्य शासन की आँख मिचैली पुरानी है. पचास के दशक में छोटे से छोटे देश का भी सामरिक महत्व हुआ करता था. 1954में अमेरिका के इशारे पर SEATO (दक्षिण पूर्व एशियाई सन्धि संगठन) का गठन हुआ. थाईलैण्ड भी इसका सदस्य बना. 1957 में सेना ने सरकार की बागडोर अपने हाथ में ले ली. महान अमेरीका के लिए यह मुफीद समय था. आखिर पूंजीवादी लोकतंत्र के लिए तानाशाहों से बेहतर दोस्त और कौन हो सकता है? उसने थाई सरकार की मदद करनी शुरू की और तभी वियतनाम युद्ध हो गया. थाईलैण्ड खुलकर अमेरीका के साथ खड़ा हुआ. उसने अपने हवाई अड्डों को अमेरीकी सेना के लिए खोल दिया. अमेरीका उस युद्ध में फँस गया और यह लम्बा खिचता चला गया. कहते हैं कि दुनिया की महाशक्ति ने इस वियतनाम युद्ध में गम्भीर घाव झेले, लेकिन इस बात पर कम ही चर्चा होती  है कि शेर और मेमने के उस युद्ध में शेर ने जब इतने घाव खाये तब मेमने की क्या स्थिति बनी होगी ?

खैर यह तो इतिहास तय करेगा कि लेकिन हम यहाँ यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि शेर को अपने घर में जगह देने वालों ने कितने जख्म खाए? जब अमेरिकी सेनाए थाईलैण्ड में उतरीं और युद्ध लम्बा खिंचने लगा तो उन अमेरीकी सैनिकों के मनोरंजन के लिए वेश्याओं की व्यवस्था की गयी. इतिहास में ऐसा नुस्खा पहले भी आजमाया जा चुका था. अमेरीकी सरकार ने थाईलैण्ड के सहयोग के बदले बड़ी मात्रा में उसकी वित्तीय मदद आरम्भ की. थाईलैण्ड का कायाकल्प होने लगा. शहरीकरण तेजी से शुरू हो गया. फैशन, समाज, विचार, संस्कृति और जीवन शैली में आए इस बदलाव ने भूचाल खड़ा कर दिया. थाई समाज की आँखे अमेरीकी डालर की चमक के आगे चौंधियाँ गयी. उसने आँख मूदकर पश्चिम को गले लगाना चाहा, जिसके लिए उसका समाज तैयार नहीं था. वह परजीवी होता चला गया. आसान रास्तों से पैसा कमाना उसकी आदत बन गयी. पश्चिमी चकाचौंध वाली जीवन शैली उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करती रही. अमेरीकी तो चले गये लेकिन यह देश अन्तर्राष्ट्रीय चकलाघर बनकर रह गया.

‘परन्तु थाई समाज ने इसे क्यों और कैसे मान्यता दी ? मैंने पूछा.उसने कहा कि ‘जिस थाई समाज की तुम बात करते हो वह कभी भी प्रतिरोध वाला समाज नहीं रहा. उसने सदा आसान रास्ते ही चुनें, जो उसे इस मोंड़ तक लेकर चले आये है. आज अनुमानतः 30 से 40 लाख लोग इस व्यवसाय में लिप्त हैं. समाज में इसकी स्वीकार्यता का आलम यह है कि वेश्यावृत्ति के दौरान या बाद में इन लड़कियों का विवाह आसानी से हो जाता है. इसे पार्ट-टाईम धन्धे के रूप में अपनाने का चलन भी इधर तेजी से बढ़ रहा है. यही थाई समाज 1966 के उस सख्त कानून को 1996 में मन्दी का दबाव बनाकर संशोधित करा देता है और वेश्यावृत्ति अधिक आसान बन जाती है. अब तो इसे कानूनी अमलीजामा पहनाने की बहस यहाँ जोरों से चल रही है. देश की सकल घरेलू उत्पाद का 4 से 5 प्रतिशत इसी वेश्यावृत्ति के माध्यम से आता है.

हाँलाकि यह समाज इस विकास की भारी कीमत चुका रहा है. एच.आई.वी प्रभावित लोगों का अनुपात सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में यहाँ सबसे अधिक है. एक पूरी पीढ़ी अपनी मौत का इन्तजार कर रह ही है लेकिन अपने कन्धों पर लादे गये बोझ को उतारने के लिए तैयार नहीं. हाँलाकि यह इसके तले इतनी बौनी होती जा रही है कि शीघ्र ही वह धूल का हिस्सा बन जाए.

रात के 12 बज रहे थे. आज का डिनर हमने भी छोड़ दिया था. हाँलाकि पटाया अभी अपने पैरों पर खड़ा था, जबकि हमारे पैर अब जवाब दे रहे थे. हम होटल की ओर लौटे तो क्या देखा कि मुख्य सड़क से होटल की ओर मुड़ने वाली चौड़ी गली के मुहाने पर हमारे ही दल के 25-30 साथी बैठे थे. अन्जनी ने बताया कि 45 लोगों को बैंकाक से कोलकाता के लिए आज सुबह की उड़ान पकड़नी है. मुझे भी इन लोगों केा एयरपोर्ट तक छोड़ने के लिए जाना है. बैठे हुए सभी साथियों के चेहरे पर अजीब सी खामोशी थी. थाईलैण्ड का यह सफर इन 45 लोगों के लिए कैसा था, नहीं बता सकता लेकिन उन्हें देखकर ऐसा महसूस हो रहा था कि यदि सम्भव होता तो लगभग सारे लोग समय से कुछ और मोहलत माँग लेते. वे सभी उस मोंड़ पर बैठकर इस शहर को जी भर कर निहार लेना चाहते थे, पता नहीं जीवन दूसरा अवसर देगा या नहीं. मजूमदार ने कहा ‘लेकिन तुम क्येां उदास होते हो ? हमें तो अभी 4 दिन और रहना है’ वाकई 4 और दिन! इसके नाम पर हमने चादर तानी और सो गये.

सुबह हम देर से उठे. कार्यक्रम के अनुसार दोपहर 12 बजे होटल से प्रस्थान करना था. फुकेट के लिए. नाश्ते के बाद कोई काम तो था नहीं, सोचा क्यों न समुद्र के पास चला जाए. कहीं ऐसा तो नहीं कि जो हमने कल सुबह देखा था, वो सिर्फ कल की ही बात थी. मैं निकल गया. लेकिन नजारा बिलकुल कल ही जैसा. पूरा शहर नींद में. जीवन के लक्षण इक्का-दुक्का ही. अब आसमान टूटे या धरती फट जाए, इस शहर की नींद टूटना मुश्किल है. आखिर इसने अभी तो पहली करवट भी नहीं बदली है. घण्टे भर उस रेत पर बैठा रहा, फिर वापस चला आया.

प्रस्थान के लिए दिया गया 12 बजे दिन का समय एक घण्टे पहले ही गुजर चुका था. एक साथी अभी नहीं आये थे. ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि वो सुबह वाले दल के साथ ही चले गये?’ किसी साथी ने दिमाग दौड़ाया. ‘पागल हो, उसका टिकट 4 दिन बाद का है, आज कैसे चला जाएगा’ अन्जनी ने कहा. 3 बजे तक इन्तजार करने के बाद अन्ततः हमने पटाया को अलविदा कहा.

पटाया से बैंकाक और फिर फुकेट. सड़क का रास्ता लगभग 800 किमी का. थाई राजधानी बैंकाक देश के मध्य भाग में स्थित है. उत्तर का हिस्सा कृषि के लिए बेहद उपजाऊ और दक्षिणी हिस्सा एक पतली पट्टी के रूप में मलेशिया तक चला जाता है. इस पट्टी के दोनों तरफ समुद्र चलता है, जिसने इसे पर्यटन के लिए आदर्श बना दिया है. हाँलाकि उत्तर में स्थित चियांग-माई भी पर्यटन मानचित्र पर आ चुका है, लेकिन फुकेट की बात ही कुछ और है. पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में सिर्फ इण्डोनेशिया का बाली  द्वीप ही इसका मुकाबला कर सकता है. हमारी बस हवा से बात करने लगी थी. छोटी-छोटी हरी-भरी पहाड़ियाँ और बीच में आते थाई गाँव. अच्छा हुआ हम बस से आये, अन्यथा ये सारे नजारे कहाँ से मिलते ? मैने बगल की सीट पर बैठे अपने एक साथी से कहा. क्या खाक अच्छा हुआ? एक रात तो बस में ही खराब हो गयी. उसने जवाब दिया.

हम सुबह लगभग 10 बजे फुकेट पहुँचे. सबके चेहरे पर रात की यात्रा के बाद की थकान साफ दिख रही थी. सबने नहाने और खाने के बाद एक भरपूर नींद ली. हमारा आज का कार्यक्रम फुकेट की पहाड़ी से सनसेट देखने का था. बस आई और हम चल दिए. फुकेट बहुत कुछ गोवा से मिलता-जुलता है. उसके जुड़वे भाई जैसा. छोटी छोटी हरी भरी पहाड़ियाँ, बीच में समतल जमीन, खूबसूरत समुद्री किनारा, इन्हीं किनारों के इर्द-गिर्द बसा हुआ शहर, विदेशी सैलानियों का हुजूम और एक खास मस्ती भरा खुलापन, सबकुछ इसकी तस्दीक करता है. फर्क बस इतना है कि फुकेट वाले भाई की परवरिश अच्छे ढंग से हुई है. इसे नहला-धुलाकर, करीने से कंघी करके, साफ-सुथरा कपड़ा पहनाया गया है, जबकि गोवा वाला भाई मैले कुचैले कपड़ों में, नाक से नेटा बहाता हुआ, धूल में  खेल रहा है.

हमारा होटल पटाँग बीच पर है. यह फुकेट का सबसे खूबसूरत समुद्री बीच है. इसकी तुलना गोवा के तीनों खूबसूरत बीचों-कालिंगुट, कोलावा और पालवोलिम से एक साथ की जा सकती है. पालवोलिम जैसी हरियाली और कलिंगुट, कोलाबा जैसी रेत, सड़के और जन सुविधाएँ. सामने समुद्र में छोटे-छोटे पहाड़ उग आए हैं. लगता है ईश्वर ने आसमान से इन्हें बीज के रूप में समुद्र में  बो दिया है और अब ये बीज अंकुरित होने लगे हैं. इसकी हरियाली का मुकाबला सिर्फ केरल ही कर सकता है. फिर भी आप इसकी आलोचना करना चाहते हैं तो वही आरोप लगा दीजिए जो तमिलनाडु केरल पर लगता है ‘यह कुछ अधिक ही हरा है.’कहते हैं दिसम्बर 2006 की सुनामी ने इस शहर को रौंद डाला था, लेकिन दो साल बाद इसके निशान इक्का-दुक्का ही दिखते हैं. प्रकृति की उस मार से यह शहर उबर आया है. न चाहते हुए भी मन में तमिडनाडु के सुनामी प्रभावित शहरों का खाका घूम जाता है. नागपट्टनम और कुडलूर के ऊपर लगे घावों को क्या फुकेट जैसा ही नहीं भरा जा सकता था ?

हमारी बस पहाड़ी की चोटी पर पहुँच चुकी थी. क्या प्रकृति किसी जगह पर इतनी भी मेहरबान हो सकती है ? सबकी आँखे खुली की खुली. अविश्वसनीय, स्वर्ग जैसा, बहुत सुन्दर, बेहतरीन. विशेषणों की झड़ी लग जाती है. किसी ने कहा ‘पहाड़ी सेडूबते सूरज को तो हमने ‘माउन्ट आबू’ में भी देखा है, लेकिन वह मैदान में जाता है, यहाँ की तरह समुद्र में  नही. कन्याकुमारी में समुद्र है तो ऐसी पहाड़ी नहीं. हमारे गाईड जैकी ने बताया कि ‘इतने बड़े समुद्री तट वाले इस देश में ऐसा सनसेट कहीं नही दिखता.’ एक तरफ प्रकृति की नियामत और दूसरी ओर सरकार द्वारा उसे सजाया और सँवारा जाना. पहाड़ी की चोटी को यथासम्भव समतल कर दिया गाया है, जिस पर हजारों लोग एक साथ बैठ और खड़े हो सकें. उसी चोटी से फुकेट शहर का नजारा भी लिया जा सकता है. यह जगह इतनी सुन्दर लगी कि सबने कल दुबारा इसे दखने की ईच्छा व्यक्त की. ध्यान रहे कि हमारा दल उन्हीं लोगों का था, जिन्होंने पटाया पहुँचने की बेताबी में बैंकाक के ‘ग्रैण्ड-पैलेस’ को ठुकरा दिया था.

फुकेट में हमारा रात का खाना पंजाबी होटल में था. उन्होंने हमें मक्के की रोटी खिलाई. बिल्कुल पटियाला और अमृतसर जैसी. हाँ! सरसो का साग नहीं मिल पाया. कल दोपहर पटाया छोड़ने के बाद से ही हमारा दल एक साथ था, लेकिन अब फेविकोल का कोई भी जोड़ उसे बिखरने से नहीं बचा सकता था. मैं मजूमदार के साथ पटाँग बीच के ‘वाकिंग स्ट्रीट’ पर गया. यहाँ फुकेट में हर एक बीच के अलग-अलग ‘वाकिंग स्ट्रीट’ हैं. बहुत ही छोटे-छोटे. इन्हें पटाया के बच्चे कहना भी अतिरंजनापूर्ण ही माना जाएगा. यहाँ विदेशी जोड़े खूब दिखते हैं. बार्स और शोज की उपस्थिति भी नियन्त्रित है. लगता है हर चीज करीने से सजाई गई है. चाहे वह प्रकृति की सजावट हो या मनुष्य की. यह शहर बेहद नियन्त्रित और व्यवस्थित दिखता है. लेकिन इस तथ्य की यहाँ भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आप थाईलैण्ड में हैं.

यहाँ की सुबह का नजारा पटाया से बिल्कुल अलग था. दुकाने खुलनी शुरू हो गयी थीं और विदेशी सैलानियों के जोड़ों ने समुद्री तट पर छतरी के नीचे अपना बसेरा जमा लिया था. हमारा आज का कार्यक्रम फी-फी द्वीप समूह पर जाने का था. समुद्री जहाज से. ‘सैम’ आज हमारे साथ थे. ‘जैकी’ की कई बार की चेतावनी के बावजूद हमने 9 बजे सुबह का दिया हुआ समय पार कर लिया था. जहाज छूटते-छूटते बची. उस जहाज पर बैठे और हमारे दल के आने का इन्तजार कर रहे गोरे सैलानियों ने खूब फब्तियाँ कसी होंगी. सैम की निराशा साफ झलक रही थी. बावजूद इसके वे बेहद मृदुभाषी हैं. नपा-तुला बोलने वाले, रिश्तों को उनकी गहराई में डूबकर निभाने वाले और अपने व्यवसाय से ऊपर उठकर मदद करने वाले.

जहाज अभी 10 मिनट ही चला होगा कि गोरों ने अपने शरीर पर पहने पहले से ही कम कपड़ों को और कम कर दिया. ‘अंजनी ने कहा ‘अब इससे कम नहीं किया जा सकता.’ यहाँ आसमान से समुद्र में छीटे गये पहाड़ के बीजों का अंकुरण बहुत अधिक था. हो सकता है प्रकृति ने ही अधिक बीज डाले हों या यह भी कि यहाँ का समुद्र ही उपजाऊ हो, जिसने सारे बीजों को अंकुरित कर दिया हो. उनके बगल से गुजरता हुआ हमारा जहाज, हमें एक अविस्मरणीय सफर का साक्षी बना रहा था. 1.30 घण्टे बाद हम फी-फी द्वीप  पर पहुँचे. यह 3 किमी वृत्ताकार है. इस सफर में दूसरी बार हमको ‘सी फूड’ का सामना करना पड़ा. पहली बार कोरल द्वीप पर और दूसरी बार यहाँ. यह ‘सी-फूड’ एक ओर शाकाहारियों की शामत बनकर आता है, वहीं दूसरी ओर मांसाहारियों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं. यहाँ का प्रसिद्ध खाना सूकी (suky) है. एक बड़े कटोरे में बीस से अधिक चीजों से मिलकर बना हुआ. आपने जिन समुद्री जीवों के नाम तक नहीं सुने, उन्हें खाना किसी दुःस्वप्न से कम नहीं और उस पर यह हलाहल पानी. एक दो लोगों को छोड़कर किसी ने भी उस ‘सच का सामना’ नहीं किया. किसी ने कहा ‘यहाँ जूस पी लेते हैं और जहाज पर नेत्रपान कर लेंगे.

शाम 4 बजे हम फुकेट वापस लौट आए. एक घण्टे का आराम और फिर ‘सनसेट’ के उस मोहक दृश्य को देाहराना. आज घूमने के हिसाब से फुकेट में हमारा अन्तिम दिन था, जो फुकेट फैन्टेसी को देखने के साथ सम्पन्न हुआ. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह वाकई फैंटेसी है. थाईलैण्ड की संस्कृति का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण शो. लगभग 4000 लोगों की क्षमता वाला एक थियेटर, जिसमें थाई इतिहास एवं संस्कृति को दर्शाया जाता है. ‘लाईट और साउन्ड’ का अद्भुत प्रयोग. कुछ-कुछ ‘बैले’ से मिलता हुआ. अल्काजार शो का विस्तृत एवं सम्पूर्ण रूप. थियेटर कभी खाली नहीं रहता. प्रतिदिन एक शो, रात के 8 बजे से. टिकट का मूल्य उतना ही, जितना कि आप पटाया की एक शाम पर खर्च करते हैं. शो के बाद पहली बार हमने थाई खाना खाया. वैसे तो यह स्वादिष्ट है परन्तु पानी का प्रयोग कुछ अधिक ही होता है.

फुकेट से बैंकाक की वापसी का सफर चिन्तन और मनन का सफर था. अपने शरीर को बस की सीटों पर छोड़़कर मन और आत्मा के साथ सभी लोग थाई प्रवास की स्मृतियों में निकल पड़े थे. स्मृतियाँ, जिन्हें फुकेट ने सतरंगी बना दिया था. सबकी राय थी यदि फुकेट नहीं देखा होता तो इस थाईलैण्ड के प्रवास में हम सिर्फ शामों को ही याद रख पाते. लेकिन यह हमारी राय थी, जिसे उस साथी ने पूरी तरह खारिज कर दिया, जो हमसे पटाया में छूट गया था. जब हम सुवर्णभूमि एयरपोर्ट बैंकाक पहुँचे तो वह वहाँ मौजूद था. सबने राहत की सांस ली. ‘सैम’ को फोन किया गया तो उन्होंने सामान्य प्रतिक्रिया दी. ‘यहाँ ऐसा होना सामान्य बात है.’ ‘लेकिन वो था कहाँ ? सभी जानने को उत्सुक थे. मैं पटाया में ही रूक गया था. दो दिन में पटाया को क्या खाक देखा जा सकता है? फुकेट-फाकेट के सारे रंग इसके सामने बेकार है. उसके पास ढेर सारे किस्से थे और हमारे पास उन सबको जानने की उत्सुकता. हममें से अधिकतर लोगों ने अपने भाग्य को कोसा. ‘काश.’ हम भी उसी की तरह पटाया में भूल गये होते.’

सुवर्णभूमि अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक दृश्य सामान्यतया देखा जा सकता है. गोरे पर्यटकों को विदा करने के लिए थाई लड़कियाँ अवश्य आती हैं. बेहद कारूणिक दृश्य तब उत्पन्न होता है, जब उनकी उड़ान की ‘काल’ होती है. लड़कियाँ उन गोरों से लिपटकर खूब रोती हैं. जाने वाले उन्हें हर तरह से सान्तवना देते हैं, उनका रोना रूकता नहीं जबतक कि वह गोरा आँखों से ओझल ना हो जाए. हमें लगता है यह बिछड़ने की तड़प है लेकिन ‘जैकी’ इसमें ‘डालर’ की गन्ध सूँघता है. महीने में दो बार एक लड़की यहाँ रोती है. अब यदि साल में 24 बार बहाये गये आँसूओं से एक गोरे का दिल भी पिघल जाए, तो देह व्यापार की इस नौकरी की पेन्शन बन जाती है, जिसे वह गोरा चुकाता है. तो यह बंशी है, जिसके ऊपर चारा लगाकर मछली को नाथने की तैयारी की गई है.

हमारी उड़ान का समय हो गया है.एयरपोर्ट शराब की एक बड़ी दुकान जैसा लगता है. मनुष्य होने के नाते ईश्वर ने हमें दो हाँथ, दो पैर, दो आँख और दो कान दिए हैं, फिर थाईलैण्ड हमसे भेदभाव क्यों करे? उसने भी हमें दो बोतल शराब ले जाने की छूट दी है. सबने इसे ईश्वर की दी हुई नियामत ही समझी है. अपने नहीं पीना तो मित्रों, रिश्तेदारों के लिए ही सही. वो भी नहीं तो अपने साथी द्वारा खरीदे गये दो अतिरिक्त बोतलों को भारत तक ढोने के लिए ही सही. क्या बात है ? ऐसा भाईचारा तो बिरले ही देखने को मिलता है.

हमने अपने विमान के माध्यम से थाई जमीन को अन्तिम बार चूमा. अलविदा थाईलैण्ड. यदि जीवन ने अवसर दिया तो फिर मिलेंगे.

रामजी तिवारी
२ मई १९७१, बलिया

 

कविताएँ, कहानियाँ, लेख, समीक्षा आदि
जनसत्ता,पाखी, परिकथा, वसुधा और समयांतर जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित                                                   भा.जी.वी.नि. में कार्यरत 

ई पता: ramji.tiwari71@gmail.com

Tags: थाईलैंडरामजी तिवारी
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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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