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Home » लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है: कुमार अम्‍बुज

लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है: कुमार अम्‍बुज

कुमार अम्बुज विश्व सिनेमा से कालजयी चलचित्रों पर इधर लिख रहें हैं, कहना यह चाहिए कि उनके समानांतर लिख रहें हैं. यह कवि का तो गद्य है ही सतर्क सहृदय का अपना विचार-लोक भी है. इनमें डूबने के लिए उक्त फ़िल्मों से परिचित होने की अनिवार्यता नहीं है, इन आलेखों का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है. अब तक आपने ‘Hiroshima, My Love’ तथा ‘Make Way for Tomorrow’ फ़िल्मों पर कुमार अम्बुज का लिखा हुआ पढ़ा है. आज प्रस्तुत है- ईरानी फ़िल्म ‘The Day I Became a Woman’ पर आधारित आलेख- ‘लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है’.

by arun dev
December 3, 2021
in फिल्म
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लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है: कुमार अम्‍बुज
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‘द डे आई बिकेम अ वुमन’
लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है

कुमार अम्‍बुज

(एक)

समुद्र किनारे एक शहर में हवाई जहाज़ लैंड होता है. कमनीय, गरिमा से रूपवान, वार्धक्‍य से शक्तिहीन एक स्‍त्री उतरती है. उस महिला की आँखों में इच्छाएँ चमक रही हैं. थोड़ी देर बाद पता चलेगा कि वह इच्‍छाओं से निर्मित है. इच्‍छाओं से ही संचालित. अधूरी इच्‍छाओं को पूरा कर लेने की आशा में उसकी जिजीविषा जीवित है. वे इच्छाएँ जो ज्‍़यादातर स्‍त्रि‍यों के जीवन में पूरी नहीं होतीं. इच्‍छाओं की उमंग ने उसे युवा बना दिया है. बच्‍चे की उत्‍कंठा में बदल दिया है. और ख़ुशी में.

यह ईरानी निदेशक मा‍रज़‍िये मिश्किनी की फ़ि‍ल्‍म ‘द डे आई बिकेम अ वुमन’ है. सामंती समाज में स्‍त्री की तीन उम्रों में, तीन तरह की अवस्‍थाएँ. जैसे तीन युग. तीन तरह की मुश्किलें. तीन प्रकार की चुनौतियाँ. तीन तरह का जीवन. तीन चलचित्र. ये एक-दूसरे से अलग दिखते हैं लेकिन आपस में नाभि-नाल से संबद्ध हैं. क्‍या यह एक ही स्‍त्री है? या तीन अलग स्त्रियाँ हैं? अथवा तीनों अवस्‍थाओं में ये अनेक स्त्रियों की प्रतिनिधि हैं? तीनों का एक ही उत्तर है: हाँ. ये तीन हैं और एक हैं. यह एक है लेकिन तीनों में विस्‍तारित है. किसी विशाल माला के तीन मनके हैं. बाक़ी मनकों का परिचय देते हुए. तीन हिस्‍सों में, कुल पैंसठ मिनट की यह फ़‍िल्‍म कहती है- देखिए, ये स्थितियाँ हैं. ये चक्रव्‍यूह हैं. ये पराजय हैं. और इनके बीच ये पगडंडियाँ हैं. यह जाहिल को जाहिल नहीं कहती, उसकी जहालत सामने रख देती है. उघाड़कर. बेपरदा. तकलीफ़, असहमति, विवशता और इच्छाओं को रच देती है. नामकरण नहीं करती, परिभाषाएँ नहीं बनाती. यह गेंद को आपके पाले में डाल देती है.

यह ‘द मखमलबाफ़ फ़‍िल्‍म हाऊस’ का सिनेमा है. ईरान का सिनेमा वहाँ की राजनीतिक, सामाजिक कठिनाइयों से अपनी शक्ति प्राप्त करता है. वहाँ जारी रहनेवाले निषेधों, कट्टरताओं और अंधविश्‍वासों से. और उनसे बाहर निकलने की कोशिश से. जैसे मुश्किलें इस तरह न होतीं तो यह सिनेमा न होता. यह हर तरह की कला के लिए है कि समाज की असमानताएँ, विडंबनाएँ, अन्‍याय, तानाशाहियाँ, कूपमंडूपताएँ और उनसे निजात के प्रस्ताव कलाओं को प्रतिरोध संपन्‍न करते हैं. स्‍वप्‍नशील और ऊर्ध्‍व बनाते हैं. कला-माध्‍यमों में विद्युत प्रवाहित करते हुए उन्हें आवेशित कर देते हैं.

ऐसा सिनेमा जितना प्रतिरोध करता है उससे कहीं ज्‍़यादा दर्शक को प्रतिरोध के लिए तैयार करता है. आत्‍मावलोकन और पुनर्विचार. यह दिमाग़ की सफ़ाई का उपक्रम है. धूल, कचरा, जाले हटाने के लिए छोटी-सी बुहारी है. इससे अवरुद्ध नलिकाएँ स्वच्छ होती हैं.

(दो)

यह नायिका मानवोचित इच्‍छाओं से भरी है. जैसे याद द‍िला रही है कि श्रेष्‍ठ मनुष्‍य जीवन, वासना का नाम है. छठी इंद्रि‍य वासना ही है जो शेष पाँच की मार्गदर्शक है. वासना न होती तो कोई इस मनुष्‍य योन‍ि में रहता ही क्यों. जो वासनाओं को जीत लेते हैं, वे मनुष्य नहीं रह जाते. अकारथ देवता वगैरह में बदल जाते हैं. उनकी आराधना की जा सकती है. बाक़ी वे किसी काम के नहीं.

जिसकी वासनाएँ पूरी हो जाती हैं उसका जीवन सफल है या वासनाएँ मिटाकर जीवन सफल बनाया जा सकता है. यह विवाद है. यही दार्शनिकता के विमर्श में झगड़ा है. शायद सुख-दुख का एक पैमाना यह भी हो सकता है कि जीवन में कितनी वासनाएँ अधूरी, असंतुष्ट बनी रहीं. अकसर उन्‍हें प्राप्‍त करने के लिए लंबी प्रतीक्षा भी करना पड़ सकती है. हमारी इस प्रगल्‍भ और अभावग्रस्‍त नायिका ने एक पूरी आयु तक, जीवन के अंतिम पड़ाव तक धैर्य के साथ यह प्रतीक्षा की है. सब्र, संघर्ष और इंतज़ार ने उसे कुछ हक़दार बना दिया है.

वह ट्राली खींचनेवाले लड़कों से आग्रह करती है कि मुझे बाज़ार ले चलो. जहाँ मेरी इच्छाएँ मिल सकें. मुझे चीज़ें ख़रीदना है. जो मेरे जीवन में कभी मिल नहीं सकीं. आज अनायास मुझे संपत्ति उत्तराधिकार में मिल गई है. मैं कुछ घरेलू सामान लेना चाहती हूँ, जिनका मैं स्वप्न ही देखती रही और जिनके बिना अब तक गुज़र करती रही. दो पंक्तियों के बीच वह कहना चाहती है कि पितृ सत्‍तात्‍मक, स्‍त्रीविरोधी, सामंती समाज में, पुरुष के चले जाने के बाद ही पैसा हासिल हो सकता है. जिसे अपनी तरह से खर्च भी किया जा सकता है.

लेकिन इच्‍छाओं के रंग अनंत हैं. किसी ‘स्‍पैक्‍ट्रम’ में वे समा नहीं सकते. उनका वेग आपको स्वप्न में भी जाग्रत रखता है. उनकी अमरता व्‍यग्र बनाए रखती है. उनकी सुंदरताएँ, उनके रूप आपको गतिशील रखते हैं. वे लौकिक हैं लेकिन मरण से मुक्‍त. जो इच्‍छाओं में जीवित नहीं, वे जीवन में भी मुर्दा बने रहते हैं. उन्‍हें पूरा करने के लिए शायद यही हो सकता है कि आप कुछ इच्छाएँ चुन लें. उनका एक छोटा-सा प्रतिनिधि मंडल बना लें, उनसे वार्ता करें. उनकी कुछ माँगें मान लें. यह जानते हुए भी कि इच्छाओं का शमन दुतरफ़ा घातक क्रिया है. क्‍योंकि केवल इच्‍छाएँ शमित नहीं होतीं, वे तुम्‍हें भी शमित करती हैं. वे राख होती हैं तो तुम्‍हें भी राख करती हैं. फ़र्क़ यह है कि वे अपनी राख में से फिर जीवित हो जाती हैं. आदमी नष्‍ट हो जाता है, इच्‍छाएँ बनी रहती हैं. वे अगली पीढ़ी में चली जाती हैं.
इच्‍छाएँ कूटभाषा में लिखित हमारे क्रोमोजोम्‍स हैं.

इस निरक्षर, उम्रदराज़ महिला ने इच्‍छाओं को याद रखने के लिए तरक़ीब लगाई है. उसने हाथ की उँगलियों पर रंग-बिरंगी चिंदियाँ बाँध ली हैं. हर इच्छा को एक रंग दे दिया है. जीवन में वह एकदम शीतल जल नहीं पी सकी इसलिए यह चिंदी रि‍फ़्र‍िजरेटर की है. यह सोफा सेट की. यह ओवन की. और यह…….. किसी मन्नत की तरह उँगलियों में तमाम चिंदियाँ बँधी है. अब वह कुछ भूल नहीं सकती. ये चिंदियाँ उसकी इच्छाओं की सूची है- ‘विश लिस्‍ट’.

मॉल को देखकर वह हतप्रभ है, ख़ुश है. उसके पोपले मुँह में इच्छाएँ भरी हैं. वह मंत्रों की तरह अपनी इच्छाओं को उच्चार रही है. उसे यक़ीन हो गया है कि उसकी सारी भौतिक इच्छाएँ यहाँ मिल सकेंगी. जैसे, यह वाशिंग मशीन. अभी तक मैं ख़ुद वाशिंग मशीन थी. अब मुझे यह मिल गई है. चिंदियाँ याद दिलाती चली जाती हैं कि अब आगे क्‍या. बाथटब. कपड़े प्रेस करने की टेबल. सिगड़ी. लैम्‍प शेड. सब चाहिए. ये दुनिया में थे लेकिन मेरे पास नहीं थे. अब होना चाहिए. मृत्यु से पहले. उँगलियाँ धीरे-धीरे चिंदीमुक्‍त हो रही हैं. शिराएँ खुल रही हैं. ख़ून गतिपर्वूक बहने लगा है. गठानें कम हो रही हैं. वह ख़रीद रही है.
दर्शक उसके ख़रीदने से ख़ुश हो रहा है.

 

‘द डे आई बिकेम अ वुमन’ फ़िल्म से एक दृश्य

(तीन)

अब नाव से वापस जाना है. उस नाव से, जिसके पाल के लिए उसने बचपन के खेल में अपने जीवन के पहले बुरके का कपड़ा दिया था. तभी इस जीवनयात्रा का चक्र पूरा होगा. बचपन से लेकर अंतिम पड़ाव तक स्‍त्री होने की यात्रा. फिलहाल समस्या यह है कि इच्छाओं रूपी इतने सामान को रखा कहाँ जाए. समुद्र किनारे की दूर तक फैली रेत के तट से बेहतर क्‍या होगा. यह ‘बीच’ अब प्रतीक्षालय भी है. नावें आएँगी, उसे और उसके सामान को गंतव्य तक ले जाएंगी. अभी तमाम सामान ‘बीच’ पर फैला है.

यहाँ आकर याद आता है कि एक चिंदी बची रह गई है. यह किस इच्‍छा का रंग है. याद नहीं आता. सामान को ‘बीच’ पर छोड़कर वह वापस मॉल जाती है. शायद वहाँ देखकर याद आ जाए कि क्‍या याद नहीं आ रहा है. विस्‍मृति का क्‍या करें जो अपनी इच्‍छाओं के खिलाफ़ है. यह कौन-सी गठान शेष है. वहाँ जाकर भी कुछ याद नहीं आता. जैसे जीवन में सारी गठानें नहीं खुल पातीं. सारी मानताएँ पूरी नहीं हो पातीं.
कुछ चिंदियाँ बँधी रह जाती हैं.

वापस मॉल जाने, आने और विस्‍मृति के बीच उधर ‘बीच’ पर श्रमिक बालकों ने पूरा सामान खोल लिया है. बाक़ी चीज़ों के अलावा ड्रेसिंग टेबल, बिस्‍तर, अलमारी, साउंड सिस्‍टम, रसोईघर का सामान भी. वे हर चीज़ का कुछ न कुछ इस्तेमाल कर रहे हैं. पिकनिक चल रही है. उनकी भी इच्‍छाएँ पूरी हो रही हैं. यह किसी की पूरित इच्‍छाओं में से ही अपनी इच्‍छाओं को पूरा करने का संक्षेप है. उनका यह खेल उसके वापस आने पर एकदम रुक जाएगा. जिसकी उँगली में एक इच्‍छा की सुर्ख़ लाल चिंदी बाक़ी है.

लाये गए सामान में से वह काँच की चायदानी से नाराज़ है. कि इसके भीतर खौलते पानी, चाय और उसका बनना सबको दिखता है. वह आजीवन बुरके में रही है. परदे में. उसका मानस इतना बदल गया है कि उसे चायदानी का पारदर्शी होना ठीक नहीं लगता. याद कर सकते हैं- स्‍त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है.

अब नावें आ गई हैं. उसका प्रस्‍थान है. ‘बीच’ पर लगा मेला उजड़ गया है. इच्छाएँ उन नावों में लादी जा चुकी हैं जिनकी दिशाएँ हवाओं को तय करना है. एक इच्‍छा, एक रंग पीछे छूट जाता है. सारे रंग, सारी इच्छाएँ किसी एक कैनवस में नहीं समा सकते. एक कविता, एक फ़‍िल्‍म, एक कला या एक जीवन में नहीं अँट सकते. कुछ छूट ही जाते हैं.
इसी में धीरज रखना है. यही जीवन है.

 

‘द डे आई बिकेम अ वुमन’ फ़िल्म से एक दृश्य

(चार)

सहज स्‍वीकार्य दासता के लिए स्‍त्री को उसके बचपन से अनुगामी बनाना पड़ता है. तभी आसानी होगी. उससे कहो कि तुम आज नौ बरस की हो गई हो और अब बच्‍ची नहीं हो. स्त्री हो. यह काम घर की ही उन स्त्रियों से बेहतर कौन कर सकता है जो ख़ुद नौ बरस की उम्र में स्त्रियाँ बना दी गईं थीं. अब यह दीर्घ, अलंघ्‍य परंपरा है.

इसलिए एक सुबह उठते ही अबोध बालिका से अचानक कहा जाता है कि तुम पड़ोस के बच्‍चे के साथ खेलने नहीं जा सकतीं, जिसके साथ रोज़ खेलती रहीं. अब तुम बच्‍ची नहीं रहीं. उसके बुरके का नाप लिया जा रहा है. बच्‍ची पूछती है- मैं जिसके साथ कल तक खेल सकती थी, घूम फिर सकती थी, आज क्‍यों नहीं. फिर दादी और माँ के बीच चल रहे वार्तालाप में से वह आशा का एक सिरा थामकर प्रस्तावित करती है कि यदि मैं दिन में एक बजे पैदा हुई थी तो अभी ग्‍यारह ही बज रहे हैं. मेरे पास बच्‍ची बने रहने का कुछ समय बाक़ी है. मैं कुछ देर बाद स्‍त्री बनूँगी. मेरे पास घंटे-दो घंटे का वक़्त है. मुझे खेलने के लिए जाने दो.

यह बचपन के आसन्‍न अवसान से पहले का एक पहर बचाये जाने की, बालपन की अंतिम खुशियाँ प्राप्‍त कर सकने की छोटी-सी कथा है. एक धीमी, मर्मांतक चीख़. लेकिन यह इतनी बड़ी दास्‍तान है, किसी विशालकाय पक्षी के फैले पंखों जितनी, जिसने संसार की करोड़ों बच्चियों पर अपना साया फैला रखा है. तब अनजाने ही यह छोटी-सी बच्‍ची बाल-सुलभता में कोशिश करती है कि अपने बचपन के अंतिम क्षणों को, समवयस्‍क मित्र के साथ खेलकर अमर कर सके. चिंता यह है कि घड़ी के अभाव में वह दोपहर के बाद घर आने का समय कैसे निश्चित कर पाएगी. सो, उसे एक छोटी-सी सूखी टहनी दी जाती है कि तुम बीच-बीच में इसे धूप में सीधा खड़ा करके देखते रहना. इसकी परछाईं गायब हो, उसके पहले घर वापस आना. जीवन का पहला बुरका भी उसे ओढ़नी की तरह दे दिया गया है.

बच्‍ची जिस रोज़मर्रा के मित्र के संग खेलना चाहती है, वह बच्‍चा उसके लिए पहले ही अपनी पुकार व्‍यर्थ करके जा चुका है. अब वह घर से निकलकर उसे बुला रही है लेकिन बच्‍चा होमवर्क के लिए अपने घर में बंद किया जा चुका है. इस बीच वह ज़रा-ज़रा अंतराल पर सूखी टहनी को धूप में ऊर्ध्‍व करके देखती है कि परछाईं कितनी बची है. शेष परछाईं जित्‍ता उसका बचपन. अब एक बित्‍ता बचपन.
अब बस, एक अंगुल भर बाक़ी रहा बचपन.

मगर समय तो बीतता है. जब नहीं बीतना हो तो कुछ तेज़ी से बीतता है. यही समय की चाल है. धोखा है. त्रास है. आयु है. उसका दोस्‍त घर में तालाबंद है. वह समुद्र किनारे चली जाती है. उसकी प्रतीक्षा में अकेली ही रेत में खेलती है. हर दो-तीन मिनट में टहनी से परछाईं नापती है. उसकी परछाईं गायब होते ही उसे अपने बचपन को गायब कर देना है. घर वापस जाना है और एक बंद स्‍त्री हो जाना है. वह इसके लिए सहमत है कि नौ वर्ष की उम्र होते ही वह किसी जादू से, क्षण भर में स्‍त्री हो जाएगी. इसे रोका नहीं जा सकता लेकिन उसके ठीक पहले इन क्षणों को हठपूर्वक, भरपूर जिया जा सकता है. उसका इतना नन्‍हा, इतना लघु और इतना ही मासूम प्रतिरोध है.

समुद्र किनारे वह पालवाली नाव बना रहे दो दूसरे बच्‍चों को देखती है. बच्‍चों के पास पाल बनाने के लिए कोई कपड़ा नहीं है. वे उसका बुरका लेना चाहते हैं. आखि़र वे उसे प्‍लास्टिक की मछली का एक खिलौना देते हुए फुसलकार यह विनिमय कर लेते हैं. अब नाव में बुरका, पाल बनकर हवाओं के हवाले है.

वह वापस कमरे में बंद दोस्‍त के पास आकर आगाह करती है कि, देखो, यह इतनी ज़रा-सी, नन्‍ही हथेली लायक़ परछाईं बची है. तुम ज़ल्‍दी आओ. वह जितनी बार लगातार छोटी होती परछाईं देखती है, उतनी बार मानो हृदय को मुट्ठी में भरकर स्‍पंदित करती है. आप कामना करते हैं कि समय का रथ थम जाए. घूमती पृथ्‍वी रुक जाए. किसी दूसरे महाद्वीप का समय, उसका आसमान, उसकी धूप इस टहनी के ऊपर आए और इसकी परछाईं लंबी बनी रहे. लेकिन बच्‍चा विवश है, बाहर नहीं आ सकता. आख़िर गली में खुलनेवाली खिड़की से वे एक कैंडी-चुस्‍की शेयर करते हैं. यह तुम्‍हारी मुस्‍कराहट. यह मेरी खिलखिलाहट. यह तुम्हारा आस्‍वाद. यह मेरा स्वाद. यह तुम्‍हारी बारी. यह मेरी बारी.
दरअसल, यह बचपन की आख़‍िरी बारी है.

नाव का पाल बना हुआ बुरका लहरा रहा है. हवाएँ उसे ले जा रही हैं. तट के स्‍वच्‍छ पारदर्शी पानी के तल में दिखते, परावर्तित रोशनी में चमकते छोटे-छोटे पत्‍थर पीछे छूट रहे हैं. फ़‍िल्‍म की शुरुआत में एक धुन, एक विकल स्‍वर है. वह हमें अंत से पहले, मध्‍य भाग में भी सुनाई देगा. संगीत समय पार का यात्री है. वह जीवनवृत्‍त के दूरस्‍थ, पृथक दिखते पड़ावों को भी आकुलता से जोड़ देता है. संगीत की तुरपाई सबसे सुंदर है.
सबसे सुंदर, हृदय विदारक ही हो सकता है.

 

‘द डे आई बिकेम अ वुमन’ फ़िल्म से एक दृश्य

(पाँच)

सरपट दौड़ते घोड़े पर सवार एक आदमी किसी को खोज रहा है. उसका पीछा कर रहा है. कुछ भटकने के बाद उसे दूर मैदान के बीच सड़क पर साइकिल चलाती स्त्रियाँ दिखती हैं. वे पारंपरिक वस्‍त्रों और बुरके में लिपटी हैं लेकिन साइकिल चला रही हैं. लाल-पीली-काली-गुलाबी साइकिलें. यह किसी स्‍वतंत्रता की, किसी असहमति की, किसी नाराज़ी की जत्‍था यात्रा है. इसमें आहो भी शामिल है, जिसे यह अश्‍वारोही खोज रहा है. आहो उसकी स्‍त्री है. उसकी संपत्ति.

अश्‍वारोही उसका पति है. वह क्रोध में है और चेतावनी दे रहा है, साइकिल के समानांतर घोड़ा दौड़ा रहा है कि तुम साइकिल मत चलाओ. तुम्‍हारे तो पैरों में भी दर्द था, तुम साइकिल कैसे चला सकती हो. आहों का चेहरा कहता है कि मेरी आत्‍मा की तकलीफ़ पैरों से कहीं अधिक है. वह अंतिम चेतावनी देता है कि तुम अभी तत्काल नहीं उतरोगी, साइकिल चलाती रहोगी तो तलाक दे दूँगा. साइकिल छोड़ो, मेरे साथ आओ.
आहों का उत्तर है- नहीं.

साइकिल चल रही है. बुरकों में हवा भरती है, वे गुब्‍बारों की तरह साइकिल के साथ उड़ रहे हैं. घंटी बज रही है, हटो, रास्‍ते में आनेवालो दूर हटो. वीराना साइकिलों से आबाद होकर गुलज़ार हो गया है. लेकिन पति अब एक और घोड़े के साथ वापस आया है. मौलवी को लेकर. मौलवी की समझाइश भी बेकार जाती है. पाप का भय बेअसर रहता है. आख़िर पति मौलवी के ज़रिये तलाक दे देता है. लेकिन तलाक देकर भी वे पराजित हैं और थक गए हैं. वे क्रोधित क्‍लांत वापस चले जाते हैं. समुद्र के नीले अथाह जल के किनारे सड़क पर स्त्रियों की साइकिलें दौड़ रही है. तलाक हो चुका है. समुद्र की लहरें उछलकर चट्टानों से टकरा रही हैं. टकाराकर पानी के बिखरने का सौंदर्य दृश्य में है. साइकिलें रफ़्तार पकड़ रही हैं. यह युवा प्रतिरोध है.

उसके तलाक पर सह-साइकिलसवारों के बीच चर्चा है. लेकिन वह अब झुंड से आगे होकर अकेली साइकिल चला रही है. वह सिर उठाकर ऊपर देखती है, चारों तरफ़ देखती है. उसे खुला आसमान दिखता है. वह प्‍यासी है, थक रही है लेकिन साइकिल चला रही है. निषेध के खिलाफ. परंपरा के विरुद्ध. ख़तरे से बेपरवाह. अब घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ें फिर उसका पीछा कर रही हैं. वह फिर दृढ़ संकल्पित हो गई है. यह जीवन मेरा है. मैं सुरंग में नहीं रह सकती. अब चार अश्‍वारोही आए हैं. उनके घर की इज्‍़ज़त का सवाल है. वे पिता हैं, परिजन हैं. वे धमकाते हैं कि समझाते हैं. साइकिल मत चलाओ. घर चलो. वहीं तुम्‍हारी जगह है. वहीं सम्‍मान है. नहीं तो अब पिता का घर भी तुम्‍हारा न रहेगा.

लेकिन वह बहुत दूर निकल आई है. समुद्र, आकाश, खुली हवा और गतिशीलता से उसका साक्षात्‍कार हो चुका है. वह इस साइकिल समूह में भी सबसे आगे है. जो उसे मनाने आते हैं वे सभी शक्ति की इकाई अश्‍व पर सवार हैं. वे साइकिल विरोधी नहीं हैं, स्‍त्री विरोधी हैं. वे पति, पिता या घर के लोग नहीं हैं, वे पुरुष हैं. उसकी यात्रा जारी है. नीला सागर किनारे है. यह लंबी लहराती सड़क है. साइकिल चल रही है. पैडल चलाने, चेन के घूमने और पहियों के घर्षण की आवाज़ उसके साथ है.

अब पाँच अश्‍व-पुरुष आते हैं. साइकिल चलाने में क़बीले के सम्‍मान का प्रश्‍न शामिल हो गया है. मान जाओ, नहीं तो सज़ा मिलेगी. जवाब में पैर पैडल पर तेज़ी से घूम रहे हैं. हैंडल पर हथेलियाँ कस गईं हैं. माथा उन्‍नत हो गया है. साइकिल की घंटी की आवाज़ प्रखर हो रही है. यही उत्‍तर है. यही प्रतिवाद है. वे हयवदन निराश लेकिन नाराज़ वापस चले गए हैं. और अब उसके दो भाई आए हैं. स्‍त्री के साइकिल चलाने से चोटिल. अवज्ञा से आहत. तमतमाए हुए. अपने घोड़ों पर लैस. उन्‍होंने उसे घेर लिया है. जैसे शिकारी घेरते हैं. वे भाई नहीं रहे. शिकारी हो गए हैं. पुरुष हैं.

एक टिटहरी फड़फड़ाकर परदे पर उड़ती है. पक्षी की घबरायी हुई आवाज़ ग्‍यारह दिशाओं में भर जाती है. ग्‍यारहवीं दिशा संवेदनशील दर्शक के मन में है.

The Day I Became a Woman, 2000/ Director- Marzieh Meshkini

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

Tags: The Day I Became a Womanविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 18

  1. राहुल झा says:
    6 months ago

    उनके गद्य में एक अद्भुत ज़ादू है…

    Cinema के content…और उसके craft पर उनका लेखन
    कमाल का है…

    Reply
    • कुमार अम्बुज says:
      6 months ago

      यह दो तरफ़ का मामला होता है। इसलिए आप भी इसमें उतना ही शरीक हैं।

      Reply
  2. Ajamil Vyas says:
    6 months ago

    वाह । बहुत अच्छा आलेख । फ़िल्म को बाद में देख लूंगा, फ़िल्म को समझ लिया । अब फ़िल्म ज़्यादा असरकारी होगी । हिंदी में फ़िल्म बहुत बनती है,लेकिन फ़िल्म देखने की कला से दर्शक अनिभिज्ञ हैं । फ़िल्म समीक्षक न के बराबर हैं । अंग्रेज़ी में हालात बेहतर हैं लेकिन हिंदी में हालात बहुत बुरे हैं । कुमार अम्बुज उम्मीद जगाते हैं । उंन्हे लिखते रहना चाहिए इसी तरह । भारतीय भाषाओं की फिल्में भी उनके कैमरे की नज़र में होना चाहिये । बधाई कुमार अम्बुज भाई को ।

    Reply
    • कुमार अम्बुज says:
      6 months ago

      भाई, धन्यवाद।
      आपकी बात से विनम्र विचलन इतना ही कि मैं समीक्षक नहीं हूँ, एक उत्सुक दर्शक हूँ। और जो फ़िल्म मुझ पर गुज़र जाती है, मैं उसमें से गुज़रने की कोशिश करता हूँ। निजात पाने की तरह। बाक़ी वसुधैव कुटुम्बकम का मामला है।

      Reply
  3. आलोक चटर्जी says:
    6 months ago

    कुमार अम्बुज जी के गद्य का प्रभाव उनके काव्य जैसा ही प्रखर है लेकिन भिन्न भी कुछ खण्ड काव्य जैसा भी आभास देता । इनदिनों वे जो महान सिनेमा पर लिख रहे हैं,मेरा ऐसा मानना है कि ये FTII pune के छात्रों के लिए बहुत उपयोगी होगा ।।

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    6 months ago

    यह फिल्म स्त्री स्वाधीनता को प्रतीकात्मक ढंग से हमारे सामने रखने का प्रयास करती है।इसकी समीक्षा स्वयं में एक स्वतंत्र सृजन की तरह है। इन दिनों ईरान जहाँ की राजनीतिक सत्ता कठमुल्लों के हाथ में चली गई है, ऐसी फिल्म का प्रदर्शन विशेष महत्त्व रखता है।अंम्बुज जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. Anonymous says:
    6 months ago

    फ़िल्म देखने का भी अपना एक अनुशासन है। वे फ़िल्म देखने को लेकर कितने सजग हैं इसका एक अद्भुत उदाहरण रखना चाहूंगा। उन्होंने कहा कि समय के अभाव के कारण मैं उन्हीं फ़िल्मों को देख पाता हूं जिन्हें मैं चिन्हित कर पाता हूं। ट्रेंड कर रहे पॉपुलर फ़िल्मों के होड़ से बाहर उनकी गहन दृष्टि वैसी फ़िल्मों पर अधिक टिकी हुई हैं जहां संवेदनाएं अपनी दुरूह दशा में हैं। यह सिर्फ़ फ़िल्म समीक्षकों के लिए एक पाठ की तरह नहीं है बल्कि फ़िल्म रसिकों के लिए अपने ही द्वारा देखी जा चुकी फिल्मों को पुनः इस दृष्टि से देखते हुए पुनर्मूल्यांकन की भी है। फ़िल्मों में दर्शन दृश्य में घुले होते हैं उन्हीं परतों को उन्होंने परत दर परत खोला है। उनके गद्य की काव्यात्मकता अभिभूत करती है। मैंने उन्हें पढ़ने के बाद फ़िल्मों को देखने का तरीक़ा बदल लिया है। हां, वैसी दृष्टि या भाषा शैली मेरे पास नहीं है किंतु जो जज्ब हो रहा है, उसे महसूस करने की अनुभूति एकदम अलग है।
    —
    प्रशांत विप्लवी

    Reply
  6. M P Haridev says:
    6 months ago

    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी; आपने आरम्भ में लिखा है कि कुमार अम्बुज कालजयी चलचित्रों पर लगातार लिख रहे हैं । अगले वाक्य में लिखा कि वे समानान्तर लिख रहे हैं । आपके एक लिंक पर लिखा हुआ था कि आलोचना भी एक तरह की रचना है । कुमार अम्बुज प्रतिष्ठा प्राप्त और वामपंथ के प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं । तथा उनका एक कहानी संग्रह है । आपने अवश्य पढ़ा होगा । पहली कहानी माँ कालजयी कहानी है । प्रतिबद्ध वामपंथी अपने लेखन के माध्यम से अपनी ओर खींचते हैं । भारत के दक्षिणपंथी विद्वान ही नहीं हैं । संस्कृत ग्रंथों के अध्येता अनूठे और गहन जानकार होते हैं । एक संस्कृत कवि ने तीस श्लोकों की कविता लिखी थी । उसे पढ़ने हुए यह राम चरित्र है । उर्दू भाषा की तरह तीसवें श्लोक की दूसरी पंक्ति से पढ़ना आरम्भ करते हैं तब यह कविता कृष्ण चरित्र बन जाती है । फ़ेसबुक पर मैंने दोबारा साझा किया था । जब कभी मिल जायेगी तब आपको ईमेल कर दूँगा । यदि मैं नाम नहीं भूला हूँ तो संत ज्ञानेश्वर ने साँप और सीढ़ी खेल का आविष्कार किया था । वह भी संस्कृत में है । सीढ़ियों और साँप के चरणों को क्रमशः स्वर्ग और नर्क के चरणों का विशद वर्णन है । अचंभा होता है । अगली टिप्पणी में चलचित्र पर लिखूँगा ।

    Reply
  7. श्रीविलास सिंह says:
    6 months ago

    अद्भुत गद्य। फ़िल्म के प्रति एक नई समझ नई दृष्टि उत्पन्न करता आलेख। ईरान की कुछ फिल्में मैंने देखी हैं। उनमें साधारण के माध्यम से असाधारण को अभिव्यक्त करने का अद्भुत गुण है। कुमार अंबुज जी ने अपने आलेख में उसी असाधारण को रेखांकित किया है। पूरे आलेख में उनकी विशेष दृष्टि और उनके भीतर का कवि नजर आता है। इस आलेख के लिए उनका आभार और इसे प्रस्तुत करने हेतु अरुण देव जी का भी।

    Reply
  8. Anonymous says:
    6 months ago

    कवि कुमार अम्बुज की कविता हो या गद्य प्रभावित करते हैं।
    सिनेमा की तकनीक को बेशक मैं ज़्यादा न जानता होऊं ,इनके लिखे को समझ खूब लेता हूं।
    लांग शाट की तरह सिनेमा पर यह टिप्पणी दिमाग में अंकित हो रही है।
    हीरालाल नागर

    Reply
  9. मंजुला बिष्ट says:
    6 months ago

    इस लेख को पढ़कर फ़िल्म देखने की इच्छा जग गई..स्त्रीमन व उसकी अधूरी इच्छाओं का कितना सूक्ष्म अवलोकन है!अद्भुत, लयबद्ध गद्य!!पढ़ते हुए मन अम्बुज सर की कलम की गहन अभिव्यक्ति में डूब गया।

    Reply
  10. Ramesh Anupam says:
    6 months ago

    बहुत सुंदर और मार्मिक फिल्म पर उतना ही मर्मस्पर्शी और खूबसूरत लेख। बधाई समालोचन और कुमार अंबुज को

    Reply
  11. राजेश सक्सेना says:
    6 months ago

    बहुत सुन्दर गद्य, इच्छाओं की चिन्दीयाँ उंगलियों में बंधी हैं, स्त्रियों की मुक्ति और संघर्ष की बात उठाती फिल्म और आपकी सहज भाषा में यह गद्य अभिव्यक्ति!बहुत बढ़िया अम्बुज जी और धन्यवाद अरुण जी

    Reply
  12. कुमार अम्बुज says:
    6 months ago

    यहाँ दर्ज मित्रों के ये शब्द अन्य कलानुशासन के प्रति उनकी सहृदयता है। मेरे प्रति उदारता। धन्यवाद। अरुण देव की दिलचस्पी रेखांकित है।

    Reply
  13. Farid Khan says:
    6 months ago

    वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज जी सिनेमा पर लिखते हुए लगातार हमारे अंदर सिनेमा देखने का शऊर पैदा कर रहे हैं. इस आलेख में कई पंक्तियाँ, कई व्याख्याएं ऐसी हैं जो सिनेमा से इतर भी गांठे खोलने में मददगार हैं. इसके लिए मैं उनका आभारी रहूँगा.

    Reply
  14. Anonymous says:
    6 months ago

    खूबसूरत समीक्षा, पढ़कर लगता है कि फिल्म ही चल रही है।

    Reply
  15. Yadvendra Pandey says:
    5 months ago

    कुमार अंबुज को पढ़ना और उनके साथ बात करना उनके अंदर की सघन बेचैनी की आहट सुन पाने जैसी है।सिनेमा पर उनका लिखा तो विरल और अदभुत गद्य है – सिनेमा के ढांचे पर रोशनी डालते हुए वे उनसे उत्पन्न हुए बिंबों के बहाने जीवन और दर्शन की परतें खोलते जाते हैं जो किसी श्रेष्ठ पखावज वादक के रचे तालों की तरह कई तरह के भाव लिए मन में गूंजते रहते हैं,नए तरह की पुनर्रचना करते हैं…गूंज अनुगूंज।सिनेमा देखने का नया शऊर उनसे सीख रहा हूं मैं।हिंदी साहित्य ही नहीं समाज को समृद्ध करने की अनूठी दृष्टि है उनके पास।
    यादवेन्द्र

    Reply
  16. कैलाश+बनवासी says:
    5 months ago

    ऐसी फिल्मों पर लिख सकता ही एक बड़ी चुनौती है जिसमें कथा और दृश्य के भीतर की कथाएं और दृश्य चलते रहते हैं।ये महज संवेदनशीलता की ही नहीं,गहन सामाजिक और मानवीय बोध की भी मांग करते हैं। अंतर्निहित संदर्भों को इन प्रकट दृश्यों के सहारे व्याख्या कर पाना नयी कविता लिखने की ही तरह है। और सचमुच कुमार अंबुज आप एक अनूठा गद्य रच रहे हैं जो कविता, विश्लेषण, सामाजिक राजनैतिक दर्शन और गहरे यथार्थबोध से रची है।यह मैं समझता हूं हमारे समय का एक बिल्कुल नया गद्य है जिसकी तरफ आने वाले समय में हमें आना ही होगा।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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