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Home » ममता बारहठ की कविताएँ

ममता बारहठ की कविताएँ

किसी भी पत्रिका के लिए किसी युवा को प्रस्तुत करना ख़ास ख़ुशी का अवसर होता है. सहृदय समाज के समक्ष राजस्थान की युवा कवयित्री ममता बारहठ की इन कविताओं को पेश करते हुए यही कहना है कि रचनात्मकता के प्रथम चरण के बावजूद ये कविताएँ समुचित हैं. इनमें नए की सुगंध के साथ-साथ शिल्प की तैयारी भी दिखती है. इन कविताओं के साथ कलाकार युधिष्ठिर महार्जन के तीन शिल्प भी दिए जा रहें हैं.

by arun dev
December 8, 2021
in कविता
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ममता बारहठ की कविताएँ
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ममता बारहठ की कविताएँ

 

1.

एक तिनके से खेलते हुए
दिन बीत जाया करता है
रात उसी तिनके की याद से खेलते हुए
धूप एक सफेद कागज़ की तरह उड़ती है
सूरज के साथ

वो जगहें,
जहाँ कहने को बहुत कुछ बिना कहे रह जाता है
मैं वहीं कहीं लौट जाती हूँ अक्सर
धूप का कोरा कागज़
समय की आँधियों में फड़फड़ाते हुए
आँखों के आगे आ जाता है बार बार
मैं धूप के टुकड़े को
घुटनों पर रखकर घण्टों बैठी रहती हूँ
पर कोई अक्षर, कोई नाम उस पर लिख नहीं पाती

देखती रहती हूँ दोनों हथेलियों को बारी बारी से
जैसे हम एक दूसरे के सामने
खड़े हैं
जो भी कहने को था
वो कहा जा चुका था…
एक दूसरे की आँखों में देखते हुए
हम उन्हीं को दोहरा रहे थे
मैंने देखा
कई दफ़ा आँखें कलम हो जाती है
जो लिखती है पढ़ते हुए
मैंने धूप पर लिखा है
आँखों से अपनी
खुद को देखते हुए, इस बार.

 

2.

कुरेदते हुए दीवार का रंग
एक चित्र, दुःख की सूरत
उठता है
नाखून पर मेरे!

कंपते हुए होंठ से शब्द
भाप बन बन कर उड़ते जाते है
और
रात, एक भरा बादल अँधेरें में बरसता है
चुपचाप
सिरहाने मेरे!

एक लकीर है चेहरे पर खींची
जिस पर कभी ‘उदासी’ तो कभी ‘मुस्कान’ उभर आती है

याद अपने पास जाने किसे ला बैठाएं
कौन जानता है
जाने कब पलटने को होऊँ और
कोई, मेरा लौटता हाथ थाम ले!
कब कोई अजनबी पुकार
किसी अपने सी लग जाएं
और कोई अनजान,
भीतर मेरे उस अजनबी पुकार पर
भूल से पलट जाएं!

एक फ़ूल मुरझाने से पहले कई दफ़ा
अपने भीतर सिकुड़ता है
कई दफ़ा भूलकर अपना आप
लटके रहता है डाल पर,
भारी सा!
फ़ूल जितना खिलता है
उससे कई अधिक मर जाता है!

जब भी देखती हूँ
हथेलियों को मुट्ठियां खोलकर
तो पीली पत्तियां झूलने लगती है भीतर,
जो देखते ही
मुरझाकर गिर पड़ती है.
एक पेड़ मुझमें तब तक जीवित है
जब तक मेरी दृष्टि से दूर है.

 

3.

थामें हूँ ख़ुद को
ज्यों थामे रखती है बूंद कोई
झूलते पत्ते की नोक पर ख़ुद को
एक दिन
कोई उड़ता हुआ पंख आएगा
और
मैं बन्द आँखों में आसमां को महसूस करूँगी!

एक दुनिया छोड़े बिना
दूजी दुनिया में पग रखती कैसे
अब मैं दुनियां में नहीं
उठते गिरते पाँवों की गति में रहती हूँ!

दीवारों पर कान लगा
एक ठंडी खामोशी सुनती हूँ
जो पड़ौस से आती आवाजों और
मेरे भीतर के शोर के बीच ठहरी है

सर्दी में गर्म लिहाफ़ की तलाश अब नहीं होती
जहाँ भर से कुछ ऐसा खो गया मेरा
कि हर मौसम
अब उसे ही ढूँढा करेगा दिल

कोई आँसू गिरता है गाल पर
गर्म लावे की तरह
तो मैं भीतर तक ठंडी हो जाती हूँ!

इस तरह थामे हूँ ख़ुद को
जैसे टूटी पत्ती
थामे रखती हो कुछ देर,
उस पेड़ के नीचे ख़ुद को
जिससे टूटकर गिरी है

 

4.

एक दिन
रास्ता भटक गयी
फिर कोई बलखाती नदी
समंदर से अलग रेत में कहीं खो गयी
मैंने कैद से
फिर आज़ाद किया एक पँछी को
उस नदी की तलाश में
जो समंदर तक ना पहुँची

अथाह खालीपन से भरा
वो रेत का समंदर
नदियाँ को पीता रहा
घूँट घूँट कर

नदियाँ
कभी भी रेत ना हो सकी
रेत में उतरकर

रेत के ये लहरदार टीले
भटकाव है
जिसे देख नदी को समंदर
का भरम हुआ
और खुद को तबाह कर बैठी

मुट्ठियाँ भर भर कर नदी
अपने भीतर से फेंकती है रेत की
और अपनी ही मुट्ठियों में दफ़न होती जाती है

कंकर, जो थामे थे नदी को
छूट गए वहीं पीछे
जहाँ से नदी भटकी थी
जानते है उस दिशा को,
जिस ओर नदी गयी और फिर ना लौटी
लेकिन उनसे कौन पूछे
जो सिर्फ ठोकरों में लगते रहे
उन्हें उठाकर कौन सहलाए

भटकी हुई नदियों के ये सहयात्री
जीवित समाधियों में जा उतरे

पँछी जो निकला मुझसे होकर
नदी की खोज में
आज भी रेत में अपनी चोंच मारता है
दुःख जब भीतर उठना बन्द हो जाए
तो वो बाहर किसी चोट के दर्द से
याद हो आता है अक्सर
अचानक कोई कराह उठती है
गहरे में कहीं
और वहीं गहरे में समा जाती है
रेगिस्तान एक सिसकी से गूँज उठता है सारा
नदी, गुब्बार बन उड़ती है
जगह बदलती है, दूर दूर भटकती है
उठती है, गिरती है
पर बह नहीं पाती.

धूल भरी आँधी जो देखते हो तुम
आसमां में चढ़ी
पँछी ने फिर चोंच मारी है रेत में कहीं
नदी को भूला कोई दुःख याद हो आया है
नदी, गुब्बार बन उड़ी है फिर
जगह बदल रही है, दूर दूर भटक रही है
उठ रही है, गिर रही है
पर बह नहीं रही!

 

5.

मैं नियति का हाथ पकड़ लूँगी अबके
जब कभी वो लिखेगी मिलन हमारा
उस मिलन के बीच ठहर जाएगी
जाने कितनी सदियाँ,
फिर उसी नियति के नाम पर

हम डूबे रहेंगे बगैर किसी हलचल के
सांसों को सौंपकर
एक दूजे के हाथों में
एक दूजे की आँखों में आँखें रोक कर
ऐसे देखेंगे
जैसे अलग अलग समंदरों
में उछलती दो मछलियाँ प्रेम कर बैठी है एक दूजे से
मछलियाँ उछाल में होंगी और
तभी नियति लिखती होगी ‘मिलन’
और उसी मिलन में
हाथ थाम लूँगी मैं नियति का और
उछाल में रोक लूँगी खुद को इस बार

घुप् अंधेरी रात में जब आसमां में उग आएंगे
सात सूरज एक साथ
सागर जब अपनी ओर बुलाएगा
पाँवों में जब लहरें उठापटक मचाएंगी
पहाड़ अपने सीने में छिपा कोई बीज़, जब
मेरी हथेली पर ला उगाएगा
बीज़ जब फूटता होगा कोंपल से फ़ूल बनकर
तभी नियति लिख देगी ‘मिलन’
और मैं ठीक उसी क्षण थाम लूँगी हाथ
नियति का इस बार और
रोक लूँगी ख़ुद को फ़ूल के खिलने में इस बार

जब खोलूँगी द्वार बेपहचान की दस्तक पर
जब कोई अनजानी आवाज़ लगने लगेगी बेहद अपनी सी
जब कोई पुकार अक्षरों से अलग मुझे पुकारेगी
जब तुम गीत गुनगुनाओगे मिलन का
बीती विदा को याद कर,
मुझे सख्त ज़मीन से उठाकर
तुम हवाओं से बुनने लगोगे
ऐसे क्षणों में, नियति लिखना भूल जाएगी.
और हम उसका हाथ पकड़कर लिख देंगे
‘मिलन’

जब रात कोई भय चुपके से मुझमें फिर उतर आएगा
तुमसे दूर मैं, तुम्हें खोने से डरने लगूँगी
जब हमारे बीच फैली इस बड़ी दुनिया को
पार करने की बैचेनी में
करवटें बदल बदल कर थकूंगी
जब लूँगी नाम तुम्हारा और बारिश बून्द बून्द कर झड़ी बन जाएगी
उस रात तुम्हारी हथेली, बेहद प्यारे सपने सी
जब मेरे दिल पर खुल जाएगी
ठीक उसी समय, मैं नियति को छोड़
थाम लूँगी हाथ तुम्हारा.
और नियति की लिखी बातों के मायने बदल जाएंगे
जहाँ जहाँ लिखा ‘विदा’ उसने
वहीं वहीं अब ‘साथ’ लिखा नज़र आएगा!

Youdhisthir Maharjan/ Broken Body Maps (detail)

 

 

6.

ये सर्दियाँ जानती है उस मुलाक़ात को
पर मैं अब सर्दियाँ नहीं जानती
हर बीते पर मेरे
कोई भूल आ बैठी है
जो जो गुज़रता है, उस भूल में जा समाता है
और इस तरह मैं
हर कुछ को भूले जा रही हूँ

तुम एक ऐसी भूली बात हो मेरी
जो मुझे हमेशा याद आती है उस तरह
जैसे कुछ बेहद जरूरी सा होता है
पर याद ना आए की क्या है!

 

7.

खाली पटरियां जैसे रास्ता है
तुम्हारे घर का
मैं किसी को भी चुनूं
वो तुम पर ही आकर रुकेगी

मेरे तुम्हारें बीच
एक रात रहती है
रात भर चलती हूँ
नींद में अपनी
सुबह तुम तक पहुँच जाने के लिए
ये सफ़र की रात कितनी लम्बी है
क्यों सुबह का साथ
रात होते होते छूटने लगता है
मैं हर रात तुमसे विदा कर
खाली पटरी पर चलने लगती हूँ
किसी सुबह तुम तक
फिर पहुँच जाने को

किसी रोज आऊँगी जरूर
एक सुबह को साथ लेकर
किसी रात
तुमसे मिलने

रात एक उड़ती रेलगाड़ी है
खाली पटरी
एक पीछा है उसका.

 

8.

समन्दर में गिरती नदियाँ
जिद पर अड़ी लहरें बन जाया करती हैं
नदी जो, फिर से निकल पड़ना चाहती है उस पहाड़ की याद में
जिसने खोली थी बाहें
उसके लिए
कि वो बह निकले

नदी पहाडों से निकलती नहीं
समा जाती है उनमें
ताकि फूट सके
कभी न बाधित होने वाली
धारा बनकर
अनगिनत मोड़ लेती
एक
खुले संसार की ओर

बहती है नदी जब तक
वो झूल रही होती है
बाहों में
किसी पहाड़ के

समन्दर में मिलती नदी
प्रेमी की बाहों से
अलग होती प्रेमिका सी
और
समन्दर में
उठती लहरें
उन बाहों की याद सी
एक कभी न खत्म होने वाली
जिद सी
फिर से नदी बन जाने की
पहाड़ की बाहों में लौट जाने की.

 

9.

शाम, एक ज़र्द पत्ता शाख पर अटका
चाँद की टोकरी
सिर पर उठाएँ ‘रात’ चली आ रही है
सूरज डूबा,
पत्ता टूटा
रात ने टोकरी उठाई
पत्ता चाँद पर जा गिरा
लौटते सूरज की
अंधेरी छाया में
शाम का ज़र्द पत्ता
चाँद की गोद में चमकता है

 

10.

रात में,
एक ‘हरकारा’ आता है
जो नींद की दरार से
एक ख़त भीतर खिसकाता है
दूर जाती
साइकिल की घण्टी
एक
मीठी धुन सी बजती है

मैंने देखा, खिड़की के पर्दे पर
लौटते हुए
एक ‘सपने’ की छाया को

ये कौनसे ‘ख़त’ है
जो रात के रास्तें
कोई ‘सपना’ हम तक लेकर आता है.
नींद की टूटी दरारों से आँख लगाकर,
हम किसका इंतज़ार करते है.
कौन है जो नींद के पार बैठा, मुझे लिखता है.
कौनसे हर्फ़ है ये, जो छुअन से हवा हो जाता है

Youdhisthir Maharjan/ Book of Woman (detail)

 

11.

शाम के डूबते सूरज
की छाया
पड़ने लगी है आकाश पर

रात तो बस लौटते सूरज की परछाई है

सितारें सूरज के पैरों की छाप है
जो बढ़े थे सुबह से
एक नयी सुबह की ओर

चाँद, वो मीठा फल है
जिसे सूरज ने चख कर लौटा दिया
वापिस पृथ्वी को

धरती, प्रेम में बिछी
करती है इंतज़ार
कि
सूरज का पाँव पड़े इस तरफ कोई
कि भूले रास्ता वो भी किसी दिन
कोई निशान छुटे सितारा बन कर
आत्मा पर भी उसकी

देखे एक रोज़ आसमान भी दूर से
धरती पर टहलते हुए सूरज को.

 

12.

अँधेरे समन्दर पर डोलती नाव
करती है सवाल-
आज हम कितना दूर निकल आये है,
और कितना बाक़ी है सफ़र अभी?

लहराते पानी से आता है जवाब-
जितना बचा रह गया है तुममें सवाल ये, बस उतना भर बाक़ी रह गया है सफ़र अभी.

नाव डोलती रही, लहर बहती रही.

नाव ने फिर कहाँ- ये इतना उजाला कहाँ से आ रहा है, कहीं उसका देश करीब तो नहीं?

लहर ने कहा- इस रोशनी के झीनेपन जितना ही करीब है वो देश भी, जब पार कर लोगी उजाले को, देश ख़ुद ब ख़ुद बनने लगेगा तुम्हारें भीतर.

नाव डोलती रही, लहर बहती रही.

रात के बीच
आसमानी द्वीप पर एक एक कर बत्तियाँ जलने लगी.
बस्ती जगमगाने लगी.
नाव हाथ बढाकर किनारा छूने लगी,
आसमान की ओर देखकर बोली- हम इस बस्ती में क्यों न रुक जाए कुछ देर.

लहर ने कहा-
इस तरह गुजरना इस बार, कि लगे रुकी हो.
या कि इस तरह रुकना की लगे गुज़र गयी.

लहर चुप सी बहती रही, नाव रुकी हुई सी गुजरती रही.

अँधेरे समन्दर का रहस्य गूँजता रहा…रात भर.

 

13.

लड़की ने ज्यों ही कहा- विदा!
उसी क्षण आसमां से
अंधेरे का परदा सरकता आया
और धरती पर बिछने लगा.
स्टेशन से लौटती
रेलगाड़ी की सिटी
बहुत दूर तक सुनाई देती रही…
उठा हुआ हाथ एक,
एक नज़र को टोहता हुआ
भीड़ के बीच दौड़ता रहा.
पटरियाँ एकाएक
धड़धड़ा कर रुक गयी.
लड़की वहीं कहीं
विदा के दृश्य में हवा हो गयी…

फिर बरसों तक पर्दा उठता
और गिरता रहा…
मंच पर एक जलता दिया
जगह बदलता रहा.
सुनसान पटरियों के रास्ते
सूरज डूबता और चांद उगता रहा.
एक जोड़ा हाथ;
विदाओं में
खोजते रहे एक दूजे को.

 

14.

जाते हुए
उसने पलटकर नहीं देखा
उसकी पीठ पर लगी आँखें मेरी
मुझ ही को देखती रही,

‘विदा’ में
मेरा ही हिस्सा चले जाता है
कहकर विदा मुझे!
और फिर पलटकर नहीं देखता

कहने को गुज़र रहा है समय
कलेण्डर बदल रहा
कहने को मौजूद हूँ हर उस जगह
जहाँ पुकारा जाता है मुझे
अगर देख ले कोई बैठ कर
करीब से मुझे और समय को
तो उसे मैं खड़ी नजर आऊँगी
किसी स्टेशन पर
डबडबाई मेरी आँखें आज भी
टिकी नजर आएगी
उस लौटती हुई आकृति पर
जो आँखों ही से निकाल ले जा रही है
प्राण मेरे
देख रही हूँ खुद को आज भी
अपनी उन्हीं आँखों से
जो उसकी पीठ से लगी
देख रही है मुझे लौटते हुए वहाँ से

कलेण्डर की गिनती हवा हो जाएगी
समय उस दृश्य के करीब
चक्कर लगाता महसूस होगा आज भी
बिना उसके
मेरा बढ़ती तारीखों से जुड़े रहना
एक फरेब है आज भी

उस रोज
मैंने अपनी ही आँखों से देख लिया
विदा होते खुद को

तुम्हारे लौट आने के इंतज़ार में
ये आँखें
मुझ ही पर बनी रहती है
तुम्हें आता देख दूर से
जो मैं सँवरने लगती हूँ
कभी कभी
ये आँखें देख लेती है
लौटते हुए मुझ ही को
तुम्हारें बहाने से

 

15.

मेरे तुम्हारे बीच ये जो बहुत बड़ा संसार है
उसे पार करके नहीं,
साथ लेकर तुम्हारे पास आना चाहती हूँ
खूब चाहा
पर चाह कर भी कभी
मैं पार नहीं कर पायी
‘हमारे बीच को’

जब भी तुम्हारी ओर निकलती हूँ
कुछ कदम चल कर
खो जाती हूँ
फिर कई दिन मिलती नहीं मैं खुद को

मैंने देखा कि
हमारे बीच का ये संसार
दूर तक फैला हमारा ही तो विस्तार है
जिसके सिरे कहीं न कहीं मिल जाते है
मैं कभी कभी जा पहुँचती हूँ उस सिरे तक भी
जहाँ मेरा आखिर तुम्हारे आरम्भ से जा मिलता है
और मैं अपनी इन दो छोटी आँखों से
पूरा संसार नाप लेती हूँ
और जीवन में केवल उन्हीं क्षणों में
मैं कह पायी हूँ-
कि प्रेम है मुझे या कि बस प्रेम ही को हूँ मैं.

दो लहरें मिलती है
अपने अपने संसार को साथ लेकर
अपना आप वहाँ तक खींच लाती हैं
जहाँ तक दूसरी लहर का आप चला आया
और अंततः दोनों मिलकर अपना आप भूल जाती है

जब हम साथ नहीं होते
उस समय साथ के बीच कहीं होते हैं
एक दूसरे को सामने देख लेना
साथ ही के अलग अलग किनारों पर खड़े हो
देख लेना होता है एक दूजे को,
और छूटते जाना दीख से
डूबते जाना होता है साथ के गहरे में कहीं

मेरे तुम्हारे बीच जो बहुत बड़ा संसार है
इसका बहुत बड़ा हिस्सा महासागर है
भावों की लहरें, एक पर एक गिरती,
संभलती, बहती जाती है
जिसपर
दुःख एक सफ़ेद पंछी जैसा आता
और बिना एक भी कतरा छुए
समंदर को मथ कर रख देता है
हमारे बीच व्याप्त दुःखों के इस सागर को
मैं पार करके नहीं,
साथ लेकर तुम्हारे पास आऊँगी

मेरे तुम्हारे बीच
एक भूखा बच्चा
अपनी आँखों में दूधिया ख़्वाब लिए
दौड़ रहा है हाथ फैलाए सड़कों पर
नन्हें हाथ उसके आसमां की ओर खुले हैं
पाँव की छोटी उँगलियाँ
ठोकर मारते हुए ज़माने को ज़ख़्मी हो रही है
धड़क रहा है जो मेरे भीतर
वो उसी की हाँफती साँसे हैं
भूखे पेट,
मासूम एक
इस कड़कड़ाती ठंड में मेरे भीतर
सिकुड़ता जा रहा
मैं उससे गुज़रकर नहीं
साथ लेकर तुम्हारे पास आऊँगी

धधक रहा एक अलाव हर क्षण
मेरे तुम्हारे बीच
एक चिड़िया अपने घोंसले के तिनके
निकाल कर फेंक रही है लगातार उसमें
एक आसमां पिघल रहा है
मेरे तुम्हारे बीच
एक दरिया खोये जा रहा है अपनी बनाई राहों में
कोई प्यासा भटक रहा है अपनी ही प्यास के घेरे में
एक तारा टूटकर गिर रहा है लगातार
अपनी ही किरचों के मलबे में
मेरे तुम्हारे बीच

हमारे बीच के इस संसार को
मैं पार करके नहीं
साथ लेकर आऊँगी पास तुम्हारे

Youdhisthir Maharjan/ No Woman’s Land (detail)

 

16.

चाँद पगडंडी है,
जो मेरी इस खिड़की से, दूर एक झील को जाती है
उजास, नरम घास सा उगा है किनारों पर
आसमा बनने लगा है रात का अँधेरा समंदर

पानी पर डोलती चाँद की परछाई है ये रास्ता

पेड़ पर झूलती अँधेरी पत्तियों के बीच से
एक लाल फूल टूटकर गिरता है रोज़
मैं गुज़रते हुए चाँद से
एक फूल की परछाई
उठा लेती हूँ अक्सर
और चलती चली जाती हूँ
इस रस्ते पर
जिस पर मेरे पैर बढ़े तो रस्ता पानी हो गया
और निशान उनके
सितारों से झिलमिलाने लगे
जिन्हें दूर से एक साथ देखने पर
वो चाँद से नजर आये
और चाँद एक मुड़ी हुई पगडंडी सा

रात में
कितनी दफ़ा मेरा आना जाना होता है
इस पर
कितने फूल शाम में टूटकर
पंखुरियों से बिखरते हैं
मुझ पर
और कितनी ही पंखुरियाँ
फ़ूल बनकर आ लगती है
मेरे दिल पर

आज फिर ढलता सूरज इशारा कर गया
चाँद की ओर
लहर अँधेरे की चाँद पर आ आ कर लौटती रही
उठती गिरती साँसों के बीच
रह रह कर जान आती और जाती रही

याद में तुम्हारी
एक उजले नरम कालीन पर
चलती चली जा रही हूँ
रस्ते नहीं पार कर रही
रस्ते पार हो जा रहे अपने से ही, गुज़रकर मुझसे

चाँद वो पगडंडी है
जिस पर छपे हैं आँखों के नम पाँव
मेरा सारा जीवन
दो मुलाकातों के बीच खिंचा
एक लंबा इंतजार है
किसी बिछोह से जन्मी मैं,
मिलन को निकली हूँ फिर
कभी आँख तो कभी कान पर महसूस होता है
वो रस्ता
जो सिर्फ तुम्हारी ओर जाता है

आखिरी पहर रात के
चाँद तनी हुई रस्सी में बदल जाता है
जिस पर मेरी आँखें
साँस रोककर चलती है
आँखों से बाहर निकलकर प्रतीक्षाएँ देखती हैं
खेल जीवन-मृत्यु का
आँखें अकेली ही चलती चली जाती हैं
जीतने मृत्यु को
इस रस्ते का एक सिरा जिसे तुमने अपने
क़दमों के नीचे दबा रखा है
चाँद ही का अंतिम छोर है
जिसके आगे एक झील
समंदर सी महसूस होती है
और ये खिड़की जहाँ से चाँद खुलता है
मेरे आगे
उस झील का अंतिम छोर है
जहाँ से पलटकर
मैं झील के समंदर हो जाने की
इस यात्रा पर निकली हूँ
लहर में मिलती लहर की तरह
तुम्हारा ख़्याल, मेरे ख़्याल में मिलता है
और उस मिलन से अलग होते हैं ऐसे
जैसे लहर से कोई लहर निकलती है
चाँद के रास्ते
हम लहरों से मिलते और छूटते रहते हैं.

 

17.

दस्तकें सो गयी
दरवाज़े से लगकर

धीरे धीरे
पास की
सीमी हुई दीवारों से
फूटने लगी है जड़े
दस्तकों की

ये दरख़्त, जो आज
पुराना और जर्जर नजर आता है
कोई दस्तक सोयी है
भीतर उसके पानी की तरह.

ऐसे उठती हूँ
अपनी जगह से
ज्यों कोई खटका हुआ

बंद बाड़े में कोई प्राण
सांकलों सा खड़खड़ाता है

जैसे कोई हाथ भूले से आ लगता है
धक से हृदय पर
उठ उठ कर बैठ जाती हूँ
रात के अंधेरे में
अंधेरे की तरह गहराती हूँ

पैर नहीं सह पाते अब
भार एक बन्द दरवाजें का

नींद मेरी
दूर एक शहर की
गलियों में फिरती हुई
अनजान घरों के दर पर
दस्तक सी जागती है

 

18.

तुम्हारी याद
काँच की तरह
टूटती है मुझपर
देखती हूँ खुद को
एक साथ कई टुकड़ों में
याद में तुम्हारी
अपने ही हाथों
उठाती हूँ टुकड़े अपने

तुम्हारी याद से निकलती हूँ जब भी
असंख्य पेड़ों से भरा
एक भयानक जंगल
उठ खड़े होता है
मेरे शरीर पर
जहाँ उजाले का कतरा भर नहीं
आसमां कहीं नहीं

मैं अचानक ज़मीन के उस
हिस्से में बदल जाती हूँ
जिसने कभी सूरज नहीं देखी
जहाँ जाते मन डरता है
बन जाती हूँ संसार की वो जगह
जो सिर्फ गुज़रने के काम आयी
जिस पर आकर
कभी कोई ठहरा नहीं
पँछी यहाँ ऊँचा उड़ने की कोशिश में
टकराते है मेरी सीमाओं से
किसी शाप की तरह
मेरे ही बदन पर आ बिखरते है
छींटों की तरह पँख उनके

उठकर चलती हूँ तुम्हारी याद से ऐसे
जैसे काटती हूँ पुराने दरख्तों, झाड़ियों को
खोजती हूँ रास्ता
सांसों का
जीवन का!

ममता बारहठ
शोधार्थी: राजर्षि भर्तृहरि मत्स्य विश्वविद्यालय अलवर, राजस्थान
निवास: ए. 85 बी, शिवशक्ति नगर, मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर- 302017
mamtabarhata@gmail.com
Tags: कवितानयी सदी की हिंदी कविताममता बारहठ
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Comments 15

  1. श्रीविलास सिंह says:
    1 year ago

    बहुत अच्छी और ताजगी लिए हुए कविताएँ।

    Reply
  2. देवेंद्र कुमार says:
    1 year ago

    अति सुंदर हे और जिसका नाम ही ममता हे तो आगे क्या कहना ,बहुत बड़ियां बेटे

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  3. ज्ञान चंद बागड़ी says:
    1 year ago

    बहुत ताजगी लिए खूबसूरत कविताएँ हैं। बहुत खुश हूं, ममता जी को बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  4. हेमन्त देवलेकर says:
    1 year ago

    युवा नवोदित कवि की रचनाओं का स्वागत है। अरुण जी और समालोचन का आभार और शुभेच्छाएँ। ममता जी की कविताएं कहन में बहुत अलग हैं, गंभीर भी। थोड़ा धैर्य और भीतर के एकांत के साथ उन कविताओं तक पहुंचना होगा तब वे भी पाठक के करीब आयेंगी। विस्तृत टिप्पणी बाद में अवश्य करना चाहूंगा। फिलहाल कवि को बधाई और शुभकामनाएं

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  5. M P Haridev says:
    1 year ago

    शुक्र है कि ममता जी की कविताओं पर कुछेक सुधि पाठकों ने टिप्पणी कर दी । ‘मुझे मिल गया बहाना तेरी दीद का, कैसी ख़ुशी ले के आया चाँद’
    1. ममता जी पहली कविता में बच्ची बन गयी हैं । तिनके से दिन भर खेलती हैं । इनके हाथों में जादू है कि भंगुर तिनका नहीं टूटता । बच्चों की नींद रात में नहीं टूटती । ममता उठती हैं तो सूर्य की धूप से वाबस्त: होती हैं । धूप के कोरे काग़ज़ और गर्म हथेलियों से उनके घुटनों तक ऊष्मा नहीं पहुँचती । काग़ज़ नहीं बल्कि आँखें फड़फड़ाने लगती हैं । आँखों के लिए क़लम विशेषण पहली दफ़्न: पढ़ा है । WOW ! आँखें लिखती हैं पढ़ते हुए ।

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  6. M P Haridev says:
    1 year ago

    2. ममता बारहठ । बारहठ आपका उपनाम है । और हठ बच्चों जैसा । व्यक्ति (अकसर किशोरियाँ) नाखून से दीवार कुरेदती हैं । (डॉ हरदेव बाहरी राजपाल प्रकाशन पेज 8 कॉलम 2 ऊपर से छठा शब्द) । दु:ख महिलाओं के हिस्से में क्यों आते हैं ? काँपते हुए होंठों से भाप का उड़ना शायद सर्दियों के मौसम में भाँप उड़ने से लिया होगा । मुझ जैसे लोग अपने दुखों को रात को तकिया भिगोकर प्रकट करते हैं । वे बादल बनकर आपकी क़लम से ‘कागद कारें’ (प्रभाष जोशी यह शब्द-युग्म लिखकर कॉलम लिखते थे) बादल बनकर दुखों के रूप में बरस रहे हैं । अलग अलग रूपकों से कविता दु:ख और सुख का संगम है ।

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  7. M P Haridev says:
    1 year ago

    3. इस कविता पर टिप्पणी अंतिम पैराग्राफ़ से आरम्भ कर रहा हूँ । एक शायर का कलाम है-
    वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
    शजर से टूट के वो फसल-ए-गुल पे रोये थे

    हमारा क्षरण भी इसी तरह होता है । ममता जी की यह कविता भी भावनात्मक है । कवयित्री ने वृक्ष की पत्ती को बिम्ब बनाकर स्वयं को उलीचा है । ओस की बूँद पत्ती की नोक से झूलती हुई ख़ुद को वहाँ से विलग नहीं होना चाहती । परन्तु गुरुत्वाकर्षण बल के कारण बूँद धरती के शरणागत हो जाती है । कोई सुबकता है तब अश्रु आँखों सिर्फ़ से ही नहीं झरते नाक से भी टपकने लगते हैं । उड़ता हुआ पंख प्रेमी का रूप धारण करके बन्द आँखों पर गिरेगा । और कवयित्री आसमान से एकरूप हो जायेगी । मासूमियत है । वामन अवतार की तरह तीन क़दमों से एक दुनिया छोड़कर दूसरी में प्रवेश करो । पाताल, धरती और आकाश ।

    Reply
  8. M P Haridev says:
    1 year ago

    तीसरी टिप्पणी नेटवर्क न होने के कारण पोस्ट नहीं हो सकी । ममता जी बारहठ ‘ज़िंदगी इम्तिहान लेती है, मुझ अज्ञानी की जान लेती है । इस कविता पर टिप्पणी मैं अंतिम पैराग्राफ़ से आरम्भ कर रहा हूँ । एक शायर का कलाम-
    वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
    शजर से टूट के वो फसल-ए-गुल पे रोये थे

    हम सभी के जीवन के अंत की यही परिणति है । ओस की बूँद पेड़ के पत्ते से लटकी हुई है और विलग नहीं होना चाहती । बूँद बेजान है लेकिन जान (पौधों में प्राण होते हैं) से चिपके रहना चाहती है । गुरुत्वाकर्षण अपना धर्म कैसे त्याग दे । अपने बल से बूँद को खींच लेता है । बूँद धरती के उदर में समा जाती है । प्रेम अश्रु बनकर सिर्फ़ नयनों से नीर नहीं बनता । साथ ही साथ नाक से भी टपकने लगता है । हे ममता तुम्हारा प्रेमी मुझ जैसा भावुक होगा । वह प्रबल प्रेम के पाले पड़ गया । जैसे कृष्ण राधा के प्रबल प्रेम में पड़ गये थे । एकरूप हो गये । अब राधा और कृष्ण का अलग-अलग अस्तित्व नहीं है । राधाकृष्ण हो गया है । पंख का रूप धारण करके आपका प्रेमी आसमान से आपकी स्वप्निल आँखों पर गिरेगा । तुम्हारी गिरफ़्त में समा जायेगा । विष्णु के वामन अवतार की तरह तीन पगों से पाताल, धरती और आकाश को लाँघ लो । मीरा के ‘सूली ऊपर सेज पिया की किस विध मिलना होए ‘ सम्भव होगा । बस इतना ही । थक गया हूँ । फ़ेसबुक पर हो तो हम दोस्त बन जायें । वहाँ विचारों का आदान-प्रदान होगा ।

    Reply
  9. अशोक अग्रवाल says:
    1 year ago

    ताजगी भरा नया स्वर। सादगी और बनावट रहित अभिव्यक्ति। संभावनाओं से भरपूर इस कवि को शुभकामनाएं। आगे भी इनकी कविताओं की प्रतीक्षा रहेगी।

    Reply
  10. दयाशंकर शरण says:
    1 year ago

    एक साथ इतनी ढेर सारी कविताएँ पढ़ने की आदत नहीं थी, फिर भी पढ़ी। नवोदित कवयित्री को हार्दिक बधाई !कहीं कहीं बहुत सुंदर भाव और बिम्बों का संगुफन है,तो कहीं कहीं कोहरा इतना घना कि कुछ दिखाई न दे।जबकि दीर्घकाल तक स्मृतियों में जीवित रहने के लिए दिखाई देना बहुत जरूरी है।जरूरी नहीं कि यह बाहर ही दीखे।मन की आँखों से भी देखा जा सकता है।फिर भी, कुछ कविताएँ सधी हुई हैं जो आश्वस्त करती हैं।

    Reply
  11. Gurbakhsh Singh Monga says:
    1 year ago

    बेहतरीन कविताएं सधी हुई कलम का एहसास देती हुईं।

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  12. Ashok pareek says:
    1 year ago

    बेहद खूबसूरत रचनाएं बधाई हो Mamta dee

    Reply
  13. सुदीप सोहनी says:
    1 year ago

    कविता कहना और समालोचन जैसा मंच मिलना उपलब्धि है। शब्द, स्वर और कहन की यात्रा और भी मुखर हो। शुभकामनाएँ 💐

    Reply
  14. कैलाश मनहर says:
    1 year ago

    ममता बारहठ की इन सभी अठारह कविताओं में काफ़ी मौलिक बिम्ब विधान और रूपक रचाव है | स्मृतियों और संवेदनाओं का अनूठा भावबोध इन कविताओं की विशेषता है | ममता को बधाई और समालोचन को ये कवितायें साझा करने हेतु साधुवाद |

    Reply
  15. प्रभात+मिलिंद says:
    1 year ago

    ममता बारहठ की कविताएं पढ़ना बकाया थी, गोया नहीं पढ़ पाया होता तो यह एक चूक मानी जाती। निश्चित तौर पर अलग किस्म की कविताएँ हैं – कथ्य और भाषा की दृष्टि से हिंदी में ऐसी कविताएँ कम लिखी जा रही है जबकि हिंदी इन कविताओं के लिए सर्वथा एक अनुकूल भाषा है।

    इस प्रतीती के बाद भी ये ख़ालिस प्रेम की कविताएँ नहीं कहलाएंगी। बल्कि ये एक जर्जर समय में मनुष्य के एकाकीपन और रिक्तता की कविताएँ अधिक कही जाएंगी। बिंब बहुत ताज़ा हैं और कहने के लहज़े में भी कोई अस्थिरता अथवा क्षिप्रता नहीं दिखती। एक कोमल ठहराव अवश्य दिखता है जिसे आप चाहें तो कवि का स्पेस भी कह ले सकते है।

    ये कविताएँ थोड़ी अन्तर्मुखी और संवादों से परहेज़ करती दिखती हैं, ज़ाहिरन ख़ुद को एक से ज़ियादा बार पढ़े जाने की तलबगार हैं। हर पाठ के बाद कविता थोड़ी लज्जा त्यागती है, वाचाल होती है, और उसके नए अर्थ खुलते हैं। यह इन कविताओं के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात है। कम लिखने का जो ताज़ापन है, इन कविताओं में वह भी दिखता है।

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