निर्वासन, प्रेम और यहूदी
महेश मिश्र
एली वीज़ल के उपन्यास The Time of the Uprooted एक ऐसा घर है जिसकी दीवारें जर्जर हैं, जिसके दरवाज़े चरमराते रहते हैं और खिड़कियों से भीतर–बाहर बहती हुई हवा में स्मृतियों की धूल और पराग-कण हैं. वीज़ल को दुनिया उनके उपन्यास Night के लिए अधिक जानती है. माना जाता है कि नाइट अँधेरे की वह किताब है जिसने मनुष्य की आत्मा को झकझोर कर रख दिया है. लेकिन ‘द टाइम ऑफ द अपरूटेड’ कहीं और ले जाती है. यह किताब शोर से नहीं, बल्कि मौन से बुनी हुई है. कह सकते हैं कि यह वह किताब है जो आँसुओं के बाद आँखों की कोर में छिपी हुई नमी से लिखी गई है.
यह किताब सीधे-सीधे होलोकॉस्ट का बयान नहीं, बल्कि उस बचे हुए जीवन का वृत्तांत है जो तब शुरू होता है जब मृत्यु का तूफ़ान पीछे छूट चुका हो और निर्वासन की सीलन भीतर जम गई है. यह निर्वासन वाह्य और आभ्यंतरिक, दोनों है.
वाह्य से अधिक आंतरिक कहें तो सही होगा.
मनुष्य का अपनी जड़ों से उखड़ना उसका अभिशाप है. यहूदियों का जो नरसंहार यूरोप ने देखा वह मानवता पर एक कलंक की तरह ही याद किया जाता रहेगा. एक सामूहिक नरसंहार, एक सामूहिक पीड़ा, एक सामूहिक विस्थापन, एक सामूहिक निर्वासन, एक सामूहिक त्रासदी होने के कारण यह कलंक अमिट ही बना रहेगा.
परिमाण में सामूहिक होने के बावजूद इस त्रासदी से जुड़ी स्मृतियाँ हमेशा एक व्यक्तिगत आयाम रखती रहेंगी. इस बात को हम समझते हैं कि पीड़ा को दर्ज करने का काम निजी तरीक़े से ही प्रामाणिक बन सकता है. इसीलिए इस त्रासदी के इर्दगिर्द इतना विपुल साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्पादन संभव हो पाया है.
उपन्यास ‘द टाइम ऑफ द अपरूटेड’ व्यक्तिगत स्मृतियों का आह्वान करके ही शुरू होता है. पुस्तक के प्रारंभ में एक रूपकात्मक कथन आता है
“मुझे आवारा कहो…”, अजनबी ने कहा,
“मैं बेतहाशा थका हुआ और भूखा हूँ…लेकिन भोजन का नहीं, बल्कि शब्दों और चेहरों का…मैं दुनिया में लोगों की कहानियाँ खोजता हुआ चलता हूँ.”
गमालियल फ्रीडमैन, जो अभी छोटा बच्चा है, इस अजनबी पर मुग्ध हो जाता है, और आप पाठक के रूप में कथावस्तु से बँधने लग जाते हैं. वही इस उपन्यास का केंद्र भी है. उसके जीवन के उतार-चढ़ाव (चढ़ाव यहाँ लगभग भाषायी क्लिशे की तरह आया है, याद रखिए.) को नॉन- लीनियर तरीक़े से लेकर आगे बढ़ने वाला यह उपन्यास निर्वासन को महाकाव्यात्मक गंभीरता से बरतता है.
बूढ़ा गमालियल निर्वासित है, टूटा हुआ है फिर भी जीवित है. जीवित इसीलिए कि उसके पास शब्द बचे हैं. शब्द जो स्मृतियों से भरे हुए हैं, शब्द जो बोझिल हैं, और शब्द जो कभी-कभी इतने हल्के हो जाते हैं कि हवा की तरह उड़ जाएँ.
वह घोस्ट-राइटिंग से अपनी आजीविका कमाता है! गमालियल का आत्म-स्वीकार है-
“तुम्हें एक नाम दिया जाता है, तुम उसे ढोते रहते हो… मैंने अपना नाम विरासत में पाया…”
इस नाम को, कहानी की उठान को आप सम्हालने वाले ही होते हैं कि अचानक पता चलता है कि देश में फॉसिस्टों का कब्ज़ा हो रहा है, पिता जा चुके हैं, माँ जा रही हैं- अज्ञात जगह, अज्ञात भविष्य की ओर…गमालियल इस सबको किस भाषा में समझे, भला कैसे उस वीभत्स दुनिया का बर्ताव समझे, जहाँ नाम मरने का पासपोर्ट माना जा सकता है, जहाँ उच्चारण का लहजा मौत के मुँह में ले जा सकता है, जहाँ ग़लत भगवान का नाम लेना जानलेवा है…
ऐसे में इलोंका आती है जो गमालियल की नई क्रिश्चियन पहचान पीटर का नाम याद कराती है, कुछ सामान्य-ज्ञान और सूचनाएँ उसके दिमाग़ में भरने की कोशिश करती है- केवल उतनी जिनसे गमालियल अपनी जान बचा सके.
निर्वासन की गहराई यहीं प्रकट होने लगती है. गमालियल के यहूदी होने का प्रश्न, या अमुक नाम होने का प्रश्न- पसंद का नहीं, बल्कि उत्तराधिकार में मिला हुआ बोझ बन गया. गमालियल का नाम, जो तल्मूद की परंपरा में ज्ञान और संयम का प्रतीक था, निर्वासन में उसके लिए बोझ बन गया. मानो यह कोई आदेश हो, उपहार नहीं. और इलोंका, वह ईसाई स्त्री जिसने उसे बचाया था, उसका जीवन तब संकट में पड़ गया जब रूसी लाल सेना ने फॉसिस्टों को मार भगाया था. इलोंका को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है. अब गमालियल उस ऋण को चुकाता है. इलोंका की जान बचाता है.
यहाँ निर्वासन केवल बेघर होना नहीं, बल्कि निरंतर किसी मनुष्य की उपस्थिति की तलाश है. गमालियल, इलोंका, बोलेक, और उन सबका छोटा-सा समूह. सभी किसी-न-किसी रूप में भटकने वाले हैं. उनकी ज़मीन नहीं, उनकी कथा ही उनका घर है. वे अस्तित्व में बने रहते हैं केवल इसलिए कि वे सुनते और सुनाते हैं. यहाँ “अज़नबी” वह हर जीवित बचा व्यक्ति है जो लगातार कहीं से आता रहता है, पर कभी किसी जगह पर ठहर नहीं पाता.
गामालियल के भीतर एक घर है. टूटा हुआ, अँधेरा, खिड़कियाँ आधी खुली और दरवाज़े आधे बंद. इस घर में बोलेक की हँसी भी है और रेब्बे की प्रार्थना भी. इस घर में प्रेम की वे परछाइयाँ भी हैं जो कभी पूरी नहीं हुईं. ईव, एस्तेर, कोलेट—तीन स्त्रियाँ, तीन अलग-अलग ज्वालाएँ, और तीनों ही उसके लिए अलभ्य बन जाती हैं.
ईव का नाम आते ही भीतर एक अज़ीब कोमल-सी दीप्ति फैल जाती है. वह प्रेम है, लेकिन ऐसा प्रेम जो कभी पूरा नहीं हो सकता. गमालियल उससे प्रेम करता है- प्लेटॉनिकली फिज़िकल. दोनों की ग़ज़ब केमिस्ट्री…मीठी बातों और शरारत में प्रेम-पगी फुसफुसाहट और झगड़े में भी आवाज़ ऊँची करने की ज़रूरत तक नहीं…पर यह भी दोनों को एक नहीं होने देता. गमालियल का ईव से प्रेम अधूरा रह जाता है लेकिन अधूरापन ही उसका सौंदर्य है. उसकी स्मृति किसी लौ की तरह है जो टिमटिमाती रहती है, अँधेरे में भी.
एस्तेर गमालियल की आत्मा पर पड़ी हुई वह छाया है जो कभी हटती नहीं. उसका नाम लेते ही मौन गहरा जाता है. उसमें एक चाहत भी है और अपराध-बोध भी. जैसे इस सपनीले प्रेम ने शरण देने के बजाय निर्वासन को और गहरा कर दिया हो.
कोलेट शायद सबसे छोटी, पर सबसे तीखी याद है. वह प्रेम जो अंकुरित होने से पहले ही मर गया. किसी फूल की तरह जो सुबह खिलने से पहले ही तोड़ दिया गया हो. कोलेट और गमालियल के दाम्पत्य के ज़रिए वीज़ल हमें याद दिलाते हैं कि निर्वासन केवल निवास नहीं छीनता—वह सपनों को भी कुचल देता है. निर्वासन कामना को टुकड़ों में बाँट देता है. प्रेम को जड़ें चाहिए होती हैं, समय चाहिए होता है, पर उखड़े हुए लोग उस स्थायित्व में जी ही नहीं सकते.
इलोंका गमालियल के लिए माँ- सरीखा औदात्य लेकर आई और अपने को इंसान के रूप में सर्वोच्च मानक बनाया. बच्चे गमालियल के लिए यह पहली बार का अनुभव था— प्रेम जो जीवन-रक्षा की तरह आया. और यही कारण है कि गमालियल के बाद के हर रिश्ते उसी मूल दृश्य से जैसे संचालित हो रहे होते हैं.
उपन्यास में प्रेम हमेशा समय से आहत होकर आता है. निर्वासन ने गमालियल को हमेशा जीवन के लिए अवसर-च्युत बना दिया. ईव के साथ प्रेम एक छूटी हुई संभावना है. एस्तेर के साथ प्रेम आदर्श बना रहा, पर मूर्त नहीं हुआ. इच्छा रही, पर उसकी उपस्थिति नहीं. कोलेट के साथ विवाह जड़ नहीं पकड़ सका. बेटियाँ, जिनको माँ ने ईर्ष्या-दग्ध कर दिया.
गमालियल को बचपन से ही शब्दों से प्रेम हो जाता है. अपने पिता से कहानियाँ सुनता था, फिर माँ से, फिर जब भी मौका मिले किसी और से…बाद में, सुनने से ज़्यादा सुनाने लगा. वे शब्द उसकी मुक्ति भी थे और उसकी जेल भी. शब्द उसके जीने का सहारा भी बनते हैं, पर वही शब्द बार-बार धोखा भी देते हैं. उखड़े हुए लोगों के लिए भाषा रस्सी भी है और फाँसी भी. यही कारण है कि गमालियल अपनी आत्मकथा का लेखक नहीं बनता, केवल दूसरों का “घोस्टराइटर” बन जाता है. वह अपने अनुभवों को आख़िरी रूप देने में अक्षम है, पर दूसरों के अनुभव उसके जरिए जीवित रहते हैं.
बोलेक गमालियल का साक्षी है. उसकी कहानियों का श्रोता, उसका साथी. बोलेक के बिना शायद उसकी स्मृतियाँ उसे ही निगल जातीं. बोलेक बार-बार उसे याद दिलाता है कि उसकी कहानी केवल उसकी नहीं, एक पूरी कौम की कहानी है.
घोर विडम्बना और पीड़ा का उपन्यास होने के बावज़ूद वीज़ल आशा को एक अनुशासन के रूप में विकसित करना चाहते हैं. रेब्बे ज़ूस्या के माध्यम से वे कहते हैं—
“जब जीवन निराशाजनक लगे, तब भी तुम्हें हार मानने का अधिकार नहीं. हर दिन एक वरदान है…”
यह केवल सांत्वना नहीं, बल्कि धिक्कार है. रेब्बे की आस्था आशा को कर्तव्य की तरह देखती है. उनके लिए जीना केवल सहना नहीं, बल्कि सक्रिय ज़िम्मेदारी है. जीवन को बरतना, बोलना और याद रखना. गमालियल के निराश मौन के बरक़्स रेब्बे हमें याद दिलाते हैं कि हर दिन एक नया अवसर है. और इसीलिए रेब्बे बार-बार दुहराने पर ज़ोर देते हैं—भाषा डगमगाती है, पर मौन उससे कहीं ज़्यादा घातक है. रेब्बे उस परंपरा की आवाज़ है जो निर्वासन में भी जीवित रहती है. उसकी प्रार्थनाएँ, उसकी धुनें, उसकी शिक्षाएँ—सब मिलकर गमालियल को बाँधते हैं.
यह उपन्यास सीधी राजनीति नहीं करता, पर इसके पात्र अलग-अलग रास्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं. बोलेक गवाही है—वह ज़िद करता है कि स्मृति कच्ची बनी रहे. रेब्बे नैतिकता है—वे पीड़ा को करुणा से बाँधते हैं. और गैड (पूर्व मोसाद एजेंट) सत्ता- संप्रभुता है—वह उस रूपांतरण का प्रतीक है जिसमें यहूदी आकांक्षा एक राज्य की शक्ति में बदल जाती है. यही वह औपन्यासिक ऑर्क (arc) है जिसे पुस्तक शायद अनजाने में खींचती है. कभी यहूदियों का सवाल था—
“यहूदी कहाँ जाएँ?”
आज प्रश्न यह भी है—
“जब वह खड़ा हो चुका है, जब उसके पास सत्ता है, तो वह किस तरह व्यवहार करता है?”
वीज़ल ने वैसे तो इज़राइल की आंतरिक राजनीति के बारे में बोलने से अपने आपको रोक रखा था और वे उसे आक्रामक शक्ति के रूप में नहीं देखते, पर उपन्यास का ढाँचा हमें वहीं सोचने पर विवश करता है. शायद अपनी रचनाओं में हर महान रचनाकार व्यक्तिगत सीमाओं के पार चला जाता है.
वीज़ल की यह किताब उस यर्निंग (yearning) से भरी है— लौटने की प्यास. गमालियल पूछता है: यहूदी होना क्या है?
“यहूदी होना इतिहास को एक घाव और एक आशा दोनों की तरह ढोना है.”
वीज़ल जिस समय को उपन्यास में बाँध रहे हैं वहाँ यह प्यास करुण है. वह केवल सुरक्षा और घर की चाह थी. पर आज, जब हम इज़राइल को ताक़त और हिंसा के प्रतीक के रूप में देखते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह प्यास कुछ और ही बन गई है. जो कभी स्मृति का घाव था, वह अब दूसरों के लिए नया घाव बन रहा है. वीज़ल ने क्या यह चेहरा नहीं देखा, पता नहीं. लेकिन उनका उपन्यास हमें सोचने पर मजबूर करता है: क्या कोई पीड़ा इतनी गहरी हो सकती है कि वह किसी और की पीड़ा का कारण बन जाए? जब आकांक्षा कठोर होकर शक्ति में बदल जाती है, तब क्या वह उसी नैतिक स्मृति से विश्वासघात नहीं करती जो निर्वासन के केंद्र में थी?
गमालियल का मौन जैसे इस प्रश्न की गवाही देता है.
‘द टाइम ऑफ द अपरूटेड’ अंततः एक ध्यान है. वह प्रश्न कि विपत्ति के बाद कैसे जिया जाए. अजनबी का आगमन, नाम का बोझ, शब्दों का क्षय, छूटे हुए प्रेम, और रेब्बे की दैनिक करुणा. ये सब मिलकर उखड़े हुए जीवन का एक मोज़ेक रचते हैं. इस उपन्यास की विशेषता यह है कि यह वीज़ल की आजीवन चिंता को एक नए परिप्रेक्ष्य में रखता है: होलोकॉस्ट के प्रत्यक्ष नरसंहार से हटकर उस जीवन में जो उसके बाद बचा—प्रेम, दोस्ती, भाषा, यादें, और अधूरेपन का बोझ. और बोलेक, रेब्बे, गैड के ज़रिए यहूदी प्रश्न भी खुलता है. स्मृति की करुणा और राज्य की शक्ति के बीच का तनाव. वही तनाव जो आज भी हमें छूता है.
वीज़ल की भाषा का सबसे बड़ा गुण उसका मौन है. हर वाक्य के बाद एक ठहराव है, एक गूंज.
“निर्वासन हमें उधार के समय और उधार के शब्दों में जीना सिखाता है.”
गमालियल उन्हीं उधार के शब्दों से अपनी दुनिया बनाता है. उसकी असफलता भी एक किस्म की शक्ति है. वीज़ल लिखते हैं:
“मनुष्य अपनी जीत में नहीं, बल्कि अपनी असफलताओं से मज़बूत होता है.”
यही कारण है कि गमालियल हमें अपनी अधूरी प्रेम कहानियों के बावजूद गरिमामयी लगता है.
![]() महेश मिश्र भारतीय तथा वैश्विक सांस्कृतिक मामलों के जानकार हैं. साहित्य में रुचि और गति |





सुंदर आलेख।
पीड़ा और आशा का युग्म है।
इसी वर्ष मैंने वीजल के मेमोआ(र) पढ़े थे।
इसे पढ़ते हुए, उनकी छबियाँ भी तैरती रहीं।
पीड़ा और विस्थापन की कहानी का दर्द ख़ूबसूरत शब्दों में बयाँ किया है । प्रेम है, विछोह है । इस्राइल का प्रसंग छूटा है ।
इतिहास के इसी घाव के साक्षी इमरे कर्तेश भी थे. दोनों हंगेरियन यहूदी. पर त्रासदी को दर्ज़ सम्भवतः अपने अपने तरीक़े से किया. केवल कर्तेश की लगभग आत्मकथात्मक किताब पर बनी फ़िल्म ‘फ़ेटलेस’ ही अब तक देखी है और 14 साल के बच्चे की ज़ुबानी पीङा को इतना परोक्ष करके दिखाया गया है कि फ़िल्म आज तक हॉन्ट करती है.
इससे पहले वीजल का कुछ नहीं पढा है और वीजल पर भी पहली बार ही.
आभार.