परदे के पार जो है मैं हूँ निशांत उपाध्याय |
कपड़े के महीनतम रेशे का आखिर भी अपने भीतर वह फाँकें समेटे रहता है जहाँ से और रेशे खिल आते हैं. रेशे के अंदर रेशों की पनाहगाह में वो बिजली भी छुपी रहती है जो ओढ़े हुए ऊनी कंबल को पैर से फैलाने की रगड़न में कौंधती-भर है और कंबल के असाँस अँधेरे में आसमान उकेर देती है. स्मृति के रेशे भी जिन झटकों को पनाह देते हैं, उनकी जननी वही विद्युत है जिसने स्मृति को बनाने खातिर- क्षणभंगुर ही सही पर- ओज उधार दिया होता है. तेजी ग्रोवर की हाल में आयी किताब- तूजी शेरजी और आत्मगल्प, इन्हीं रेशों को समेट एक नया अर्थ पा लेने की जीवित कशमकश है. इस किताब के एक दर्शन यूँ भी खुलते हैं जैसे किसी ने सिकुड़े कागज़ की हल्दी लगी कतरनें काट, एक जानी-पहचानी शक्ल उकेर, उसे दोबारा जानने की कोशिश की हो. या आख़िरी तर्पण दे देने की. दोबारा जान लेना आखिरी बार रिहा कर देने का क्षण भी होता ही है.
‘तूजी शेरजी’ तेजी जी को कृष्ण बलदेव वैद जी द्वारा दिया गया नाम है. यह वैद जी का एक युवा कवि को दिया व्यक्तित्व भी कहा जा सकता है, लेकिन उसके लिए वे सारे खत पढ़ने होंगे जो वैद जी ने ‘तूजी’ को लिखे और जिनको किताब की शक्ल देने की ‘तूजी’ की असफल कोशिश का संताप इस किताब के पन्नों में रहता हुआ भी एक विराट चिंघाड़ लिया विस्तार पाये हुए है.
तेजी ग्रोवर अपने लौकिक जीवन के निबाह में भी वह भाषा अख्तियार कर पायी हैं जो किसी भी प्राणी-मात्र को कष्ट ना देने की कोशिश करती हुई, अपना तामस बयान कर पाने की याचना-मुद्रा में तैरती दिखती है. ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ का तमगा भी इस भाषा पर लगाना बहुत सरल हो सकता है, अगर कोई सिर्फ लेखक तेजी ग्रोवर से परिचित हो और इस बात से अनजान कि अपने ज़ख्मों को हर तरह से आवाज़ दे सकने को काबिल तेजी हमेशा उन शब्दों का चुनाव करती हैं जो किसी से भी पहले उन्हें उन्हीं के कटघरे में खड़े करते दिखायी दें. शब्दों का यह चुनाव भी तपते पत्थरों से ना वाक़िफ़ तलवों को प्राप्त पीड़ा जैसी उस पीड़ा को नहीं छुपा पाता जो वैद जी के खतों को प्रकाशित ना करवा पाने पर लेखिका को प्राप्त हुई है.
गौरतलब बात यह भी है कि अपने ‘गुरुवंत’ लेखक द्वारा लिखे पत्रों को सबके सामने लाने की लेखिका की अदम्य इच्छा का स्रोत वह वांछना नहीं है जो खुद को किसी बड़े लेखक का करीबी घोषित कर खुद को ख़ास रेखांकित करने की नज़र पायी होती है.
हिंदी साहित्य समाज में इस तरह के विशिष्ट सामीप्य के स्वार्थी प्रचार की बहुलता में यह इच्छा काबिल तारीफ है कि उन पत्रों में लिखी सलाहों और नसीहतों को उजागर किया जा सके जो वैद साब के सदेह न बने रहने के बाद भी युवा कवियों को रिल्के की तर्ज पर मार्गदर्शन प्रदान करते रहें. इस तरह की अनुभूतियों के सामने आने के आलोक में यह प्रसंग गुरु शिष्य परंपरा का एक मूक बिम्ब भी दिखायी पड़ता है.
साहित्य में संगीत की तरह स्थापित घराने भले ना हों (कुछ ‘उद्दण्ड’ कवि हालाँकि उनके कुत्सित स्वरूप को रेखांकित कर चुके हैं), लेकिन लेखन के निज विपुल संसार की धनी एक लेखिका की अपने शुरुआती दिनों के गुरु के प्रति श्रद्धा अनुकरणीय है. खासतौर पर, सोशल मीडिया जनित स्व-घोषित नये लेखकों में रची-बसी आत्मश्लाघा के बैंगनी अँधेरे में यह श्रद्धा झिलमिलाती दिखायी देती है.
तेजी को लिखे ख़तों के कॉपीराइट इस गद्य में व्यवस्था के उस रूपक में प्रकट हुए हैं जहाँ व्यक्तिगत अनुभूतियों और भावनात्मक कर्जों का कोई मूल्य नहीं है. व्यवस्था वह चिर-खंजर है जो व्यक्ति को सुरक्षित रखने के वादे पर उसके मानस को आक्रांत रखता है. हस्तलिखित पत्रों के अधिकारों के लिए ‘तूजी’ पर ज़रूरी बन पड़े संवाद जब डिजिटल ईमेल पर संपन्न होते हुए किताब में आते हैं तो वे पंक्तियाँ उस विडम्बना को भी उजागर करती हैं जो तकनीक के औघड़ विकास और समाज में संवेदनाओं के क्षार से जन्म लेती है.
यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि कृति का ‘मैं’ जिस कायदे से हर घटना को परोसने के लिए शब्द चुनता है, यह उस अभ्यास से जनित है जो मानसिक स्वास्थ्य और व्याधियों के सजग अवलोकन और सतत चर्चा की माँग करता है. रचना का यह स्वभाव उस संवाद के दरवाज़े खोलता है जहाँ एक व्यक्ति अपने ट्रौमा (trauma) के वर्तमान स्वरूप को स्मृतियों की नयी परिभाषा में गढ़ बदल सकता है. तेजी ग्रोवर के हाल में लिखे अधिकतर गद्य में यह बर्ताव शामिल दिखता भी आया है. भाषा का यह स्वरूप ‘आत्म-गल्प’ के सौंदर्य को बढ़ा देता है. इस दस्तावेजी किताब में तेजी किसी भी घटना को लगभग पूरा बताने से पहले कहीं और मुड़ जातीं हैं जैसे पूरा उजागर करने पर वह टाइम-स्पेस किसी प्रेत की तरह आ हमेशा के लिए बैठ जायेगा और एक ‘तूजी’ हमेशा के लिए किसी स्ट्रीटलैम्प की रोशनी में सिहरती खड़ी रहेगी.
मुड़ने के बाद वह बार-बार उन घटनाओं और पात्रों की तरफ लौटती हैं. हर बार लौटने पर दोहराते वाक्यों में कुछ शब्द जुड़ जाते हैं. कैनवस पर एक ब्रश स्ट्रोक और पड़ता है. पाठक सजग होता है. नीबुई साड़ी पहनी औरत सीढ़ियों पर बैठती है. एक शक्ल उछरने भर को होती है. अगली पंक्ति में उसकी मौत है. कई पन्नों बाद उस औरत का नाम आता है जिसकी रौशनी में उस कवि का चेहरा उमगता है जिसने कविताओं में मृत्यु के पार जाने ब्रह्मांड को एकमेव कर रखा है.
जिस वक़्फ़े में घट रहे को दर्ज करने का यह किताब प्रयास करती है, यह वही ‘स्वर्णिम’ समय है जब भोपाल में वे सिद्धहस्त नाम जुड़ रहे थे जो हमेशा के लिए भोपाल के कला परिदृश्य को बदलने और पोषित करने वाले थे. उस समय की सृजनात्मक और तरक्की पसंद आबोहवा में वह मैत्री पनप रही थी जिसकी छाँव में कलाकार एक-दूसरे को भी मुसलसल गढ़ रहे थे. उन मित्रताओं के छितराये विस्फोटों के सालों बाद भी जब लेखिका एक आखिरी बार सभी के गले मिल लेने की रुँधी-सी कसक को आवाज़ देती है तो मैत्री का फलक रोशन हो जाता है. मानवीय रिश्ते वैसे भी वह निर्बाध गोलाई पाए रहते हैं कि हर व्यक्ति अपनी नज़र से उसके सिर्फ किसी एक मुड़ते हिस्से को जान समझ पाता है. कलाकारों के संवेदनशील हृदय और आत्ममुग्ध व्यक्तित्व की दोफाड़ के दस्तावेज के तौर पर भी इस टेक्स्ट का पाठ किया जाना चाहिए. किताबानुसार, सामाजिक सोद्देश्यता से संचित आन्दोलनों की विखंडित विफलता के कारण पूछने पर रामू गाँधी ने तेजी जी से कहा था-
“दुष्टता करने वाले का अहंकार अच्छे काम करने वाले के अहंकार की तुलना में कहीं कम होता है, तेजी!”
यह पंक्ति उस उजाड़ की प्रतिध्वनि पाती है जो हर व्यक्ति के भीतर गहराता जाता है कि अक्सर हमारे तामसी निश्चय दृढ़ बने रहे हैं और कोमलता पाये उद्वेलनों को हम साल-दर-साल दफनाते जाते हैं. यह आत्मगल्प, इन क्षणों में, किसी समंदर में डूबी हार्प (harp) की आवाज़ की तरह सिसकते हुए भीतर रिसता है.
इस विस्फोटक मैत्री के भोपाल कालखंड में ही यह सुखद संयोग भी देखने आता है कि कैसे पंजाब और मध्यप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के कवियों-लेखकों-कलाकारों के साझा सामीप्य के कारण किस तरह भाषा समृद्ध होती चली आयी. कालान्तर में इस समय साथ जुड़े कवियों ने अपना जुदा शिल्प ज़रूर पाया, लेकिन लाल्टू से लेकर वीरेंद्र दुबे जैसे विस्तारशील ‘काव्य-स्पेक्ट्रम’ में घटित व्यक्तिगत यात्राओं में एक ज़ेहनी सामूहिकता प्रवेश ली हुई थी. इन किरदारों से जुड़े प्रसंगों को पढ़ते वक़्त समय की साजिशों के भूगोलीय पक्ष को भी मन की तर्जनी उकेरती चली जाती है. विभिन्न परिवेशों के कवि-कलाकारों की मित्रता से समृद्ध भाषा, वैद साब की जीवनपर्यन्त नयी भाषा गढ़ने की स्पृहणीय छटपटाहट और तेजी ग्रोवर के ठुमकते-खनकते शब्द-संयोजन की तीन ताल इस आत्मगल्प में सम पर आते दिखते हैं.
यह भी काव्य-न्याय अनुरूप है कि इस छटपटाती कृति की ज़मीन भी उस लेखक को समुचित अर्घ्य न दे पाने की है जो अपनी एक कहानी में लिखते हैं- “अगर ये दोनों ज़ुबानें खुले दिल और दिमाग से आपस में मिलना-जुलना और रसना-बसना शुरू कर दें तो बहुत कुछ मुमकिन है.”
सत्रह वर्षीय एक संस्था की आसन्न मृत्यु के स्पष्ट दिखने को याद करती तेजी इस पंक्ति के साथ भाषाओँ और बोलियों के अस्तित्व और व्यवहार को इंगित करती भी हैं- “ठेठ बुन्देली के कर्णप्रिय सुरों में खड़ी बोली और अंग्रेजी का अनाधिकार हस्तक्षेप ख़त्म होने को आया था.”
यह आत्मगल्प वैद साब और अर्नेस्ट अल्बर्ट के इर्दगिर्द घटता भले दिखे, लेकिन यह इतना एकरेखीय है नहीं. इसका शिल्प इसमें व्यक्त से अपना सौष्ठव प्राप्त ना कर, अव्यक्त से ज़ोर हासिल करता है. जैसे मणि कौल ने संगीत-सम्बन्धी चर्चा में कभी उदयन वाजपेयी से कहा था कि गंधर्व सुर लगाने के लिए गंधर्व ना लगाया जाये, उसके एकदम करीब पहुँच छोड़ देने की चेष्टा में वह एक दिन प्रकट होगा. इस आत्मगल्प में तेजी ने जो शब्द रोक लिए हैं, वे उपस्थित शब्दों को प्रकट करते हैं. स्मृति के दंश सीधे-सीधे ना परोस कर, विस्मृति की तरह ही गुने हुए हैं. धीमे-धीमे घुलते हुए. कहीं भी पूर्ण उपस्थित नहीं, कहीं पूर्ण अनुपस्थित भी नहीं. ठीक इस किताब में आये रुस्तम जी के बनाये चित्रों की तरह- जो देखने में भले श्वेत-श्याम हों, उनमें बाकी रंगों की अनुपस्थिति ही उन रंगों का आह्वान करती है जो इन चित्रों में व्याप्त एक चीखते निसर्ग को रोशन करते हैं.
खालिस उपस्थिति और अनुपस्थिति का जो द्वंद्व जीवन रचता है, उसी द्वंद्व द्वंद्व से दो-चार होते हुए लेखिका ने ये आत्मगल्प रचा है. ‘आत्मगल्प’ कहने पर लिखे हुए के संभावित मायने और खुल जाते हैं. पहली बात तो यह कि आत्म और गल्प वैसे भी एक ही तासीर पाये हुए हैं. जिसे हम आत्म कहते हैं वह कई समानांतर गल्पों का ही जमा-जोड़ है जो स्मृति-अनुभव-स्वप्न-इच्छा के चौखट में बंधा-खुला विचरता है. हर गल्प अपने भीतर आत्म (एक से अधिक भी) समेटे रहता है. सो इन दो शब्दों के संयोजन से क्या कुछ अलग रेखांकित किया जा सकता है- इस पर अलग से विचार चलते रहना चाहिए. बहरहाल, यह ज़रूर है कि आत्मगल्प कहते ही टेक्स्ट एक अलग रुचि और पाठ प्रदान करने लगता है. किरदार अब ना सिर्फ अपना आभासी तत्व खो देते हैं बल्कि हर किरदार लेखक के ‘आत्म’ के ही विस्तार के तौर पर पढ़ा जाता है. इससे एक अलग किस्म की रीडिंग का वजन इस (या किसी भी) आत्मगल्प के हिस्से आता है.
यहाँ ये भी कहना होगा कि लेखक ने वाक्यों और जानकारियों को बार-बार हू-ब-हू पेश कर पठनीयता में एक ज़ोखिम उठाया है. वे पाठक जो ध्वनि के रस से अछूते हैं, वे शब्दों को महज़ जानकारी मान, उसके बार-बार मिलने पर बिफर सकते हैं लेकिन टेक्स्ट के संगीत और कथानक में फ्रेम संयोजन की समझ की धनी आँखों को यह आवृति रुचिकर लग सकती है. जिस तरह अर्नेस्ट का किरदार अपने तमाम उर्फ़ के साथ सिकुड़ता-खुलता है, वह उस व्यक्तित्व का जीवंत रूपक भी बन उठता है जो जिस पर जितना खुला, उसके लिए सिकुड़ता चला गया और अपने जाने में वह गोलाई छोड़ गया जिसमें उसे चाहने वाले अपनी देह त्यागने तक चलने को अभिषिक्त हैं. खिलते-सिकुड़ते अर्नेस्ट के इर्द-गिर्द बिंधे तेजी, रुस्तम, वैद जी और तमाम किरदार आत्मगल्प के आत्म का सतत निर्माण करते दिखायी पड़ते हैं.
अर्नेस्ट के जिए और तेजी के दर्ज किए वृतांतों में विवाह-संस्था की परतें भी उधड़ती दिखायीं देती हैं. अतिशय ईमानदारी और शब्दों के परदे के पीछे से वे घटनायें सामने आती हैं जो हमारे समाज में अपरिहार्य बन चुकी विवाह की संस्था के भुरभुरे खोखलेपन को उजागर करती हैं. विवाह मनुष्य के जीवन में एक ऐसी हिस्सेदारी लाता दीखता है जिसके किसी भी एक पाले में अनभिज्ञता बैठी रहती है. एक निर्बाध साथ को साधे रखने की अकुलाहट जीवंत हो उठती है. एकाधिक जन्मों का दावा करती विवाह-संस्था के स्याह पक्ष को उजागर करते वक्त ‘तूजी’ प्रेम के निर्विवाद सत्य को भी उजागर करती हैं. इस तरह विवाह, प्रेम और कामुकता की त्रयी की एक लहर सिलसिलेवार इस गद्य में उछाल मारती रहती है.
अपने सातवें दशक को पूरा करने की दहलीज़ पर खड़ी तेजी इस आत्मगल्प को रच समय में अलग-अलग हुई यात्राओं को एक साथ तीर की तरह सजा उन पर भीष्म की तरह लेटी हुई दिखाई देती हैं. बीते हुए में से बीनकर जो स्मृतियाँ इस टेक्स्ट (text) के हिस्से आयी हैं, उनकी बयानी में इस कृति ने अपनी सार्वभौमिकता पा ली है. भले इसकी ज़मीन किसी अवसाद के ‘फोम’-सी छुअन लिए दिखायी दे, इसकी परवाज़ अपने विस्तार में राजनैतिक और सामाजिक चेतना से उद्दीप्त है. नर्मदा बचाओ आन्दोलन, ऑपरेशन ब्लू स्टार, भोपाल गैस ट्रेजेडी और कई ज़मीनी कोशिशें यहाँ प्रचलित नारेबाजी की तरह ना आकर, जीवंत अस्तित्व लिए आती हैं. लेखक और किताब में आये रचनात्मक जीवों की कई पंक्तियाँ मौजूँ दर्शन लिए हुई हैं. प्रेम, देह, काम और यौनिकता को जिस सरलता के साथ तेजी दर्ज़ करती हैं, वह हिंदी जगत की स्थूलता को चरमराने में प्रयासरत सरलता है. भले उसका उद्भव तेजी के जिये में पसरा हो.
इस किताब को पढ़ते वक्त इसके शिल्प से आसक्त हुए बिना नहीं रहा जा सकता है. इसकी सार्थकता इस तथ्य से रेखांकित होती है कि यह आत्मगल्प उन पाठकों के लिए भी उतना ज़रूरी जान पड़ता है जो तेजी या वैद जी या इस इकोसिस्टम (ecosystem) से परिचित नहीं भी हैं. युवा लेखकों के लिए शिल्प पर केस स्टडी की तरह भी. यह बलखाती स्मृति का दर्ज हुआ वह आवेश है जिसमें व्याकरण भी टूटने के कगार पर आ जाता है लेकिन प्रवाह बाधित नहीं होता. इस प्रवाहशील आत्मगल्प ने पुस्तक का जो रूप पाया है, वह भी गुजरे समय के आक्रांत सुरों की तरह छितराया हुआ है.
जगह-जगह पर ‘फॉन्ट’ और ‘स्पेस’ बदलते जाने के कारण इसके प्रवाह ने वह बदहवासी पायी है जिसे मनुष्य का मानस अपने ही अनदेखे कोनों में पोसता रहता है और किसी अपरिचित पहर की आमद में वह सैलाब की तरह मानस को ही सिहरा देता है. इस तरह इस आत्मगल्प का अनुभव अंतहीन प्रतिबिंबों का अनुभव बन जाता है. पुस्तक लेखक के मानस को प्रतिबिंबित करती है, लेखक का मानस हाथ से फिसलते समय के फाहों को, इच्छा स्मृति को, स्मृति प्रेम को और अंतत: पाठक शब्द ग्रहण कर अपने जीवन के आईने में गुजरे प्रतिबिंब तलाशता खुद को पाता है. यह गल्प प्रतिबिंबों से चलायमान प्रवाह का वह धागा है जिस पर स्मृतियों को झटक सुखाने डाला गया है. माफ़ी के ताप में अथाह आस्था के साथ.
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निशांत उपाध्याय हिंदी व अंग्रेजी के कवि, लेखक, आलोचक एवं कला शिक्षक |
प्रिय तेजी,
कुछ समय पहले तुम्हारी किताब तूजी शेरजी और आत्मगल्प पढ़कर समाप्त की है। पठनीयता के बावजूद बीस पृष्ठ के बाद उसके सम्मोहन से बाहर आने के लिए कुछ देर विश्राम लेना मेरे लिए ज़रूरी हो जाता।
तुम्हारा यह अप्रतिम आत्मगल्प पढ़कर मुग्ध भी हूं और उतना ही विस्मित भी। 50 वर्ष से भी अधिक अपने मानस में छपी उन स्मृतियों को लिखने में कितनी रातों की नींद, सुकून और न जाने क्या-क्या गंवाया होगा, जिसकी मैं इस वक्त कल्पना ही कर पा रहा हूं। इसे लिखना आसान तो कतई नहीं रहा होगा। दर्द ला दवा का आलाप तुमने इतनी शिद्दत से कैसे भरा होगा! तकलीफ और दर्द की यह गूंज किताब के हर सफे पर सुनी जा सकती है। दास्ताएवस्की के इडियट का किरदार प्रिंस मिश्किन तुम्हारे अपने वजूद में समाहित हो गया। अपने प्रति हिंसक, भावनाओं को लहूलुहान करते व्यक्तियों के प्रति जिसके पास विश्वास, प्रेम से के अलावा करुणा से भरा हृदय है। इस करुणा की सर्वत्र व्याप्ति ही इस आत्मगल्प को मूल्यवान और उच्चस्तरीय रचना बनाती है।उर्दू और पंजाबी भाषा के लफ़्ज़ों के प्रभावी इस्तेमाल ने इस आत्मगल्प को उतना मोहक बना दिया है, जिस उस्ताद रचनाकार को यह सम्बोधित है और जिसके उपन्यास उसका बचपन के पात्र बीरु की अदृश्य उपस्थिति इसकी बुनियाद में नव्य शिल्प के साथ अपनी दस्तक देती चलती है। इसी तरह रामचंद्र गांधी जिन्हें उनके मित्र रामू कहकर संबोधित करते, उनका स्मरण अत्यंत आदर और उनके आंतरिक चरित्र की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए किया है।
अनु का अनोखा जादुई चरित्र इस किताब को ऊंचाई देने के साथ यह भी शिद्दत से रेखांकित करता है कि तमाम झूठ, हिंसा और विध्वंस के बावजूद सृष्टि में पवित्रता, प्रेम और करुणा ही अंतिम सत्य के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखेंगे।
पचमढ़ी कथा शिविर के सहभागियों का स्मरण बिना किसी अतिरेक के कलात्मक सूक्ष्मता से किया है।
उदयन वाजपेई के जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी ने आंखों को नम कर दिया।
अनिरुद्ध उमट, जयशंकर के साथ उन मित्रों का स्मरण जिन्होंने इस आत्मगल्प को लिखने के लिए निरंतर प्रेरित किया।
नर्मदा बचाव अभियान और पिपरिया होशंगाबाद के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के क्षेत्र में एक आंदोलन की तरह सक्रिय साथियों के जीवंत क्रियाकलापों का उल्लेख बहुत कम शब्दों में लेकिन सार्थक रचाव के साथ किया है। उस जीवन का एक झरोखा जिसके जरिए तुम्हारी पिछड़े समाज के प्रति संलग्नता को अन्वेषित किया जा सकता है।
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बाबू या अर्नेस्ट इस बंदे से मेरी मुलाकात संयोगवश साल 19 86 या 87 में धर्मशाला में हुई थी। यह सूचना भी तुम्हारे माध्यम से ही मिली होगी कि वह हिज हाइनेस दलाई लामा के प्रमुख जनसंपर्क अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा है। उसे तलाशता हिमाचल की पहाड़ियों की श्रृंखला में बसी तिब्बती बस्ती की ओर गया और पूछते- पूछते अर्नेस्ट के छोटे से क्वार्टर को तलाश करने में सफल हुआ।
काव्यात्मक भाषा लिए हुए बहुत सुन्दर लेख है यह। जिस पुस्तक की समीक्षा के तौर पर यह लेख लिखा गया है उसमें सूक्ष्म और गहरी अन्तर्दृष्टियाँ हैं इस लेख में। खोज करने पर भी हिन्दी में इस स्तर के समीक्षात्मक लेख कम ही पाये जायेंगे। “तूजी शेरजी और आत्मगल्प” की तरह ही यह लेख भी हिन्दी में एक नये, भिन्न और विशिष्ट किस्म के गद्य का नमूना है। यह लेख इसलिए भी हैरान करता है क्योंकि यह एक युवा कवि-लेखक द्वारा लिखा गया है जो लेखक के तौर पर अपनी यात्रा में शायद अभी अपने पहले चरण में ही है। “तूजी शेरजी और आत्मगल्प” को हिन्दी में इससे बेहतर समीक्षक शायद ही मिल सकता था।
बहुत मनोयोग से निशांत ने किताब पर लिखा है ज्यों लेखक की मात्र शब्द यात्रा में ही नहीं जीवन यात्रा में भी मूक सहयात्री रहा हो। यह विचलित करने वाली किताब है। पीछे छूटे अंधेरों में पुनः प्रवेश का साहस लेखक के लिए कैसा त्रासपूर्ण रहा होगा। पढ़कर देर तक सोचती रही थी कि कैसे माफ़ कर सकी होंगी तेजी मैम। फिर यही लगता है कि अनिश्चितताओं से भरे छोटे से जीवन में आखिर हम कितनी लड़ाइयां लड़ेंगे और कब तक…. वह भी अपनों से। अंततः माफ़ कर देना पड़ता है, उनके लिए नहीं तो अपनी मानसिक शांति के लिए।