चांद
बारिश में भीगता है
पता नहीं बारिश में धुंधलापन था
या आंखों के पानी का एहसास
कि तुम्हारे सपनों की
नब्ज सुन्न हो गई.
चांद तुम धूप में पड़े-पड़े
धरती पर सच की लकीर
खींचा करते थे
कितनी लकीरें खींची
झुंड सा बना दिया
लेकिन तुम्हारा सच
बहुत कमजोर था, जिस दिन
धूप नहीं हुई, बह गई
सारी लकीर हवा में और
तुम्हारे सपनों की रंगीन दुनिया
जिन्हें तुम आकार लेते हुए
देखना चाहते थे
उसी ने (ईश्वर) चुरा ली
जिसने तुम्हें दी थी.
सलवटों से भरा एक चेहरा
संभाल के रखा है
संदूकची में
जिसे गाहे-बगाहे पहन लेता हूं.
एक चेहरा और है मेरे पास
उसमें भी लकीरें हैं
मगर वो स्वाभाविक है,
दरअसल
यही मेरा असली चेहरा है.
सलवटों को तो
मैं कभी-कभी ओढ़ लेता हूं
वक्त की जरूरतों के
हिसाब से.
कुछ और शब्द बोल दो
ताकि मैं एक जीवित
कविता बना लूं
वैसे तो तमाम शब्द हैं किताबों में
मगर उनमें वो बात कहां
वे तो मृत हैं.
मुझे बनानी है एक
जीवित कविता
उसके शब्द
तुम्हारे ही मुख से झरेंगे
तभी तो सांस ले सकेगी
सुकून पा सकेगी कविता.
कई बार ऐसा होता है कि
तुम्हारे मुख से झरते शब्द
झरने में बहती लहरों सा
जुड़ने लगते हैं
और उस वक्त मेरे पास
कागज-कलम नहीं होती
उन शब्दों को हृदय में कैद भी
नहीं कर पाती
चढ़ जाती है उस पर
समय की परत
खोने लगते हैं वे
अपना रूप और
बचती है सिर्फ आजीवित देह.
कहो दु:ख
मैं वो लिखी इबारत मिटा दूं
जो तुमने रूह की जिस्म पर
उकेरी थी
मेरे लाख ना चाहने के बावजूद
तुम अपनी ड्यूटी पर थे
पीछे हटना तुम्हें गवारा न था
और मुझे तुम्हारा रहना
नागवार लगना
लेकिन तुम न माने अमिट.
मिटा रही हूं अब
उन्हें सदियों से
वो मिटाने को नहीं आते
मेरे हाथ, लहूलुहान हो जाते
इसी उम्मीद में
शायद तुम कभी मुझमें से निकलकर
मेरे सामने खड़े हो जाओ
कम से कम
पूछ तो सकूंगी तुमसे
कैसे हो दुख
अब तो थोड़ा मुझे
हंसने दो.
वो एक महायात्रा थी
दुख ने पूछा चलोगी, पता नहीं कब
मैं धरती की मुंडेर पर अधलेटी
दुख में ही डूबी थी.
क्या दुख इतना प्यारा होता है ?
इतना अपनापन होता है
उस सूनसान आकाश में
दोनों तरफ गंगा थी
उड़ते बादल और
बीच में हम
किसी अद्भुत अनुभव के सीने से
लिपटते हुए
जो नहीं था उसमें होते हुए
जो था उसे भुलाते हुए
बहुत सारी हंसी थी
उस दिन दुख में.
मैं भी हंस रही थी संग-संग
घूमते रहे हम सारा आकाश
वहां अंधेरे अंतरिक्ष में गए जो
मेरे भीतरी हिस्से से जुड़ा है.
क्या ये
प्रमाण नहीं है कि दुख कितना
अच्छा लगता है, उसके गले लगकर
रहना चाहती हूं
विलीन हो जाना चाहती हूं दुख में.
क्या जरूरत थी सपने तुम्हें
सदियों से मेरे इर्द-गिर्द मंडराने की
राहों में ढूंढती रही हूं अपने सत्व को
कि तुम झट से ढक लेते हो मुझे
तुम कहते थे न-
सूक्ष्म रूप से तुझमें हूं
तेरे हर चिंतन में, तेरी हर सांस में
उतार रही थी उन्हें मैं
मन के फलक से आसमान के फलक
पर, अपना सर्वश्रेष्ठ विधान रचने को
तुममें ढूंढ लिया था
अपना सत्व- धरती, आकाश, सागर
मिट्टी, हवा और मैं.
सब तुझमें विलीन हो गए थे
पलकों की नमी शिव बनने लगी
ये विचार भी तुमने गढ़ा
साधना-ए-शिव बनने का
दिशा बनने लगी, कल्पना रूप ग्रहण
करने लगी.
युग का शाश्वत सत्य तू
उड़ता रहा तितली बन
मेरी देह से अपने अमूर्तन तक.
शून्यकाल से घट रही महाघटना
पूरे जग का अंधियारा
एक जीवन में कैसे
उतर आता है, ये तुम्हें देखकर
जाना चांद
खूबसूरती में लोग
तेरा नाम लेते हैं
दुनिया के सारे महाग्रंथ
गढ़े जाते हैं तुम्हें देखकर
पर चांद तुम कितने उदास हो.
तुम्हारे वश में कुछ नहीं
कितने मजबूर हो तुम
गोल-गोल धरती पर
गोल-गोल सा दमकने के बाद
तुम्हारा ह्रास होना ही है.
तुम न चाहो तो भी
धरती न चाहे तो भी
दरअसल तुम्हें
धरती के चांद के रूप में आरोपित होना
नहीं था
जब तुम्हारा खुद पर वश
नहीं, तो उसे कैसे संवारोगे
कैसे दोगे उसे इस सच का ज्ञान
जब सच इतना निर्मम हो.
चलो जाने दो इस बातचीत की
दौर को
ये कोई कहानी तो नहीं
जिसकी शुरुआत और अंत हो
ये तो एक महाघटना है
जो शून्यकाल से घट रही है
अब चांद युग में.
सफेद झक्क चांद
दु:ख ओढ़े
मुस्कुरा ही दिया और मैंने
चुपके से देख ली
जज्ब कर ली, अपने जज्बातों में
ऐसा करना
कितना अच्छा लगा था मुझे
पर ये तय है
अच्छी बातें बार-बार
नहीं होतीं और दुख
बार-बार गिरता है आंगन में
कितना बुहारुंगी मैं
कहीं तुम्हारी वह मुस्कान
अंधेरे आंगन की
कच्ची मिट्टी में धुल न जाए
अन्तत: जिसका डर था मुझे
वही हुआ
ढूंढती फिर रही हूं तुम्हारी
मुस्कान उस छोटे से आंगन में
घुल गई है वो
कच्ची मिट्टी में ऐसे
जैसी कभी थी ही नहीं.
हल्के हल्के पानी वाले बादलों के बीच
पीली लम्बी पट्टी खिंची थी
मेरे हृदय से
तुम्हारे हृदय तक
कल बिना सलाखों वाले जंगले पर
लेटकर
पढ़ रही थी उसे लाल रंग की इबारत
पीली पट्टी पर लाल रंग की इबारत
तुमने भी कभी
उसे पढ़ा होगा
असल में उसे तुमने ही पढ़ा होगा
मैंने तो तुम्हें हथेलियों में बांध लिया था
थोड़ी रोशनी, थोड़ा अंधेरा
यही सिलसिला चला आ रहा था
चांद के घटने बढ़ने के साथ
तुमने अपनी
हथेलियों में बांधा मेरी हथेलियों को
और जंगले पर लटकी शाख पर
नज्म लिखी.
ख्वाहिशों का विलाप हुआ
कुफ्र हुआ
और कुछ न हुआ
बादल फटा पानी गिरा आसमान से
दरक दरक कर
चट्टानें टकराती बिखरती रहीं
और कुछ न हुआ
उसने जेब से अपना हाथ
निकाल क्षितिज पर उगे
इन्द्रधनुष को अचानक छू लिया
एक मुट्ठी रंग उसकी हथेलियों में आए
और कुछ न हुआ
जिस्मों का धीरे धीरे बुत में
तब्दील होते जाना / नब्जों का सुन्न होना
और कुछ न हुआ
सूखे पत्तों को समेटकर
दामन में भर लिया
आग लगी और कुछ न हुआ.
हम पत्थर की क्यूं ना हुई ?
बादलों के साथ सफर करते सूरज
रौशनी भरी थी आंखों में
रौशनी थी कि चुभ रही थी
पानी बनी जा रही थी आंखों में
गूंज रहा था कोई नाद
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
बिना श्राप के भी.
क्यूं भर दिए तमाम जज्बात, चोट
और खून के कतरे जिस्म में
क्यूं रची हमारे भीतर कायनात
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
क्यूं हम मेकअप से, लिपिस्टिक से
रंगी-पुती हैं, क्यूं हम तंग कपड़े पहनती हैं
क्यूं हम दिन-रातों में, घरों में, बाहर
चलने का दु:साहस करती हैं
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम जिस्म बनी, माल बनी, सौदा बनी
समझौता बनी, जायदाद बनी
आन-बान-शान बनी
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम घूंघट निकालती हैं
दुपट्टों से सिर ढकती हैं
पूरी आस्तीन की कमीज पहनती हैं
तुम्हारी हर ज्यादतियों को
खुद में जज्ब करती हैं
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अकेले आसमान में नहीं उड़ना चाहती
हम उड़ना चाहती हैं तो ये चाहत भी
पालती हैं कि तुम साथ उड़ो
क्या हम शर्मिंदा हों अपनी चाहत पर
या कि इस सोच पर
कि इससे पहले हम–
पत्थर की क्यूं ना हुई
या खुदा तूने हमें क्यूं बनाया
गर बनाया भी तो इस जहान में भेजा क्यूं
तमाम संवेदनाओं में रंगकर
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अपने लड़की होने का शोक मनाएं
कॉन्फेशन करें, क्या करें हम
लड़की होना गर कुसूर है हमारा
तो सीता, मरियम
आयशा को भूलकर
हम शर्मिंदा हैं…
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
एक ऐसी कविता
जिसमें दर्द है / दु:ख है / आंसू है
पीड़ा है / आधी सदी है
मैं शर्मिंदा हूं…
लिखने से पहले
कि मैं पत्थर की क्यूं ना हुई.
(ये कविता दिल्ली गैंगरेप पीड़ित लड़की को समर्पित…जो आसमान का कोई तारा बन गई)
मां की टेर
सदी के इस महाकुंभ में
सूर्य की रश्मियों के बीच
मैंने तुम्हें
बांहें फैलाए
आंसुओं में बिलखते देखा
मां !
हां, तुम ही थी मां
होठों पर तुम्हारे
एक टेर थी-
‘मेरे लाल’
मुझे छोड़कर तू कहां गया ?
और मां का वह लाल
जिसे अपने रक्त और
आंसुओं से सींचकर
बड़ा किया था
वह प्रयाग की इस त्रिवेणी में
अपने पापों को धोने
के साथ
अपनी इस गठरी का
बोझ भी
उतार गया.
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