वासुदेव शरण अग्रवाल: साहित्य, कला और समाजरमाशंकर सिंह |
“डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवाल तब तक मथुरा आ चुके थे. वह साक्षात् बोधिवृक्ष थे. उनके सत्संग में मैंने भारत विद्या का दुर्लभ पाठ पढ़ा…. यह मथुरा में बना हुआ पुराना कागज है, वह ताम्रपत्र है, और यह भोजपत्र है तथा यह सब चीजें कितनी पुरानी है, इसका ज्ञान मुझे वासुदेव जी से ही हुआ. वह मुझे पाणिनि की अष्टाध्यायी पढ़ाना चाहते थे, सूरसागर पढ़ाना चाहते थे, लेकिन मैं उनकी दोनों इच्छाएं पूरी न कर सका.”[1]
यह बातें वासुदेव शरण अग्रवाल (7 अगस्त 1904-26 जुलाई 1966)[2] के समवयस्क गोपाल प्रसाद व्यास ने लिखी हैं. व्यास जी मथुरा के रहने वाले थे और ब्रज-मंडल के साहित्यिक वृत्त के निर्माताओं में से एक थे. एक रूढ़ अर्थ में वासुदेव शरण अग्रवाल प्राचीन भारत के इतिहास, कला एवं पुरातत्व के जानकार थे लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ऐसे किसी विभागीय विभाजन की अनुमति नहीं देता है. स्वयं मैंने उन्हें पहली बार हिन्दी भाषा के निबंधों वाली किताब में तब पढ़ा था, जब मैं इंटरमीडिएट का छात्र था. स्नातक की पढ़ाई के दौरान मैंने उनका नाम इतिहास के प्राध्यापकों से सुना जब वे अशोक की लाट की पॉलिश के बारे में पढ़ा रहे थे और उनका एक सन्दर्भ प्राचीन भारत के सामाजिक इतिहास में तब आता था जब पाणिनिकालीन भारतवर्ष की चर्चा होती. उसी समय हिन्दी साहित्य के प्राध्यापक भी उनको भक्ति काल के संदर्भ में बार-बार उद्धृत कर रहे थे, जब वे जायसी के पदमावत की व्याख्या कर रहे होते. उसी दौरान मैंने जाना कि वासुदेव शरण अग्रवाल इतिहास और साहित्य में समान रूप से अधिकार रखने वाले विद्वान हैं और उन्हें दोनों जगह बहुत ही सम्मान के साथ उद्धृत किया जाता है. यह 1996 से 2004 की बात है.
2010 में जब मैंने शोध छात्र के रूप में एक बार फिर पढ़ाई आरम्भ की मैंने पाया कि उनके पास फील्डवर्क पर जाने के अचूक नुस्खे हैं जिनमें एक ‘मेथड’ भी है. अब मेरे सामने एक मानवविज्ञानी वासुदेव शरण अग्रवाल थे. इन तीन भूमिकाओं में उनको पढ़ते हुए मैंने उन्हें अपना ही अतिक्रमण करते हुए, अपने को बार-बार रचते हुए पाया. ऐसा कोई मनीषी ही कर सकता है जो सदैव ज्ञान का विस्तार कर रहा है, उसे पुनर्नवा बना रहा हो.
यह अनायास नहीं हुआ था. इसके लिए उन्होंने अपने आपको प्रशिक्षित किया था. यह प्रशिक्षण जितना औपचारिक था, उतना ही व्यवहारिक भी. वास्तव में लोग दो तरह से शिक्षित होते हैं. एक तो विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षित-प्रशिक्षित, जिसमें कोई एक व्यक्ति उनका गुरु हो सकता है. दूसरी हालात में समाज ही गुरु बन जाता है. अपनी बहुत ही उम्दा और सधी हुई शिक्षा के बावजूद वासुदेव शरण अग्रवाल ने लोक को अपना गुरु बना लिया. उन्होंने प्रसिद्ध इतिहासकार राधा कुमुद मुखर्जी के निर्देशन में लखनऊ विश्वविद्यालय से पाणिनि पर पीएच.डी. की थी. देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में पढ़ाया था, व्याख्यान दिए थे, संग्रहालयों की वीथिकाएँ सँवारीं लेकिन इस सबसे बढ़कर उन्होंने जो कुछ पढ़ा था, उसकी पुष्टि के लिए वे लोक के पास गए. हल चलाते हुए किसान, बर्तन बनाते हुए शिल्पकार और मेले में घूमते लोहारों से उन्होंने पूछा कि एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के रूप में वे जो जानते हैं, उसका अर्थ क्या है? उनका अपना ज्ञान किसान, शिल्पकार और लोहार के समक्ष कितना वैध है? उन्होंने ऋग्वेद से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता के सन्दर्भ भारतीय समाज में खोजे और उसे पुष्ट किया.
मैं इस लेख में वासुदेव शरण अग्रवाल के भारत एवं उसके बारे में उनकी दृष्टि के बारे में बात करना चाहता हूँ. उनकी यह दृष्टि उनके जीवन और रचना कर्म में व्याप्त रही है. और इस ‘भारत-दृष्टि’ का एक इतिहासकार के लिए, एक समाज विज्ञानी के लिए क्या महत्त्व हो सकता है, मैं इस पर भी बात करना चाहूँगा. यह देखा गया है कि प्रथम श्रेणी के राजनेता और विद्वान उम्र, अनुभव और ज्ञान बढ़ने के साथ सरल हो जाते है. ऐसा ही वासुदेव शरण अग्रवाल के साथ हुआ. पाणिनि के ग्रंथ अष्टाध्यायी पर उनकी शोधपूर्ण किताब ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ यद्यपि काफी सुगठित है लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने जो निबंध लिखे थे, वे विद्वानों और आम पाठकों को ध्यान में रखकर लिखे गए. यह निबंध गूढ़ विषयों को साहित्यिक सरलता के साथ पाठक के समक्ष रखते हैं. वास्तव में 1940 के दशक और उसके बाद जो इतिहास ग्रंथ लिखे गए, वह उच्च कोटि के साहित्य ग्रंथ भी हैं. भारत में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और सी. राजगोपालाचारी इसके उदाहरण हैं.
इतिहास विषय के सिद्धांतकार ई. एच. कार कहा करते थे कि एक इतिहासकार अपने जीवन में दो किताबें नहीं लिख सकता है. वह किसी न किसी केंद्रीय विषय वस्तु को दोहराता रहता है. यह बात यूरोपीय यूनिवर्सिटी सिस्टम में दीक्षित किसी इतिहासकार के लिए सही हो सकती है, लेकिन वासुदेव शरण अग्रवाल के लिए ऐसा नहीं है. उन्होंने अलग-अलग विषयों पर अधिकार पूर्वक लिखा और अपने आपको दोहराया भी नहीं. उनके लेखन के केंद्र में पृथ्वी पर स्थिति मनुष्य और उसकी संस्कृति रही है. जिस दौर में वह पैदा हुए, लिख और पढ़ रहे थे, वह आधुनिक भारत के निर्माण का भी दौर था. उनकी चिंता का केंद्र भारत और उसमें रहने वाले लोग हैं जिनके बारे में महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू सोच रहे थे.
यूरोप में देश बने थे तो वहाँ एक भाषा एक नृजाति का आधार खोजा गया था. कुछ देश धर्म और समान आदतों के अनुसार बने थे लेकिन बाद में यूरोपीय राष्ट्र-राज्य के अगुआ कई देशों ने अपने नागरिकों को समरूप होने के लिए बाध्य किया. जो इस धारणा में अँट नहीं पाते थे, उनका नरसंहार कर दिया गया. वहाँ संस्कृति मृत्यु का कारण बन गयी. भारत ऐसा था ही नहीं. यह बताने की जिम्मेदारी इतिहासकारों ने उठाई. इस बात को वासुदेव शरण अग्रवाल ने अर्थव्यवस्था, धर्म, संस्कृति और भाषा के आधार पर सिद्ध किया कि भारत बहुवचन में है. उन्होंने कहा कि जैसे केले के पेड़ में एक के ऊपर एक चढ़े हुए परतों के भीतर उसका गाभा रहता है, वैसा ही कुछ भारतीय संस्कृति का रूप है.[3]
भारत की बहुवचनीयता और उसकी सामाजिक-भाषिकी को महत्व देते हुए उन्होंने लिखा है:
“सबर, मुंडा, कोल, भिल्ल, संथाल आदि निषाद जातियों की मातृभूमि होने के कारण भारतीय भाषाओं को उनसे प्राप्त होनेवाले अनेक शब्दों का लाभ हुआ. फल, फूल, वनस्पति, औषधि, वृक्ष, नदी, पर्वतों के नामों की व्युत्पत्ति की जब पूरी छानबीन होगी, तब भौतिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले कितने ही शब्द निषाद भाषाओं से अपनाये हुए मिलेंगे.” [4]
यहाँ वे टैगोर के उस प्रसिद्ध कथन के करीब हैं जहाँ उन्होंने भारत को विभिन्न संस्कृतियों का समुद्र कहा था. पी. के. गोडे के सम्मान में लिखते हुए उन्होंने कहा भी था कि भारत की संस्कृति न तो एकल है और न ही टुकड़ों में विभाजित बल्कि वह किसी खूबसूरत गहने में गढ़े हुए रत्नों की तरह चमकती है जिसमें सबकी विशिष्टता बनी रहती है. जैसे किसी कपड़े पर कढ़ाई की गयी हो और उसके विविध छापों की तरह भारत के निवासियों का जीवन एक लंबे कालखंड और दायरे में फैला हुआ है.[5]
भारत की इस विशिष्टता को रेखांकित करने के लिए वे उन्होंने इतिहास, कला, पुरातत्त्व और भाषा ज्ञान की वीथिकाओं को छान मारा.
भारत को केवल आध्यात्मिक आधार पर सीमित करने के औपनिवेशिक प्रपंच को भारत के इतिहासकारों की विभिन्न धाराओं ने समय-समय पर उजागर किया है. उसमें वासुदेव शरण अग्रवाल का नाम अग्रगण्य है. उन्होंने भारत के भौतिक जीवन को न केवल रेखांकित किया बल्कि उसके सांस्कृतिक आधारों को खोजा. ऐसा करके वे परम्परा के सातत्य को लोगों के जीवन में लक्षित करके अपने पाठक को सफलतापूर्वक दिखा सकते थे. एक लेखक के रूप में यह गुण 1930 से 1960 के बीच के विद्वानों में लक्षित किया जा सकता है. बाद में यह गुण क्षीण होता गया है, विशेषकर गैर-साहित्यिक लेखन में. तो, भौतिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले जिन शब्दों के बारे में वे लिख रहे थे, उनके अर्थ को वे लोक में खोजने के हिमायती थे. उन्होंने कहा भी कि लोक ही व्याकरण का सबसे महान आपवन या थैला है जो शब्दों के अपरिमित भण्डार से भरा रहता है. उस लोक के प्रति पाणिनि की बढ़ी हुई निष्ठा और श्रद्धा थी. लोक के प्रति पाणिनि की यह निष्ठा हम वासुदेव शरण अग्रवाल के लिखे प्रत्येक निबन्ध और ग्रन्थ में लक्षित कर सकते हैं.[6]
पाणिनि से सम्बन्धित अपने ग्रन्थ की भूमिका में महभारत के उद्योग पर्व (43, 36) में कही गयी इस बात को वे उद्धृत करते है :
‘सर्वर्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते, प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरा: l
इसका अर्थ है सब अर्थों का व्याकरण, विवेचन, निर्वचन, प्रकृति और प्रत्यय का पृथक स्पष्टीकरण करना ही वैयाकरण का कार्य है. सर्वार्थ का अर्थ ही है कि शब्द में कितना अर्थ भरा जाएगा, यह वैयाकरण की सफलता है. प्रकारांतर से यह बात उनके लिए भी उतनी ही सच है. उन्होंने भारतीय लोक को श्रद्धा और विश्वास से देखा, उसके बारे में विस्तार से लिखा और फिर उसमें अर्थ भरकर लोक को वापस कर दिया.
कहते हैं चिंतन का पहला चरण देखना है. आप क्या सोचते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप देखते क्या हैं? भारत के विभिन्न क्षेत्रों को, जिसे उन्होंने ‘जनपद’ कहा है, देखने के लिए उन्होंने बहुत ही संवेदनशील आँख विकसित की थी. उन्होंने भारतीय जन एवं जनपदों को उसकी संपूर्ण सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, धार्मिक अभिप्रेरणाओं, आर्थिक संरचनाओं और मनो-विनोद के परिप्रेक्ष्य में देखने पर जोर दिया. उन्होंने भारत की जनता के साहित्य, पुरातत्व और सांस्कृतिक जीवन के बीच ऐसे सेतु निर्मित किए जिनसे गुजरकर भारतीय समाज को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. अपने लेखन के द्वारा उन्होंने बताया कि एक देश के रूप में भारत की बहुभाषी-बहुधार्मिक जनता अपने को किस रूप में और किस प्रकार से प्रस्तुत करती रही है. वासुदेव शरण अग्रवाल की समस्त रचनाओं को यदि आप पढ़ें तो पाएंगे कि उसमें शुरू से लेकर अंत तक एक भारत बसता है जो जितना शास्त्र में है, उतना ही लोक में. एक की कीमत पर उन्होंने दूसरे को ओझल न होने दिया है.
1931 में उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत मथुरा संग्रहालय के क्यूरेटर के रूप में की थी. इसके बाद वे लखनऊ के राजकीय संग्रहालय और दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से भी जुड़े रहे. उन्होंने कलाकृतियों को छू कर देखा था. संभवतः वे शिल्पियों की छेनी की हर चोट, हर बलाघात को पहचानते थे. वे जानते थे कि पूरे भारत के लोगों की नाक, कान, आंख और शरीर की बनावट कैसी है. वे केश कैसे सँवारते हैं और उनका उत्तरीय ओढ़ने का ढंग क्या है? इसे वे शास्त्र से मिला कर देख रहे थे और जब यह नाकाफी साबित हुआ तो वे लोगों के बीच गए उन्हें गौर से देखा. वास्तव में आधुनिक समय में विशेषकर पश्चिम में नवजागरण की बौद्धिक निर्मिति और औद्योगिक क्रांति के बाद के उत्पन्न हुई संरचनाओं ने जोर दिया कि उद्योग शहर तथा कृषि आधारित गाँव ही दो जीवन दृष्टियाँ है. बाकी जीवन दृष्टियाँ खत्म कर दी गयीं. कारीगर और शिल्पियों के बारे में एक चुनी विस्मृति ओढ़ ली गयी. हिंदुस्तान के कारीगर और शिल्पी सड़कों पर आ गए. उनका रोज़ी-रोज़गार छीन लिया गया, वे धीरे-धीरे नष्ट होने लगे. इसे ही डी. आर. नागराज ने टेक्नोसाइड कहा था.[7]
यदि वासुदेव शरण अग्रवाल की स्टडीज इन इंडियन आर्ट[8] या पदमावत की टीका[9] पढ़ें तो पाएंगे कि इस विद्वान का हृदय शिल्पी, कारीगरों, किसानों और जिसे भारत की आम जनता कहते हैं, उसके काम के प्रति कितने सम्मान से भरा हुआ है. यदि भारत का सचमुच का कोई आर्थिक इतिहास या सांस्कृतिक इतिहास लिखा जाना है तो वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे चिंतक हमारे काफी काम के हो सकते हैं. वे जितने अधिकार के साथ पाणिनि की अष्टाध्यायी, महाभारत, मेघदूत, मार्कण्डेय पुराण, मनुस्मृति, हर्षचरित और पदमावत पर लिख सकते थे, वे जितनी अंतर्दृष्टि से मथुरा में माट के देवकुल पर लिख सकते थे उतनी ही ‘शास्त्रीय लोकाभिमुखता’ के साथ स्त्रियों की केश-सज्जा पर भी लिख सकते थे. ऐसा लिखते समय वे मनुष्यों की सांस्कृतिक चेतना पर निगाह गड़ाये रहते थे. राजघाट के खिलौनों पर लिखते समय उन्होंने भारत की स्त्रियों की केश रचना पर एक अद्भुत लेख लिखा है जिसमें कालिदास के ग्रंथों के जगह- जगह संदर्भ दिए गए हैं. कालिदास का संदर्भ देना कोई नयी बात नहीं है. भारत के आरंभिक इतिहास में कोई भी प्रशिक्षित इतिहासकार यही करेगा.
उनकी विशेषता यह है कि वे खिलौनों में साहित्य और जीवन को इस तरह देखने लगते हैं कि वह पाठक की दृष्टि बदल जाती है. हमारे जीवन में इस दृष्टि का क्षरण हुआ है, वह कमजोर हुई है. वासुदेव शरण अग्रवाल का लेखन उसे सुधार सकता है. इधर हाल के दशकों में अतीत के प्रति एक ‘सैनिटाइज़्ड नज़रिये’ का विकास हुआ है जहाँ स्त्रियों, दलितों, शिल्पियों और कलाकारों के प्रति एक ऐसे शक्तिशाली रवैये का विकास फिर से शुरू हुआ है जैसे वे इतिहास में कहीं पर स्थित न हों. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने लेखन में इस बात का बराबर ध्यान रखा है कि उसमें स्त्रियाँ और उनका स्वतंत्र एवं प्रभावकारी उल्लेख कहीं छूट न जाए. ‘स्टडीज़ इन इंडियन आर्ट’, ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ और ‘पदमावत की संजीवनी टीका’ पढ़ते हुए इसे कोई भी लक्षित कर सकता है. मौर्योत्तर काल के मथुरा की पान गोष्ठियों के जो सुंदर चित्र अग्रवाल जी ने खींचे हैं, वे दुर्लभ हैं. इसी प्रकार चतुर्भाणी के बारे में जो उन्होंने लिखा है, वह गज़ब का मुक्तकारी गद्य है. यहाँ पर एक बात यह भी बताई जानी चाहिए कि वासुदेव शरण अग्रवाल ने मोतीचन्द्र (1909-1974) और हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1979) के साथ जो विद्वत परंपरा आरम्भ की थी वह कालांतर में क्षीण होती गयी. यह सभी विद्वान आज़ादी की लड़ाई के दौरान युवा थे और आज़ादी के बाद एक बनते हुए भारत के आत्म-साक्षी थे. कदाचित इसीलिए उनकी रचनाओं में भारतीय जनता इतने विविध रूपों में आती रहती थी.
भारतीय संस्कृति के गौरव ग्रन्थों की विस्तृत टीकाओं, निबन्धों, भूमिकाओं और इतिहास ग्रंथों के द्वारा उन्होंने संस्कृति और समाज की निर्मितियों पर अपने विचार व्यक्त किए. उनकी विद्वत्ता की व्याप्ति देश और उसके निवासियों को एक आंगिक इकाई के रूप में देखती है. अष्टाध्यायी, महाभारत, हर्षचरित एवं मार्कंडेय पुराण से संबंधित लेखन में उन्होंने दिखाया कि पूर्व-औपनिवेशिक भारत में भूमि, जन और संस्कृति के बीच जो रिश्ता विकसित हुआ वह आगे चलकर, विशेषकर महात्मा गाँधी के समय में किस प्रकार देश प्रेम में तब्दील हुआ.
अपने प्रसिद्ध निबंध ‘जनपदीय अध्ययन की आँख’ में उन्होंने भारतीय ग्राम्य समाज को समझने और देखने की वह आधारभूमि प्रस्तावित की जिसके द्वारा भारतीय समाजविज्ञान बहुत कुछ सीख सकता है. वे लिखते हैं कि जनपदीय अध्ययन का विद्यार्थी तीर्थ-यात्री की तरह देहात में चला जाता, उसके लिए चारों ओर शब्द और अर्थ के भंडार खुलते हैं. यहाँ पर समझ में आता है कि वे पाणिनि की प्रशंसा क्यों कर रहे थे. वास्तव में वे शब्द के सामाजिक सांस्कृतिक अर्थ-गौरव से परिचित थे. वे लिखते हैं कि जनपदीय जीवन का एक पक्का नियम यह है कि वहाँ हर एक वस्तु के लिए शब्द है. उस क्षेत्र में जो भी वास्तु है, उसका नाम अवश्य है. ठीक नाम को प्राप्त कर लेना उसकी अपनी योग्यता की कसौटी है. [10]
इस प्रकार जनपदीय अध्ययन का विद्यार्थी एक ही साथ भाषा और व्याकरण का जानकार तो बनता ही है, वह एक बेहतर एथ्नोग्राफर भी बनता है. भारत में काम करने वाले बेहतरीन मानवविज्ञानी भी इस बात को मानते रहे हैं कि भाषा समाज को जानने की प्राथमिक इकाई है. 1980 के दशक के बाद, समाज विज्ञान में पॉज़िटीविज्म का जोर ख़त्म होने पर समाज विज्ञानी स्थानीय सूचनाओं, अवधारणाओं और विश्व-दृष्टियों पर जोर दे रहे हैं. इस बात को वासुदेव शरण अग्रवाल बहुत पहले ही रेखांकित कर रहे थे. अपने इसी निबंध में वे लिख रहे थे कि जनपदीय कार्यकर्ता को उचित है कि अपनी जानकारी को पीछे रखे और अपने संवाददाता की जानकारी का उचित समादर करे और आस्था के साथ उसके विषय में प्रश्न पूछे.[11] अब अधिकांश समाज विज्ञानी अपने शोधछात्रों को और संपादक अपने पत्रकारों को यही प्रशिक्षण दे रहे हैं कि वे सामने वाले को ठीक से बोलने दें, उसे सुनें.
वास्तव में आज के समय में, पढ़े-लिखे लोगों और गाँवों की अपेक्षाकृत कम पढ़ी लिखी अथवा स्कूल न जा सकी जनता के बीच एक ‘पॉवर रिलेशन’ सा बन गया है. कभी-कभी पढ़े-लिखे लोगों, प्रोफ़ेसरों और रिसर्चरों को यह गुमान हो जाता है कि वे इस ग्रामीण और वंचित जनता का जीवन बदल देंगे क्योंकि उनके ‘हाथ में ताकत है”. कभी-कभी इस ताकत का वे बेजा इस्तेमाल जनता के विपक्ष में करते हैं और किन्हीं सरकारों के भोंपू बन जाते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण रूप से भारत के सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में यह खूब हुआ है जब दशकों तक एकत्र की गयी किसी ‘सामाजिक समझ और ज्ञान’ को रिसर्चरों ने किसी सरकार के चरणों में चढ़ा दिया है जबकि वह समझ और ज्ञान तो जनता ने उन्हें दिया था. यदि ‘मोरल कॉपीराइट’ जैसी कोई चीज होती है तो उसका पहला अधिकार तो उसी जनता का है जिसे वासुदेव शरण अग्रवाल पृथ्वी पुत्र कहते हैं. अध्ययनकर्त्ता के मन की थोड़ी सी भी लालच उसके और अध्ययन करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक लैंडस्केप में एक दूरी की स्थापना कर देती है. कोई भी संवेदनशील पाठक इसे पहचान भी लेता है. जनपदीय अध्ययन का यह पाठ यहाँ आकर ज़रूरी हो जाता है कि रिसर्चर अपने अहं को बहुत पीछे रखे, संभव हो तो उसे नष्ट कर दे. पाठक को जन दिखे न कि आगे-आगे रिसर्चर दिखे– मैं-मैं करता हुआ. वासुदेव शरण अग्रवाल मानव विज्ञान और साहित्य के बीच पुल बनाते हैं जबकि इस बीच उनका इतिहासकार मन सजग रहता है. इस निबन्ध में उन्होंने लिखा :
“जनपद जीवन के अनंत पहलुओं की लीलाभूमि है. खुली हुई पुस्तक के समान जनपदों का जीवन हमारे चारों ओर फैला हुआ है. पास गाँव और दूर देहातों में बसने वाला एक-एक व्यक्ति उस रहस्य भरी पुस्तक के पृष्ठ हैं. यदि हम अपने आपको उस लिपि से परिचित कर लें जिस लिपि में गाँवों और जनपदों की अकथ कहानी पृथ्वी और आकाश के बीच लिखी हुई है, तो हम सहज ही जनपदीय जीवन की मार्मिक कथा को पढ़ सकते हैं. प्रत्येक जानपद जन एक पृथ्वीपुत्र है.”
वासुदेव शरण अग्रवाल को उद्धृत करते समय एक सवाल यह उठाया जाता है कि क्या उनके पास कोई मेथड या प्रविधि है जिस पर चलते समाज विज्ञान की ओर बढ़ा जा सकता है? इसका उत्तर है: हाँ. वासुदेव शरण अग्रवाल हमारे समक्ष एक कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं. वे जनपदीय अध्ययन को विकसित करने के लिए तीन रास्ते सुझाते हैं जो एक दूसरे से जुड़े हैं. ये हैं : भारत और भूमि से संबंधित वस्तुओं का अध्ययन; भूमि पर बसने वाले जन का अध्ययन; जन की संस्कृति या जन का अध्ययन. उनके इस निबन्ध पर एक स्वतंत्र चर्चा हो सकती है, लेकिन इसे यहीं छोड़ते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि भाषा और समाज की नाभिनाल-बद्धता पर विचार किए बिना कोई रचनात्मक और जन-समाज विज्ञान की रचना नहीं हो सकती है.
जन समाज विज्ञान या पीपुल्स सोशल साइंस से यहाँ मेरा आशय उस समाज विज्ञान से है जिसकी चिंता के केंद्र में न केवल वह जन होगा जिसकी बात वासुदेव शरण अग्रवाल बार-बार में अपने लेखन में करते हैं बल्कि उसकी भाषा भी सरल होगी. एक उधार ली हुई शब्दावली में कोई समाज विज्ञान यदि विकसित होता है तो वह भारत के जनता की चिन्ताओं को संबोधित नहीं कर पायेगा. वे लिखते भी हैं:
“हिंदी भाषा में जनपदों के भंडार से लगभग पचास हजार नए शब्द आ जाएंगे जो भारत के जीवन को उचित तरीके से व्यक्त कर सकेंगे. यह दुर्भाग्य रहा है कि हिंदी भाषा में लिखा जा रहा समाजविज्ञान अनुवाद का समाजविज्ञान है. इसकी शब्दावली प्रायः इतनी अजानी और अपरिचित है कि उससे जनता तो क्या विद्यार्थी भी नहीं जुड़ पाते.”
एक कला चिन्तक के रूप में वासुदेव शरण अग्रवाल के बारे में अभी बहुत कम बात की गयी है. भारतीय कला और सौन्दर्यबोध के बारे में चर्चा करने के लिए विद्वतजन आनंद कुमारस्वामी को प्रस्थान-बिंदु के रूप में प्रयोग करते हैं और फिर घुमा-फिराकर अपनी हल्की बातें कह कर आगे चल देते हैं. यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है. वासुदेव शरण अग्रवाल के रचना संसार से गुजरते हुए मुझे हमेशा लगता रहा है कि उन्होंने आनंद कुमारस्वामी के चिंतन को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि नितांत भारतीय सन्दर्भ और सामाजिकी में अपनी बात रखी. यह कोई संयोग नहीं है कि आनंद कुमारस्वामी भूतत्ववेत्ता थे और उन्होंने सीलोन(आजकल के श्रीलंका) के खनिजों और रत्नों पर एक बहुत ही खूबसूरत, सुपरिभाषित शब्दावली वाली रिपोर्ट छापी थी. वासुदेव शरण अग्रवाल कुमारस्वामी के इस गुण के प्रशंसक थे.
वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं कि 1909 में कुमारस्वामी भारत आए और पहली बार उन्होंने देशव्यापी यात्रा करके यहाँ के विशाल मंदिरों तथा कला-सामग्री को स्वयं अपनी आँखों से देखा. … वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, भगवद्गीता, महाभारत, रामायण, भागवत, गीतगोविन्द, कबीर, विद्यापति, बौद्ध निकाय, धम्मपद, मिलिंदपन्ह, सद्धर्म पुण्डरीक आदि भारतीय साहित्य में अपनी अंतः दृष्टि से वे गए थे.[12]
यह जो कुछ वे कुमारस्वामी के बारे में लिख रहे थे, वह उनके बारे में भी सच है. वासुदेव शरण अग्रवाल मुख्यतः भारत के प्राचीन इतिहास को समझने के लिए प्रशिक्षित किए गए थे. उनके गुरु राधा कुमुद मुखर्जी थे जिन्होंने उनको पाणिनि पर शोध कराया था. उन्होंने मथुरा और लखनऊ के राजकीय संग्रहालयों के कैटलाग बनाए, दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में अधीक्षक रहे और बनारस की खुदाई करायी. वे अवधी भाषा की भंगिमा से उतने ही परिचित थे जितने कि किसी शालभंजिका की मूर्ति के कटावों से.
जिन विद्वानों ने संग्रहालयों के विकास और उनकी स्थापना पर काम किया है, वे इसे अच्छी तरह से बता सकते हैं कि औपनिवेशिक सत्ता संरचना तन्त्र ने तीसरी दुनिया के गुलाम देशों में अपनी सुविधा के हिसाब से संग्रहालयों की स्थापना की, इसके द्वारा उन्होंने इन देशों की सांस्कृतिक कल्पना को अपना पालतू बनाया, गुलाम वही सोच सके जो मालिक चाहता है. एक प्रशिक्षित संग्रहालय विज्ञानी वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे अपने लेखन से उलट दिया. उन्होंने प्राचीन मूर्तियों और कलाशिल्प के गहन अध्ययन के बाद प्रमाणित किया कि भारतीय कला की मूल सर्जना समाज के आधारभूत स्तर पर संभव हुई है जिसमें उसकी जनता का सबसे ज्यादा योगदान था. उन्होंने भारतीय कला में उन लोकतत्त्वों की पहचान की जिसने भारतीय कला रूपों को राजाओं के आश्रय से निकालकर उसे जन-निधि बनाने की शुरुआत की. उनका यह कला चिंतन उस पश्चिमी राज्याश्रित चिंतन से अलग दिखता है जहाँ कोई कला-रूप किसी संग्रहालय की शोभा वस्तु बन जाता है और उस पर राज्य का कब्ज़ा हो जाता है. यहाँ राज्य कला को परिभाषित करता है और नियंत्रित भी करता है. वासुदेव शरण अग्रवाल ने दिखाया कि भारत की जनता अपने कला-रूपों को किस प्रकार सुरक्षित करती आयी है, उसका उत्स कहाँ है.
टीका परंपरा को एक लंबे समय तक सम्मान के नजर से नहीं देखा गया और माना गया कि ‘मौलिक’ लेखन ही सम्मान का पात्र है. इधर हाल के वर्षों में, दक्षिण एशियायी विद्वत्ता में इस मिथक का जोरदार खंडन किया गया है और कहा गया है कि टीका कोई कमतर रचना नहीं हैं बल्कि वह स्वतंत्र रचना है जिसमें टीकाकार का स्वतंत्र रचनात्मक व्यक्तित्व तो शामिल है ही, वह किसी देशकाल-वातावरण को समझने की एक खिड़की भी उपलब्ध कराती है. वासुदेव शरण अग्रवाल के द्वारा लिखी गयी पदमावत की टीका वास्तव में मध्यकालीन उत्तर भारत का सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास है.
मालिक मुहम्मद जायसी की कविता को व्याख्यायित करते हुए वे तत्कालीन भारतीय समाज की विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक अंतर्धाराओं की पहचान करते हुए चलते हैं और साथ ही साथ यह भी बताते हैं कि वर्तमान भारत में इसका क्या बचा है और क्या विनष्ट हुआ है. अवधी समाज की पृष्ठभूमि को जानने के लिए यह टीका एक सांस्कृतिक गजेटियर का काम करती है.
भारतीय कृषि और उसके तौर-तरीकों पर ग्रियर्सन और जे. एस. रंधावा ने जो कुछ लिखा है, उसको एक सर्वथा भिन्न संदर्भ में लेकिन गहन लोकधर्मी चेतना के साथ आप वासुदेव शरण अग्रवाल की उन टिप्पणियों में देख सकते हैं जो उन्होंने जायसी की कविता का अर्थ बताते हुए की हैं. मध्यकलीन भारत के सामाजिक आर्थिक इतिहास के लिए अबुल फज़ल की आइने अकबरी के साथ पदमावत को भी पढ़ा जा सकता है, यह वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा की गयी गयी पदमावत की टीका पढ़कर समझ में आता है.
कोई भी सत्ता एकवचन में रहना चाहती है. वह चाहती है कि लोग एक जैसी भाषा बोलें, एक जैसा सोचें और एक जैसे कपड़े-लत्ते पहनें. सम्राट भले ही ऐसा चाहे लेकिन ऐसा जनता तो नहीं चाहेगी. किसी भी युग में ऐसा नहीं हुआ. इस विविधता में उसकी पहचान और ताकत छिपी रहती है. वासुदेव शरण अग्रवाल का लेखन इसका गवाही देता है. भाषा, वस्त्र विन्यास, केश-सज्जा, चन्दन, भाव-भंगिमा: इन सभी के स्तर पर भारत एक विविधवर्णी देश है. वासुदेव शरण अग्रवाल अपने लेखन में इस पर बार-बार जोर देते रहे.
सन्दर्भ
[1] गोपाल प्रसाद व्यास(1994), कहो व्यास कैसी कटी?, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, पृष्ठ 48.
[2] जन्म-मृत्यु और जीवन संबंधी अन्य सूचनाओं के लिए वासुदेव शरण अग्रवाल(2003), स्टडीज़ इन इण्डियन आर्ट, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी के ब्लर्ब पर दिए गए परिचय से मदद ली गयी है.
[3] कपिला वात्स्यायन (2012), वासुदेव शरण अग्रवाल रचना-संचयन, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, पृष्ठ 528.
[4] कपिला वात्स्यायन (2012), पृष्ठ 287.
[5] एच. एल. हरियप्पा और के. एम, पाटकर(1960), पी. के. गोडे कमेमोरेशन वोल्यूम, ओरिएंटल बुक एजेंसी, पूना, पृष्ठ 5.
[6] वासुदेव शरण अग्रवाल(2014), पाणिनिकालीन भारतवर्ष, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, पृष्ठ 14.
[7] डी.आर. नागराज(2010), द फ्लेमिंग फ़ीट एण्ड अदर एसेज : द दलित मूवमेंट इन इण्डिया, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, पृष्ठ 179-80.
[8] वासुदेव शरण अग्रवाल(2003)
[9] वासुदेव शरण अग्रवाल(2004), साहित्य सदन झाँसी द्वारा प्रकाशित एवं लोकभरती प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा वितरित.
[10] कपिला वात्स्यायन (2012), पृष्ठ 448.
[11] कपिला वात्स्यायन (2012).
[12] वासुदेव शरण अग्रवाल(1952), कला और संस्कृति, साहित्य भवन, इलाहाबाद, पृष्ठ 213 –215.
रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो रहें हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से डीफिल की उपाधि (2017) प्राप्त रमाशंकर सिंह का कुछ काम सीएसडीएस के जर्नल प्रतिमान में प्रकाशित हुआ है जो भारत की राजनीति और लोकतंत्र में गुंजाइश तलाश रहे घुमंतू समुदायों, नदियों एवं वनों पर निर्भर निषादों और बंसोड़ों के जीवन एवं संस्कृति के विविध पक्षों की पड़ताल करता है.
उन्होंने ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ के उत्तर प्रदेश की भाषाएँ खंड के लिए लेखन, अनुवाद और संपादन का काम किया है. उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए बद्री नारायण की किताब ‘फ्रैक्चर्ड टेल्स: इनविज़िबल्स’ इन इंडियन डेमोक्रेसी’ का अनुवाद ‘खंडित आख्यान : भारतीय जनतंत्र में अदृश्य लोग’ और ‘निशिकांत कोलगे’ की किताब ‘गाँधी अगेंस्ट कास्ट’ का अनुवाद ‘जाति के विरुद्ध गाँधी का संघर्ष’ के नाम से किया है. शिमला में फेलो रहते हुए ‘नदी पुत्र’ लिखी है. ram81au@gmail.com
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ऐसे मूल्यवान आलेख बराबर प्रकाशित कीजिए। समालोचन की जान होते हैं ऐसे आलेख। वासुदेव शरण अग्रवाल पर नयी जानकारी प्रस्तुत की है आपने।
तीन,और हजारी प्रसाद द्विवेदी को मिला लें तो चार ऐसे विभूतियां हांडिक समकक्ष कम से कम हिंदी में तो नहीं मिलते। वासुदेव शरण अग्रवाल का थोड़ा-बहुत पढ़ा है जिसकी छाप अमिट है।कपिला वात्स्यायन ने साहित्य अकादेमी से हिंदी और अंग्रेजी में दो संचयन पिछले बरसों में निकाले हैं जो हरेक गंभीर पाठक और विद्वान को जरूर ही देखना चाहिए।
रमाशंकर जी ने उन किताबों का हवाला दिया ही है। वासुदेव जी के अलावा डाक्टर मोती चंद्र का जिक्र भी है ही। तीसरा नाम काशी प्रसाद जायसवाल का है। और, एक और नाम भी जुड़ता है– राय कृष्ण दास। रमाशंकर भाग्य शाली हैं जिनके कई अध्यापक वासुदेव जी के काम से परिचित थे। मेरे अत्यंत विख्यात अध्यापकों में एक दो ने ही ,संस्कृत पाठन में उनका हवाला दिया होगा।
अचंभा तब हुआ जब पाया कि चार छह दमदार इतिहासज्ञ या इतिहासकार परिचितों ने वासुदेव जी का नाम तक नही सुना था!सी एस डी एस के बारह तेरह बरसों में अकेले सुरेश शर्मा ही मिले जो वासुदेव जी की शायद बेटी को जानते थे– एक दौर था जब मै वासुदेव जी पर ही कुछ काम करना चाहता था। किया कुछ नही। आश्चर्य इस पर तो अब होता ही है कि मैं समाज राजनीति आदि से जुड़े एक शीर्ष संस्थान मे शीर्ष विद्वान मंडली के बीच रहा!
मेरा ख्याल है कि रोमिला थापर तक ने मोतीचंद्र का हल्का सा एक संदर्भ दिया है, शायद वासुदेव जी का बिल्कुल नहीं। विख्यात अंग्रेजी कवि रामानुजन से एक बार पुरातन काल के भारतीय वैश्विक व्यापार की चर्चा में पाया कि मोतीचंद्र के प्रसिद्ध प्रामाणिक मौलिक काम का नाम भी नहीं सुना था–“सार्थवाह”।
रोमिला थापर की किताबों में ‘india as known to panini’ का ज़िक्र रेगुलर मिलता है।
शायद अनुमान ठीक न हो , लेकिन वाम, दक्षिण या मध्य, किसी भी झुकाव वाले विख्यात विविध विषयों के ग्रंथ वासुदेव जी, मोतीचंद्र जी आदि का संदर्भ देते हुए नहीं मिलते। दक्षिण झुकाव
उनको नही अपना सकता, क्यों कि जैसा रमाशंकर जी ने ब आजादी के बाद की हमारी अधिकांश रिसर्च थियरी विश्लेषण आदि दुनिया के सैद्धांतिकी जगत में कोई बड़ी जगह बना पाई हो, ऐसा नही लगता। उक्त विद्वानों ने भी दुनियाभर से बहुत सीखा था, खासकर रिसर्च मेथड, पर थियरी और एनालिसिस में मौलिक बने रहे।
बेहद शानदार लिखा है Rama Shanker Singh आपने| बहुत की परतें खुलीं और शेष के आपकी मार्फत जल्दी खुलने की आशा है| आपको पढ़ना दिन बना देता है| धन्यवाद|
मैं तो कहूँगा कि रमाशंकर जी अद्भुत काम कर रहे हैं। मैं मन ही मन यह भी सोचता रहता हूँ कि हमारे पूर्वज सर्जकों ने जो मूल्यवान काम किया है,उनका ऋण हम चुका नहीं सकते। वसुदेव शरण अग्रवाल उन्हीं मेन से एक हैं। अब उनकी सारी किताबें पढ़ने की इच्छा बलवती हो रही है। बहुत दुख हो रहा है कि मैंने उनका एक निबंध अपने मैट्रिक के पाठ्यक्रम में पढ़ा था।
कभी आचार्य चतुरसेन पर भी बातें हो।
समालोचन का मई मुरीद हो गया हूँ।
दिली शुक्रिया।
ललन चतुर्वेदी
वासुदेव शरण जी के अवदान से परिचित कराता और उनके वैशिष्ट्य को निरखता सुकृत लेख.
लेकिन, रमा जी का दो एक नुक़्तों की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ—
1. रमा जी एक जगह लिखते हैं कि वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘आनंद कुमारस्वामी के चिंतन को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि नितांत भारतीय सन्दर्भ और सामाजिकी में अपनी बात रखी’. ज़ाहिर है कि यह वक्तव्य पढ़कर पाठक के मन में यह जिज्ञासा पैदा होने लगती है कि ‘भारतीय कला और सौन्दर्यबोध’ के संबंध में आनंद कुमारस्वामी का चिंतन किस मायने में विशिष्ट था? लेकिन, लेखक इस नुक़्ते पर रोशनी डालने के बजाय न केवल आगे बढ़ जाता है बल्कि एक बार फिर अगली बात को अधूरा छोड़ देता है : उन्होंने (वासुदेव शरण अग्रवाल) अपनी बात ‘नितांत भारतीय सन्दर्भ और सामाजिकी में’ रखी. मेरे ख़याल में यह बात थोड़ी और स्पष्ट की जानी चाहिए कि भारतीय संदर्भ और सामाजिकी में रखने से कोई विचार/प्रत्यय क्यों अलग या विशिष्ट हो जाता है!
2. रमा जी ने एक अन्य स्थान पर वासुदेव जी के हवाले से यह सवाल पूछा है : क्या उनके पास कोई मेथड या प्रविधि है जिस पर चलते समाज विज्ञान की ओर बढ़ा जा सकता है?
और इसके जवाब में रमा जी ‘हाँ’ भरते हुए कहते हैं कि ‘ वासुदेव शरण अग्रवाल हमारे समक्ष एक कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं. वे जनपदीय अध्ययन को विकसित करने के लिए तीन रास्ते सुझाते हैं जो एक दूसरे से जुड़े हैं. ये हैं : भारत और भूमि से संबंधित वस्तुओं का अध्ययन; भूमि पर बसने वाले जन का अध्ययन; जन की संस्कृति या जन का अध्ययन’.
यह वाक़ई एक मानीखे़ज़ बात है पर अंततः यह प्रविधि नहीं बल्कि एक ‘कार्यक्रम की रूपरेखा’ है.
बहरहाल, इन नुक्तों पर बात करने का मतलब यह नहीं है कि मैं वासुदेव जी के बारे में ज़्यादा जानता हूँ. सच यह है कि इसे न पढ़ता तो इतना भी न कह पाता!
बहुत मेहनत और साफ-सुथरी दृष्टि से लिखा गया लेख…रमाशंकर जी का बहुत आभार
रमा शंकर जी को बहुत बधाई. गिरधर राठी ने सही ध्यान दिलाया कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में कपिला वात्स्यायन ने वासुदेव जी के पूरे लेखन से चयन करके दो विशाल-काय ग्रन्थ छपवाए . एक हिंदी में और दूसरा अंग्रेजी में. वे वासुदेव जी की पीएचडी की छात्रा रही थीं और यह उनकी विनम्र गुरु-दक्षिणा थी. 1950 के दशक में वासुदेव जी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बंगले के पास ही हजारी प्रसाद जी भी रहते थे, और कपिला जी बताती थीं कि जब वे कभी-कभी उदास मुद्रा में हजारी प्रसाद जी के घर जाती थीं तो वे पूछते थे: ‘डांट खाकर आ रही हो?’
हजारी प्रसाद जी के पट्ट-शिष्य नामवर जी ने भी गुरु-दक्षिणा चुकाई पर ऐसी पुस्तक लिख कर, ‘दूसरी परंपरा…’, जिसमें चेला शक्कर हो गया है. शीघ्र प्रकाश्य एक लेख में मैंने इन दोनों गुरुओं की संक्षेप में तुलना की है, विशेषतः उनके इतिहास-बोथ और अतीत के प्रयोग को लेकर….अपनी पाणिनि वाली पुस्तक में जिस प्रकार वासुदेव जी ने पत्थर से तेल निकाला है वैसा कभी कहीं किसी इतिहासकार ने शायद नहीं किया होगा. … रमा शंकर जी, आप लिखते रहें, हमारा ज्ञान-वर्द्धन करते रहें ! — हरीश त्रिवेदी
इतिहास, समाज और कला के अध्ययन में जन और जनसमाज को सर्वोच्चता देने वाले वासुदेवशरण अग्रवाल की महत्ता को सुंदर सहज रूप में समझाने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद। इस लेख के मार्फत आपने अध्ययन की जरूरी पद्धति को भी रेखांकित कर दिया है। बहुत ही हृदयग्राही आलेख है।