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समालोचन

Home » विनोद कुमार शुक्ल से पीयूष दईया का संवाद

विनोद कुमार शुक्ल से पीयूष दईया का संवाद

वैसे तो उपन्यासों पर आधारित फिल्में बनती रहती हैं, पर विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर फ़िल्म मणि कौल बनाये तो यह खास  बात है,  साहित्य और फ़िल्म दोनों को समझने के लिए भी यह युग्म महत्वपूर्ण है. कवि -संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया ने इसी विषय पर  विनोद कुमार शुक्ल  से गम्भीरता और गहराई से बात की है. फिल्मों पर इतनी दिलचस्प और मासूम बाते विनोद जी ही कह सकते हैं. एक ऐसा संवाद जो आपकी रचनात्मक- कलात्मकता को समृद्ध करता है. समालोचन की विशेष प्रस्तुति.

by arun dev
April 5, 2014
in बातचीत
A A
विनोद कुमार शुक्ल से पीयूष दईया का संवाद

फोटो : शाश्वत गोपाल

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घर एक लौटने का दृश्य रहा ..
म  णि  कौ  ल  के  सि  ने  मा  द  र्श  न  प  र      

(विनोद कुमार शुक्ल से पीयूष दईया का संवाद ) 



मॉरिस ब्लांशो यह मानते हैं कि हर कलाकार में कला की गोपन मांग है: the surprise of what is... मणि कौल के सिनेमा में कला की गोपन मांग क्या है? दरअसल, वह क्या है जो उनकी फि़ल्म-कला को रूप देता है और उस रूप का विस्तार क्या है? एक ग्रहीता मणि-कौल-आवाज़ को कैसे सुनता है? गीता में उक्ति है: स्वभावस्तु प्रवर्तते. अर्थात् स्वभाव ही प्रवृत्त होता है. मणि कौल के सिनेमा में वह स्वभाव क्या है? वह क्या है जिसके माध्यम से न केवल मणि कौल की सिने-चेतना को समझने के उद्यम में उतर सकते हैं बल्कि उनकी मूल चारित्रिकताओं को बरामद कर सकते हैं? उनके सिने-चैतन्य से साक्षात्कार कर सकते है? मणि कौल की विभिन्न फि़ल्मों सहित उनके समग्र सिने-कर्म को कोई कैसे देखता-समझता-अनुभूत करता है?
 
आधुनिक भारतीय फि़ल्मकारों में मणि कौल उन बहुत थोड़े से फि़ल्मकारों में से एक हैं जिनका एक उच्चकोटि के चिन्तक के रूप में भी अवदान केन्द्रीय महत्व रखता है. उनके चिन्तन में एक पूरा जीवन-दर्शन अन्तःसलिल व संचरित है. मणि कौल न केवल कला में समकालीनता की धारणा को पुनर्परिभाषित करने का विराट उद्यम व वितान बुनते हैं बल्कि पश्चिमी एकरैखिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सुस्पष्ट तार्किक रीतियों से प्रश्नांकित करते व चुनौती देते हैं. मणि कौल के चिन्तन-कर्म के परस्पर अन्तर्गुंफित अनेक आयाम हैं. उनके चिन्तन की केन्द्रीय अन्र्तदृष्टि, मुख्य चारित्रिकताओं, सरोकारों व संसार को समझने व व्याख्यायित करने के ढंग क्या हो सकते हैं?
 
उपर्युक्त व अन्य जिज्ञासाएं मेरे मनन में अपने ढंग से फैलने लग रही थीं और तभी सितम्बर 2011 में, श्री विनोद कुमार शुक्ल से, ’’दीप भव’’ के प्रवेशांक के लिए, मुझे एक लिखित प्रश्नोत्तरी करने का सुअवसर जुटा. साक्षात्कार मणि कौल के सिनेमा पर एकाग्र था. साक्षात्कार में मेरी जिज्ञासाएं महज़ एक रेफरेंस की तरह भी हैं ताकि विनोद जी मेरे सवालों पर, अपनी आवाज़ में, स्वतन्त्र तरह से विचार कर सकें: साक्षात्कार का शिल्प कुछ इस तरह से साकार हो सका है कि प्रश्न नेपथ्य में तानपूरे की तरह अपनी संगत देते प्रतीत होते हैं और विनोद कुमार शुक्ल के उत्तर राग भांति निनादित-प्रकाशित हैं. दूसरे शब्दों में, प्रकाशित साक्षात्कार का प्रमुख स्वर जवाबों से बना है, जिसमें मेरे प्रश्न मानो अदृष्य तरह से अन्तःसलिल हैं.

1.

आप व मणि कौल पहले-पहल एक दूसरे के सम्पर्क में कब व कैसे आए?
सम्भवतः मणि जी और आप का नाता दशकों तक फैला रहा. एक इनसान व लेखक के रूप में जिस किस्म का बहुस्तरीय नाता मणि कौल के साथ आपका रहा क्या आप उसकी स्मृतियों के उर्वर-प्रदेश के कुछ (वि-)वरणों तथा इस सम्बन्ध के विस्तार का साझा कर सकेंगे?

मणिकौल से पहले-पहल तब संपर्क हुआ जब भोपाल में सतह से उठता आदमी का प्रदर्शन हुआ. मणिकौल को तब दर्शक की तरह देखा था कि फिल्म के निर्देशक हैं. बाद में उनकी निर्देशित फिल्म को. फिल्म को देखने के पहले दूरी लग रही थी. फिल्म देखने के बाद समीपता से परिचय हुआ. एक अपनेपन का अहसास था.  मुझे क्या मालूम था कि एक दिन मेरे उपन्यास  ‘नौकर की कमीज’ पर फिल्म बनायेंगे. न उन्हें मालूम था. ‘नौकर की कमीज’ को लिखा नहीं गया था.  और मैं कभी उपन्यास लिखूँगा यह मुझे नहीं मालूम था. तब उनकी फिल्म का दर्शक होने का यह मेरा पंजीयन जैसा था कि आगे फिल्म न भी देख पाउँ पर दर्शक तो हो चुका हूँ. तब उनके विरोध की भीड़ से अलग कि उन्होंने मुक्तिबोधजी पर फिल्म बनाई. नाँदगाँव,रायपुर में उसकी शूटिंग हुई थी. नांदगाँव के रानीसागर तालाब को, किले को मैंने फिल्म में देखा था. अपनी जगह को, मुक्तिबोधजी की जगह को फिल्म में, फिल्म की कला में देखने का यह मेरा नया अनुभव था. बाद में ‘नौकर की कमीज’ के समय मिलना हुआ. कई दिनों तक हम घंटों साथ रहे का मौका रहा. 

मणि कौल को याद करता हूँ तो लगता है मैं उनको पूरा याद नहीं कर पा रहा हूँ. ऐसे में लगता है इस दुनिया में भुला देना नहीं होना चाहिये. एक-एक बिताये क्षण को कैसे याद करूँ. बस एक समय को याद करता हूँ. मणिकौल का व्यक्तित्व मेरी भुलक्कड़ी के कारण प्रतीकों में दर्ज है. यद्यपि ये प्रतीक बहुवचन में है. दृश्यों के प्रतीकों में, विलंबित संवादों मे, चुपचाप के प्रतीकों में, आवाज के प्रतीकों में. वे मणिकौलों की भीड़ में हैं. मेरे एक साथ की याद में एक साथ के कई मणिकौल. कभी मणिकौलों की भीड़ से इतने अकेले कि एक भी नहीं हैं. वे थे तब ऐसा था. अब भी ऐसा है. मणिकौलों की भीड़ रहगी. ढूँढने से उनमें मिल जायेंगे.

2.

मणि कौल के सिने-संसार में दाखिल होना, एक दूसरी दुनिया में होने की भांति है. बहुत साल पहले जब पहले-पहल उनके द्वारा बनाई फि़ल्में देखीं तो सहज ही इस जिज्ञासा में उतरने लगा कि उनके काम की जड़ें किसमें हैं? क्या हम मणि कौल के काम की जड़ों पर अनौपचारिक बातचीत कर सकते हैं? अंधेरे में रहती उन अदृश्य जड़ों पर जिन्हें उजाले में लाते ही वे मरने लगतीं हैं. क्या जड़ों को उस तरह से भाषा में विन्यस्त करने का प्रयास कर सकते हैं जिस तरह से वे उनके काम में व्याप्त हैं? क्या यह किया जा सकता है? भाषा के फूल में खिलती अदृश्य जड़ें यूं हो सकती हैं गोया फूल की सुवास उन जड़ों का फल हो: एक कृति का सत्य. जगदीश स्वामीनाथन के शब्दों में, संसार की जीवित मरीचिका में, अकेले, अपने सम्मुख उजागर/स्वयं समक्ष प्रकट.

मणि कौल की कला पर लिखना/बात करना और उनका फि़ल्म बनाना दो अलग तरह के उपक्रम हैं. तब भी दोनों के बीच संवाद सम्भव है, आवाजाही भी. रिल्के के एक वाक्य का भावांश ध्यान आता है कि दो सम्बन्ध एक दूसरे के एकान्त को महफूज़ रख सकते हैं, आपसी एकान्त को खण्डित किये बगैर. या आपकी एक कविता की पंक्तियां है: …हम दोनों साथ चले/दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे/साथ चलने को जानते थे.

(
(मणिकौल,  विनोद कुमार शुक्ल, औरश्रीमती सुधा शुक्ल, 
फोटो : 
शाश्वत गोपाल)

प्रश्न से मुझे अपनी दूसरी कविता याद आई. मुझमें जो कुछ है वह केवल जड़ है. जड़ों से  निकलती जड़ें और उनसे भी निकलती जड़ें. मुझे पतझड़ पसंद नहीं. मणिकौल के फिल्म बनाने के निश्चय की जड़ उनकी सोच में कैसे जमती होगी! अंकुरित को वे पेड़ तक की, पूरी फिल्म सोच में क्या बना चुके होते हैं ? या सोच में बनने की शुरूवात से जड़ों से निकलती हुई केवल जड़ें होतीं हों ? फिल्म बनने के बाद मैं दर्शक यदि उनकी फिल्म देखता हूँ तो मेरी सोच में वही पेड़ रोपा हुआ होता होगा. चिड़ियों के कलरव और घोसलों के साथ रोपा हुआ. ऐसा मुझे “दीवार में एक खिड़की रहती थी” की पटकथा पढ़ने के बाद लगा जो उन्होंने मृत्यु के दो-एक महिने पहले मुझे भेजी थी. ‘नौकर की कमीज’ पर फिल्म बनाने का उनका मन जब उपन्यास पढ़ा था तभी से था. फोन से उन्होंने बताया था कि फिल्म बनायेंगे. फिर कुछ बरस बीत गये. स्थगित या समाप्त जैसी आई-गई बात थी. उन्हें और काम होंगे. या फंड्स की समस्या हो. मेरे लिए तो लिखना कागज कलम जैसी सहजता में है. फिल्म बनाने का जुगाड़ बहुत कठिन. लेकिन सोच में बन रही फिल्म पर वे काम करते होंगे. सोच में बनी फिल्म के लिए फंड नहीं लगता.

जब वे यह फिल्म बना रहे थे तब इंप्रोव्हाइजेशन कभी आगे, कभी पीछे उनके साथ जरूर था. स्क्रिप्ट यद्यपि उनको बाँधता था. खास कर संवाद के मामले में. संवाद में शब्द आगे पीछे होते तो वे दुबारा  शूटिंग करते. उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं उपन्यास के अनुसार स्क्रिप्ट में संवाद रखूँ. वैसे स्क्रिप्ट में इंप्रोवाइजेशन की जगह होती है. इतनी जगह कि पूरी. वहाँ स्क्रिप्ट नहीं होती.हम दोनों साथ बराबर थे. दोनों एक दूसरे को जान गये थे. पर तब बनती हुई फिल्म का दर्शक था. अपने गढ़े हुए पात्र संतू को मैं देख रहा था. बाद में शूटिंग के दौरान मुझे लगने लगा कि मैंने इसी संतू को देख कर उपन्यास के संतू को लिखा है. 

दोनों संतू भी एक दूसरे को जान गये यानि उपन्यास के और फिल्म के. यह जुड़वाँ की तरह दूसरी रचना थी. पर चचेरे की तरह. शक्ल-सूरत में कहीं मेल था कहीं मेल नहीं भी था.

3.

आपके संस्मरण ’’पुरानी परछी’’ से यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि आपके छुटपन में सिनेमा की अपनी जगह रही है. उसी संस्मरण में आपने लिखा है–’’…मैं दृश्य में सोचता हूं. भाषा में नहीं.’’ क्या आपको लगता है कि आपके रचनात्म व बुनावट में सिनेमा-संस्कार की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका रही है?

नाँदगाँव में मेरे घर के ठीक सामने कृष्णा टाकिज था. क़ष्णा टाकिज तो अभी भी है पर घर नहीं है. अम्मा कहतीं थीं कि जिस दिन कृष्णा टाकिज का उदूघाटन हुआ, उसी दिन मेरा जन्म हुआ था. स्कूल में मेरे जन्म की तारीख 1 जनवरी 37 है. कृष्णा टाकिज में फरवरी 37 की कोई तारीख उकेरी हुई है. ठीक से दिखती नहीं. स्कूल की तारीख पर मुझे विश्वास नहीं है.

टाकिज के मालिक से पिता और चाचाओं के अच्छे संबध थे. कहा जाता था कि टाकीज बनने में चाचा ने मदद की थी. हम लोगों को टिकिट नहीं लगती थी. अम्मा, सौर की कोठरी से निकलने के बाद सिनेमा देखने जरूर गई होंगी. यानि महिने भर का रहा होउँगा तब. मैंने अम्मा की गोद में सिनेमा जाना शुरू कर दिया था. कुछ चार.पाँच साल बड़े होने पर सिनेमा देखना हमारा खेल हो गया था. गिल्ली-डंडा जैसा. घर में बहुत देर नहीं दिखते तो सिनेमा   हॉल की सीट पर सोते हुए मिल जाते थे. गेट कीपर घर पँहुचा दिया करता था. या फुलेसर दाई ढूँढते आती. फुलेसर दाई घर में बर्तन माँजने का काम करती थी. सेकंड शो के फिल्म के संवाद घर में साफ सुनाई देते थे. पहले शो के भी. घर पर हमारे बोलने मे सिनेमा के संवाद का भी हल्ला रहता था. हमारे गाने में सिनेमा के गाने का. सिनेमा का गाना बजता तो घर में उसको कोई न कोई गा रहा होता. बल्कि दो तीन लोग. बड़े लोग नहीं. बहनें मन ही मन गातीं. या कोने में गुनगुनाकर जैसे रियाज़ कर रही हो.  घर की कथा में घर के सदस्यों पिता,अम्मा, चाचा. भाई, बहिन के साथ मैं सिनेमा की कथा के रिश्तेदारों के साथ बढ़ रहा था. अम्मा का अनुशासन कठोर था. सिनेमा का असर बहुत था. हम लोगों के कुछ भी नहीं में एक  नायकत्व मुझे चिढ़ाता था. परिवार में मृत्यु के समय के व्यवहार में सिनेमा में देखे हुए मृत्यु का सीन आड़े आ जाता था. अपने रोने में मुझे सिनेमा की नकल  लगती थी. अपने सच के दुख को भगाने, मैं सिनेमाई तरीका ढूँढता था. मैं घर से दूर भागना चाहता था पर दरवाजे पर खड़ी अम्मा रास्ता देख रहीं हैं का सीन मुझे घर से कभी भागने नहीं दिया. घर एक लौटने का दृश्य रहा. जो अभी तक है. जहाँ जा रहे हैं वहाँ अब वे पहुँच रहे हैं का दृश्य, मुझे अभी भी बहुत अच्छा लगता है कि बच गये. मेरे लिए लौटना बच गये जैसा था. जब मैं बाहर निकलता हूँ तो देखे जा रहे है दृश्य में शामिल होजाता हूँ. और जो मेरा घर है वह दिख गया दृश्य में. घर में मैं छुप गया हूँ का दृश्य दूसरों के द्वारा  जान लिया जाता था. जैसे फिल्म में होता है. जो छुप गया है वह दर्शकों को दिखाई देता है कि छुपा है उसी तरह. नाँदगाँव में हमारे घर का पता सिनेमा लाईन, राजनाँदगाँव था.

कृष्णा टाकिज नाँदगाँव का पहला टाकिज था. बाद में कुछ घर छोड़ उसी सड़क पर राम टाकिज खुला. घर के सामने टाकीज़ में घुसने वाले और बाहर निकलने वालों की जब तब बहुत भीड़ होती थी. इस जब-तब के बीच के समय पोस्टर देखने वालों और फालतू घूमने वालों की बहुत भीड़ होती. इधऱ-उधर खड़े हुए लोगों के बीच की जगह की सड़क पर चलना होता. कार्बाइड के लेम्पों के उजाले में समोसा,कचौड़ी,मूँगफल्ली,सोडावाटर के  ठेले खड़े होते. टाकीज के मैनेजर सोलो हैट, सफेद कमीज और सफेद पैजामा पहनते थे. छोटे चाचा के पास भी यह हैट था. जिसे उठाने के पहले हरबार अनजाने में यह लगता कि वजनी है. पर उठाने पर इतना हल्का होता कि जितनी ताकत से उठाते उससे ज्यादा उँचा उठ जाता.        

4.

एम. एफ. हुसेन फि़ल्म/सिनेमा को एक सम्पूर्ण माध्यम मानते थे जिसमें तमाम रचना-रूपों का समवाय है. इस सन्दर्भ में मुझे विष्णुधर्मोत्तर पुराण का वह दृष्टि-सूत्र भी ध्यान में आता है जहां यह कहा गया है कि ’’सभी कलाएं अन्तर्गुम्फित हैं, यदि आप चित्र-कला को सीखना-परखना चाहते हैं तो संगीत-कला का ज्ञान आवश्यक है, यदि आप संगीत-कला को सीखना-परखना चाहते हैं तो काव्य-कला का ज्ञान आवश्यक है, आदि-आदि.’’ विभिन्न कलाओं के आपसी अन्तर्सम्बन्ध पर आप किस तरह से विचार करते हैं?

और फि़ल्म-कला पर आपका सोच क्या है–अपने लिए इसे आप कैसे देखते-समझते-लेते हैं?

मणिकौल, कलाकार पंकज मिश्र और सुश्री अनु जोसेफ,
फोटो : शाश्वत गोपाल

कलाऐं हमारे आसपास से अलग नहीं होतीं. अवकाश में हम अनुकूल आसपास को ढूँढते हैं. हमारा जो समीप है वह कला है. पहली बार समुद्र के किनारे जब गये थे. तब मै, सुधा और बच्चों के साथ सीपियाँ बीन रहा था. सीपियों में तरह-तरह के रंगों के शेड्स और लकीरें थीं. ‘ऐसी लकीरें तो  पूजा में बनती है’ बेटी ने मिली सीपी को देखकर कहा था. सीपियों की लकीरों की डिजाइने समुद्र के तटों के लोक में बहुत हैं. जहाँ समुद्र नहीं हैं वहाँ के लोक में भी यह कला की सीपी अवकाश के सुख की लहर से फैलती है. कला प्रकृति का दुहराव है. प्रकति इतनी संपूर्ण है कि कला में जो होगा वह पहले प्रकृति में हो चुका होगा. कला का होना अंकुरित होना है. रंग अंकुरित होते हैं. संगीत भी. कला में पत्थर भी अंकुरित होता है. प्रकृति की सारी थिरकनें मनुष्य की थिरकनों में अंकुरित होती हैं और नृत्य का स्वरूप बनाती है. 

फिल्म की कला में दृष्य, रंग, ध्वलि, और व्यव्हार इत्यादि होते हैं. यह तकनीक आधारित है. अब एक आदिवासी कलाकार बाजार का रंग और ब्र्रश का इस्तेमाल करता है. यह, कुछ उसकी पहुँच में है. फिल्म बनाने की तकनीक मँहगी और सामान्य जन से दूर है. पर बनी हुई फिल्म की पहुँच सामान्य जन तक बहुत है. अब सामान्य जन सामान्य दर्शक हैं. करीब-करीब पूरी आबादी अब दर्शक आबादी है. गाँव के गाँव दर्शक गाँव हैं. उठने,बैठने,बोलने, पहिनने में फिल्म का गहरा असर होता है. फिल्म अपनी निरर्थकता पर अधिक फूली-फली है. सार्थकता पर कम. सभी कलाओं की समझ एक है. वैसे कला को एकाँत के परिवार में पोसा जाता है. समूह के परिवार में बड़ा किया जाता है. और परंपरा में वह शाश्वत होता है. फिल्म को समूह के परिवार में पोसा और बड़ा किया गया है. अब एकाँत का भी समूह बनने लगा है. मणिकौल की फिल्म एकाँत के समूह की है. ऐकाकी दर्शक इकट्ठे हो रहे हैं जैसा. और मैं इकट्ठा हो चुका दर्शक हूँ .

5.

भारतीय सिनेमा-संसार में मणि कौल ने अपने लिए फि़ल्म-निर्माण का सर्वथा अनूठा, नयी ज़मीन तोड़ता हुआ, नान-लिनियर शिल्प/तरीक़ा अन्वेषित किया था. उन्होंने एक ऐसी सर्जनात्मक भाषा आविष्कृत की जो दर्शक को रूपान्तरित कर देती है, एक दूसरी दुनिया में ले जाती है, जिसमें सत्यजित रे के नव-यथार्थवादी मुहावरे को चुनौती देती मीमांसा भी है: गैर-यूरोपियन ढंग से अर्थ-निर्मिति/देखने की अनन्त सम्भावनाएं. यह भी दिलचस्प है कि उनकी सिनेमाई धारणा, कथा व काव्यात्मक वृत्तचित्रों की फि़ल्मों में किसी तरह की स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है. आप मणि कौल के सिनेमा की प्रयोगधर्मिता व नवाचार तथा उनकी मौलिक कला-भाषा को कैसे देखते व समझते हैं?

मणिकौल के दर्शक तो बन रहे थे. वे अपनी खींची लकीर पर खुद लिखाते हुएए इबारत की तरह चल रहे थे और एक दस्तावेज हो सकता था.  मणिकौल ने अपनी दृष्टि का निर्माण किया है. और मैं अपनी दृष्टि से उसे पा जाता हूँ. लंबे समय से फिल्मों ने दर्शकों कों रूढ बना दिया है. मणिकौल के देखने में कैमरे को जीवित करने की रचनात्मकता थी. मुझे लगता है कि जब मणिकौल कैमरे से देखकर कैमरे को छोड़ देते होंगे तो भी कैमरा मणिकौल की तरह देख रहा होता. वे जो बताना चाहते वह अंधेरे में पैरा के ढेर मे छुपी सुई होती और कैमरा उनका टार्च होता. इस ढूँढने में दर्शक भी शामिल होते. महत्वपूर्ण हमारा शामिल होना था. सुई का मिलना उनका निष्कर्ष नहीं था. उनकी फिल्म देखते हुए हम दार्शनिक होते हैं. उनके दर्शक अब अकेले छूट गये लोग हैं. यह उनकी फिल्म देखने के बाद पहले भी लगता है.

6.

मणि कौल की कला में सूक्ष्म गहराई से संघटित सचल पर स्थितप्रज्ञ छवियों के रूपंकरण कुछ इस तरह से विन्यस्त हैं मानो उनकी अभिव्यक्ति के संरचनात्मक तत्व दिक्-काल की dichotomy को गिरा देते हैं और एक ऐसे अवकाशात्मक भूदृष्य का प्रादुर्भाव होता है जो अत्यन्त जटिल व अन्तःप्रज्ञात्मक है. उनकी फि़ल्मों के फ्रेम का प्रत्येक क्षण दर्शक से जागरुक ध्यान व प्रेक्षकीय अनुशासन की अपेक्षा करता है. एक तरह से सारा दारोमदार स्वयं दर्शक के अपने देखने पर है. सम्भवतः यही वह कारण है जिसके चलते यह कहा जाता है कि मणि कौल का सिनेमा दुर्बोध व अमूर्त है. यह दुर्बोधता व्यक्ति-सापेक्ष है. क्या आप अपनी दर्शक-संवेदना पर चर्चा करना चाहेंगे? मणि कौल की फि़ल्में देखते हुए वह क्या है जो आपको रूपान्तरित कर देता है? वह अनुभूति जो उनकी फि़ल्म से निःसृत/प्रस्फुटित होती है और वह जो स्वयं आपके/प्रेक्षक दर्शक-आत्म से, के बीच की अन्तःक्रिया व प्रकृति पर क्या आप प्रकाश डाल सकेंगे?

दर्शक मणिकौल की फिल्म में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे पढ़ाई की कक्षा में पहली बार उपस्थित हुआ है यद्यपि अपनी पसंद की फिल्म देखते हुए वह प्रौढ़, अपढ़ है. फिल्म की लोकप्रियताए देखने की अपढ़ता है. इस अपढ़ता को दूर करने में समय लगेगा.

स्कूल की पढ़ाई करते हुए और कृष्णा टाकिज में फिल्म देखते हुए हम बड़े हो रहे थे. अम्मा के सामने किसी फिल्म को खराब नहीं कह सकते थे. किसी को भी खराब कहना अम्मा को अच्छा नहीं लगता था. जब बहुत खराब फिल्म देखते तब कह देते. मुझे याद आता है शायद  ‘मेडम झपाटा’ नाम की  फिल्म थी जिसे मैंने बहुत खराब कहा था. तब फिल्म को खराब कहने का चलन नहीं था.

पहले उत्सुकता दर्शकों की भारी भीड़ का कारण थी. फिर फिल्म के पात्रों जैसी संवेदना दर्शको  के परिवार की होने लगी. दुख का सीन देखते हुए जनाना क्लास से सिसकियोँ की आवाज सुनाई देती. घर की सिसकी वैसी  होने लगी. बहुत कुछ अभी भी है. अंत अच्छा होता है तो खुशी होती. यह लंबे समय से बना मोतियाबिंद जैसा है. धुँधला देखने को देखना मान लिया गया है.

फोटो : शाश्वत गोपाल

मणिकौल की फिल्म को देखते हुए ठहरना पड़ता है पर फिल्म नहीं ठहरती. कविता का पाठ सुनते समय भी ठहरने की इच्छा होती है और कविता आगे बढ़ जाती है. वैसे मणिकौल अपनी फिल्म की गति धीमी रखते हैं. इसलिए नहीं कि वे दर्शकों को अगोरते हैं. इसलिए कि यही उनकी लय है. दिखाये और कहे को देखते – सुनते हुए की उनकी लय में पिछड़ जाते हैं. फिल्म को किताब की तरह पढ़ने जैसी देखने में सुविधा नहीं होती. पर बार-बार देखने की सुविधा है. यह सुविधा व्यवहारिक नहीं. फिल्म के अनुसार दर्शकों को अपने को ढालना पड़ता है कि पहली बार में पूरा पा लें. पर जितना मिलता है उसे पूरा मान लेते हैं. पहली बार में मुझे जितना मिलता है उसे पूरा मान लेता हूँ. उत्सुकता अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं. इसलिए स्क्रिप्ट पढ़कर ऐसी फिल्मों को देखा जाना चाहिये. परिवार के साथ फिल्म देखने जा रहे हैं तो पहले परिवार के साथ बैठकर स्क्रिप्ट पर चर्चा कर लेनी याहिये. मणि कौल की बनी फिल्म को अभी नहीं तो कभी भविष्य के हाँल में हाउस फुल के बोर्ड को देखता हूँए यह मेरी दर्शक संवेदना है.

7.

बतौर एक दर्शक क्या यह जिज्ञासामय भाव आप में उपजता है कि मणि कौल का सिनेमा दरअसल किसे सम्बोधित है? पिकासो ने कहीं कहा है कि एक अनदेखी चित्र-कृति उस ख़त की तरह है जिसे अभी डाक में नहीं डाला गया है या उस ख़त की तरह है जिसे अभी बांचा नहीं गया है. यूं वे दर्शक की भूमिका को एक खास तरह से केन्द्र में ले आते हैं. दर्शक का होना या न होना क्या फि़ल्म-कृति के स्वयं अपने लिए अपरिहार्य है? या यह एक भिन्न कि़स्म की गतिविधि है? एक फि़ल्म-कृति में क्या यह अपेक्षा अन्तनिर्हित है कि कोई उसे देखे? भले वह स्वयं उसका रचयिता ही क्यों न हो? दर्शक का जन्म होना क्या अपने में एक अपरिहार्य परिघटना है? 

मणिकौल की या किसी भी फिल्म को देखते समय मैं यह मानकर चलता हूँ कि मुझे संबोधित है. दर्शक का होना अपरिहार्य नहीं है. कौन देखेगा यह इतना अनिश्चित है कि  कोई भी देखेगा और कोई नहीं देखेगा दोनों वहीं हैं किसी एक के पास अधिक होने से दूसरे से दूर हो जाते है. कोई देखेगा इसकी अपेक्षा आकाश को भी नहीं होती, जो अनजाने में दिख जाता है. किसी कृति को उसके होने के गवाह की जरूरत नहीं होती. कृति अपने होने की सार्थकता से निर्लिप्त है. दर्शक ही कृतार्थ होते हैं. आकाश को कोई देख रहा है यह आकाश को मालूम नहीं, नहीं देख रहा है यह भी नहीं. अन्य के महत्व को बढ़ाया गया है. कृति का महत्व, दर्शक के महत्व को बढ़ाकर कम नहीं किया जा सकता.

8.

आधुनिक कला में कलाकार के बजाय प्रेक्षक/दर्शक की समस्याओं के बारे में बात करें. यहां मेरा आशय एक विशेषज्ञ-दर्शक से न हो कर आमफहम इनसान से है जो बहुत बार यह समझ नहीं पाता कि वह जो देख रहा है वह क्या है. ऐसा लगता है मानो वह उस भाषा में भला कैसे संलग्न हो सकता है जिसे वह नहीं समझता-जानता. क्या आप को लगता है कि विद्यालयों व समाज में कलाओं को ले कर जो रवैया, रुढि़यां रही हैं और जिस हल्के तरह से इसे व्यवह्त कर लिया जाता है उस में असल समस्या छिपी है? कि सच्चे कला-संस्कार विकसित ही नहीं हो पाते?

मनोरंजन ने बाजार की ताकत का सहारा लेकर साहित्यए कलाओं का नुकसान किया है. सत्ता एक बड़ी ताकत है. सत्ता गंभीरता और बौद्धिकता का अंदर से विरोध करती है. इसलिए उत्कृष्टता की  विरोधी है. लोकप्रियता अभी हल्केपन का पर्यायवाची है. सत्ता की ताकत अच्छा कर सकती है, पर नहीं करती. कोई तरीका ढूँढा जाना चाहिये कि अच्छा करवाया जा सके. समाज, सामाजिक समाज नहीं रहा. समाज अब राजनैतिक समाज है. कला की समझ सामाजिकता से उपजती है. समाज से उम्मीद करने का समय नहीं रहा. कला के लिए अपनी निजता पर विश्वास करना चाहिये. सुख से जीने के कारणों में धन कमाना रह गया है. कला को हटाकर मनोरंजन ने वहाँ जगह बनाई है. कला लगता है गरीबों में बीज की तरह बची रहती है.   
 

9.

मणि कौल की व अन्य ऐसी कृतियों की दुर्बोधता पर एक दूसरे कोण से पुनरपि लौटें. हैराल्ड रोज़नबर्ग/ Harold Rosenberg ने 1964 में एक कला परिसंवाद में आलोचना की प्रकृति को ले कर उठे सवालों के जवाब में कहा था: \”To evaluate a modern painting one needs to carry it back to its creator. Taken by itself no single work can be adequately appraised. The connoisseurship which the public expects in its critics cannot be achieved in respect to contemporary works unless the artist is present in a continuum of ideas and practice.\”
आप उपर्युक्त बात को अपने तईं कैसे लेना व समझना चाहेंगे?

गांधी लिखते हैं: ’’इसकी क्यों ज़रूरत हो कि चित्रकार स्वयं अपनी पेंटिंग मुझे समझाएं, पेंटिंग ही स्वयं अपनी बात मुझ तक क्यों नहीं पहुंचा सके? मैंने वेटिकन में क्रास पर लटके ईसा की एक मूर्ति देखी, जिसे देख कर मैं स्तब्ध रह गया. बेलूर में एक प्रतिमा देखी जो मुझे अलौकिक लगी, जिस ने मुझ से ख़ुद बातें की, बिना किसी समझाने वाले की मदद के.’’
रोज़नबर्ग के बरक्स आप गांधी के विचारों पर क्या कहना चाहेंगे?

रचना अभिव्यक्ति के लिए है, अधिकतम अभिव्यक्ति के लिए. इस अधिकतम अभिव्यक्ति में रचना को रचना भी होना चाहिये. कविता , कविता जरूर हो. फिर समझाने के लिए कवि की जरूरत नहीं. जो कुछ पूछा जाना है कविता से पूछा जाना है. अभिव्यक्त होने के लिए कविता भी अपना पाठक चुनती है. जैसे पाठक अपनी कविता चुनता है. पाठक के सामने रचनाकार नहीं ऱचना होती है. या कहें रचना सबको जवाब नहीं देती. रचना का अपने पाठक का इंतजार सबसे बड़ा इंतजार है. ऐसा समय इस समय नहीं कि पाठक रचना का थोड़ा भी इंतजार करता हो. पर ऐसा समय हमेशा रहा है कि रचना पाठक का इंतजार कर रही हो. यह इंतजार केवल एक का ऩहीं, सबका. रचना और पाठक का आमने-सामने होना सोच समझ कर ज्यादा होता है. जो पाठक का काम है.

किसी के समझाने से कोई नहीं समझता. समझने से समझता है. इस समझने में समझाने वाले की जरूरत नहीं. जो रचनाकार कुछ सौ वषों से नहीं रहे उनकी रचना जीवित है. रचनाकार की मृत्यु से रचना की मृत्यु नहीं होती. समय में रचनाकार नहीं रचना होती है. और रचनाए रचनाकार को समय में उपस्थित करती है.

10.

रामकुमार ने अपनी सन् 1950 की नोटबुक में चित्र-प्रदषर्नियों के सन्दर्भ में लिखा है: It was imperative to talk about one’s own work in those days and even today perhaps it is so…” ऐसा लगता है कि उनके वाक्य में गहरी पीड़ा छिपी है. अपने काम पर बात करना या उसे समझाना आपको कैसा लगता है? क्या एक कलाकार अपनी कृति-मर्म पर ऊंगली रख सकता है? क्या एकदर्शक/पाठक कृति-मर्म तक पहुंच सकता है?  इसमें उसके अनुभव भी सहायक होंगे. एक रचनाकार की कृति का ऐसा मर्म जिसे रचनाकार ने भी न जाना हो उसे भी पाठक या दर्शक अपने अनुभव से पा लेता या देख लेता है. कृति का मर्म केवल एक बिंदु नहीं है. कृति का मर्म एक विस्तार है. विस्तार के छोर पर ही लगता होगा कि पहुँच गये. विस्तार को पार पाना ?

मैं अपनी कविता नहीं समझा सकूँगा. समझाने के लिए कविता को दुबारा पढ़ सकता हूँ. एक आदिवासी अपने बनाये चित्र को कैसे समझा सकेगा. कविता करने में मैं अपने को आदिवासी समझता हूँ. एक पेड़ अपने को नहीं समझा सकता पर हम उसे अलग.अलग तरह से और अपनी तरह से समझते हैं. मान लो नहीं समझते पर उसे कुछ जान जाते हैं. क्या जानना समझना है ? पेड़ का होना पर्याप्त है. थोड़ी सी  आद्रता में सदाबहार का पौधा अपने होने में सदाबहार रहता है. वैसे मैं कविता को अभिव्यक्त करने एक ही कविता पर सारी जिदगी काम कर सकता हूँ. सब कुछ समझ जाना कभी नहीं होता. समझने के लिए कुछ बचा हुआ हमेशा रहता है.
 
एक पाठक या दर्शक कृति.मर्म तक पहुँच सकता है. इसमें उसके अनुभव भी सहायक होंगे. एक रचनाकार की कृति का ऐसा मर्म जिसे रचनाकार ने भी न जाना हो उसे भी पाठक या दर्शक अपने अनुभव से पा लेता या देख लेता है. कृति का मर्म केवल एक बिंदु नहीं है. कृति का मर्म एक विस्तार है. विस्तार के छोर पर ही लगता होगा कि पहुँच गये. विस्तार को पार पाना घ्

11.

क्या हम हर बार सचमुच कुछ भिन्न देखते हैं या एक भिन्न रीति से उसकी केवल व्याख्या करते हैं जिसे/जो देखते हैं? मेरा झुकाव पहले कहे की ओर है, आपका? —क्या व्याख्या करना सोचना है, कुछ करना है; और देखना एक अवस्था (state) है? हो सकता है आंख एक ताला हो हर कुंजी के लिए.

अगर देखना एक अवस्था (to have or to be) है तब यह scale of observation और frame of reference के भीतर ही सम्भव है, उससे आज़ाद नहीं. भूमियों के आरोहण, अवरोहण या स्थैर्यावस्था को स्वीकार करने पर भी वह क्या है जो अवस्था (-भेद) के पीछे काम कर रहा होता है? अगर यह अनुभूति की माया है जिसके चलते रस्सी में सांप नज़र आ सकता है या सांप में रस्सी या दोनों में धागा?–तब क्या अनुभोक्ता पर दारोमदार आ टिकता है? अनुभोक्ता का देखना में क्या, कैसे व किन रीतियों से संघनित है का सवाल शायद अधिक अर्थपूर्ण नहीं. (क्या महज़ इसलिए कि उसके देखने में विषय अन्तर्भूत है?) असली मसला चैतन्य का है–भले फि़ल्म (विषय, अन्य) हो या उसे देखने वाला दर्षक (विषयी, आत्म). क्या यह बौद्धिक रूप से समझने के परे है कि द्रष्टा और दृष्य एक है–चैतन्य है. ज़माना पहले वैज्ञानिकों ने यह क्रान्तिकारी खोज की थी कि प्राणी की एक व्यावर्तक खूबी यह है कि वह दूसरे का दर्द महसूस कर सकता है, जान सकता है. (क्या हम फि़ल्म का सत्य/अर्थ/भाव महसूस कर सकते हैं? जान सकते हैं?) अर्थात् the point of sensibility अगर दोनों (विषय, विषयी. चित्र, दर्षक) में संवेदनशीलता का तत्व उभयसामान्य है तब मणि कौल की फि़ल्मों के सन्दर्भ में यह आपके लिए क्या है? बल्कि क्या देखने को परिभाषित किया जा सकता है–खास तौर पर देखने को एक कलाकार के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में और एक सह्दय रसिक के रूप में? बल्कि हो सकता है कि तीनों एक ही हों और ये तीनों कोटियां या विभेद अप्रासंगिक ही हो?

आपके लिए देखना क्या है?

हरबार हम भिन्न देखते हैं. पर भिन्न देखना कई बार मालूम नहीं पड़ता. जिसे देख रहे हैं वह भी नहीं. व्याख्या करना सोचना है. देखना भी एक काम है. नहीं देखना भी. देखना पूरा देखना नहीं होता. अनदेखे की सघनता में थोड़ा सा देखना होता है. जो दिख जाता है उसे पूरा दिख गया मान लेते हैं. या जिसे देखना चाहते हैं उसे देख लेना पूरा देख लेना. जिसे देखना चाहते हैं उसे ज्यादा देखने कि चाहत बनी रहती है.

मैं घर के सामने के एक पेड़ को रोज देखता हूँ. कभी नया या ज्यादा देखना. कभी कम या नहीं देखना. एक ही दिन में कुछ या पूरा देखना कई बार छूट जाता है. दुबारा देखना, एक बार या दुबारा पाना होता है. उसे लगातार देख रहे हैं तो क्या उसे एक ही बार देख रहे हैं. या देखने का बदलता हुआ चलचित्र है. कई बार आँख बंद करने से देखना बंद नहीं होता. सूरदास जो अंधे थे उनके देखे हुए को मैं उनके लिखे में जब तब देख लेता हूँ. पढ़ते हुए जो दिखा हुआ लगता है दुबारा पढ़ने से बदला हुआ दिखता है. दूसरों के देखे हुए को भी हम बिना देखे देख लेते हैं. कई बार देखने से ठगा जाते हैं. कई बार लगता है कि ऐसा पहले क्यों नहीं देखा.

ताजमहल को मैंने देखा नहीं था पर ताजमहल के देखे हुए को इतना पढ़ लिया था कि जब उसे पहली बार देखा तो वह पढ़े हुए से कम दिख रहा था. और बहुत कुछ दूसरा, बदला   हुआ. जब मैंने ताजमहल देखा तब वह मुझसे देखा हुआ ताजमहल था.

देखने को परिभाषित किया जा सकता हो पर परिभाषाऐं बहुत होंगी. देखने के प्रकार बहुत हैं. मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी ‘नहीं देखने को देखना, चंद्रमाद्र के नहीं दिखने को टकटकी बाँधकर देखना.
फिल्म के दिखाने में नहीं दिखने को भी दर्शक देख या समझ पाता है. जो कई बार स्पष्ट होता है. और फिल्म के देखने में हम दूसरे का दिखाया हुआ ही देखते हैं.जो नहीं दिखाया गया है उसे अपने मन से जोड़ लेते हैं. दूसरे के दिखाये में हम अपना देखने को भी देखते हैं. 

मणिकौल अपने देखने को हमारे देखने के लिए कैमरे से बताते हैं. यह बताना दिखाना है. वे कैमरे पर भरोसा करते हैं और अपने भरोसे को सार्थक बनाते हैं कि जैसा वे देख रहे हैं कैमरा वैसा ही देखे. अपने देखे हुए जैसा कैमरे के देखने को बनाते हैं. कैमरा मणिकौल की तरह देखने वाला बन जाता है. दिखाया हुआ किसी के लिए कुछ भी नहीं दिखाया गया जैसा रह सकता है. देखने में इतने अतृप्त हो सकते हैं.

उसे पहली बार देखा तो मेरा देखना पारसए जिसे देखा सुनहरा दिखे.

12.

एक फि़ल्मकार को फि़ल्म बनाते हुए देखना, फि़ल्मकार की रचना-प्रक्रिया व तकनीक में झांकने जैसा भी है. क्या आपने मणि कौल को शूटिंग व एडिटिंग करते हुए देखा है? अगर हां, तब उन्हें उपर्युक्त कामों में संलग्न रहते हुए देखना किस तरह का अनुभव रहा?

फोटो : शाश्वत गोपाल

मणि कौल ने “नौकर की कमीज” और दो कहानियों ‘बोझ’ और शायद ‘पेड़ पर कमरा’ पर फिल्में बनाईं हैं. नौकर की कमीज की शूटिंग मैंने देखी है. एडीटिंग करते नहीं देखा. शूटिंग देखने का यह मेरा पहला मौका था. ‘नौकर की कमीज’ की दो घंटे चालीस मिनट की शूटिंग हुई होगी. एडीटिंग के बाद एक घंटे बीस मिनट की फिल्म बची. फिल्म की लंबाई फँडिंग की शर्तों मे शायद थी. मणिकौल ने एडिटंग करने के लिए इतनी लंबी शूटिंग नहीं की होगी. शूटिंग स्क्रिप्ट के अनुसार हुई थी. बिना ऐडिटिंग की फिल्म के लिए चेनल होना चाहिये. चौबीस घंटे चलने वाली फिल्म शायद न बनें. यह महँगा काम है. समय की दृष्टि से छोटी फिल्म दर्शक की सहूलियत भी है.

नौकर की कमीज की शूटिंग रायपुर, ऱाजनाँदगाँव, मुम्बई की कोई जगह ‘मड आई लेंड’ में हुई थी. शूटिंग के लिए ऱायपुर में उपन्यास जैसा आफिस का घर मुश्किल से ढूँढ लिया गया था. उसके परिसर में कटहल का पेड़ नहीं था. आम का पेड़ था. मैंने कहा भी कि कथा से कटहल का पेड़ हटा सकते हैं. वे हँसे थे. मुझे बताया गया कि ‘मड आई लेंड’ में कटहल का पेड़  कटहल से लदा हुआ मिल गया है. मैं अपने लिखे हुए के भूगोल के बारे में सोचता हूं तो उसमें उलट-फेर रहता है. नागपुर में बेटी के घर में लगे नींबू के पेड़ से नींबू रायपुर में तोड़ लेता हूँ. या घर के पीछे से निकलते ही हजार किलोमीटर दूर रहता मेरा पड़ोस है. थोड़ी देर वहाँ रह कर पड़ोसी से आज का अखबार ले आता हूँ. उपन्यास में लिखे दृश्य को फिल्म में लाना कठिन है. लिखना उतना कठिन नहीं. बस कागज,कलम. फिल्म बनाने में पूरी टीम लगती है. मशीने,कैमरे भी. मुझे बताया गया कि जो कैमरा था वह दस हजार रुपये रोज के किराये पर था. कहीं मैंने गलत न सुना हो.
 
फिल्म के नायक भिलाई के पंकज मिश्र हैं. ऩायिका अनु जोसेफ दिल्ली की हैं. मणिकौल ने शूटिंग शुरू होने के पहले अनु को हफ्ते भर के लिए मेरे घर पर रहने के लिए भेज दिया था. सुधा, हम लोगों के साथ वे रहीं. मुझे शक होता है कि मणिकौल को यह लगता होगा कि ‘नौकर की कमीज’ का संतू बाबू मैं ही हूँ. और ‘नौकर की कमीज’  मेरी थोड़ी आत्मकथा है. अनु हम लोगों को समझ लेना चाहती थी. राजनाँदगाँव में उन्होंने हमारे छूट गये घर को देखा. जर्जर और बँटवारा हो जाने से सूना. वहाँ कोई नहीं रहता था. उनकी टीम के मधुअप्सरा, गुरुपाल सिंग से अच्छा परिचय हो गया था.  रिश्ते जैसा परिचय. शूटिंग के पहले मुम्बई जाकर मैने टीम के सामने स्क्रिप्ट को पढ़ा जो टेप हुआ और टीम को बाँटा गया.
 
उपन्यास के साथ न्याय हुआ या नहीं, मुझसे यह बहुत पूछा गया. मैं मानता हूँ फिल्म मणिकौल की अपनी रचना है. उपन्यास मेरी. और रचना करना न्याय करना है,अपराध नहीं. मेरे लिए फिल्म को बनते हुए देखना उपन्यास को बनते हुए देखना था. मणिकौल ने उपन्यास को बनाया था. उपन्यास को टूटते हुए मैंने नहीं देखा.

13.

आपके उपन्यास ’’नौकर की कमीज़’’ पर मणि कौल ने फि़ल्म बनाई है. इस फि़ल्म के बारे में आलोचकों का मत है कि यह मणि कौल की दूसरी फि़ल्मों व वृत्तचित्रों से कई मायनों में भिन्न है और उनके सिनेमा में एक अलग-सा प्रस्थान-संकेत भी. यह फि़ल्म देखते हुए क्या आपके भीतर ’’नौकर की कमीज़’’ का रचयिता भी बराबर सक्रिय रहा अथवा आप अपने रचयिता से निर्बन्ध हो कर बतौर एक दर्षक फि़ल्म देख पा रहे थे? दूसरे शब्दों में, ’’नौकर की कमीज़’’ देखने का आपका फि़ल्मानुभव क्या रहा है?

मणिकौल ने इस फिल्म को बनाते समय अपने को बदला है ऐसा मुझे भी लगता है. फिल्म बनने की शुरूवात से मैं फिल्म से तटस्थ होने लगा था. पहले उपन्यास फिर स्क्रिप्ट के रचनाकार होने से तटस्थ हुआ. जब फिल्म आँखों के सामने थी तब मैं केवल दर्शक था.

पटकथा लिखने की पूरी स्वतंत्रता थी. तब भी अंग्रेजी में लिखी उनकी स्क्रिप्ट का आधार था. उपन्यास में जो संवाद थे मुझे वैसे ही रखने थे. यह उन्होंने कहा था. पटकथा में मैंने उपन्यास के अलावा दृश्य जोड़े. संवाद बढ़ा दिये. जो फिल्म में हैं. पटकथा लिखते समय आमने.सामने का साझा नहीं था. पर फोन पर बात होती. फोन वही लगाते और देर तक बात करते. मुझे उनके फोन के बिल बढ़ने की फिक्र होती. मैं फोन लगाता  तो बात जल्दी खत्म कर देता था. तब मणिकौल मेरे ऱखने के बाद फिर फोन लगाते.

14.

’’नौकर की कमीज़’’ की पटकथा भी आपने ही लिखी थी. पटकथा को लेकर मणि कौल और आपके बीच किस तरह का संवाद व साझा होता रहा और पटकथा लिखते समय मुख्यतः आपका ध्यान किन तत्वों पर ज़्यादा एकाग्र रहा? मसलन, यह अपने उपन्यास में से एक नयी कृति-रचना जैसे रहा या अपेक्षाकृत सम्पादन व किंचित् संशोधन-परिवर्तन जैसा रहा या आप दोनों की आपसी बातचीत से यह पटकथा बनी या यह एक भिन्न अभिव्यक्ति-रूप सृजित करने जैसा रहा या पाठ और दृष्य-संरचना के आपसी तनाव पर आपकी कल्पना का अवधान रहा या परस्पर भिन्न दो माध्यमों–एक में भाषा केन्द्र में है, एक में चाक्षुषकता–के अन्तरंग संवाद पर, इत्यादि.

पटकथा को लेकर मणि कौल की अपनी दृष्टि व व्यवहार रहा है. वे कहते हैं–’’जैसी फि़ल्म लोग बनाते हैं उनके लिए…..स्क्रिप्ट में पूर्णता का विचार निहित है और स्क्रिप्ट में ही जक्स्टापोजीशन का विचार भी है. मणि कौल स्क्रिप्ट के सन्दर्भ में उन संयोगों की भी बात करते हैं जो शूटिंग करते समय घट जाते हैं, जो कि पहले से प्लाण्ड नहीं थे. वे कहते हैं– ’’स्क्रिप्ट लिखते समय स्क्रिप्ट राइटर के संग डायरेक्टर ने या खुद स्क्रिप्ट राइटर ने बहुत सोचकर लिखा कि जब लड़की पंखा चलायेगी तब उसके बाल ऐसे-वैसे होंगे. (लेकिन यहां) फर्क इसलिए है कि जो चीज़ शूटिंग के दौरान संयोग से पैदा हो रही है, उसका उस परिवेश और सन्दर्भ में एक बहुत सत्य है. और ठीक वही चीज़ कि स्क्रिप्ट राईटर को यह ख्याल आ गया, लड़की नाराज़ दिख रही है, वह पसीने से लथपथ हो रही है और पंखा हिला रही है, इसलिए उसके बाल ऐसे-वैसे हो रहे हैं. यह उस स्क्रिप्ट राइटर के लिए केवल आइडिया है, एक ख्याल है बस. और क्या होगा कि अर्थ का सारा दारोमदार वह इस ख्याल से जोड़ देगा तो निर्देषक इसे इस तरह से रगड़ देगा कि किसी तरह उसका यह अर्थ पैदा हो जाये कि वह नाराज़ है जबकि हो रहा है बिल्कुल संयोग से, जब आप शूटिंग कर रहे हैं.’’

जब आपने ’’नौकर की कमीज़’’ पर आप द्वारा लिखी गयी पटकथा पर फि़ल्म देखी तब पूरी फि़ल्म के सन्दर्भ में अपनी पटकथा को लेकर आपका क्या विचार बना? मणि कौल ने आपकी कृति के अलावा अन्य जिन लेखकों की कृतियों पर फि़ल्म बनाई है, उन कृतियों को भी आपने पढ़ा होगा और उन पर बनी फि़ल्मों को भी सम्भवतः देखा होगा. दूसरे शब्दों में, मणि कौल के सिनेमा में आप पटकथा की क्या व किस तरह की भूमिका देखते हैं?

पटकथा एक तय्यारी है फिल्म बनाने की. मानसिक तय्यारी में उनके पास विकल्प बहुत थे. इसलिए वे शाँत होते. पटकथा से वे बँधे हैं ऐसा कभी लगता. पर यह उऩका स्वभाव नहीं था. शूटिंग में काट-छाँट पटकथा की काट-छाँट तो होती है.  
    
पटकथा निर्देशक की सहूलियत है, जितनी जब जरूरत पड़ी उतनी. पटकथा पहले का तय है. पहले की सोच से तात्कालिक सोच अधिक रचनात्मक हो सकती है. पटकथा    में लिखे संवाद में शब्द आगे पीछे होते तो मणिकौल दुबारा शुटिंग करते. उनकी फिल्म एक अकेले की धुन में, टीम का आर्केस्टा थी.   

फिल्म की शूटिंग शुरू होते ही लेखक का कोई काम बचा नहीं होता. निर्देशक चाहे तो  है. शुरुवात पटकथा से बंधे हुए होती है. फिर बंधन ढीला होने लगता है. स्वतंत्र होना पूरा निर्देशन है जिसमें निर्देशक स्वतंत्र होता है. एक पटकथा से दूसरे निर्देशक दूसरी फिल्म बना सकते हैँ. एक पटकथा से वही निर्देशक भी दूसरी फिल्म बना सकता है. उसी तरह पटकथा दूसरी भी लिखी जा सकती है. मैं यह मानता हूँ कि मेरा उपन्यास अलग से पटकथा लिखने के पहले से एक पटकथा है. मैं दृश्य को भाषा में लिखता हूँ. शायद शब्दों से भाषा का रंग ही बनता है और लिखना ब्रश चलाना जैसा है. चित्रकार ,फिल्मका,शब्दकार एक जैसा कुछ करते हैं. 

15.

’’नौकर की कमीज़’’ फि़ल्म के कौन से दृश्य-फ्रेम आपको सबसे प्रिय लगते हैं और किन स्थलों को लेकर आप अनाश्वस्त महसूस करते हैं?

 

‘नौकर की कमीज’ फिल्म मैं फिर से देखना चाहता हूँ. और इस तरह से देखना चाहता हूँ कि जहाँ मैं सोचने के लिए रुकूँ वहाँ चलती हुई फिल्म रुक जाये. देखे हुए को सोच लूँ तो फिल्म चलने लगे. सोच में बार.बार पिछड़ता हुआ मैंने ‘नौकर की कमीज’ पहले देखी थी. अब याद से पिछड़ गया हूँ. वैसा कुछ याद नहीं है.

__________

पीयूष दईया
27 अगस्त 1973, बीकानेर (राजस्थान)

संपादक, अनुवादक, रचनाकार, कलाओं  पर विशेष कार्य
चिह्न (कविता-संग्रह) प्रकाशित, सम्मान और फेलोशिप अनेक
todaiya@gmail.com

Tags: पीयूष दईयामणि कौलविनोद कुमार शुक्लसिनेमा
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Comments 1

  1. Vinay Kumar Mishra says:
    4 years ago

    इस गंभीर और सुरूचिपूर्ण संवाद में मणि कौल जी के फिल्म दर्शन के साथ ही फ़िल्म और साहित्य के अंतर्संबंधों को समझने के कई गवाक्ष खुलते हैं।

    इस संवाद को इत्मीनान से पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। साथ ही सिनेमा संबंधी ज्ञान का विस्तार भी।
    गंभीर बिंदुओं पर सहजता से हो रहे संवाद को पढ़ना एक अभिनव संगीत सुनने जैसा ही है, यदि डूबकर उसे पढ़ा जाय। प्रश्नों में उपस्थित बहुपठनियता , विविध संदर्भ reference और range – पिकासो से लेकर एम. एफ. हुसैन तक , रोजेनबर्ग से गांधी तक —- इस संवाद को समृद्ध करती है। यहां सिनेमा के शिल्प और संरचना को समझने कई सूत्र स्पष्ट हैं।

    दो कवियों की यह बातचीत एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहां आख्यान – विचार – दर्शन – कथा – पटकथा – लेखक – फिल्म फिल्मकार -दर्शक – एक विशिष्ट लय में लयमान हैं।

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