घर एक लौटने का दृश्य रहा ..
म णि कौ ल के सि ने मा द र्श न प र
1.
आप व मणि कौल पहले-पहल एक दूसरे के सम्पर्क में कब व कैसे आए?
सम्भवतः मणि जी और आप का नाता दशकों तक फैला रहा. एक इनसान व लेखक के रूप में जिस किस्म का बहुस्तरीय नाता मणि कौल के साथ आपका रहा क्या आप उसकी स्मृतियों के उर्वर-प्रदेश के कुछ (वि-)वरणों तथा इस सम्बन्ध के विस्तार का साझा कर सकेंगे?
मणि कौल को याद करता हूँ तो लगता है मैं उनको पूरा याद नहीं कर पा रहा हूँ. ऐसे में लगता है इस दुनिया में भुला देना नहीं होना चाहिये. एक-एक बिताये क्षण को कैसे याद करूँ. बस एक समय को याद करता हूँ. मणिकौल का व्यक्तित्व मेरी भुलक्कड़ी के कारण प्रतीकों में दर्ज है. यद्यपि ये प्रतीक बहुवचन में है. दृश्यों के प्रतीकों में, विलंबित संवादों मे, चुपचाप के प्रतीकों में, आवाज के प्रतीकों में. वे मणिकौलों की भीड़ में हैं. मेरे एक साथ की याद में एक साथ के कई मणिकौल. कभी मणिकौलों की भीड़ से इतने अकेले कि एक भी नहीं हैं. वे थे तब ऐसा था. अब भी ऐसा है. मणिकौलों की भीड़ रहगी. ढूँढने से उनमें मिल जायेंगे.
2.
मणि कौल के सिने-संसार में दाखिल होना, एक दूसरी दुनिया में होने की भांति है. बहुत साल पहले जब पहले-पहल उनके द्वारा बनाई फि़ल्में देखीं तो सहज ही इस जिज्ञासा में उतरने लगा कि उनके काम की जड़ें किसमें हैं? क्या हम मणि कौल के काम की जड़ों पर अनौपचारिक बातचीत कर सकते हैं? अंधेरे में रहती उन अदृश्य जड़ों पर जिन्हें उजाले में लाते ही वे मरने लगतीं हैं. क्या जड़ों को उस तरह से भाषा में विन्यस्त करने का प्रयास कर सकते हैं जिस तरह से वे उनके काम में व्याप्त हैं? क्या यह किया जा सकता है? भाषा के फूल में खिलती अदृश्य जड़ें यूं हो सकती हैं गोया फूल की सुवास उन जड़ों का फल हो: एक कृति का सत्य. जगदीश स्वामीनाथन के शब्दों में, संसार की जीवित मरीचिका में, अकेले, अपने सम्मुख उजागर/स्वयं समक्ष प्रकट.
मणि कौल की कला पर लिखना/बात करना और उनका फि़ल्म बनाना दो अलग तरह के उपक्रम हैं. तब भी दोनों के बीच संवाद सम्भव है, आवाजाही भी. रिल्के के एक वाक्य का भावांश ध्यान आता है कि दो सम्बन्ध एक दूसरे के एकान्त को महफूज़ रख सकते हैं, आपसी एकान्त को खण्डित किये बगैर. या आपकी एक कविता की पंक्तियां है: …हम दोनों साथ चले/दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे/साथ चलने को जानते थे.
( (मणिकौल, विनोद कुमार शुक्ल, औरश्रीमती सुधा शुक्ल, फोटो : शाश्वत गोपाल) |
प्रश्न से मुझे अपनी दूसरी कविता याद आई. मुझमें जो कुछ है वह केवल जड़ है. जड़ों से निकलती जड़ें और उनसे भी निकलती जड़ें. मुझे पतझड़ पसंद नहीं. मणिकौल के फिल्म बनाने के निश्चय की जड़ उनकी सोच में कैसे जमती होगी! अंकुरित को वे पेड़ तक की, पूरी फिल्म सोच में क्या बना चुके होते हैं ? या सोच में बनने की शुरूवात से जड़ों से निकलती हुई केवल जड़ें होतीं हों ? फिल्म बनने के बाद मैं दर्शक यदि उनकी फिल्म देखता हूँ तो मेरी सोच में वही पेड़ रोपा हुआ होता होगा. चिड़ियों के कलरव और घोसलों के साथ रोपा हुआ. ऐसा मुझे “दीवार में एक खिड़की रहती थी” की पटकथा पढ़ने के बाद लगा जो उन्होंने मृत्यु के दो-एक महिने पहले मुझे भेजी थी. ‘नौकर की कमीज’ पर फिल्म बनाने का उनका मन जब उपन्यास पढ़ा था तभी से था. फोन से उन्होंने बताया था कि फिल्म बनायेंगे. फिर कुछ बरस बीत गये. स्थगित या समाप्त जैसी आई-गई बात थी. उन्हें और काम होंगे. या फंड्स की समस्या हो. मेरे लिए तो लिखना कागज कलम जैसी सहजता में है. फिल्म बनाने का जुगाड़ बहुत कठिन. लेकिन सोच में बन रही फिल्म पर वे काम करते होंगे. सोच में बनी फिल्म के लिए फंड नहीं लगता.
3.
आपके संस्मरण ’’पुरानी परछी’’ से यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि आपके छुटपन में सिनेमा की अपनी जगह रही है. उसी संस्मरण में आपने लिखा है–’’…मैं दृश्य में सोचता हूं. भाषा में नहीं.’’ क्या आपको लगता है कि आपके रचनात्म व बुनावट में सिनेमा-संस्कार की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका रही है?
4.
एम. एफ. हुसेन फि़ल्म/सिनेमा को एक सम्पूर्ण माध्यम मानते थे जिसमें तमाम रचना-रूपों का समवाय है. इस सन्दर्भ में मुझे विष्णुधर्मोत्तर पुराण का वह दृष्टि-सूत्र भी ध्यान में आता है जहां यह कहा गया है कि ’’सभी कलाएं अन्तर्गुम्फित हैं, यदि आप चित्र-कला को सीखना-परखना चाहते हैं तो संगीत-कला का ज्ञान आवश्यक है, यदि आप संगीत-कला को सीखना-परखना चाहते हैं तो काव्य-कला का ज्ञान आवश्यक है, आदि-आदि.’’ विभिन्न कलाओं के आपसी अन्तर्सम्बन्ध पर आप किस तरह से विचार करते हैं?
और फि़ल्म-कला पर आपका सोच क्या है–अपने लिए इसे आप कैसे देखते-समझते-लेते हैं?
मणिकौल, कलाकार पंकज मिश्र और सुश्री अनु जोसेफ, फोटो : शाश्वत गोपाल |
कलाऐं हमारे आसपास से अलग नहीं होतीं. अवकाश में हम अनुकूल आसपास को ढूँढते हैं. हमारा जो समीप है वह कला है. पहली बार समुद्र के किनारे जब गये थे. तब मै, सुधा और बच्चों के साथ सीपियाँ बीन रहा था. सीपियों में तरह-तरह के रंगों के शेड्स और लकीरें थीं. ‘ऐसी लकीरें तो पूजा में बनती है’ बेटी ने मिली सीपी को देखकर कहा था. सीपियों की लकीरों की डिजाइने समुद्र के तटों के लोक में बहुत हैं. जहाँ समुद्र नहीं हैं वहाँ के लोक में भी यह कला की सीपी अवकाश के सुख की लहर से फैलती है. कला प्रकृति का दुहराव है. प्रकति इतनी संपूर्ण है कि कला में जो होगा वह पहले प्रकृति में हो चुका होगा. कला का होना अंकुरित होना है. रंग अंकुरित होते हैं. संगीत भी. कला में पत्थर भी अंकुरित होता है. प्रकृति की सारी थिरकनें मनुष्य की थिरकनों में अंकुरित होती हैं और नृत्य का स्वरूप बनाती है.
फिल्म की कला में दृष्य, रंग, ध्वलि, और व्यव्हार इत्यादि होते हैं. यह तकनीक आधारित है. अब एक आदिवासी कलाकार बाजार का रंग और ब्र्रश का इस्तेमाल करता है. यह, कुछ उसकी पहुँच में है. फिल्म बनाने की तकनीक मँहगी और सामान्य जन से दूर है. पर बनी हुई फिल्म की पहुँच सामान्य जन तक बहुत है. अब सामान्य जन सामान्य दर्शक हैं. करीब-करीब पूरी आबादी अब दर्शक आबादी है. गाँव के गाँव दर्शक गाँव हैं. उठने,बैठने,बोलने, पहिनने में फिल्म का गहरा असर होता है. फिल्म अपनी निरर्थकता पर अधिक फूली-फली है. सार्थकता पर कम. सभी कलाओं की समझ एक है. वैसे कला को एकाँत के परिवार में पोसा जाता है. समूह के परिवार में बड़ा किया जाता है. और परंपरा में वह शाश्वत होता है. फिल्म को समूह के परिवार में पोसा और बड़ा किया गया है. अब एकाँत का भी समूह बनने लगा है. मणिकौल की फिल्म एकाँत के समूह की है. ऐकाकी दर्शक इकट्ठे हो रहे हैं जैसा. और मैं इकट्ठा हो चुका दर्शक हूँ .
5.
भारतीय सिनेमा-संसार में मणि कौल ने अपने लिए फि़ल्म-निर्माण का सर्वथा अनूठा, नयी ज़मीन तोड़ता हुआ, नान-लिनियर शिल्प/तरीक़ा अन्वेषित किया था. उन्होंने एक ऐसी सर्जनात्मक भाषा आविष्कृत की जो दर्शक को रूपान्तरित कर देती है, एक दूसरी दुनिया में ले जाती है, जिसमें सत्यजित रे के नव-यथार्थवादी मुहावरे को चुनौती देती मीमांसा भी है: गैर-यूरोपियन ढंग से अर्थ-निर्मिति/देखने की अनन्त सम्भावनाएं. यह भी दिलचस्प है कि उनकी सिनेमाई धारणा, कथा व काव्यात्मक वृत्तचित्रों की फि़ल्मों में किसी तरह की स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है. आप मणि कौल के सिनेमा की प्रयोगधर्मिता व नवाचार तथा उनकी मौलिक कला-भाषा को कैसे देखते व समझते हैं?
6.
मणि कौल की कला में सूक्ष्म गहराई से संघटित सचल पर स्थितप्रज्ञ छवियों के रूपंकरण कुछ इस तरह से विन्यस्त हैं मानो उनकी अभिव्यक्ति के संरचनात्मक तत्व दिक्-काल की dichotomy को गिरा देते हैं और एक ऐसे अवकाशात्मक भूदृष्य का प्रादुर्भाव होता है जो अत्यन्त जटिल व अन्तःप्रज्ञात्मक है. उनकी फि़ल्मों के फ्रेम का प्रत्येक क्षण दर्शक से जागरुक ध्यान व प्रेक्षकीय अनुशासन की अपेक्षा करता है. एक तरह से सारा दारोमदार स्वयं दर्शक के अपने देखने पर है. सम्भवतः यही वह कारण है जिसके चलते यह कहा जाता है कि मणि कौल का सिनेमा दुर्बोध व अमूर्त है. यह दुर्बोधता व्यक्ति-सापेक्ष है. क्या आप अपनी दर्शक-संवेदना पर चर्चा करना चाहेंगे? मणि कौल की फि़ल्में देखते हुए वह क्या है जो आपको रूपान्तरित कर देता है? वह अनुभूति जो उनकी फि़ल्म से निःसृत/प्रस्फुटित होती है और वह जो स्वयं आपके/प्रेक्षक दर्शक-आत्म से, के बीच की अन्तःक्रिया व प्रकृति पर क्या आप प्रकाश डाल सकेंगे?
फोटो : शाश्वत गोपाल |
मणिकौल की फिल्म को देखते हुए ठहरना पड़ता है पर फिल्म नहीं ठहरती. कविता का पाठ सुनते समय भी ठहरने की इच्छा होती है और कविता आगे बढ़ जाती है. वैसे मणिकौल अपनी फिल्म की गति धीमी रखते हैं. इसलिए नहीं कि वे दर्शकों को अगोरते हैं. इसलिए कि यही उनकी लय है. दिखाये और कहे को देखते – सुनते हुए की उनकी लय में पिछड़ जाते हैं. फिल्म को किताब की तरह पढ़ने जैसी देखने में सुविधा नहीं होती. पर बार-बार देखने की सुविधा है. यह सुविधा व्यवहारिक नहीं. फिल्म के अनुसार दर्शकों को अपने को ढालना पड़ता है कि पहली बार में पूरा पा लें. पर जितना मिलता है उसे पूरा मान लेते हैं. पहली बार में मुझे जितना मिलता है उसे पूरा मान लेता हूँ. उत्सुकता अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं. इसलिए स्क्रिप्ट पढ़कर ऐसी फिल्मों को देखा जाना चाहिये. परिवार के साथ फिल्म देखने जा रहे हैं तो पहले परिवार के साथ बैठकर स्क्रिप्ट पर चर्चा कर लेनी याहिये. मणि कौल की बनी फिल्म को अभी नहीं तो कभी भविष्य के हाँल में हाउस फुल के बोर्ड को देखता हूँए यह मेरी दर्शक संवेदना है.
7.
बतौर एक दर्शक क्या यह जिज्ञासामय भाव आप में उपजता है कि मणि कौल का सिनेमा दरअसल किसे सम्बोधित है? पिकासो ने कहीं कहा है कि एक अनदेखी चित्र-कृति उस ख़त की तरह है जिसे अभी डाक में नहीं डाला गया है या उस ख़त की तरह है जिसे अभी बांचा नहीं गया है. यूं वे दर्शक की भूमिका को एक खास तरह से केन्द्र में ले आते हैं. दर्शक का होना या न होना क्या फि़ल्म-कृति के स्वयं अपने लिए अपरिहार्य है? या यह एक भिन्न कि़स्म की गतिविधि है? एक फि़ल्म-कृति में क्या यह अपेक्षा अन्तनिर्हित है कि कोई उसे देखे? भले वह स्वयं उसका रचयिता ही क्यों न हो? दर्शक का जन्म होना क्या अपने में एक अपरिहार्य परिघटना है?
8.
आधुनिक कला में कलाकार के बजाय प्रेक्षक/दर्शक की समस्याओं के बारे में बात करें. यहां मेरा आशय एक विशेषज्ञ-दर्शक से न हो कर आमफहम इनसान से है जो बहुत बार यह समझ नहीं पाता कि वह जो देख रहा है वह क्या है. ऐसा लगता है मानो वह उस भाषा में भला कैसे संलग्न हो सकता है जिसे वह नहीं समझता-जानता. क्या आप को लगता है कि विद्यालयों व समाज में कलाओं को ले कर जो रवैया, रुढि़यां रही हैं और जिस हल्के तरह से इसे व्यवह्त कर लिया जाता है उस में असल समस्या छिपी है? कि सच्चे कला-संस्कार विकसित ही नहीं हो पाते?
9.
मणि कौल की व अन्य ऐसी कृतियों की दुर्बोधता पर एक दूसरे कोण से पुनरपि लौटें. हैराल्ड रोज़नबर्ग/ Harold Rosenberg ने 1964 में एक कला परिसंवाद में आलोचना की प्रकृति को ले कर उठे सवालों के जवाब में कहा था: \”To evaluate a modern painting one needs to carry it back to its creator. Taken by itself no single work can be adequately appraised. The connoisseurship which the public expects in its critics cannot be achieved in respect to contemporary works unless the artist is present in a continuum of ideas and practice.\”
आप उपर्युक्त बात को अपने तईं कैसे लेना व समझना चाहेंगे?
गांधी लिखते हैं: ’’इसकी क्यों ज़रूरत हो कि चित्रकार स्वयं अपनी पेंटिंग मुझे समझाएं, पेंटिंग ही स्वयं अपनी बात मुझ तक क्यों नहीं पहुंचा सके? मैंने वेटिकन में क्रास पर लटके ईसा की एक मूर्ति देखी, जिसे देख कर मैं स्तब्ध रह गया. बेलूर में एक प्रतिमा देखी जो मुझे अलौकिक लगी, जिस ने मुझ से ख़ुद बातें की, बिना किसी समझाने वाले की मदद के.’’
रोज़नबर्ग के बरक्स आप गांधी के विचारों पर क्या कहना चाहेंगे?
10.
रामकुमार ने अपनी सन् 1950 की नोटबुक में चित्र-प्रदषर्नियों के सन्दर्भ में लिखा है: It was imperative to talk about one’s own work in those days and even today perhaps it is so…” ऐसा लगता है कि उनके वाक्य में गहरी पीड़ा छिपी है. अपने काम पर बात करना या उसे समझाना आपको कैसा लगता है? क्या एक कलाकार अपनी कृति-मर्म पर ऊंगली रख सकता है? क्या एकदर्शक/पाठक कृति-मर्म तक पहुंच सकता है? इसमें उसके अनुभव भी सहायक होंगे. एक रचनाकार की कृति का ऐसा मर्म जिसे रचनाकार ने भी न जाना हो उसे भी पाठक या दर्शक अपने अनुभव से पा लेता या देख लेता है. कृति का मर्म केवल एक बिंदु नहीं है. कृति का मर्म एक विस्तार है. विस्तार के छोर पर ही लगता होगा कि पहुँच गये. विस्तार को पार पाना ?
11.
क्या हम हर बार सचमुच कुछ भिन्न देखते हैं या एक भिन्न रीति से उसकी केवल व्याख्या करते हैं जिसे/जो देखते हैं? मेरा झुकाव पहले कहे की ओर है, आपका? —क्या व्याख्या करना सोचना है, कुछ करना है; और देखना एक अवस्था (state) है? हो सकता है आंख एक ताला हो हर कुंजी के लिए.
अगर देखना एक अवस्था (to have or to be) है तब यह scale of observation और frame of reference के भीतर ही सम्भव है, उससे आज़ाद नहीं. भूमियों के आरोहण, अवरोहण या स्थैर्यावस्था को स्वीकार करने पर भी वह क्या है जो अवस्था (-भेद) के पीछे काम कर रहा होता है? अगर यह अनुभूति की माया है जिसके चलते रस्सी में सांप नज़र आ सकता है या सांप में रस्सी या दोनों में धागा?–तब क्या अनुभोक्ता पर दारोमदार आ टिकता है? अनुभोक्ता का देखना में क्या, कैसे व किन रीतियों से संघनित है का सवाल शायद अधिक अर्थपूर्ण नहीं. (क्या महज़ इसलिए कि उसके देखने में विषय अन्तर्भूत है?) असली मसला चैतन्य का है–भले फि़ल्म (विषय, अन्य) हो या उसे देखने वाला दर्षक (विषयी, आत्म). क्या यह बौद्धिक रूप से समझने के परे है कि द्रष्टा और दृष्य एक है–चैतन्य है. ज़माना पहले वैज्ञानिकों ने यह क्रान्तिकारी खोज की थी कि प्राणी की एक व्यावर्तक खूबी यह है कि वह दूसरे का दर्द महसूस कर सकता है, जान सकता है. (क्या हम फि़ल्म का सत्य/अर्थ/भाव महसूस कर सकते हैं? जान सकते हैं?) अर्थात् the point of sensibility अगर दोनों (विषय, विषयी. चित्र, दर्षक) में संवेदनशीलता का तत्व उभयसामान्य है तब मणि कौल की फि़ल्मों के सन्दर्भ में यह आपके लिए क्या है? बल्कि क्या देखने को परिभाषित किया जा सकता है–खास तौर पर देखने को एक कलाकार के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में और एक सह्दय रसिक के रूप में? बल्कि हो सकता है कि तीनों एक ही हों और ये तीनों कोटियां या विभेद अप्रासंगिक ही हो?
आपके लिए देखना क्या है?
12.
एक फि़ल्मकार को फि़ल्म बनाते हुए देखना, फि़ल्मकार की रचना-प्रक्रिया व तकनीक में झांकने जैसा भी है. क्या आपने मणि कौल को शूटिंग व एडिटिंग करते हुए देखा है? अगर हां, तब उन्हें उपर्युक्त कामों में संलग्न रहते हुए देखना किस तरह का अनुभव रहा?
फोटो : शाश्वत गोपाल |
मणि कौल ने “नौकर की कमीज” और दो कहानियों ‘बोझ’ और शायद ‘पेड़ पर कमरा’ पर फिल्में बनाईं हैं. नौकर की कमीज की शूटिंग मैंने देखी है. एडीटिंग करते नहीं देखा. शूटिंग देखने का यह मेरा पहला मौका था. ‘नौकर की कमीज’ की दो घंटे चालीस मिनट की शूटिंग हुई होगी. एडीटिंग के बाद एक घंटे बीस मिनट की फिल्म बची. फिल्म की लंबाई फँडिंग की शर्तों मे शायद थी. मणिकौल ने एडिटंग करने के लिए इतनी लंबी शूटिंग नहीं की होगी. शूटिंग स्क्रिप्ट के अनुसार हुई थी. बिना ऐडिटिंग की फिल्म के लिए चेनल होना चाहिये. चौबीस घंटे चलने वाली फिल्म शायद न बनें. यह महँगा काम है. समय की दृष्टि से छोटी फिल्म दर्शक की सहूलियत भी है.
फिल्म के नायक भिलाई के पंकज मिश्र हैं. ऩायिका अनु जोसेफ दिल्ली की हैं. मणिकौल ने शूटिंग शुरू होने के पहले अनु को हफ्ते भर के लिए मेरे घर पर रहने के लिए भेज दिया था. सुधा, हम लोगों के साथ वे रहीं. मुझे शक होता है कि मणिकौल को यह लगता होगा कि ‘नौकर की कमीज’ का संतू बाबू मैं ही हूँ. और ‘नौकर की कमीज’ मेरी थोड़ी आत्मकथा है. अनु हम लोगों को समझ लेना चाहती थी. राजनाँदगाँव में उन्होंने हमारे छूट गये घर को देखा. जर्जर और बँटवारा हो जाने से सूना. वहाँ कोई नहीं रहता था. उनकी टीम के मधुअप्सरा, गुरुपाल सिंग से अच्छा परिचय हो गया था. रिश्ते जैसा परिचय. शूटिंग के पहले मुम्बई जाकर मैने टीम के सामने स्क्रिप्ट को पढ़ा जो टेप हुआ और टीम को बाँटा गया.
13.
आपके उपन्यास ’’नौकर की कमीज़’’ पर मणि कौल ने फि़ल्म बनाई है. इस फि़ल्म के बारे में आलोचकों का मत है कि यह मणि कौल की दूसरी फि़ल्मों व वृत्तचित्रों से कई मायनों में भिन्न है और उनके सिनेमा में एक अलग-सा प्रस्थान-संकेत भी. यह फि़ल्म देखते हुए क्या आपके भीतर ’’नौकर की कमीज़’’ का रचयिता भी बराबर सक्रिय रहा अथवा आप अपने रचयिता से निर्बन्ध हो कर बतौर एक दर्षक फि़ल्म देख पा रहे थे? दूसरे शब्दों में, ’’नौकर की कमीज़’’ देखने का आपका फि़ल्मानुभव क्या रहा है?
14.
’’नौकर की कमीज़’’ की पटकथा भी आपने ही लिखी थी. पटकथा को लेकर मणि कौल और आपके बीच किस तरह का संवाद व साझा होता रहा और पटकथा लिखते समय मुख्यतः आपका ध्यान किन तत्वों पर ज़्यादा एकाग्र रहा? मसलन, यह अपने उपन्यास में से एक नयी कृति-रचना जैसे रहा या अपेक्षाकृत सम्पादन व किंचित् संशोधन-परिवर्तन जैसा रहा या आप दोनों की आपसी बातचीत से यह पटकथा बनी या यह एक भिन्न अभिव्यक्ति-रूप सृजित करने जैसा रहा या पाठ और दृष्य-संरचना के आपसी तनाव पर आपकी कल्पना का अवधान रहा या परस्पर भिन्न दो माध्यमों–एक में भाषा केन्द्र में है, एक में चाक्षुषकता–के अन्तरंग संवाद पर, इत्यादि.
पटकथा को लेकर मणि कौल की अपनी दृष्टि व व्यवहार रहा है. वे कहते हैं–’’जैसी फि़ल्म लोग बनाते हैं उनके लिए…..स्क्रिप्ट में पूर्णता का विचार निहित है और स्क्रिप्ट में ही जक्स्टापोजीशन का विचार भी है. मणि कौल स्क्रिप्ट के सन्दर्भ में उन संयोगों की भी बात करते हैं जो शूटिंग करते समय घट जाते हैं, जो कि पहले से प्लाण्ड नहीं थे. वे कहते हैं– ’’स्क्रिप्ट लिखते समय स्क्रिप्ट राइटर के संग डायरेक्टर ने या खुद स्क्रिप्ट राइटर ने बहुत सोचकर लिखा कि जब लड़की पंखा चलायेगी तब उसके बाल ऐसे-वैसे होंगे. (लेकिन यहां) फर्क इसलिए है कि जो चीज़ शूटिंग के दौरान संयोग से पैदा हो रही है, उसका उस परिवेश और सन्दर्भ में एक बहुत सत्य है. और ठीक वही चीज़ कि स्क्रिप्ट राईटर को यह ख्याल आ गया, लड़की नाराज़ दिख रही है, वह पसीने से लथपथ हो रही है और पंखा हिला रही है, इसलिए उसके बाल ऐसे-वैसे हो रहे हैं. यह उस स्क्रिप्ट राइटर के लिए केवल आइडिया है, एक ख्याल है बस. और क्या होगा कि अर्थ का सारा दारोमदार वह इस ख्याल से जोड़ देगा तो निर्देषक इसे इस तरह से रगड़ देगा कि किसी तरह उसका यह अर्थ पैदा हो जाये कि वह नाराज़ है जबकि हो रहा है बिल्कुल संयोग से, जब आप शूटिंग कर रहे हैं.’’
जब आपने ’’नौकर की कमीज़’’ पर आप द्वारा लिखी गयी पटकथा पर फि़ल्म देखी तब पूरी फि़ल्म के सन्दर्भ में अपनी पटकथा को लेकर आपका क्या विचार बना? मणि कौल ने आपकी कृति के अलावा अन्य जिन लेखकों की कृतियों पर फि़ल्म बनाई है, उन कृतियों को भी आपने पढ़ा होगा और उन पर बनी फि़ल्मों को भी सम्भवतः देखा होगा. दूसरे शब्दों में, मणि कौल के सिनेमा में आप पटकथा की क्या व किस तरह की भूमिका देखते हैं?
15.
’’नौकर की कमीज़’’ फि़ल्म के कौन से दृश्य-फ्रेम आपको सबसे प्रिय लगते हैं और किन स्थलों को लेकर आप अनाश्वस्त महसूस करते हैं?
संपादक, अनुवादक, रचनाकार, कलाओं पर विशेष कार्य
चिह्न (कविता-संग्रह) प्रकाशित, सम्मान और फेलोशिप अनेक
todaiya@gmail.com
इस गंभीर और सुरूचिपूर्ण संवाद में मणि कौल जी के फिल्म दर्शन के साथ ही फ़िल्म और साहित्य के अंतर्संबंधों को समझने के कई गवाक्ष खुलते हैं।
इस संवाद को इत्मीनान से पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। साथ ही सिनेमा संबंधी ज्ञान का विस्तार भी।
गंभीर बिंदुओं पर सहजता से हो रहे संवाद को पढ़ना एक अभिनव संगीत सुनने जैसा ही है, यदि डूबकर उसे पढ़ा जाय। प्रश्नों में उपस्थित बहुपठनियता , विविध संदर्भ reference और range – पिकासो से लेकर एम. एफ. हुसैन तक , रोजेनबर्ग से गांधी तक —- इस संवाद को समृद्ध करती है। यहां सिनेमा के शिल्प और संरचना को समझने कई सूत्र स्पष्ट हैं।
दो कवियों की यह बातचीत एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहां आख्यान – विचार – दर्शन – कथा – पटकथा – लेखक – फिल्म फिल्मकार -दर्शक – एक विशिष्ट लय में लयमान हैं।