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Home » विनोद पदरज की कविताएँ

विनोद पदरज की कविताएँ

आज हिंदी कविता का बेहतरीन पारम्परिक साहित्यिक केन्द्रों से दूर लिखा जा रहा है. ‘सीकरी’ से नहीं सीकर से कविताएँ आ रही हैं. सवाई माधोपुर में इस समय हिंदी कविता के दो महत्वपूर्ण कवि रहते हैं – प्रभात और विनोद पदरज. विनोद पदरज को पढ़ना कविता की स्थानीयता को पढ़ना है. विनोद की कविताएँ अपने ‘लोकल’ का पता देती चलती हैं. विनोद की ये दस कविताएँ दस बार भी पढ़े तो लगता है कि अभी कुछ रह गया है जो पकड़ में नहीं आया. अच्छी कविताएँ आपको प्यासा रखती हैं जिससे बार-बार आप वहां लौटें. कवि के शब्दों में कहूँ तो ‘सुंदर’ और ‘मजबूत’ कविताएँ.

by arun dev
May 31, 2018
in कविता
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विनोद पदरज की कविताएँ

(पेंटिग : Yashwant Shirwadkar)

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विनोद  पदरज  की  कविताएँ 

पानी

आदमी ने अपनी सूरत
पानी में देखी होगी
पहली बार
फिर दौड़ा दौड़ा बुलाकर लाया होगा जोड़ीदार को
तब दोनों ने साथ साथ देखी होगी अपनी सूरत
पहली बार
और खुशी में पानी एक दूजे पर उछाल दिया होगा
प्रतिबिम्ब हिल गया होगा
दोनों को एकमेक करता

आदमी भूल गया
पर पानी को अभी तक याद है.

 

मरुधरा

छोटी बुंदकियों जैसी पत्तियाँ
या फिर मोटी गूदेदार
या फिर अनुपस्थित सिरे से
तना ही हरा कंटीला
वनस्पतियाँ जानती हैं मरुधरा को

ऊँट जानता है
चलना है कई कोस
धर मजलां धर कूचा चलना है अविराम
धंस जाएंगे पैर रेत में जल जाएंगे
पानी वहां मिलेगा जहां दिखाई देंगे पक्षी
ऊँट जानता है

स्त्रियां जानती हैं मरुधरा को
वे जोहड़ से झेगड़ भरकर लाती हैं
नहाती हैं खरेरी खाट पर
नीचे परात रखकर
फिर उस पानी में कपड़े धोती हैं
और बचे को
जांटी की जड़ों में डाल देती हैं
उन्हें पता है
पानी का पद यहाँ पुरूष से ऊँचा है
आना तुम भी जरूर आना मरुधरा में
पानी कहीं नहीं है
पर बानी में पानी बोलता है.

 

ऊँट की सवारी

ऊँट की सवारी आसान नहीं
खड़े ऊँट पर चढ़ नहीं सकते हम
बैठे पर चढ़ते हैं
पहले वह आगे के पैर उठाता है
हम पीछे खिसकते हैं
उसका कोहान थामे
फिर वह पीछे के पैर उठाता है
हम आगे खिसकते हैं
उसका कोहान थामे
फिर हुमच हुमच कर चलता है वह
हम थोड़ी दूर चलकर उतर जाते हैं

हिन्दी में केवल निराला थे
जो खड़े ऊँट पर चढ़ सकते थे
बिना काठी बिना रकाब
बिना कोहान थामे
और सीमांत तक दौड़ाते थे
ऊँट थक जाता था
पर निराला सांस नहीं खाते थे
पानी ऊँट के भीतर नहीं
निराला के भीतर था.

 

यात्रा

सुबह से चला हूं
थक गया हूं
सूर्य सिर पर आ गया है

सोचता हूं ऊँट को जैकार दूं
काठी खोल दूं चारा नीर दूं
दुपहरी कर लूं खुद भी
टांगे सीधी कर लूं थोड़ी देर
जांटी का एक गाछ दिख रहा है
अदृश्य कोयल कूक रही है

तीसरे पहर फिर चलूंगा
सूर्य शिथिल होने पर
शाम तक पहुंच जाऊँगा
वहां
जहां का ऊँट को भी इंतजार है
कि कोई चूड़ों वाली
उसे चारा नीरेगी पानी पिलाएगी थपथपाएगी
प्यार से.

 

बेटियां

पहली दो के नाम तो ठीक ठाक हैं
उगंती फोरंती
तीसरी का नाम मनभर है
चौथी का आचुकी
पांचवी का जाचुकी
छठी का नाराजी

तब जाकर बेटा हुआ
मनराज

गर शहर होता तो
आचुकी जाचुकी नाराजी मनभर
पैदा ही नहीं होतीं
मार दी जातीं गर्भ में ही
यह बात आचुकी जाचुकी नाराजी मनभर नहीं जानती
वे तो भाई को गोद में लिये
गौरैयों सी फुदक रही हैं
आंगन में.

 

मां

तीनों बेटे शहर में हैं
मां गांव में
बड़ा बेटा कहता है
मां का मन गांव में ही लगता है
मंझला बेटा कहता है
मां का मन गांव में ही लगता है
छोटा बेटा कहता है
मां का मन गांव में ही लगता है

एक बार गई थी हौंसी हौंसी,बड़े बेटे के यहां
और पन्द्रह दिन में लौट आई थी
एक बार गई थी हौंसी हौंसी, मंझले बेटे के यहां
और पांच दिन में लौट आई थी
एक बार गई थी हौंसी हौंसी,छोटे बेटे के यहां
और दो दिन में ही लौट आई थी

अब मां भी कहती है
उसका मन गांव में ही लगता है

यह दीगर बात है
कि हर महीने पेंशन मिलते ही
तीनों बेटे गांव आ जाते हैं
मां को संभाल जाते हैं.

 

स्त्री

मां बहन बुआ बेटी पत्नी को जानना
मां बहन बुआ बेटी पत्नी को जानना है
स्त्री को नहीं

स्त्री को जानने के लिए
स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है

और स्त्री के पास स्त्री की तरह
केवल स्त्री ही जाती है

जैसे मेरी बेटी
जब भी आती है
यकीनन एक बेटी मां के पास आती है
पर एक स्त्री भी
दूसरी स्त्री के पास आती है
दुख में डूबी हुई
आंसुओं में भीगी हुई
हंसी में खिली हुई

मैं जब भी किसी स्त्री के पास जाता हूं
अपना आधा अंश छोड़कर जाता हूं
तब जाकर स्त्री की हल्की सी झलक पाता हूं.

 

कौन

एक औरत अपने बच्चे को पीट रही है
बच्चा दहाड़ें मार कर रो रहा है
ज्यादा से ज्यादा क्या किया होगा उसने
दुग्ध पान के समय दांत गड़ा दिया होगा
पर ऐसे में कोई मां इस तरह नहीं पीटती
जिस तरह पीट रही है वह
जैसे मार ही डालेगी अपने कलेजे के टुकड़े को
और बच्चा
मार खाकर भी चिपटे जा रहा है मां से
आखिर पीटते पीटते थक जाती है
और बच्चे को छाती से भींच कर
दहाड़ें मारने लगती है इस कदर
जैसे धरती फट जायेगी

कौन है जो उसे पीटे जा रहा है लगातार
कौन है जिससे चिपटी जा रही है वह.

 

चाँद

कई लोग गए रहे वहाँ
पर वहाँ चाँद तो क्या चाँद की परछाई तक नहीं मिली
एक ऊबड़ खाबड़ भू भाग था
जलहीन वायुहीन
बुढ़िया अपना चरखा लेकर चंपत हो गई थी
थक हार कर वे पृथ्वी पर लौट आए
जहाँ से वह उतना ही प्यारा दिख रहा था
बुढ़िया अपना चरखा कात रही थी यथावत
औरतें उसे देखकर व्रत खोल रही थीं
ईद मनाई जा रही थी
खीर ठण्डी की जा रही थी चाँदनी में
सुई में धागा पिरोया जा रहा था
एक रोमान पसरा था पृथ्वी पर
अद्भुत शीतलता थी प्रौढ़ प्रेम की तरह
समुद्र उसे देखकर उमगा पड़ता था
माँ अपने बेटे को चाँद कह रही थी
प्रेमी अपनी प्रेमिका का चेहरा हाथों में लेकर चूमता था
और मेरा चाँद कहता था
यह चाँद
प्राणवायु से दीप्त सजल सुंदर सम्मोहक
प्यारा प्यारा चाँद था.

 

प्रिय बकुल के लिए

मैं प्लेट में चाय डालकर पीता हूं
पर प्लेट में नहीं
रकाबी में पीता हूं

घर से निकलता हूं
तो जूतों के फीते बांधता हूं
पर जूतों के फीते नहीं तस्मे बांधता हूं
बेल्ट नहीं
कमरपट्टा कसता हूं

मैं होटल में धर्मशाला में रुकता हूं
पर होटल धर्मशाला में नहीं
सराय में रुकता हूं

मुझे पसंद है आदाब
जर्रा नवाजी
बजा फरमाया
मैं धन्यवाद कहता हूं
पर धन्यवाद नहीं शुक्रिया कहता हूं

मुझे साढ़ू शब्द बिल्कुल पसंद नहीं
पर हमजुल्फ पर फिदा हूं

मुझे मौलवी से उतनी ही नफरत है
जितनी पण्डित से

बादशाह को अर्दब में लाना
मेरा मकसद है

मुझे हुस्न-ओ-इश्क की शायरी बकवास लगती है
यह भी क्या बात हुई
कि आदमी खुद को इश्क कहे
यानी कि रूह
और औरत को हुस्न कहे
यानी कि जिस्म

सालों तक किताबों के जिल्द बंधवाता रहा
पर उस दिन हैरत में डूब गया
जिस दिन एक हकीम ने मेरी त्वचा देखकर कहा
जिल्द देखकर आदमी की सेहत का पता लगता है
बस तभी से मैं औरतों से कहता हूं
जिल्द से सुंदर होती है किताब
आदमियों से कहता हूं
सुंदर और मजबूत जिल्द के भीतर जो किताब है

उसकी रूह को बांचा जाना ज्यादा जरूरी है.

_____________________ 

विनोद पदरज
13 फरवरी 1960 (सवाई माधोपुर )

कोई तो रंग है (कविता संग्रह),अगन जल (कविता संग्रह)
राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए हिन्दी कवि अम्बिका दत्त पर केन्द्रित मोनोग्राफ  का सम्पादन.सम्पर्क
3/137, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान 322001
मो. 9799369958

Tags: विनोद पदरज
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