विशाखा मुलमुले की कविताएँ
१)
विरह में अनुराग
मरु भूमि की ओर बसा है प्रेयस
सह्याद्री* से घिरी है प्रेयसी
टकरा कर वहीं पुण्य भूमि में
बरस जाते कामनाओं के बादल
चेरापूंजी के उदे रीते बादलों को
जब प्रेयसी ने व्यथा सुनाई
डबडबाये बादलों के नयन से बूंदें बरबस छलक ही आईं
नगरवासियों ने कहा देखो;
इस वर्ष मुला-मूठा ने यमुना की शक्ल पाई
दाह के प्रसंग से भी
उठते हैं धुँए सम बादल
इक ही तरह धरा से जल सोखते हैं
चाहे बड़ हो वह या की कीकर
एक ही चन्द्र है नील गगन में
एक नीली धरती पर है जीवन
इक मन चन्द्र के आलोड़न से
थिरक उठता ओर-छोर में पसरा नीला जल
(*-भारत के पश्चिमी तट पर स्थित पर्वत श्रृंखला)
२)
दृश्य
भरबाँह गले मिल रही हैं बारिश की बूंदें
पेड़ों से, ऊसर पड़े खेतों से
म्लान पड़ी दूबों से
बूंदे कर रहीं है तरबतर
नख से शिख तक गाछ को
हवा भी दे रही संगसाथ कर रही चुहल
झोंके संग लगा रही गुदगुदी
और थिरक रहा तरुवर
टहनी पर पाखी बैठे दम साध
भीगे पंखों की पालथी बांध
झूल रहे वृक्ष के झूले में
नन्हे पंजों से झूला थाम
पल में अंधियारा
पल में उजियारा
पल में पवन गतिहीन
पल में पवन गतिमान
कभी गरज-कभी बरस
कभी धड़क-कभी कड़क
नीड़ में तीन हरित चित्तेदार अंडों को अब
काग युगल बारी-बारी रहे हैं ताक
इस वर्ष पावस है पुरजोर
बसाया नीड़ तीन शाख के जोड़ पर
धरा से ऊँचाई भी नहीं कुछ ख़ास
सुरक्षित रहेगा अपना जहान
बीच-बीच में संगिनी से कह रहा है काग
उधर कुछ दूर बैठी कोकिला भी
इधर बात पर धर रही है कान.
३)
प्रकृति, बारिश, स्त्री
घनघोर काली घटायें
उमड़ घुमड़कर छा रहीं थी
बस बारिश होने को थी
स्त्रियों ने रोका बारिशों को
स्वजनों के नियत स्थलों में पहुँचने तक
कभी रोका उसे डोरी पर टंगे कपड़ों के ध्यान में
कभी न बरसने की मिन्नत की छतरी की अनुपस्थिति में
कभी बस दो सेकेंड ठहरने कहा पतीले में दूध के बसने तक
इसी तरह ना-ना छोटे बड़े कारणों से उन्होंने रोका बारिशों को
घटायें सुनती भी रही किसी ना किसी का कहना
फिर एक दिन अचानक स्त्रियों के निद्रा काल में
बादल बरसे ,
कुछ, यूँ बरसे
जैसे साहूकार ने वसूला कर्ज़ – असल, मुद्दल, सूद समेत
जैसे हो बादल का फटना
खोजते हैं हम इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण
पर होता असल में यह मानवीय कारण, स्त्रैण कारण
क्योंकि हम ही है प्रकृति
हमसे ही है प्रकृति
ठीक इसी तरह रोकतीं है स्त्रियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिशें
आँखों की कोर में
अचानक कभी ये बारिशें
कारण बिना कारण
बीती किसी बात पर ,
मौसम बेमौसम बिना किसी पूर्वानुमान के
असल, मुद्दल, सूद समेत बरस पड़ती हैं
और तुम कहते हो स्त्रियाँ रोती बहुत हैं !
४)
नदी के तीरे
किशोरवय बेटा पूछता है अक्सर!
कैसे देख लेती हो बिन देखे
कैसे सुन लेती हो परिधि के बाहर
कैसे झाँक लेती हो मेरे भीतर
पिता तो देखकर भी अनदेखा
सुनकर भी अनसुना
और पहचान कर भी अनजान बनें रहते हैं
मैं कहती हूँ, पिता है पर्वत समान
जो खाते है बाहरी थपेड़े
रहते हैं मौन गम्भीर
देते हैं तुम्हें धीर
मैं उस पर्वत की बंकिम नदी
टटोलती हूँ तुम्हारे समस्त भूभाग
आजकल की नहीं यह बात
इतिहास में है वर्णित
सभ्यताएं पनपती है नदी के तीरे !
५)
इंतज़ार
जब तक तुम उपस्थित नहीं हो
तुम्हारे द्वारा दिखाया गया हर एक
दृश्य, श्रव्य है
और तुम्हारी कही हर एक बात
दृश्य !
श्रव्य और दृश्य की तस्वीरें उकेरती मैं
इंतज़ार के जलाशय में
खुली आँखों वाली एक
सुनहरी मछली हूँ
जिसके नेत्रों में है
भरोसे की पारदर्शी झिल्ली
कभी इंतज़ार की सरहद लांघ
मैं ध्वनि तरंगों से माप लूंगी
हमारे मध्य की दूरी और
चल पड़ूँगी तुम्हारे होने की दिशा में
बहाव के विपरीत
दक्षिण से उत्तर की ओर !
६)
यह बरसात का मौसम है
बरसात का मौसम है
रह-रह बूंदें बरस रही हैं,
मिट्टी महक रही है
हर तरफ़ हलचल हो रही है
भुट्टे के दाने फूट रहे हैं
कोयले की आग में लिपट झूम रहें हैं
नालियाँ बजबजा रही है
मक्खियाँ भिनभिना रहीं हैं
सड़कों पर रेलमपेल है
पैदल राही पर कीचड़ उड़ेल है
छप्पर के नीचे कोई बच रहा है
कुत्ता ठेले की नीचे ऊंघ रहा है
हरी तरकारी सस्ते में बिक रही है
टमाटर की शक्ल दिन ब दिन बिगड़ रही है
समोसे, चाट की दुकानों में बहार है
चाय बांटता छोटू हर पल तैयार है
कितना कुछ घट रहा है
हर छोटे-बड़े दृश्य में
और तुम बैठे हो ऊबे से
चेहरा खिड़की से टिकाए
घर के भीत में
तुम यह मत सोचो की पिछली बरखा
कि तरह, ही तो यह बरखा है
तुम ना जानो हर बरखा
का पानी दूजा है
वह नदी, जो चली थी सागर से मिलने
वो अलग थी
वह नदी, जो सागर से जा मिली वो
अलग है
कितनी तो नदियाँ लुप्त हुई हैं इस बीच
कितनी तो बीच सफ़र नाले में तबदील हुई
कितने पहाड़ों ने अपना सीना चीर डाला
अपनी बर्फ़ की चादर को उतार डाला
कितनी ही नदियों में फिर बाढ़ आई जो ,
हम इंसानों को डराते हुए सागर से मिल पाई
अंततः सागर से मिलकर जल वाष्पित हुआ
फिर से हमें जीवन देने इस वर्षा का सृजन हुआ
तो भीगो कि यह बरसात का मौसम है ….
7)
माँ – मायके की नदी
एक नदी
एक नदी को पार कर
मिलने जाती है एक और नदी से
जैसे भागीरथी
अलकनंदा से गंगा बन
मिलती है यमुना से
मैं मुला-मूठा
इस ग्रीष्म में न सही
बारिश के मौसम में ही
अरपा नदी को पार कर
जा मिलूँगी हसदेव से !
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मुला–मूठा: पुणे की नदी
अरपा: बिलासपुर की नदी
हसदेव: कोरबा की मुख्य नदी
विशाखा मुलमुले मूलतः मराठी भाषी हैं, हिंदी में रचनात्मक लेखन करती हैं, कविताएं यत्रतत्र प्रकाशित हुईं हैं. vishakhamulmuley@gmail.com |