टर्की के पास डूबे सीरियाई बच्चे ‘आलैन’ की तस्वीर ने पूरी दुनिया को विचलित किया है. इस दुर्घटना में उसका भाई ग़ालिब और माँ रेहाना की भी मृत्यु हो गयी थी. हिंसा और युद्ध के सबसे पहले शिकार मासूम ही होते हैं. धार्मिक कट्टरता के भी सबसे पहले शिकार वे ही होते हैं. पूरे विश्व में ‘आलैन’ के लिए शोक सभाएं की गयीं, मार्मिक चित्र बनाये गए और कविताएँ लिखीं गयीं.
हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने ‘आलैन’ के लिए एक कविता लिखी है. कविता मार्मिक है और बेचैन करती है.
आलैन
विष्णु खरे
हमने कितने प्यार से नहलाया था तुझे
हमने कितने प्यार से नहलाया था तुझे
कितने अच्छे साफ़ कपड़े पहनाए थे
तेरे घने काले बाल सँवारे थे
तेरे नन्हें पैरों को चूमने के बाद
जूतों के तस्मे मैंने ही कसे थे
गालिब ने सताने के लिए तेरे गालों पर गीला प्यार किया था
जिसे तूने हमेशा की तरह पोंछ दिया था
और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया
दूसरे किनारे की तरफ़ देखते हुए तेरी आँख लग गई होगी
जो बहुत दूर नहीं था
जहाँ कहा गया था तेरे बहुत सारे नए दोस्त तेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं
उनका तसव्वुर करते हुए ही तुझे नींद आ गई होगी
क़िश्ती में कितने खुश थे तू और गालिब
अपने बाबा को उसे चलाते देख कर
और अम्मी के डर पर तुम तीनों हँसते थे
तुम जानते थे नाव और दरिया से मुझे कितनी दहशत थी
तू हाथ नीचे डालकर लहरों को थपकी दे रहा था
और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे देख कर कोई भी तरद्दुद में पड़ जाएगा कि इतना ख़ूबरू बच्चा
ज़मीं पर पेशानी टिकाए हुए यह कौन से सिजदे में है
अपने लिए हौले-हौले लोरी गाती और तुझे थपकियाँ देती
उन्हीं लहरों को देखते हुए तेरी आँखें मुँदी होंगी
तू अभी-भी मुस्कराता-सा दीखता है
हम दोनों तुझे खोजते हुए लौट आए हैं
एक टुक सिरहाने बैठेंगे तेरे
नींद में तू कितना प्यारा लग रहा है
तुझे जगाने का दिल नहीं करता
तू ख्वाब देखता होगा कई दूसरे साहिलों के
तेरे नए-नए दोस्तों के
तेरी फ़ूफ़ी तीमा के
लेकिन तू है कि लौट कर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे क्या इतनी याद आई यहाँ की
कि तेरे लिए हमें भी आना पड़ा
चल अब उठ छोड़ इस रेत की ठंढक को
छोड़ इन लहरों की लोरियों और थपकियों को
नहीं तो शाम को वह तुझे अपनी आग़ोश में ले जाएँगी
मिलें तो मिलने दे फ़ूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर
अपन तीनों तो यहीं साथ हैं न
देख गालिब मेरा दायाँ हाथ थामे हुए है तू यह दूसरा थाम
उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान
हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे
आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे
चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन.
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(9 फरवरी, 1940, छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश)
कविता संग्रह
1. विष्णु खरे की बीस कविताएं : पहचान सीरीज : संपादक : अशोक वाजपेयी : 1970-71
2. खुद अपनी आंख से : जयश्री प्रकाशन,दिल्ली : 1978
3. सबकी आवाज के परदे में : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1994, 2000
4. पिछला बाकी : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. काल और अवधि के दरमियान : वाणी प्रकाशन : 2003
6. विष्णु खरे – चुनी हुई कविताएं : कवि ने कहा सीरीज : किताबघर, दिल्ली : 2008
7. लालटेन जलाना (कात्यायनी द्वारा चयनित कविताएं) : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008
8. पाठांतर : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008 आदि
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