गुंटर ग्रासविष्णु खरे |
गुंटर ग्रास की दो कविताएँ
मेरे पास जो भी था सब मैंने बेच दिया, सारा का सारा
जो भी मेरा था अब बिक चुका है, सारा का सारा.
पाबंदी से
एक
(‘जीभ दिखाना’ के काव्य-खंड से )
दो
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जर्मन ज़मीर का नक्कारची
विष्णु खरे
अक्सर ठीक ही कहा जाता है कि किसी फिल्म के कथानक को तो एक स्वीकार्य या बेहतर कहानी-उपन्यास में बदला जा सकता है, एक विख्यात कहानी या उपन्यास को बड़ी फिल्म में रूपांतरित कर पाना हमेशा संभव नहीं होता. इसके उदाहरणों और कारणों पर सिनेमा के विदेशी अध्येताओं में लगातार बहस होती आई है. कहा जाता है कि एक महान कथा अपने-आप में एक बड़ी फिल्म भी होती है, वह मनोवैज्ञानिक ही क्यों न हो, पाठकों की सभी ज्ञानेन्द्रियों तथा कल्पनाशीलता पर वह इतना गहरा निजी असर छोड़ चुकी होती है कि वह उनके किसी भी दूसरे रूपांतर को स्वीकार नहीं करते. उधर कुछ उपन्यास अपने विस्तार और गहराई में इतने जटिल होते हैं कि घुटने टेक कर क़ुबूल कर लिया जाता है कि उन पर अच्छी फिल्म बन ही नहीं सकती.
किसी भी उपन्यास पर अक्षरशः वैसी ही फिल्म बनाना असंभव है, वैसी कोशिश करना सिनेमा और साहित्य दोनों का अपमान करने जैसा है. ’टीन का ढोल’ वैसे भी कोई आसान उपन्यास नहीं है, वह शुरू 19वीं सदी के अंत में में होता है और ख़त्म यदि होता भी है तो हिटलर और नात्सियों के ज़माने और दूसरे विश्व युद्ध के बाद के 1945 में. लेकिन यह दर्शकों और शायद स्वयं ग्रास का सौभाग्य था कि 1970 के जर्मनी में तब राइनर वेर्नर फस्बिंडर, वेर्न्रर हेर्त्सोग और विम वेंडर्स सरीखे प्रतिभावान युवा फिल्म निदेशकों की पीढ़ी मौजूद थी जिसके एक अन्यतम सदस्य थे फोल्केर श्लोएन्डोर्फ़, जिन्होंने ‘तीन का ढोल’ पर फिल्म बनाने की जोखिम-भरी चुनौती स्वीकार की.
1978 तक श्लोंडोदोर्फ़ ‘यंग टोएर्लेस’,’ए डिग्री ऑफ़ मर्डर’,’मिखाइल कोल्हस’,’दि लॉस्ट ऑनर ऑफ़ काठारीना ब्लूम’ तथा ‘कू द ग्रास’ सरीखी साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में बनाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल कर चुके थे.श्लोंदोर्फ़ कभी मार्गारेठे फ़ोन ट्रोटा सरीखी महान फिल्म-निदेशिका से विवाहित भी रहे. ग्रास इन सब युवतर फिल्मकारों के काम से वाक़िफ थे.
श्लोंडोर्फ़ की फिल्म का, जो बहुत दूर तक ग्रास के उपन्यास का साथ निभाती है, खुलासा यह है कि वह शुरू होती है 1899 में नायक ओस्कर मात्सेराठ के पोलैंड में रहने वाले जर्मन नाना, पिता,नानी, माँ, के जीवन से. उसका पिता आल्फ्रेड मात्सेराठ, जो पहले विश्व युद्ध में पुरुष नर्स था. बाद में आग्नेस से शादी करता है और एक पंसारी की दूकान चलाता है.
ओस्कर पैदाइश से ही एक बालिग़ दिमाग़ लेकर जनमता है और जब उसे मालूम पड़ता है की बड़ा होकर उसे विरसे में वही दूकान मिलेगी तो वह तीन साल की उम्र के बाद और बड़ा न होने का फैसला कर लेता है. इसके लिए वह एक शारीरिक दुर्घटना को अंजाम देता है. उसके तीसरे जन्मदिन पर उसे वही टीन का ढोल तोहफे में मिलता है जो उपन्यास और फिल्म का शीर्षक है. ओस्कर उसे ज़िंदगी भर नहीं छोड़ता. वह हमेशा के लिए बौना हो जाता है लेकिन उसकी चीख़ इतनी ज़ोरदार और तीखी है कि उससे बड़े-बड़े शीशे चकनाचूर हो जाते हैं. अपने इस चीत्कार और नक्कारे का वह तभी इस्तेमाल करता है जब नाराज़ होकर वह किसी जगह घटना में बड़ा खलल पैदा करना चाहता है.जर्मन में ‘तीन का ढोल बजाना’ मुहाविरे का अर्थ यही है.
यहाँ तक तो कहानी फिर भी आसान है.इसके बाद ओस्कर के प्रेम और परिवार प्रसंग हैं,दूसरे विश्व युद्ध के ज़माने के उसके कारनामे है, नात्सी हैं, हिटलर की मौजूदगी है. इससे ज़्यादा अष्टावक्र उपन्यास और फिल्म बहुत कम होंगे लेकिन आप न तो उपन्यास बीच में छोड़ सकते हैं और न फिल्म. दोनों के अंत में एक अचम्भा भी है जिसे यहाँ बतलाया नहीं जा सकता.कई विवादास्पद बालिग़ ‘अश्लील’ किन्तु अनिवार्य सीन तो हैं ही. कनाडा में इसके कुछ सीन काटे गए, फिर बच्चों की पोर्नोग्राफी दिखने के जुर्म में इसे प्रतिबंधित ही कर दिया गया. अमेरिका में ओक्लाहोमा ज़िले में भी इसी इल्ज़ाम पर फिल्म पर मुक़दमा चला और शहर में उसके कई प्रिंट जब्त कर लिए गए. दोनों जगह सरकार अदालत में हार गई और फिल्म खूब चली. ओक्लाहोमा काण्ड पर एक डाक्यूमेंट्री ही बना ली गई जो फिल्म की तरह अब भी देखी जा सकती है.
इस फ़िल्म का एक दृश्य |
ओस्कर नामक ‘हीरो’ वाली इस फिल्म को 1979 की सर्वश्रेष्ठ विदेशी ऑस्कर मिला और उसी वर्ष फ्रांसिस फ़ोर्ड कोप्पोला की अमरीकी फिल्म ‘अपोकैलिप्स नाउ’ के साथ कान का सर्वोच्च सम्मान ‘पाम द’ओर’.ग्रास के उपन्यास की पहले भी लाखों प्रतियां बिकती थीं, ऑस्कर के बाद और लाखों बिकने लगीं और अभी, मृत्यु के बाद, फिर और लाखों बिक रही हैं और श्लोंडोर्फ़ की फिल्म संसार ,विशेषतः जर्मनी, के सिनेमाघरों और अखबारों में लौट आई है.लेकिन जब वह बन रही थी तब शीत-युद्ध का युग था,जर्मनी का एकीकरण कल्पनातीत था,सो सोवियत रूस और अन्य समर्थक साम्यवादी देशों की आपत्तियों के कारण उसकी शूटिंग असली जगहों और देशों में लगभग न हो सकी,वहाँ उसका प्रदर्शन भी प्रतिबंधित कर दिया गया और खुद (तत्कालीन पश्चिम) जर्मनी में प्रतिक्रियावादी तत्वों ने उसका विरोध किया – सबको मालूम था कि ग्रास और श्लोंडोर्फ़ घोषित रूप से समाजवादी हैं.दोनों की सारी कृतियाँ इसी तरह की हैं.
ग्रास तो आजीवन ईर्ष्या और निंदा के केंद्र में रहे. जर्मनी और यूरोप के एक सबसे बड़े साहित्य-आलोचक आक्सेल राइष-रानित्स्की ने एक बार ग्रास की एक पुस्तक को बीच से फाड़ते हुए अपना एक चित्र जर्मनी के सबसे बड़े साप्ताहिक ‘डेअर श्पीगल’ के मुखपृष्ठ पर छपाया था. कुछ ही वर्षों पहले यूरोप में यह गंभीर विवाद पैदा हुआ था कि ग्रास ने हिटलर की फ़ौज में अपने सैनिक होने को साठ वर्ष तक क्यों छुपाया. उधर कुछ कुछ ओस्कर मात्सेराठ की ज़िंदगी की याद दिलाते हुए ग्रास की बहन ने बुढ़ापे में अत्यंत मर्मान्तक रहस्योद्घाटन यह किया कि अपने बच्चों को बचाने के लिए ग्रास की माँ को दूसरे विश्व युद्ध में कभी फौजियों की वेश्या भी होना पडा था.
पैंतीस बरस बाद भी श्लोंडोर्फ़ की फिल्म कतई पुरानी नहीं पड़ी है, बल्कि वर्तमान भारत के समूचे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी प्रासंगिकता बढ़ ही रही है. उसे देख कर सीखा जा सकता है कि भारत पर और समूचे दक्षिण एशिया पर किस तरह की फिल्म कैसे बनाई जा सकती है. उसे आप देखते क्यों नहीं ? साथ में ग्रास को भी अनिवार्यतः पढ़िए और देखिए कि वह भारतीय समाज और साहित्य के लिए क्या नहीं कर सकता है.
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