ज़मीन की आशा में पानी पर चलना
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ये अभिशप्त हैं.
ये सब एक जहाज़ पर सवार हैं. और ख़ुश फ़हमी में हैं कि जहाज़ का कप्तान उन्हें किसी सुनिश्चित, मुक्तिदायक गंतव्य की तरफ़ ले जा रहा है. कप्तान भी ख़ुश फ़हमी में है. उसे पता नहीं है कि वह महज़ एक अभिशप्त औज़ार बन गया है.
यह वेंटीलेटर पर रखे मरीज़ों की यात्रा है.
दुखी, मरणशील, भयग्रस्त और मुसीबतज़दा मुसाफ़िरों को धोखा भरा विश्वास दिलाया जा रहा है कि सब कुछ ठीक है. वे बस, स्वस्थ होने ही वाले हैं. एक सुंदर भविष्य उनकी राह तक रहा है. जो इसमें सवार हैं वे सोच-समझकर, अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर जहाज़ पर आए हैं. वे जीवनदायी यात्रा की आकांक्षा में निकले हैं. वे नहीं जानते कि उन्हें किसी ज़मीन पर पाँव नहीं रखने दिया जाएगा. जिन्हें ऐसी आशंका हो चुकी है, वे अल्पमत में हैं. वे अपने अंदेशों के कारण अकेले पड़ गए हैं. ये सब अभिमन्यु हैं. चक्रव्यूह से निकलना इनके वश में नहीं. उन्हें बार-बार विश्वास दिलाया जा रहा है कि उनकी आशंका गलत है. जबकि आशंका ही सच है. यह एक सुनिश्चित संकट से निकलकर, निर्वचनीय संकटों की तरफ़ जाने की यात्रा है.
लेकिन रुकें, यह कोई आध्यात्मिक या भवसागर पार करने की यात्रा नहीं है. यह दैवीय नियति की यात्रा नहीं है. यह एक तानाशाह, एक राज्य द्वारा तय कर दी गई षड्यंत्रकारी यात्रा है. यह शिकारी द्वारा शिकार करने की प्रस्तावना है. एक हाँका लगाया गया है. प्रतीति यह है कि एक मौक़ा दिया गया है. आप चाहें तो भागकर बच सकते हैं. लेकिन जब उतरने के लिए ज़मीन नहीं होगी तो कहाँ जाएँगे. जो अरण्य में घिर गए हैं वे घिरे हुए वन में किस तरफ़ भागेंगे. अकाल मृत्यु का द्वीप ही उनकी शरण है.
जब कोई अचानक कहता है बस, जीवन इतना ही है, इतना ही था, तब सारी भाषाएँ अवाक् हो जाती हैं. जीवन की परिभाषाएँ क्षणांश में काली पड़ जाती हैं. अब सुभाषित याद आते हैं तो किस काम के. चमत्कारों पर भरोसा करना सबसे बड़ी भूल है. चीज़ें बाहर से नहीं भीतर से सड़ना शुरू करती हैं. लोग हमेशा ज़मीन, यश और धन के प्रति निष्ठावान होते हैं, मनुष्य के प्रति नहीं. मनुष्य से बेहतर आखेटक कोई नहीं. वह दिमाग़ लगाकर, छल करते हुए, सामूहिकता में शिकार करता है. मनुष्य, मनुष्यों के शिकार में सबसे अधिक आनंदित होता है. इसी में विश्व विजय का घोष है.
जैसे नरमेध ही अश्वमेध है.
(दो)
आप लोग चुप और शांत क्यों नहीं रह सकते.
नृत्य कीजिए. वाल्त़्स पर नाचिए. संगीत का आनंद लीजिए. सिनेमा गृह भी है. फ़िल्म देखिए. बीच में आपको अपने उद्धारक का भाषण सुनाया जाएगा, उसी की अनुकंपा से आप इस जहाज़ पर हैं. यही आपका मुमुक्षु भवन है. प्रतीक्षा कीजिए. स्मृतियाँ परेशान करें तो सुनिए, विएना को लेकर यह लड़की कितना मर्मांतक गीत गा रही है:
‘विएना, विएना. तुम ही मेरे सपनों का शहर हो. पुरानी इमारतों, प्यारी स्त्रियों का शहर हो. तुम ही वह सपनों का शहर हो जहाँ मैं ख़ुश और भाग्यशाली हूँ. वह विएना है. मेरा विएना.’ इसे सुनो और इसकी उदासी महसूस करो.
यह उदास स्मृति तुम्हारा संतोष है. अमृत है जो तुम्हें बेचैन करेगा मगर जिलाए रखेगा. तुम इसे नहीं समझ रहे हो तो तुम वैसे ही हो जो ‘जिस लाहौर नइ वेख्या, ओ जमया हि नइ’ वाक्य का मतलब नहीं समझ पाएँगें. जो संसार में किसी भी शहर के होने और उसे खो देने का अर्थ नहीं समझ सकते. जो आश्चर्य में रहेंगे कि ये हमारे द्वारा खारिज़ लोग अपने शहर को इस तरह कैसे प्यार कर सकते हैं. वे भूल चुके हैं कि आप यहूदी बाद में हैं, जर्मन पहले हैं. जो अपने होने का अर्थ मूसा की पहाड़ियों में, कमल की नाल, अमर अग्निपात्र या घुड़साली पुआल की परंपरा में खोजेंगे लेकिन अपने ही शहर में, अपने ही साथ रहे चले आने की सहजता में नहीं. प्रेमिलता में नहीं. जो शहरों का बसना नहीं जानते हैं. उनको उजाड़ना जानते हैं. जो घृणा को न्यायाधीश बनाएँगे और बाकी हर चीज़ को अमान्य कर देंगे.
याद करो, तुम हमारे लिए मुश्किल रहे हो. तुम यानी रेड इंडियन, आदिवासी, यहूदी, अश्वेत, मुस्लिम. बौद्ध, ईसाई, अनागरिक, शरणार्थी, प्रवासी या बुद्धिजीवी. अर्थात खरपतवार. सब अवांछित हो. तुम कहीं और जाकर रहो. हालाँकि हम जानते हैं कि जब तुम इस देश के रहवासी हो तो कोई दूसरा देश तुम्हें क्यों स्वीकार करेगा. और जब हम अपने ही कुछ नागरिकों का जीवन असंभव कर देंगे तो वे जीवित रहने के लिए कहीं तो जाएँगे. इसलिए हम बताएँगें कि तुम लोगों का अस्तित्व ही दुर्भाग्यजनक है. अमंगलकारी है. असहनीय है. दोयम है. जो दोयम है, वह नष्ट होने के लिए अभिशप्त है. हम संसार को यही बताना चाहते हैं कि तुम लोगों का कहीं स्वागत नहीं होगा. कोई दूसरा देश, कोई दूसरा समाज, तुम्हें प्रवेश नहीं देगा. और इसके लिए हम नहीं, तुम्हारा डीएनए उत्तरदायी है.
मिथक और पुराकथाएँ कहती हैं कि जब मुसीबत हो और करुण पुकार लगाएँ तो ईश्वर दौड़कर आता है. जीवन कहता है कि मुसीबत में आदमी अकेला पड़ जाता है. आर्तनाद पर भी कोई नहीं आता, सिर्फ़ एक और दुख उसकी तरफ़ झपटता हुआ आता है. बाकी लोग निष्ठुर रहते हैं. जैसे यह सामने पत्थरों टुकड़ों से बनी सड़क है. इन पत्थरों के बीच में बारिश का पानी भर जाए या इन पर ओस गिरे या ख़ून. वे पत्थर ही बने रहते हैं. इन पर किसी के चलने के निशान भी नहीं छूटते. ये किसी के वजूद को कुछ नहीं समझते. ये पत्थर हैं.
ठीक है, आप अपना देश छोड़कर जाना चाहते हैं. आप जो अपनी ही चुनी सरकार पर, चुने गए शासक पर भरोसा नहीं करते. हम देश छोड़ने की अनुमति दे रहे हैं. यह सदाशयता है. लेकिन आपके लिए कोई देश तैयार नहीं क्योंकि आप पिस्सू हैं. कीटाणु हैं. महामारी हैं. हर जगह से हकाले हुए हैं. आपको कोई दूर से भी स्पर्श नहीं करना चाहता. अपने साथ ज़िंदा या मुर्दा नहीं रखना चाहता. यहाँ तक कि कोई मारना भी नहीं चाहता. यह काम आख़िर हमें ही करना पड़ेगा. आप मरने के लिए यहीं वापस आओगे. दरअसल, यह तुम हो जो हमें हत्यारा बना दोगे.
(तीन)
आशा भविष्य है. निराशा वर्तमान है. जो छूट गया, पीछे रह गया वह छुटकारा है. सब कुछ पानी पर चलता है. जैसे पानी पानी पर चलता है. यह जहाज़ अछोर पानी के समुद्र में चलता है. यह वह जल है जिसे पिया नहीं जा सकता. उस तरफ़ जीवन का लहराता सागर है लेकिन जो उदधि इनके पास है, उसमें जिया नहीं जा सकता. इस पानी में आकाश प्रतिबिंबित है मगर इसमें ज़मीन के किसी भी टुकड़े की छाया नहीं है. इसमें ये यात्री हैं जो न आकाश में रह सकते हैं, न जल में. ये थलचर हैं. यह यात्रा उनकी आख़िरी उम्मीद है. बस, उन्हें यह नहीं पता कि यह अंतिम सफ़र है.
लेकिन आप उम्मीद खो देंगे तो आत्महत्या कर लेंगे. इस जहाज़ से कूद जाएँगे या अपनी कलाई की नस काट लेंगे. जो आपके सामने नर्वस होकर मर चुके हैं, उनको याद करें और उम्मीद रखें. आप ख़ुद न मरें. उसकी चिंता हम कर रहे हैं. विजातीय या विधर्मी से प्रेम न करें. ऐसा प्रेम करेंगे और जीवित भी रहना चाहेंगे तो कैसे मुमकिन होगा. यह विष है. आप विषपान कर सकते हैं. और किसी को न बताएँ कि यह चलता हुआ जहाज़ गैस चैम्बर है. या लाक्षागृह है. या डूबता हुआ घर है. प्रलय का मिनिएचर है. आप भला कैसे बचेंगे. आपके पास इस पर सवार होना ही विकल्प था. आपकी मृत्यु से ही हमारे जन, हमारे पक्ष में रह सकते हैं. जहाँ भी जो आर्य हैं, वे श्रेष्ठतम हैं. बाक़ी सब कमतर हैं. यह निकष है. इस सभ्यता का यही हासिल है.
अब इस यात्रा में आप उन अपराधों को याद कर लो जो आपने किए ही नहीं. अपनी पत्नी, अपने बच्चों या अपने पति और दोस्तों के साथ मिलकर कुछ धीरज बाँध लो. एक-दूसरे को दोष दो. मामूली बातों पर लड़ो, झगड़ो. किसी तरह ख़ुद बचने की हास्यास्पद कोशिश करो. दूसरे को मारने की क़ीमत पर भी. या उम्मीद रखो कि बस, अब कोई देश तुम्हें अपने बंदरगाह पर उतारने की अनुमति देने ही वाला है. तनाव मुक्त होने के लिए रागात्मक, कामक्रीड़ा कर सकते हो. लेकिन तनाव ही तुम्हें इसके लिए असमर्थ कर देगा. या फिर सपनों में खो सकते हो कि जल्दी ही बचे हुए जीवन को कुछ व्यवस्थित कर पाओेगे. इस ख़ामख़याली की अनुमति आपको है.
क्या कहा. आप मेहनती हैं. देशप्रेमी हैं. बुद्धिमान हैं. शिक्षाविद हैं. वैज्ञानिक हैं. डॉक्टर हैं. निर्दोष हैं. सच्चे, आदर्श नागरिक हैं. नहीं, यह आप तय नहीं कर सकते. जैसे कि आप तय नहीं कर सके कि आपको अपना जन्म कहाँ, किस घर, किस संप्रदाय, किस रंग में लेना था. उसी तरह अब आप अपने जीवन का अंत भी तय नहीं कर सकते. यह हम निश्चित करेंगे. हमें हँसाओ मत. इस जहाज़ में आप क्रांति नहीं कर सकते. यहाँ किसे मारोगे. अपने ही लोगों को. या फिर उस कप्तान को जो आपसे भी अधिक विवश है. तो क्या जहाज़ चालक दल को मारोगे. फिर जहाज़ कौन चलाएगा.
(चार)
आशा की किरण उजली है कि इस जलचर का संपर्क ज़मीन से बना हुआ है. अपवाद स्वरूप आपके हितचिंतक किसी एजैंट, दलाल, कॉर्पोरेट अधिकारी के जरिये आपकी जान बचाने की कोशिश कर सकते हैं. जब पैसे देने के बाद भी आप अधिकारियों से, सांसदों से मदद माँगने जाते हैं और आपका काम नहीं हो पाता है तब वे अपनी असहाय सांत्वना में या गर्वीले अपराध-बोध में या सहानुभूति में एक गणिका का विजिटिंग कार्ड आपको दे सकते हैं. यह विचित्र है लेकिन है. मगर यह भी एक आशा है. उधर वह आम्रपाली ख़ुद साँसत में है. विवशताओं से घिरी है. उसका ख़ुद का निर्वाण स्थगित है. लेकिन वही है जो आँसुओं की क़ीमत समझती है. उसके लिए आँसू अभी महज़ पानी नहीं हैं. अश्रुपूरित हिचकियाँ अनुमोदन कर देती हैं कि कोई नैतिकता जीवन से बड़ी नहीं. याद करो अपने कवि को कि ज़िंदा रहने की कोशिश करो, ज़मीन में गड़कर भी. कि एक दिन फिर अपने मनुष्य होने का वैभव पा सको.
हीनतंत्र में इस सबके बावजूद अपार पैसा चाहिए. तभी बचने का कोई अवसर बन सकता है. फिर आप पानी से ज़मीन तक, यह सौ गज़ की यात्रा कर सकते हैं. ग्यारंटी नहीं है, बस, मात के पहले की एक चाल है जो आप चल सकते हैं. सफेद और काले, दोनों मोहरे उनके हैं. उनका ऐरावत तिरछा भी चलता है. उनका घोड़ा साढ़े तीन और साढ़े पाँच घर भी चल सकता है. वे अश्वारोही हैं. राजा किले के तलघर में है. यह उनकी बिसात है.
इसी जहाज़ पर यम का वह एक प्रतिनिधि भी है जो सुनिश्चित कर रहा है कि आपको बचाने कहीं कोई आ न जाए. मनुष्य से अधिक विश्वस्त औज़ार कोई नहीं. जब वह आज्ञाकारी हो जाता है तो अन्यथा सोचना बंद कर देता है. उसकी सारी प्रतिभा आज्ञाकारिता को प्राप्त हो जाती है. यह यम 1939 का है. ऐसे ही यम पहले भी थे, ये बाद में भी हो सकते हैं. फ़िल्म देखते समय यह वर्तमान प्रतीत हो सकता है.
जब भी कोई आततायी आएगा, वह अतीत के अदेखे-अजाने ‘स्वर्ण पक्षी’ को अवतरित करना चाहेगा. तब जीवित गौरय्यों का बलिदान जरूरी होगा. कामधेनु या स्वर्ण गरुड़ अवतरित नहीं होते, केवल हत्यारे अवतरित हो जाते हैं. अब वे किस देश में होंगे, किस महाद्वीप में. अंतरिक्ष में. या हमारी आत्मा में. हमारे ही कोई प्रतिरूप. हमारी ही निर्मिति. क्या कहा जा सकता है. लेकिन अनुमान लगाना आसान है. उसे व्यक्त करने का साहस कठिन है. देखें, उस कठिनाई में भी देर तो नहीं हो गई है.
(पाँच)
यह दुनिया उतनी ही नहीं है जितनी एक चील, उकाब या उपग्रह में लगा कैमरा देखता है. एक मेंढक के छोटे-से मस्तिष्क में क्या चल रहा है, वह भी समानांतर है. कई ज़िंदगियों और सभ्यताओं का फ़ैसला संकीर्णताएँ कर देती हैं. इस डेक पर डूबती साँझ में तुम याद कर सकते हो कि एक साँवली छाया हर प्रकाश के साथ चलती है. वह प्रकाश के भीतर ही रहती है. यह शाम तुम्हें अचानक त्रासदियों की अमरता की याद दिला रही है.
स्मृतियों में मत धँसो. अगर बच गए तो अपना जीवन तुम्हें नये सिरे से शुरू करना होगा. पुराने काग़ज़, बचपन और युवावस्था की तस्वीरें या उपहार काम नहीं आएँगे. ठीक ही रहा कि उनका पुलिंदा इस जहाज़ पर ही तुमने खो दिया. गलियों में घिरकर पिटने की, तुम्हारे सामने तुम्हारे दोस्त को, भाई को मार डालने की स्मृतियाँ ही तुम्हारे अधिक काम आएँगी. वे नई जगहों में बसने और उन्हें अपनाने की प्रकिया में तुम्हारी सच्ची सहायक होंगी. वहाँ तुम्हारा घर-बार नहीं छूटा है बल्कि एक दहशत भरी मृत्यु छूट गई है. दहशत यहाँ जहाज़ पर भी है. उन लोगों में भी थी जो तुम्हें विदा कर रहे थे या जाते हुए दूर से देख रहे थे. सबको पता था कि क्या हो सकता है.
अब तुम आशा करते रहो कि किसी नये देश में, नये शहर का किनारा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है. तुम व्यर्थ ही नर्वस ब्रेकडाउन में जा रहे हो जबकि जहाज़ पर अभी कई दिनों के लिए भोजन शेष है. संगीत है. बार खुला हुआ है. तुमसे प्रत्यक्ष दुर्व्यवहार नहीं है. बस, तुम आशा करो. तुम्हें वे लोग भी आशा दिलाने में लगे हैं जिन्हें ख़ुद कोई आशा नहीं है. जो अवसाद के उदाहरण हो गए हैं. ट्रॉमा में हैं और उस विलक्षण अँधेरे में हैं जिसमें बाहर से तो उजाला आता है लेकिन वह भीतर तक नहीं पहुँचता. आँखों को दिखता है लेकिन मस्तिष्क तक उसकी सूचना नहीं पहुँचती. कोई हृदय उससे प्रकाशित नहीं होता.
यह जहाज़ हमारे समय का रूपक है. मनुष्य के मनुष्य न हो सकने का, अवरुद्ध, विकलांग विकास का रूपक. सदियों से यह जहाज़ विशाल, अछोर जलधि में तैर रहा है. यात्री बदलते हैं. कप्तान बदल दिए जाते हैं. घृणाजड़ित सिंहासन पर बैठे आदमी के हाथ में क़ुतुबनुमा है. कहीं न पहुँचने की यात्रा वैसी ही बनी रहती है. पता चलता है कि जो साथ लेकर चले थे और जो सफ़र में मिला था, वह सब गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही नष्ट हो गया है. मूर्खता और यातना का अनुभव ही अनश्वर है. जैसे मूर्खता अर्जित करना इस संसार में एक कार्यभार है.
इसमें आखेटक का आखेट भी विन्यस्त है. जो सवार हैं सिर्फ़ वे ही शापित नहीं हैं. इससे गुज़रते हुए आपको लग सकता है कि आप भी संभवत: किसी ऐसे ही जहाज़ के यात्री हैं. या उन्हें कुछ करीब से जानते हैं जिन्हें इस जलपोत पर विदाई दी गई है. यह सभ्यता की त्रासद यात्रा का बिंब है. या असभ्यता का.
यह याद देहानी है कि घृणा सबको नष्ट कर देती है.
Voyage of the Damned, 1976/ Director- Stuart Rosenberg,
अभिशप्तों की जलयात्रा,1976/निदेशक- स्टुअर्ट रोज़नबर्ग
कुमार अंबुज (जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त. kumarambujbpl@gmail.com |
कभी पूरा एक देश ही समुद्र में धँसता जहाज़ लगता है. जहाज़ पर सवार लोगों से भी दुष्कर है ऐसे जहाज़ को देखना, यह देखना भी तो डूबना ही है…न मरकर भी मृत्यु सा जीवन जीना. किसी शरीर का बस सांसे लेते रहना तो जीवन नहीं है…..
आपकी संवेदनशीलता ही आपको फ़िल्मों के प्रति इतनी गहरी अनुभूति प्रदान करती है। हमें वैसी दृष्टि तो नहीं मिली किंतु आपका अनुसरण कर एक और बार देखने को विवश करती है। मेरी गुज़ारिश है कि इसी क्रम में शिंडलर्स लिस्ट पर भी आपकी इतनी ही गहन समीक्षा आ पाए।
यह मार्मिक आलेख एक नए तरह से चिंतन ,विचार विमर्श हेतु प्रेरित करता है ।लेखक के साथ पाठक भी इस इस यात्रा में शामिल होते हैं और वेदना को गहरी संवेदना से महसूस करते हैं ।इस प्रक्रिया में जिस तरह ऊर्जा अर्जित होती है और चिंतन के नए आयाम खुलते हैं , वह बेहद महत्वपूर्ण और प्रेरक हैं ।
इस लेख में बार-बार स्मरण कराया गया है कि तुम जहाज़ पर बैठने की लिये अभिशप्त हो । तुम सुरक्षित हो । जहाज़ तुम्हारे लिये पृथ्वी है । तुम अच्छे भविष्य के दिनों के आने का इंतज़ार करते हो । लेकिन ऐसा नहीं होगा । तुम यहूदी हो और हिटलर के दास हो । तुम अपने परिवार को भी नहीं बचा पाओगे ।
कल्पना की ऊँची से ऊँची उड़ान में भी वे किस्से असंभव लगते हैं जिन्हें इंसान ने अंजाम दिया है l कल्पना थक जाती है, बेबस हो जाती है, लेकिन इंसान नहीं l कुमार जी के इस बेहद मार्मिक आलेख को पढ़ कर उस ‘डेथ मार्च’ की याद हो आई जो आर्मीनियों की जातिसंहार के लिए ऑटोमन साम्राज्य द्वारा आयोजित किया गया था और सीरिया का रेगिस्तान उनकी लाशों से पट गया था l आर्मीनिया यात्रा के दौरान येरवन में बने आर्मीनी जातिसंहार स्मारक की शिलाओं को देखते हुए मैं उन अभागों की मरण यात्रा के दृश्यों को कुछ-कुछ ऐसे ही देख रहा था जैसे कुमार जी ने इस जहाज और उसमें सवार किए गये यात्रियों को visualize किया है
निः शब्द हूं। ऐसी फ़िल्म, फ़िल्म का ऐसा भाषा दर्शन , इस भाषा दर्शन में निहित मनुष्यता और आगाह करना यही कहा जा सकता है कि लेखन के उद्देश्य का मानक संवेदना पूरित, काव्य सिक्त, दुर्लभ उदाहरण ही है यह प्रति फ़िल्म सा लेख।
कुमार अंबुज एक नाम ही होगा अगर इस लेख के पीछे खड़े लेखक को देखें तो वह लेखकीय उत्तरदायित्व, सरोकार, दृष्टि और ऐसी दूरदर्शिता जिसमें समकाल का सम्यक प्रकटीकरण भी होता है का प्रतिनिधि लेखक ही है। ऐसे ही लेखक के लिए जवाब होगा लेखक कौन?
मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं कि ऐसे लेखों की जब किताब होगी तो वह किताब हमें चेतना संपन्न, मानवीय, सहचर और मित्र बनाने वाली किताब ही होगी।
प्रेरित पंक्तियां-
कवि ने कहा है,
“बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत…. स्वायत्त हुआ जाता है।”
(मुक्तिबोध)
लेकिन आज 2022 में लगता है जैसे मैं भी एक मामूली नागरिक “मूर्ख बनना, मूर्ख रखना और मूर्ख ही चुनना” के किसी धार्मिक फासीवादी लोकतांत्रिक महा परियोजना की नागरिक निर्मित ही हूं। विवश, बंदी, मूक और दमित नागरिक उपस्थिति।
यहीं मुक्तिबोध द्वारा प्रयुक्त आत्मावलोकन का शब्द बेवकूफ और राज्य का योजना शब्द मूर्ख इन दोनों शब्दों का अभिप्राय और अंतर भी महसूस करता हूं।
ये प्रेरित पंक्तियां ही हैं जो कुमार अंबुज जी के इसी एक लेख के एक वाक्य से मेरे भीतर उपजीं। जिन्हें मैं कृतज्ञता में ही स्वानुभूत पंक्तियों की तरह लिखने के स्वायत्त लोभ में नहीं पड़ा।
शशिभूषण
एक गंभीर समीक्षा है।फ़िल्म समीक्षा में नया जोड़ता है।फ़िल्म विजुएल माध्यम है।फ़िल्म भाषा के एंगल इसमें
होने चाहिए.. कथा हम तक जिस भाषा में पहुंचती है,उस
भाषा तक समीक्षा को जाना चाहिए।
वैसे जो लिखा है उसमें वह गहराई है जो इधर की फ़िल्म
समीक्षा में नदारद है।
मैंने जानबूझकर ‘Voyage of the Damned’ फ़िल्म को दोबारा पढ़ने के लिये चुना है । संवाद लेखक किस लोक से उतरकर आया है; मैं नहीं जानता । लेकिन यह हमारे दिलों में बसता है । हमारी धड़कन है । हमारे नर्वस सिस्टम का संचालक है । इस पटकथा में unparalleled संवाद लिखे गये हैं । हम दूसरों को बचे रहने का आश्वासन दे रहे हैं । जबकि हमें भी पता नहीं है कि हम ज़िंदा बच पायेंगे या नहीं । जहाज़ के पीछे का आदेशकर्ता यात्रियों को vault पर नाचने के लिये कहता है । हम अभिमन्यु बनने के लिये अभिशप्त हैं । जो कभी जीवित लौटकर नहीं आता । ‘ये एक जहाज़ पर सवार हैं और ख़ुशफ़हमी में हैं कि इस जहाज़ का कप्तान उन्हें किसी सुनिश्चित मुक्तिदायक गंतव्य की ओर ले जा रहा है । दुर्भाग्य से हमारे देश का वर्तमान कप्तान उस कप्तान का प्रतिरूप है । श्रीलंका में राजपक्षे है और रशिया में व्लादिमीर पुतिन है । पुतिन हमें सोवियत यूनियन के ज़माने में वापस ले जाना चाहता है जहाँ चारों ओर दासता पसरी हुई है । एनडीटीवी पर सोम से शुक्रवार रात दस बजे 18 मिनट का बीबीसी हिन्दी का स्लॉट आता है । यूक्रेन के एक गाँव से संवाददाता योगिता लिमये रिपोर्ट कर रही थी । उसने एक युवती विवाहिता के साथ बात की । बीबीसी ने उसका चेहरा blurred कर दिया था । वह बता रही थी कि उसके पति के सामने उसका बलात्कार किया गया और पति को गोली मारकर उसकी हत्या कर दी । और उसे घर के बाहर दफ़ना दिया । वह महिला आगे कह रही थी कि रशिया के सैनिकों को शराब की लत लग गयी है । और वे बलात्कारी बन गये हैं । एक 22 वर्ष की आयु की युवती की 16 साल की उम्र की बहन का रेप कर दिया गया । बाक़ी अगली टिप्पणी में । हिटलर हर दौर में पैदा होते हैं ।
Botulinum family neurotoxin includes the most toxic substance known to man. लेकिन धोखे भरा विश्वास इस पदार्थ से भी ज़्यादा विषैला होता है ।‘चमत्कारों पर भरोसा करना सबसे बड़ी भूल है । चीज़ें भीतर से सड़ना शुरू करती हैं’ । मेरी दृष्टि से हम ही हमारे शत्रु हैं । यह आत्मोत्सर्ग नहीं है बल्कि बेवक़ूफ़ी है । ‘मनुष्य से बड़ा कोई आखेटक नहीं है’ । हिटलर के कारकूनों ने यहूदियों को इस विश्वास के साथ जहाज़ में सवार किया गया है कि वे सुरक्षित जगह पर जा रहे हैं । यह धोखा है । समुद्र भूमि नहीं है । या तो समुद्र में कूदकर मर जाओ और या अपनी नसें काट लो । व्यवहारिक जीवन में भी हमें आशा ज़िंदा बने रहने की झूठी दिलासा देती है । यहाँ कोई हमारा नहीं है । हमारे हाथ भी हमारे हाथ में नहीं हैं । अंबुज जी ने ठीक ही लिखा है कि हमें मौत से कोई नहीं बचा सकता । बुद्ध जब मर रहे थे तो उनके शिष्यों ने पूछा था कि हम आपके बिना कैसे बचे रह जाएँगे । तब उन्होंने जवाब दिया था कि मैं एक बादल मात्र हूँ । आकाश और तुम्हारे बीच झूठी छाया । तुम भी आकाश का ख़ालीपन हो । मौन मौन में समा जाता है ।
हे जहाज़ के यात्रियों! हिटलर निश्चित करेगा कि तुम्हें कहाँ जाना है । जिस तरह तुम्हें नहीं पता कि तुम किस वर्ण में पैदा हुए होंगे । शतरंज के हाथी, घोड़े और ऊँट तुम तय नहीं कर सकते कि तुम्हें कौन सी चाल चलनी है । उफ़ ! इससे बेहतर जीते जी मर जाना है । कुमार अंबुज की तरह मैं भी बैंककर्मी था । शुक्र है कि वहाँ राजनेताओें की दख़लंदाज़ी नहीं थी । मेरी ख़ुद्दारी मुझे जीने न देती । मैं कल्पना मात्र कर सकता हूँ कि हिटलर पर झपट्टा मार देता । In today’s Indian Express there is a news. Mimi Reinhard, who typed up Schindler’s List, dies at 107. She was a secretary in Oskar Schindler’s office who typed up the list of Jews he saved from examination by Nazi Germany. She was one of the 1,200 Jews saved by General businessman Schindler after he bribed Nazi authorities to let him keep them as workers in his factories. The account was made into the acclaimed 1993 film “Schindler’s List” by director Steven Spielberg. Professor Arun Kumar Ji, luckily I had watched the movie at Shila Theatre in Delhi. This film was horrible.