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Home » सविता सिंह: मेरी प्रिय कविताएँ

सविता सिंह: मेरी प्रिय कविताएँ

आज बसंत पंचमी है. धूप खिली है, जैसे बसंत का संदेश लेकर आयी हो. आज महत्वपूर्ण कवयित्री सविता सिंह का जन्म दिन भी है, जीवन का साठवां बसंत. इधर उनका कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है, ‘खोई चीज़ों का शोक’. समालोचन की तरफ से उन्हें बहुत-बहुत बधाई. इस अवसर पर सविता सिंह ने अपनी पसंद की दस कविताएँ चुनी हैं, उनपर उनकी टिप्पणी भी है. अब इससे बेहतर क्या हो सकता है कि अपने जन्म दिन पर कवि दूसरे कवियों की बातें करें, अपनी पसंद को साझा करें. आइये देखते हैं सविता सिंह की प्रिय कविताएँ कौन सी हैं.

by arun dev
February 5, 2022
in कविता
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सविता सिंह: मेरी प्रिय कविताएँ
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सविता सिंह

मेरी प्रिय कविताएँ

 

कविताएं तो जाने कितनी हैं जिनसे मैं मिलती रहती हूं जैसे वे मेरी पसंदीदा सहेलियां हों, परंतु आज दस को चुनने की बात है इस स्तम्भ के लिए. मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि जीवन की बातें कहने में ही होती हैं, कैसे कहूं वो बात जो कहे जाने में ही है! यह मेरी ही कविता की एक पंक्ति है. यह दस कविताएं जीवन की कुछ ऐसी ही बातें कहती हैं.

कुमार अंबुज की क्रूरता कविता हमारे समय को जैसे परिभाषित कर रही हो, पंकज सिंह की कविता मुझी को संबोधित है जिसमें क्रूरता की आंतरिक बनावट का पता चलता है. अरुण कमल की यह कविता मई महीने की गरम दोपहर में कवि के हृदय में युद्ध के कारण खराब होती इस दुनिया में मनुष्य के भविष्य के बारे में चिंतित दिखती है. असद ज़ैदी की कविता हमारे भीतर न्याय की कुचली जा चुकी भावना को किस सलीके से जगाती हैं! हमें सोचना पड़ जाता है.

कात्यायनी की चंपा को हम जानते ही हैं, वह हमारे बीच ही तो रहती है, मरती फिर जी जाती हुई. उसका नीलकमल बनकर उगना अच्छा भी लगता है और रुलाता भी उतना ही है. गगन गिल अपने शिकारियों की पहचान किस शाइस्तगी से करवाती हैं जो उनके सोए हुए कलेजे को पीस कर चले जाते हैं और पांव को पाताल में खींच कर ले जाते हैं. लेकिन वह उन्हें घसीट कर कविता में ले आती हैं और दिखाती हैं उनके करतब.

शुभा की आदमखोर कविता सामान्य बना दी गई हिंसा को फिर से असामान्य बना देती है और सच्चाई को सामने रख देती है.

वंदना टेटे की कविता लो जी हम भी आ गए हमारे जीवन संसार को हमारे लिए फिर से जैसे उसकी एक चादर बिछा देती है. कितनों का कितना हम ने ले लिया है, कितनों का चारा, कितनों की खाल हमने उधेड़ ली है. क्या हमारी मनुष्यता इसी से निर्मित हुई है ? चिड़िया, भागजोगनी, मेढक .. कौन नहीं हिसाब मांग रहा.

सविता भार्गव की यह कविता मुझे सदैव भाती रही है. अपनी मनोरम उपस्थिति को कोई स्त्री कैसे जाने, कैसे वह इस सृष्टि की सुंदरतम रचना है इसका विश्वास करें, यह कविता हमें सुखद अचरज से भर देती है. विपिन मीना कुमारी के बहाने हमें सफेद रंग का रहस्य समझा जाती हैं. कैसे रहना है इस जीवन में बगुले की तरह! उसकी सफेदी में.

ये कविताएं चुनते हुए मैंने खुद को घायल होते हुए पाया. हम कब सभ्य होंगे, कब प्रेम करना सीखेंगे, कब हम अपने मन मुताबिक जीवन चुनेंगे या कि बनाएंगे, ऐसे ही सवालों से बिंधती हुई आपसे मुखातिब हैं ये कविताएँ.

1.
कुमार अम्बुज

क्रूरता

धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे

तब आएगी क्रूरता

पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा

तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को
फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता
और सभी में गौरव भाव होगा

वह संस्कृति की तरह आएगी
उसका कोई विरोधी न होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो

वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा
हमारा सारा श्रृंगार

यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना.

 

२.
पंकज सिंह

यथार्थ के बारे में

जो दीखा ख़ूब उजागर सबके लिए, कितना मुझको?
मुश्किल हुई कि सवि ने पूछा उसी के बारे में, तो कहा मैंने,
लो, अभी देखकर बताता हूँ

प्रकाश और धुँधलके के कितने परदों
कितने रहस्यों में लिपटा होता है यथार्थ
कई तरह से देखना होता है कुछ कहने से पहले
दिखता है, ग़ौर से देखो, कि उसका कोई हिस्सा
धुएं में धूल में अँधेरे में हाहाकार में
भाषा के छल में जयकार में
बाज़ार की तकरार में छिपा रह जाता है

सुनाई देती है कोई फड़फड़ाहट
जब सूरज ढलने के क़रीब होता है, सवि
काँपती हैं चाय में शक्कर हिलाती उँगलियाँ
यह कोई सपना है उड़ान से पहले तुम्हारे भीतर कि मेरे
या कोई ज़ख़्मी चिड़िया अपनी पीड़ा के सुनसान में

साफ़ आँखों देख पाने मानवीय बने रहने के लिए
अब ज़रूरी है लगभग अड़ने की आदत
कोई वृत्तांत संभव न होगा बिना जोखिम उठाए
साफ़ शब्दों में बताना होगा बिना लाग-लपेट

अमूर्तन की शातिराना तरकीबों के बारे में
जिन्हें वह नहीं जानती
नुक्कड़ तक जाती सहमी-सी स्त्री
अचानक चाँद पर पहुँच जाती है जो

रौंदी हुई देह में जीवित करती है
किसी अर्द्धविस्मृत प्रेम के स्पर्श
झुकती है ख़ुद पर हरी-भरी डाल-सी
उन पलों में वह अपनी धरती होती है ख़ुद अपना आकाश
उसका कोई अनुच्चरित विचार देर तक गूँजता है अंतरिक्ष में
सुनता हूँ प्रमुदित मैं उस सुंदर पर ओझल को

देखता हूँ बहुतेरे दृश्य घटनास्थितियाँ
जिनकी बनावट में पिघलती हुई चीज़ें
बनती हैं अनायास रचे जाने को मेरा जटिल यथार्थ
इस क्रूर समय में

इस क्रूर समय में बर्बरता के सम्मुख
मैंने तय किया है, सवि, महज़ शिकायत नहीं करूँगा
लड़ूँगा

माथा ऊँचा किए रहूँगा आख़िरी वार तक
बीच में रोना सुनाई दे कभी तो ज़्यादा कान न देना
जब तक टूटने-तड़पने की आवाज़ें बेहद तेज़ न हो जाएँ

ठीक से समझ लेने की बात यह है, सवि
कि मुमकिन चीज़ों की सूची में
मारे जाने की आशंका को काफ़ी ऊपर रखना होगा

फिर क्यों अलस हम भूलते जाते हैं
कारआमद सच, वास्तविक आकार, रंग और आवाज़ें
उनकी पुकार को अनसुना करते
उन्हें धूल में मिलने देते हैं, यों धूल होते हुए.

 

3.
अरुण कमल

मई का एक दिन

मैं टहल रहा था गर्मी की धूप में-
टहल रहा था अशोक के पेड़ की तरह बदलता
अतल ताप को हरे रंग में.

वह कोई दिन था मई के महीने का
जब वियतनाम सीढ़ियों पर बैठा
पोंछ रहा था
ख़ून और घावों से पटा शरीर,
कम्बोडिया जलती सिकड़ियाँ खोलता
गृह प्रवेश की तैयारियों में व्यस्त था
और नीला आकाश ताल ताल में
फेंक रहा था अपनी शाखें.

ऐसा ही दिन था वह मई के महीने का
जब भविष्य की तेज़ धार मेरे चेहरे को
तृप्त कर रही थी-
तुमने, वियतनाम, तुमने मुझे दी थी वह ताकत
कम्बोडिया, तुमने, तुमने मुझे दी थी वह हिम्मत
कि मैं भविष्य से कुछ बातें करता
टहल रहा था-
क्या हुआ जो मैं बहुत हारा था
बहुत खोया था
और मेरा परिवार तकलीफ़ों में ग़र्क था
जब तुम जीते तब मैं भी जीता था.

मैं रुक गया एक पेड़ के नीचे
और ताव फेंकती, झुलसी हुई धरती को देखा-
मैंने चाक पर रखी हुई ढलती हुई धरती को देखा;
और टहलता रहा
टहलता रहा गर्मी की धूप में…

 

4.
असद ज़ैदी

1857: सामान की तलाश

1857 की लड़ाइयाँ जो बहुत दूर की लड़ाइयाँ थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयाँ हैं

ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिंदुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुख़बिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी

हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने ‘आज़ादी की पहली लड़ाई’ के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किए हैं
उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफ़ी माँगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
क़ुरबान करने को तैयार है

यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी-अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चंद्रों
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेंद्रनाथों, ईश्वरचंदों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के मन में
और हिंदी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई

यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक क़ब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?

1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है

लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नजफ़गढ़ की तरफ़ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे

कुछ अपनी बताओ

क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय.

 

5.
कात्यायनी

सात भाइयों के बीच चम्पा

सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई.

बाँस की टहनी-सी लचक वाली
बाप की छाती पर साँप-सी लोटती
सपनों में काली छाया-सी डोलती
सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई.

ओखल में धान के साथ
कूट दी गई
भूसी के साथ कूड़े पर
फेंक दी गई
वहाँ अमरबेल बन कर उगी.

झरबेरी के साथ कँटीली झाड़ों के बीच
चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई
फिर से घर में आ धमकी.

सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा
एक दिन घर की छत से
लटकती पाई गई
तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच
दबा दी गई
वहाँ एक नीलकमल उग आया.

जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर
चम्पा फिर घर आ गई
देवता पर चढ़ाई गई
मुरझाने पर मसल कर फेंक दी गई,
जलाई गई
उसकी राख बिखेर दी गई
पूरे गाँव में.

रात को बारिश हुई झमड़कर.

अगले ही दिन
हर दरवाज़े के बाहर
नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
निर्भय-निस्संग चम्पा
मुसकुराती पाई गई.

 

6.
गगन गिल

दिन के दुख अलग थे

दिन के दुख अलग थे
रात के अलग

दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना

बाढ़ की तरह
अचानक आ जाते वे
पूनम हो या अमावस

उसके बाद सिर्फ़
एक ढेर कूड़े का
किनारे पर
अनलिखी मैली पर्ची
देहरी पर

उसी से पता चलता
आज आए थे वे

ख़ुशी होती
बच गए बाल-बाल आज

रातों के दुख मगर
अलग थे
बचना उनसे आसान था

उन्हें सब पता था
भाग कर कहाँ जाएगा
जाएगा भी तो
यहीं मिलेगा
बिस्तर पर
सोया हुआ शिकार

न कहीं दलदल
न धँसती जाती कोई आवाज़
नींद में

पता भी न चलता
किसने खींच लिया पाताल में
सोया पैर

किसने सोख ली
सारी साँस

कौन कुचल गया
सोया हुआ दिल

दुख जो कोंचते थे
दिन में
वे रात में नहीं

जो रात को रुलाते
वे दिन में नहीं

इस तरह लगती थी घात
दिन रात
सीने पर

पिघलती थी शिला एक
ढीला होता था
जबड़ा
पीड़ा में अकड़ा

दिन गया नहीं
कि आ जाती थी रात
जा जाते थे
शिकारी.

 

7.
शुभा

आदमखोर

आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे

अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुंह हाथ धोता है और
खाना खाता है

रहता है बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह
शरीफ़ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह.

 

8.
वन्दना टेटे

लो जी

लो जी,
हम (हाथी) भी आ गए
सलय-सलय
हिसाब दो जवाब दो
हमारा घर क्यों उजड़ा?

लो जी,
हम (भालू) भी आ गए
धिरोम-धिरोम
हिसाब दो जवाब दो
हमारा शहद क्यों लूटा?

लो जी,
हम (मैना) भी आ गए
सरई- सरई
हिसाब दो जवाब दो
हमारा घोसला क्यों तोड़फोड़ किया?

लो जी,
हम (डुगडुगिया मछली) भी आ गए
रसे-रसे
हिसाब दो जवाब दो
हमारा गढ़ा-डोंढ़ा क्यों भर दिया?

लो जी,
हम (बाघ) भी आ गए
धितांग-धितांग
हिसाब दो जवाब दो
हमारे जंगल में हमारा राज क्यों छीना?

लो जी,
हम (भगजोगनी) भी आ गए
तिरी-रिरि तिरी-रिरि
हिसाब दो जवाब दो
हमारा आसमान क्यों गंदा किया?

लो जी,
हम (मेढ़क) भी आ गए
डुबुक-डुबुक
हिसाब दो जवाब दो
हमारा नदी-ताल क्यों बेच दिया?

क्या बोले?
हमारी भाषा नहीं समझते?
बाह! बाह!!
तो किसी की मदद लो
लेकिन हिसाब दो जवाब दो

चारों कोना खोजा
चारों कोना ढूंढा
गूगल पर भी नहीं मिली
तुम सबकी भाषाएँ

तो हम क्या करें
हिसाब दो जवाब दो

लो जी,
अब हम भी आ गए
हमारी भाषा तो समझते हो ना?
या समझाऊं तुम्हारी भाषा में!
भरमाओ मत आँख दिखाओ मत
हिसाब दो जवाब दो

 

9.
सविता भार्गव

इस रात

इस रात
नहीं कोई जब पास

खुद में
मैं खुद
जनम रही हूँ

नींद की तरह जनम रही हूँ
प्यास की तरह जनम रही हूँ
कविता की तरह जनम रही हूँ

अनन्त में
शुरू हो रही हूँ
किसी तारे की टिमटिमाती रोशनी में
हो रही हूँ समाप्त

खुल रही हूँ
बंद हो रही हूँ
किसी अज्ञात पक्षी के
पंखों को याद करके

इस रात—
में हूँ
सबसे मनोरम
सृष्टि.

 

10
विपिन चौधरी

सफ़ेद से प्रेम
(मीना कुमारी के लिए)

‘सफ़ेद रंग से प्रेम करने वाले
करते हैं प्रेम दुखों से भी’
आख़िर यह बात एक बार फिर से
सच साबित हुई

सफ़ेद में डूब कर वह बगुला थी
चुगती थी कई अनमोल रत्न
धरती के मटमैले जल में डूबते-उतरते हुए

पता नहीं सफ़ेदी को वह
कैसे रख पाती थी बेदाग़
उस वक़्त जब दुनिया उछाल दिया करती थी
उसकी ओर कई भद्दे रंग

उसकी आत्मा की सफ़ेदी और
गहरे कुएँ से आती आवाज़ की डोर पर
दुःख और दुःख के अनेक सहोदर
ऐसे ही विचरण करते हुए आते और बैठ जाते
टिके रहते हैं जैसे बिजली की तार पर तफ़रीह करते हुए पंछी

उसके गहरे मन की तलछट से निकले
कितने ही आँसू
चढ़ जाते सफ़ेदी की भेंट
दिखने को बची रहती बस एक दर्द भरी मुस्कान

जन्नत की उस संकरी राह की सफ़ेदी
आज भी बनी हुई है
जिस पर चली गई थी हड़बड़ी में वह
जैसे वहाँ पर छुटा हुआ अपना कोई समान वापिस लाने गई हो

बुदबुदाते हुए एक ही पंक्ति बार-बार
कि जीना है उसे अभी और भी!

सविता सिंह

 आरा (बिहार)
पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय), मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में साढ़े चार वर्ष तक शोध व अध्यापन,
सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन का आरम्भ करके डेढ़ दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया.
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव जेन्डर एंड डेवलेपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक रहीं.

पहला कविता संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ (2005) पर रज़ा सम्मान तथा स्वप्न समय.  द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन ‘पचास कविताएँ: नयी सदी के लिए चयन’ शृंखला में प्रकाशित. ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021) कविता संग्रह राजकमल से प्रकाशित.
फाउंडेशन ऑव सार्क राइटर्स ऐंड लिटरेचर के मुखपत्र ‘बियांड बोर्डर्स’ का अतिथि सम्पादन.
भास्कर रॉय के साथ सविता सिंह की बातचीत की किताब –Reality and its Depths स्प्रिंगर से २०२० में प्रकाशित.
कनाडा में रिहाइश के बाद दो वर्ष का ब्रिटेन प्रवास. फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, हॉलैंड और मध्यपूर्व तथा अफ्रीका के देशों की यात्राएँ जिस दौरान विशेष व्याख्यान दिये.
महादेवी वर्मा काव्य सम्मान, हिंदी एकादेमी काव्य सम्मान आदि प्राप्त
savitasingh@ignou.ac.in
Tags: 20222022 कविताएँअरुण कमलअसद जैदीकात्यायनीकुमार अम्बुजगगन गिलपंकज सिंहमेरी प्रिय कविताएँवन्दना टेटेविपिन चौधरीशुभासविता भार्गवसविता सिंह
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Comments 10

  1. M P Haridev says:
    3 years ago

    विपिन चौधरी की कविता से टिप्पणी करना आरंभ कर रहा हूँ । एक्ट्रेस मीना कुमारी के सफ़ेद रंग से प्रेम करने में सुख और दुख दोनों जुड़े हुए हैं । मीना कुमारी के लिये लिखी गयी सुंदर पंक्ति ‘पता नहीं सफ़ेदी को वह कैसे रख पाती थी बेदाग़’ मीना कुमारी की जिजीविषा की ओर संकेत करती है । समालोचन के इस अंक की पहली कविता क्रूरता है । कभी जनसत्ता अख़बार में छपी थी । मैंने इस कविता को डायरी में लिख लिया था । 08 फ़रवरी 1998 में विश्व पुस्तक मेले में इस संग्रह पर अंबुज जी के ऑटोग्राफ़ लिये थे । विचारधारा की भिन्नता के बावजूद भी अनेक कविताएँ मन-मस्तिष्क को आंदोलित करती हैं । सविता सिंह पंकज सिंह की पत्नी हैं । पंकज सिंह का असमय निधन झकझोर गया था । उनकी कविता आतुर हवाओं सा दौड़ेगा प्रेम ही कविता नवभारत टाइम्स में छपी थी और मुझे ज़ुबानी याद थी । मैं 30 जनवरी 2002 को पुस्तक मेला नयी दिल्ली में गया था । राजकमल प्रकाशन के पुस्तक विक्रय काउंटर पर विराजमान व्यक्ति ने बताया कि रचनाकारों के लिये बनाये गये केबिन में पंकज सिंह बैठे हुए हैं । मैंने उनका संग्रह जैसे पवन पानी ख़रीदा । ज्यों ही वे केबिन से बाहर निकले तब मैंने उन्हें पंक्तियाँ सुनायीं-प्रेम हि करेगा इस पृथ्वी को इतना निशंक कि जा सके जीवन अपने पैरों को भविष्य की ओर ‘ पंकज जी ने मुझे अपने सीने से लगा लिया । मैंने उनके ऑटोग्राफ़ ले लिये । इनके दो संग्रह मेरे बुक शेल्फ पर रखे हुए हैं । सभी कविताओं को पढ़ चुका हूँ । अत: उनकी कविता क्या टिप्पणी लिखूँ । उनके होने ने धरती को सुंदर बनाया । प्यारे और भावुक इन्सान थे । सविता जी ने लिखा है कि मेरी पसंदीदा कविताएँ मेरी सहेलियों की तरह हैं जिनसे मैं मिल लेती हूँ । अगली टिप्पणी थोड़ी देर के बाद । “कोई आने को है”

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    सविता जी द्वारा चयनित उनकी प्रिय कविताएँ पढ़ीं। अलग-अलग गंध और स्वाद की ये कविताएँ एक गमले में उगे दस रंग-बिरंगे फूलों के एक गुच्छे की तरह लगीं।इन्हें टटोलते हुए समकालीन हिन्दी कविता की नब्ज को पूरी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है ।उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई !

    Reply
  3. Krishna Kalpit says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा चयन । बस आश्चर्य इस बात का कि इनमें मंगलेश डबराल की कोई कविता नहीं जबकि काव्य-संवेदना और कविता के शिल्प में मेरी दृष्टि में सविताजी मंगलेशजी से शुरुआती दिनों में प्रभावित रही हैं भले ही बाद में उन्होंने अपनी राह अलग बनाई । समालोचन का आभार इतनी सुंदर कविताओं के प्रकाशन के लिए । सविता जी को जन्मदिन मुबारक ।

    Reply
  4. मनोज मोहन says:
    3 years ago

    सारी चयनित कवितायें रोशनी से नहाई हुई हैं, यहाँ एक जगह पढ़ना सुखकर है. सविताजी के तीन संग्रह मेरे पास है, चौथे संग्रह की तलाश है. मेरी बेटी को भी सविताजी की कवितायें पसंद है. उन्हें जन्मदिन की बधाई….

    Reply
  5. सुरेन्द्र मनन says:
    3 years ago

    जन्मदिन के अवसर पर अलग अलग मिजाज की बहुत अच्छी कविताओं का चयन करके उन्हें प्रस्तुत किया है सविता जी ने l बधाई उन्हें l

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  6. अरुण कमल says:
    3 years ago

    वाग्देवी की वरद कन्या सविता जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामना ।उनकी स्मृति में स्वयं को पाकर धन्य हुआ।आपको भी वसंतपंचमी की मंगलकामना ।

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  7. सुधा अरोड़ा says:
    3 years ago

    मेरी बहुत प्रिय कवि और स्पष्ट दृष्टि वाली स्त्रीवादी चिंतक को जन्मदिन मुबारक ।

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  8. hari Bhatnagar says:
    3 years ago

    सविता जी को मैंने भोपाल में सुना है। विषय के साथ पाठ भी शानदार रहा है। मंललेश के साथ राजेश जोशी का न होना खटक रहा है। ख़ैर चयन अच्छा लगा। जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें

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  9. Dhirendra Asthana says:
    3 years ago

    दसों कवियों की कविताएं हमारे समय का शिलालेख हैं। बेहतरीन चयन।

    Reply
  10. Savita Singh says:
    3 years ago

    Doosri khep mein chuni gayi kavitaon mein yah shkayat bhi door ho jayegi, Hari ji. Aap sbon ko meri dheron shubhkamnayen.

    Reply

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