• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » वीस्वावा शिम्बोर्स्का: रीनू तलवाड़

वीस्वावा शिम्बोर्स्का: रीनू तलवाड़

पोलैंड की कवयित्री जिन्हें साहित्य का १९९६ का नोबल पुरस्कार मिला, जिन्हें कविता का मोजार्ट कहा जाता है, और माना गया कि उनकी कविता बीथोवेन की ऊंचाई को छू लेती है. वह मूलतः दार्शनिक कवयित्री हैं उनकी कविता जीवन और संसार के आधारभूत प्रश्नों के उत्तर तलाशती है. उनमें हिंसा, युद्ध और शोषण के खिलाफ एक धारदार प्रतिवाद है. हिंदी में वीस्वावा को बहुत सराहा गया है. उन्हें याद करते हुए उनकी कुछ कविताओं और नोबल पुरस्कार लेते समय उनके व्याख्यान का अनुवाद प्रस्तुत है. अनुवाद रीनू तलवाड़ और अपर्णा मनोज के हैं. अनुवाद लगन से किया गया है, जो इस महान कवयित्री के प्रति हिंदी के लगाव का ही परिचायक है.

by arun dev
February 6, 2012
in अनुवाद
A A
वीस्वावा शिम्बोर्स्का: रीनू तलवाड़
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 वीस्वावा शिम्बोर्स्का

  (2 July 1923 – 1 February 2012)

व्याख्यान
कवि और उसका संसार: वीस्वावा शिम्बोर्स्का     

(१९९६ का साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार लेते हुए)

 

लोग कहते हैं किसी भी व्याख्यान में पहला वाक्य सबसे कठिन होता है. खैर, वह तो मैं कह चुकी. लेकिन, चूँकि मुझे कविता पर बोलना है, मुझे लगता है कि तीसरे, छटे, नवें और इसी तरह आखिरी वाक्य तक- सभी मुश्किल होंगे. इस विषय पर मैंने बहुत कम बोला है, वास्तव में नहीं के बराबर. और जब भी कभी बोला है, मन-ही-मन संदेह रहता है कि मैं अच्छे से नहीं कर पा रही हूँ. इसलिए मेरा भाषण निस्संदेह छोटा होगा. कमियाँ कम मात्रा में परोसी जाएँ तो पचानी आसान होती हैं.

समकालीन कवि वहमी और शक्की भी होते हैं, खासकर खुद को लेकर. वे भरी सभा में बड़ी अनिच्छा से अपना कवि होना स्वीकार करते हैं, जैसे इसमें उन्हें कोई शर्मिंदगी महसूस हो रही हो. इस कोलाहल के दौर में अपनी कमियां स्वीकार कर लेना कहीं सरल है; कम से कम तब जब वे मोहक पैकजिंग में मिल रही हों, बनिस्बत अपनी क़ाबलियत को पहचानने में; क्योंकि वह बहुत गहरे कहीं छिपी होती है और उस पर आपको खुद भी भरोसा नहीं होता…किसी प्रश्नावली को भरते समय या किसी अजनबी से बात करते समय, जब आप अपने व्यवसाय के बारे में बताना नहीं टाल सकते, तब कवि आम तौर से खुद को ‘कवि’ न बतलाकर ‘लेखक’ कहता है. दफ्तरशाह और बस के सहयात्री अविश्वास और शंका दर्शाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि वे एक कवि से मुखातिब हैं. मुझे लगता है कि लोगों की प्रतिक्रिया एक दार्शनिक के लिए भी ऐसी ही रहती होगी. परन्तु, वे ज़्यादा अच्छी हालत में हैं, क्योंकि उनकी इस नाम संज्ञा से उनकी विद्वता झलकती है. दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर – ये सुनने में कितना प्रणम्य लगता है.

लेकिन कविता के प्रोफेसर नहीं होते. इसका मतलब तो ये होगा कि कविता ऐसा व्यवसाय है, जिसमें विशेष अध्ययन, नियमित परीक्षा, सैद्धांतिक लेख, संदर्भग्रंथों और फुटनोट्स की सूची के साथ अंततः औपचारिक डिप्लोमा का दिया जाना भी आवश्यक है. और आगे इसका अर्थ यह निकलता है कि ढेर सारे पन्नों को सुन्दर कविताओं से भरना, कवि होने के लिए इतना काफी नहीं है. यानी महत्त्वपूर्ण तत्व कोई कागज़ का पुर्ज़ा ठहरा, जिस पर अधिकारिक मोहर का ठप्पा हो. आइये याद करें कि रूसी कविता के गौरव, भविष्य के नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ ब्रोड्स्की को एक बार आंतरिक निर्वासन की सज़ा इसी आधार पर सुनाई गई थी. उन लोगो ने उन्हें “परजीवी” सिर्फ इसलिए कहा क्योंकि उनके पास कवि कहलाने के लिए कोई सरकारी प्रमाणीकरण न था.

आज से कई वर्ष पहले मुझे ब्रोड्स्की से मिलने का गौरव प्राप्त हुआ था. और मैंने पाया कि जितने भी कवियों को मैं जानती थी उनमे से केवल वे ही थे जो खुद को कवि कहना पसंद करते थे. उन्होंने इस शब्द को बिना किसी झिझक के कहा. औरों से विपरीत उन्होंने बड़ी दिलेरी से ये बात कही. मुझे लगा कि इसके पीछे जवानी में उन पर बीता हिंसक अपमान भरा अनुभव ही रहा होगा. उन खुशकिस्मत देशों में जहाँ कवियों की प्रतिष्ठा को धक्का लगने का भय नहीं होता वहाँ वे निश्चित रूप से प्रकाशित होने, पढ़े जाने और समझे जाने की इच्छा रखते हैं, मगर वे स्वयं को सामान्यता से ऊपर उठाने, रोज़मर्रा की जद्दोजेहद से उबारने का बहुत कम प्रयत्न करते हैं. इस शताब्दी के पहले दशक से कवियों ने अपनी असाधारण पोशाक और अपने सनकी व्यवहार से लोगो को चौंकाया है, जो पहले नहीं हुआ करता था. पर ये सब आम जनता के बीच दिखावा था. वह पल भी आया जब कवियों को अपने पीछे दरवाज़े बंद करने पड़े, अपने दिखावे भरे लबादे और अन्य काव्यमय साज-सामान उतारने पड़े और सामना करना पड़ा — चुपचाप, धैर्य से अपना इंतज़ार करते हुए — शांत श्वेत कागज़ के पन्ने का. आखिर बस यही तो महत्वपूर्ण है.

ये आकस्मिक नहीं है कि थोक के भाव से वैज्ञानिकों और कलाकारों पर आत्मकथानक फ़िल्में बन रही हैं. महत्वकांक्षी निदेशक उस रचनात्मक प्रक्रिया को स्क्रीन पर फिर जीवंत करने की कोशिश में रत हैं, जिनके फलस्वरूप महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें और उत्कृष्ट कृतियाँ सामने आई हैं. और विज्ञान के विभिन्न क्रियाओं को कुछ सफलता के साथ दर्शाया भी जा सकता है. प्रयोगशालाएँ, नानाविध यंत्र, सुपरिष्कृत मशीनें दिखाई जाती हैं: इस तरह के दृश्य दर्शकों की रूचि को कुछ समय तक रुझाने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं. और अनिश्चितता के वह क्षण — छोटे से बदलाव के साथ हजारवीं बार किया गया यह प्रयोग क्या अंतत: वांछित परिणाम देगा ? — काफी नाटकीय हो सकता है ऐसा प्रयोग. चित्रकारों पर बनी फ़िल्में भव्य हो सकती हैं, क्योंकि वे प्रसिद्ध पेंटिंग्स के क्रमिक विकास के प्रत्येक सोपान को फिर से जिलाती हैं, पेंसिल से खींची पहली रेखा से अंतिम ब्रश स्ट्रोक तक. संगीतकारों पर बनी फिल्मों में संगीत सर्वोपरि होता है: वह किसी धुन के कुछ स्वर जो पहलेपहल गूंजते हैं संगीतकार के कानों में और आखिरकार एक परिपक्व सिम्फनी बन कर उभरते हैं. बेशक ये सब बहुत सरल, सादा है पर इससे उस अजब मनोस्थिति का भान नहीं होता, जो आम तौर से प्रेरणा कहलाती है, कम-से-कम वहाँ कुछ देखने और सुनने को तो रहता है.

किन्तु कवि तो सबसे अधिक खस्ता हाल में हैं. उनका काम ज़रा भी फोटोजेनिक नहीं होता है. कोई मेज पर बैठा है या सोफे पर पसरा है और देर तक टकटकी लगाये दीवार या छत घूर रहा है. कभी-कभार यह व्यक्ति सात पंक्तियाँ लिखता है और पंद्रह मिनिट के बाद उनमें से एक काट देता है, और फिर अगला घंटा यूँ ही बीत जाता है, जिसमें कुछ नहीं होता…इस तरह का कुछ कौन देख पाएगा?

मैंने प्रेरणा का ज़िक्र किया है. समकालीन कवियों से यदि यह प्रश्न किया जाए और पूछ लिया जाए कि क्या यह सचमुच होती है तो वे इसका अस्पष्ट उत्तर ही देंगे. ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी इस आंतरिक प्रेरणा के फायदों का आभास नहीं है. जो आप स्वयं नहीं समझते, किसी और को वह बात बताना इतना आसान नहीं है.

जब भी कभी मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है, मैं भी टालने की कोशिश करती हूँ. पर मेरा उत्तर यह है: सामन्य रूप से प्रेरणा किसी कवि या कलाकार का विशिष्ट एकाधिकार नहीं है. ऐसा है, रहा है और रहेगा कि लोगों के एक विशेष समुदाय को ही प्रेरणा मिलती है. ये उन लोगों से बनता है जो जागृत होकर अपनी जीवन वृत्ति का चुनाव करते हैं और अपने काम को प्रेम व कल्पनाशीलता से करते हैं. ये डॉक्टर, अध्यापक, बागवान हो सकते हैं — मैं सैंकड़ों अन्य उद्यम आपको गिना सकती हूँ. उनका काम सतत बीड़ा उठाने वाला काम हो सकता है जिसमें वे रोज़ कुछ नयी चुनौतियाँ तलाश लेते हैं. मुश्किलें और धक्के उनके कौतूहल को कभी नहीं दबा पाते. जिस भी समस्या का समाधान वे करते हैं उससे नए प्रश्नों की एक भीड़-सी उमड़ आती है. जो भी प्रेरणा है, वह एक सतत “मैं नहीं जानता” भाव से उत्पन्न होती है.

ऐसे लोग बहुत अधिक नहीं हैं. अधिकांश पृथ्वी-वासी केवल जीवन चलाने भर के लिए काम करते हैं. वे काम करते हैं क्योंकि मजबूरी है. उन्होंने ये काम या वो काम किसी जोश या धुन में नहीं चुना था, बल्कि उनके जीवन की परिस्थितियों ने किया था वह चुनाव. इंसान का कठोरतम दुर्भाग्य है — प्रेमविहीन काम, नीरस काम, काम जिसका मूल्य इस से तय होता है कि औरों के पास तो वो भी नहीं, भले ही वह कितना भी प्रेम विहीन या उबाऊ क्यों न हो. और ऐसा कुछ परिलक्षित नहीं है कि आने वाली सदियों में हम इस स्थिति को किसी तरह बेहतर कर पायेंगे.

और इस तरह, भले ही मैं प्रेरणा के मामले में कवियों के एकाधिपत्य को नकारती हूँ, मैं अभी भी उन्हें विशेष रूप से किस्मत का धनी समुदाय मानती हूँ

हो सकता है कि अब कुछ संदेह मेरे श्रोताओं के मन में उठे. सभी तरह के अत्याचारी, तानाशाह, कट्टरपंथी और जन समुदायों के नेता जो हुकूमत हासिल करने के लिए नारे लगा-लगा कर संघर्ष करते हैं, वे भी अपने काम में आनंद उठाते हैं, और वे भी अपने दायित्वों को मौलिक उत्साह से निभाते हैं. अरे हाँ, मगर वे ‘जानते’ हैं. वे जानते हैं, और जितना भी वे जानते हैं वह हमेशा के लिए जानते है. वे कुछ और जानना नहीं चाहते क्योंकि निस्संदेह वह उनकी दलीलों की ताकत को कम कर सकता है. और कोई भी ज्ञान जो प्रश्नों की तरफ आपको नहीं ले जाता, जल्दी ही मर जाता है. वह जीवन की ऊष्मा बनाये रखने में असफल रहता है. किन्ही चरम मामलों में तो, जो प्राचीन और आधुनिक इतिहास में अच्छी तरह जाने जाते हैं, वह समाज के लिए प्राणघाती तक सिद्ध हुए हैं.

इसलिए मैं इस छोटे-से कथन “मैं नहीं जानती”, को खूब महत्त्व देती हूँ. ये छोटा है, पर अपने मज़बूत पंखों पर खूब उड़ता है. यह हमारे जीवन को व्यापक बनाता है और हमारी आंतरिक रिक्तता को भरता है, साथ ही उस बाह्य विस्तार का समायोजन भी करता है जिस में यह धरती भी स्थित है. अगर न्यूटन ने खुद से यह नहीं कहा होता कि, “मैं नहीं जानता “तो उनके बगीचे में गिरा सेब केवल ज़मीन पर गिरने वाले ओलों की तरह होता, जिसे वह झुक कर उठाते और आनंद लेकर ढकोस जाते. मेरी हमवतन मारिया स्क्लोडसका-करी (Madam Curie) ने यदि खुद से मैं नहीं जानती नहीं कहा होता तो वे किसी निजी हाईस्कूल में अच्छे परिवार की जवान स्त्रियों को रसायन शास्त्र पद्धति पढाती रह जाती और इस तरह एक सम्मानीय नौकरी करते हुए उन्होंने अपने दिन बिता दिए होते. मगर वे बराबर मैं नहीं जानती कहती रही, और ये शब्द ही उन्हें एक नहीं, बल्कि दो बार स्टॉकहोम ले गए, जहां बेचैन उत्साही जिज्ञासु नोबल पुरस्कार पाते हैं. एक सच्चे ईमानदार कवि को भी लगातार खुद से यह कहते रहना चाहिए “मैं कुछ नहीं जानता . प्रत्येक कविता इसी कथन का उत्तर देने का प्रयत्न करती है और जैसे ही वह अपने समापन पर पहुँचने लगती है, कवि संदेह करने लगता है, और उसे समझ आने लगता है कि यह ख़ास उत्तर अपर्याप्त है, थोड़े समय के लिए किया गया उपाय मात्र है. और कवि निरंतर प्रयासशील रहते हैं और कभी न कभी उनके इस स्वयं से असंतोष के क्रमानुगत परिणाम साहित्यिक इतिहासकारों द्वारा पेपर-क्लिप से एक साथ नत्थी किये जाते हैं और कहलाते हैं उनकी ‘कृति’…

मैं अक्सर ऐसे हालातों के सपने देखती हूँ जिनका साकार होना प्रायः असंभव होता है. उदाहरणार्थ, मैं एक ढीठ कल्पना करती हूँ कि मुझे ऐकलेसिआस्त के साथ बात करने का मौका मिले, जो मनुष्य के निरर्थक प्रयासों पर लिखे मर्मस्पर्शी गीत के रचयिता थे. मैं उनके आगे झुक जाऊँगी, क्योंकि आखिर वे दुनिया के महानतम कवि है, कम-से-कम मेरे लिए तो. ऐसा करके मैं उनका हाथ थाम लूंगी “इस सूरज तले कुछ भी नया नहीं है, ऐसा ही कहा था न तुमने ऐकलेसिआस्त. मगर तुम स्वयं तो नए ही पैदा हुए थे सूर्य तले. और जो कविता तुमने रची, वह भी नई थी सूर्य तले, चूंकि उस से पहले उसे किसी ने नहीं लिखा था. और तुम्हारे सब पाठक भी नए हैं सूर्य तले, चूंकि जो तुम से पहले जीते थे, वे तुम्हारी कविता को नहीं पढ़ पाए कभी. और यह सरू का पेड़ जिसके तले तुम बैठे हो, वह समय की भोर से नहीं बढ़ा है. उसने अस्तित्व पाया एक और सरू के पेड़ से, जो मिलता-जुलता था तुम्हारे पेड़ से, मगर हूबहू नहीं. और ऐकलेसिआस्त, मैं तुमसे यह भी पूछना चाहूंगी कि सूरज तले अब तुम कौन-सी नई चीज़ पर काम करने की सोच रहे हो? जो विचार तुम व्यक्त कर चुके हो उन्हीं का एक परिशिष्ट? या तुम्हारा उनका खंडन करने का मन हो रहा है? अपनी पूर्व कृति में तुमने बात की थी सुख की — क्या हुआ अगर वह क्षणभंगुर है? तो शायद तुम्हारी नई सूर्य-के-तले वाली कविता सुख के बारे में होगी? क्या तुमने नोट्स ले लिए हैं, कोई ड्राफ्ट बना डाला है? मुझे नहीं लगता है कि तुम कहोगे, ‘मैंने सब लिख लिया है, मेरे पास उसमे जोड़ने के लिए कुछ भी नहीं.’ दुनिया में कोई कवि नहीं है जो ऐसा कह सके, और तुम्हारे जैसा महान कवि तो बिलकुल ही नहीं.”

संसार — उसकी विशालता और अपनी शक्तिहीनता देखकर हम चाहे जो भी सोचें, या उसकी व्यक्तिगत दुखों के प्रति — चाहे वे मानव की हों, पशुओं की या फिर पेड़-पौधे की क्यों न हो, इन के प्रति उदासीनता देखकर हम कड़वाहट से भर जाएँ. तब हम सोचेंगे कि अभी तक हम ये भरोसा कैसे करते रहे कि पौधे दर्द नहीं महसूसते; इसके विस्तार के बारे में हम जो भी सोचें क्या सितारों के चारों ओर घूमते ग्रह उनकी किरणों से बिंधने वाले नहीं हैं ? क्या ये खोज का आरम्भ मात्र नहीं है ? बहुत से ग्रह मर नहीं चुके हैं ? अभी भी मृत हैं ? हमें अभी भी नहीं पता; हम जो कुछ भी इस अथाह रंगशाला के लिए सोच रहे हैं, जिसके लिए हमने अपने टिकिट सुरक्षित करवाए हैं, वे ऐसे टिकिट हैं जिनकी जिन्दगी हास्यास्पद रूप से छोटी है, जो दो मनमानी तारीखों के बीच फंसी है ; इस संसार के बारे में हम और जो भी चाहे सोचें — यह विस्मयकारी है.

पर “विस्मय” यह एक विशेषण है जो तर्क-संगत जाल को खुद में छिपाए है. आखिरकार हम चकित हैं, उन चीज़ों पर जो सर्वत्र ज्ञात कसौटियों से अलग होती दीख रही हैं, और जिसकी प्रत्यक्षता के हम आदी हो गए हैं. मुद्दा यह है, कि ऐसी कोई प्रत्यक्ष दुनिया है ही नहीं. हमारे आश्चर्य का अस्तित्व है और वह किन्हीं तुलनाओं पर आधारित नहीं है.

मान लेते हैं की रोज़मर्रा की बातचीत में हम उन उक्तियों को स्वीकृति देते चलते हैं जो कहती हैं कि “यह संसार साधारण है”, “जीवन कितना सामान्य है”, “कितनी औसत घटनाएँ हैं “…. पर कविता की भाषा में हर शब्द का वज़न होता है, वहाँ कुछ भी सामान्य या मामूली नहीं है. न एक भी पत्थर और न ही उस पर मंडराता एक अकेला बादल. एक भी दिन नहीं, और उसके बाद आती एक भी रात नहीं. और सबसे ज़रूरी, एक भी अस्तित्व नहीं, दुनिया में किसी का अस्तित्व नहीं.

लगता है कवियों का काम हमेशा पूर्वनिर्धारित होगा.

 
(अंग्रजी से हिंदी अनुवाद- रीनू तलवाड़)

 

कविताएँ

 

आरम्भ और अंत

हर युद्ध के बाद
करनी होगी किसी को तो सफाई.
आखिर, सब स्वयं ही
ठीक तो नहीं हो जाएगा.

किसी को तो हटाना होगा मलबा,
करनी होंगी सड़कें साफ़,
ताकि मिल सके रास्ता
लाशों से लदी गाड़ियों को.

किसी को तो उतरना होगा
कीचड़ में और राख में,
सोफों के स्प्रिंग,
कांच की किरचन,
खून से सने चिथड़ों में.

किसी को तो खींच कर लानी होगी शहतीर
देने के लिए ढहती दीवार को सहारा
किसी को तो जड़ना होगा खिड़की में शीशा
फिर-से लगाना होगा दरवाज़ा.

यह सब चलेगा कई साल यूँ ही
नहीं है तस्वीर खींचे जाने लायक भी.
अब जा चुके हैं सभी कैमरे
किसी और युद्ध को खोजने.

अब फिर चाहिए होंगे हमें
पुल और नए रेलवे-स्टेशन.
अब फिर से फटने लगेगीं
ऊपर चढाने से आस्तीने.

हाथ में झाड़ू लिए, याद करता है कोई
कि पहले सब कैसा था
कोई सुनता है, और हाँ में हिलाता है
अपना अनकटा सर.
और आस-पास खड़े अन्य लोग
ऊब चुके हैं पहले ही इस सब से.

झाड़ियों के नीचे से
कभी कोई खोद निकालता है
ज़ंग-खाई बहसें
और डाल आता है उन्हें कूड़े के ढेर पर.

वे जो जानते थे
कि यहाँ क्या हो रहा था,
उन्हें देनी होगी जगह उनको
जो बहुत कम जानते हैं.
कम से भी कम.
यहाँ तक कि कुछ नहीं से भी कम.

इस घास में, जो हो गयी है बड़ी
कारणों और वजहों से भी,
लेटा होगा कोई पैर पसार के
मुंह में घास का तिनका चबाए
बादलों को ताकता हुआ.

वास्तविकता की मांग है

वास्तविकता की मांग है
और हम भी वही कहते हैं:
जीवन चलता रहता है.
कैनी और बोरोदिनो के पास भी
वह ऐसा करता है,
कोसोवो पोल्य और गैर्निका में भी.

जेरिको के छोटे-से चौक में
है एक पेट्रोल-पम्प,
और बिला होरा के पास
हैं ताज़े पेन्ट किये हुए बेंच,
चिट्ठियाँ करती हैं यात्रा
पर्ल हार्बर और हेस्टिंग्ज़ के बीच,
कैरनिया के शेर की आँखों के सामने से
गुज़रता है एक फर्नीचर से लदा ट्रक,
और वेर्दां के समीप फूलते बागानों की ओर
बढ़ता है केवल एक वायुमंडलीय मोर्चा.

इतने आधिक्य में है सबकुछ
कि कुछ नहीं है अच्छे-से छिपा हुआ.
संगीत उठता है
एक्टियम के पास बंधी नौकाओं से
और उन पर सवार जोड़े थिरकते हैं धूप में.

इतना कुछ घटित होता रहता है
कि वह सब जगह ही घटित होता होगा.
जहाँ पत्थरों का ऊँचा-सा ढेर है
वहाँ है एक आइसक्रीम की ठेली
बच्चों से घिरी हुई.
जहाँ हिरोशिमा हुआ करता था
हिरोशिमा फिर-से है
रोज़मर्रा की चीज़ों का
उत्पादन करता हुआ.

नहीं है यह भयानक दुनिया सौंदर्य से वंचित,
नहीं है वंचित ऐसी सुबह से
जो हो हमारे जागने के लायक.

मचीयोवित्ज़ा की रणभूमि में
घास हरी है
और घास पर है — तुम जानते हो घास कैसी होती है —
ओस की निर्मल बूंदें.

शायद युद्ध के मैदानों के सिवा कोई मैदान नहीं,
जो अभी भी याद किये जाते हों,
जो कब के भुलाये जा चुके हों,
भोज-वृक्ष और देवदारों के जंगल,
बर्फ़ और रेत, इन्द्रधनुष झलकाती दलदलें,
और हार की अँधेरी घाटियाँ
जहाँ आज, ज़रुरत पड़ने पर,
आप बैठ जाते हैं एक झाड़ी के पीछे.

कौन-सी समझ बह निकलती है इस सब से ? शायद कोई नहीं.
जो वास्तव में बहता है, वह है जल्द सूखने वाला खून,
और हमेशा की तरह, कुछ नदियाँ और बादल.

दुखदायक पहाड़ी दर्रों पर
हवा उड़ा ले जाती है हमारे सर से टोपियाँ
और हम नहीं कर पाते कुछ भी ओर —
सिवा हँसने के.

यास्वो के समीप भुखमरी कैंप

लिख लो. लिखो इसे. आम स्याही से
आम कागज़ पे, उन्हें खाना नहीं दिया गया था,
वे सब भूख से मर गए. सब. कितने थे?
घास का मैदान काफी बड़ा है. कितनी घास
हिस्से आई होगी हरेक के ? लिख लो: मैं नहीं जानता.
इतिहास गोल कर देता है कंकालों का हिसाब.
एक हज़ार एक भी हज़ार ही गिने जाते हैं.
वह एक तो जैसे कभी था ही नहीं:
एक फ़र्ज़ी भ्रूण, एक खाली पलना,
एक कायदा जो खुला नहीं किसी के लिए,
हवा जो हँसती, रोती, और बढ़ती है,
शून्य को जाती सीढियाँ जो पहुँच जाती हैं बगीचे में
कतार में वह स्थान जो किसी का भी नहीं है.

ठीक यहीं वह बना एक देह, इस घास के मैदान में.
मगर खरीदे हुए गवाहों की तरह, मौन है मैदान.
धूप में नहाया. हरा. पास ही में जंगल है
जिसमें थी चबाने के लिए लकड़ी,
पीने के लिए थी छाल के नीचे एकत्रित पानी की बूँदें —
एक सुन्दर दृश्य हाथ बाँधे खड़ा रहता था हर समय
जब तक कि आप अंधे न हो जाएँ. ऊपर, एक पंछी
जिसकी छाया फिराती थी अपने पौष्टिक पंख
उनके होंठों पर. जबड़े खुल जाते थे,
दाँत किटकिटाते थे.

और रात को एक हँसिया चमकती थी आकाश में
और काटती थी अँधेरा, सपनों में देखी रोटियों के लिए.
ईश्वर के झुलसे हुए प्रतिरूपों से निकल निकल आते थे हाथ
पकड़े हुए एक रीता चषक.
एक आदमी लड़खड़ा गया
कँटीली तार पर.
कुछ ने मुँह में मिटटी लिए, गीत गाया. वह प्यारा-सा गीत
जो कहता है कि युद्ध करता है प्रहार सीधे दिल पर.
लिखो सब कितना शांत है.
हाँ.

खाली अपार्टमेंट में बिल्ली

मर जाना —
ऐसा तो नहीं कर सकते आप एक बिल्ली के साथ.
चूंकि एक बिल्ली कर भी क्या सकती है
खाली अपार्टमेन्ट में?
दीवारें नाप सकती है?
कुर्सी-मेजों से रगड़ सकती है खुद को?
यहाँ कुछ भी अलग नहीं लगता,
मगर कुछ भी पहले जैसा नहीं है.
कुछ भी हिलाया नहीं गया,
मगर बढ़ गयी है खाली जगह.
और रात में कोई बत्तियां भी नहीं जलाई जाती.
जीने में पैरों की चाप है,
मगर वह नई है.
जो रखता है मछली के टुकड़े तश्तरी में
बदल गया है वह हाथ भी.
कुछ है, जो नहीं होता शुरू
अपने नियत समय पर.
कुछ है, जो नहीं होता वैसे
जैसे होना चाहिए.
कोई हमेशा हमेशा होता था यहाँ,
फिर अचानक गायब हो गया,
और किसी ज़िद में रहता है गायब ही.

मूल पोलिश से अंग्रेजी में अनुवाद (स्तानिस्वाव बरंजाक व क्लेर कावानाह),
हिंदी में अनुवाद -रीनू तलवाड़, अपर्णा मनोज

रीनू तलवाड़
२१ अप्रैल १९६९. चंडीगढ़

कई वर्षों से  फ्रेंच पढ़ा रही हैं. कवयित्री, समीक्षक,अनुवादक.विश्व भर की कविताओं का हिंदी में अनुवाद.
नियमित रूप से अखबारों में साहित्य, रंगमंच व सिनेमा  पर लेखन
ई पता :reenu.talwarshukla@gmail.com


Tags: अपर्णा मनोजनोबल पुरस्कार'रीनू तलवाड़वीस्वावा शिम्बोर्स्का
ShareTweetSend
Previous Post

बहस तलब : रचना और आलोचना का सवाल : ७ सुशील कृष्ण गोरे

Next Post

बहसतलब (८ ) आलोचना का संकट : कितना वास्तविक :: गंगा सहाय मीणा

Related Posts

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ
अनुवाद

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ

असहमति- 2 : कविताएँ
विशेष

असहमति- 2 : कविताएँ

मिलान कुंदेरा: लीन्योरॉन्स: अनुवाद: रीनू तलवाड़
अनुवाद

मिलान कुंदेरा: लीन्योरॉन्स: अनुवाद: रीनू तलवाड़

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक