संघ चिठ्ठा
अखिलेश
सोवियत संघ में मनाये जाने वाले ‘भारत महोत्सव’ में भारत भवन ने समकालीन कला प्रदर्शनी लगाई. १९९६ की सितम्बर की एक शाम जब पूरी प्रदर्शनी जिन्हे कुछ लकड़ी के बॉक्स में पैक किया गया था, जिसमें एक बॉक्स में रामकुमार का चित्र ‘माचू-पिचू’ था जो अपने आकार में बड़ा होने के कारण इतने बड़े बॉक्स में बंद था कि इन बॉक्स को साधारण ७४७ हवाई जहाज से नहीं भेजा जा सका. भारत सरकार के आग्रह पर देर रात रूस से विशेष हवाई जहाज आया और इन सब बॉक्स को मेरे सामने रात लगभग तीन बजे लादा गया. वे चित्र रूस जा चुके थे दूसरे दिन मैं भी रूस की राजधानी मस्कवा पहुँच गया. दूतावास से कोई मुझे लेने आया हुआ था और उस शाम जब हम इन बॉक्स को लेने हवाई अड्डे पहुँचे तो पता लगा कि वे अभी आये नहीं. जाहिर है मुझे आश्चर्य होना था जिसका कुछ हिस्सा अभी दूतावास जाकर मुझे बढ़ाना था. दूतावास के अधिकारी ने मुझे जरूरी हिदायतें दी जिनका पालन मुझे मस्कवा में अपनी जान बचाने के लिए करना था.
१. शाम सात बजे बाद होटल से बाहर नहीं जाना है.
२. मैट्रो ट्रैन में अकेले सफर नहीं करना है.
३. मेट्रो स्टेशन के लम्बे गलियारे हों तो उसे अकेले नहीं पार करना है.
४. किसी अजनबी से वोदका का गिलास नहीं लेना है.
५. जेब में ज्यादा पैसे लेकर बाहर नहीं जाना है.
मैंने पूछा भाई ऐसा क्यों ? किसका आतंक है ?
सीधे जवाब मिला “कम्युनिस्ट” का.
फिर मुझे समझाया गया कि अब यहाँ के कम्युनिस्ट ‘माफिया’ बन चुके हैं और इस तरह की गतिविधियाँ लगातार करते रहते है खासतौर से किसी विदेशी को देखकर उसे निशाना बनाते हैं. मैंने कहा पेरेस्त्रोइका और ग्लास्तनोस्त का क्या हुआ ? अब तो ये एक खुला है. उन्होंने बतलाया वो सब भी ख़त्म हो चुका है और अब एक अराजक स्थिति है जिसमें कुछ भी सम्भव है. संघ के परिणाम अभी भी भुगतना है. माफिया ने पिछले हफ्ते एक दुकानदार को उसकी दुकान के सामने गोली मार दी और लाश आतंक फ़ैलाने के लिए पूरे दिन वही पड़े रहने दिया. पुलिस भी नहीं हटा सकी. उस वक़्त मुझे ये अंदाजा नहीं हुआ कि इस महान देश के झूठों के बारे में और पता चलना है. लोहे की दीवार के पीछे का कटु सत्य उस भुक्तभोगी से सुनना है जिसका नाम लुडमिला था और आने वाले दिनों में वो मेरी दुभाषिया होने वाली है.
दूसरे दिन सुबह सुबह एक खूबसूरत लड़की ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया, मेरा स्वागत किया और बतलाया कि सुबह का नाश्ता नीचे रेस्तराँ में मेरा इन्तजार कर रहा है. रंग-बिरंगी सलाद, सूखी डबलरोटी, उबले अण्डे और कुनकुनी कॉफी पीते हुए मैंने लुडमिला से बात शुरू करते हुए उसके बारे में पूछना शुरू किया. वो अपनी शिक्षा पूरी करने के दौरान ही दूसरी भाषाएँ सीखने लगी थी और उसे करीब चार भाषाएँ आती थी. उसका काम ही था कि बाहर से आने वाले अतिथियों के लिए वो दुभाषिया थी. उसने बहुत उत्साह से आस पास की दर्शनीय जगहों के बारे में बताया और कहा कि मैं सबसे पहले आपको मेट्रो स्टेशन ले चलूंगी. मैंने याद दिलाया हमें हवाई अड्डे जाना है जहाँ शायद अब हमारे चित्र आ चुके होंगे उन्हें लेकर प्रदर्शनी वाली जगह ले जाना था. वो बोली हाँ ये सब के लिए अभी बहुत समय है सुबह घूमने के लिए हम मेट्रो स्टेशन चलेंगे.
वो मुझे मेट्रो स्टशन ले चली. जो पास ही था जिसके लिए हम लगभग दो किलोमीटर चले होंगे. स्टेशन में घुसे तो मेरी आँखे चौंधियाँ गई. विशाल स्टेशन चमचमाता हुआ. सैकड़ो लोग इधर उधर आ जा रहे हैं. सभी कुछ सुव्यवस्थित, सुचारु रूप से संचालित, सुरुचि के साथ बना ठना ये स्टेशन दुनिया के अनेक मेट्रो स्टेशन से बेहतर और शानदार था. हम लोग स्टेशन की चौड़ी संगमरमर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे. मेरे ख्याल से करीब तीन मंजिल नीचे उतरे होंगे जहाँ से अलग अलग स्थानों के लिए कई रास्ते खुल रहे थे. भीतर की ये जगह दूर तक चली जा रही थी और बीच में जहाँ से अलग स्टेशन के लिए मेट्रो लाइन रही होंगी उस चौराहे नुमा जगह पर विशाल मूर्तियाँ लगी हुई थी जो मजदूरों के झुण्ड थे या समूह में काम के लिए जाते हुए मजदूर. पीतल में ढली ये मूर्तियाँ कलात्मक और आकर्षित करने वाली थी. मुझे अच्छा लगा और मैं ध्यान और जिज्ञासा से इस भव्यता देखते हुए चल रहा था, स्टेशन की सजावट देख रहा था कि लुडमिला ने बतलाया लेनिन इसे “palace of people” कहता था.
मेरा ध्यान इस तरफ गया कि वाकई ये जगह किसी राजमहल की तरह जगमगाती हुई अपनी भव्यता में अनूठी है. न्यूयोर्क, लन्दन, पेरिस, जर्मनी या जापान के प्रमुख मेट्रो स्टेशन इस के सामने कुछ नहीं हैं. उनकी विशालता में कोई भव्यता नहीं दिखाई देती. ये किसी भी तरह स्टेशन नहीं था. राजप्रसाद का एक हिस्सा लग रहा था. लगभग एक घण्टा हम लोगो ने वहाँ बिताया लुडमिला मुझे अपनी व्यावसायिक बुद्धि से शहर के बारे में और किसी बहाने ये भी जानने की कोशिश कर रही थी कि मेरी रुचियाँ क्या हैं, कौनसी जगह मैं देखना पसन्द करूँगा कहाँ कहाँ वो ले जा सकती है आदि आदि.
फिर हम लोग हवाई अड्डे के लिए चल दिए. जहाँ जाकर पता चला कि अभी तक हमारा सामान नहीं आया है. लुडमिला ने भरपूर कोशिश की ये जानने की कि सामान कहाँ रुका हुआ है और अभी तक क्यों नहीं आया ? किन्तु कुछ खास पता नहीं चल सका. हम लोग वापस लौट आये. मुझे अब चिन्ता होने लगी कि मेरे सामने पूरी प्रदर्शनी दिल्ली से मास्को के लिए निकल चुकी थी और अब दो दिन हो गए हैं पहुँची नहीं ?
तीसरे दिन भी हमारा सामान नहीं आया था. लौटते हुए लुडमिला ने कहा ऐसा हो नहीं सकता कि सामान नहीं आया हो. यहाँ कम्युनिस्ट बैठते हैं आज उन्होंने मुझे इशारा किया है कि कुछ रिश्वत देने से काम चल जायेगा और वे पता लगा सकेंगे कि कहाँ अटका हुआ है सामान. मेरी चिन्ता बढ़ रही थी कि प्रदर्शनी लगाने का समय उतना नहीं मिलेगा. बॉक्स खोलना और चित्र अनपैक करना आदि बहुत सारा काम काफी समय माँगता है. उस दिन हम लोग संग्रहालय चले गए जहाँ रुसी यथार्थवादी चित्रों की भरमार थी. संघ के शासन काल में कोई चित्रकार संघ की नीतियों से अलग चित्र नहीं बना सकता था. सारे चित्रों में कम्युनिस्ट पार्टी का गुणगान या ऐसा एक सन्देश चित्रित था जिसे सीधे समझा जा सकता था.
वे चित्र कम पोस्टर ज्यादा थे जिन्हे चित्र की तरह बनाया गया. मैंने पूछा यहाँ मालेविच, शागाल, कैंडिंस्की या रॉथकोविच के चित्र नहीं हैं ? लुडमिला का जवाब था बिलकुल नहीं हो सकते हैं. मैं सोच रहा था इन चित्रकारों ने दुनिया की कला को नयी दिशा दी. अपने चित्रों से संसार का देखना बदल दिया और इन्हे अपने ही देश के महत्वपूर्ण संग्रहालय में जगह नहीं मिली ? वहाँ बहुत से विदेशी चित्रकार भी थे पिकासो, डाली, माने, तुलुस लौत्रे आदि अनेक जो इन सब को मानते थे चाहते थे किन्तु इनके अपने देश में पार्टी लाइन के बाहर होने के कारण वे यहाँ नहीं है. मेरी बहुत इच्छा थी कि मालेविच का केटलॉग या उस पर कोई पुस्तक मिल जाये तो मैं खरीद सकता हूँ किन्तु ये सब वहाँ कहाँ था ?
ये चित्रकार आज भी प्रतिबन्धित हैं. इन्हे अपनी जान बचने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा. ये वो चित्रकार थे जिन्होंने पार्टी की नीतियों पर (चित्र ) पोस्टर बनाना मंजूर नहीं किया था सो उनके लिए दो ही जगह तय थी कब्रिस्तान या परदेस.
उन्होंने परदेस चुना और दुनिया की कला को प्रभावित किया. हर्मिताज जैसे विश्व प्रसिद्ध संग्रहालय में वहीँ के कलाकारों को न पाकर मेरी निराशा को दूर करने लुडमिला कॉफी पिलाने कैफ़े ले गई जो उसी परिसर में था. वहाँ बैठकर उसने पहली बार धीमी आवाज में बतलाना शुरू किया कि कैसे देश के महत्वपूर्ण कलाकार, लेखक और वे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टी के अत्याचारों के ख़िलाफ़ थे उन्हें मारा गया या देश छोड़कर जाना पड़ा. ये संख्या हज़ारो में है. मानो वो कोई रहस्य खोल रही है. वो फुसफुसा रही थी मैंने कहा अब किस बात का डर है अब तो तुम आराम से बात कर सकती हो. उसका जवाब चौकाने वाला था. उसने कहा अब ज्यादा खतरा है. सारे कम्युनिस्ट माफिया में बदल गए हैं और वे उस काल की बुराई नहीं सुन सकते. सामान्य जीवन में ‘कम्युनिस्ट’ शब्द अब गाली की तरह प्रयोग में लाया जाता है और ये गाली माँ की गाली से ज्यादा चुभने वाली है. मैंने पूछा क्या रुसी भाषा में भी माँ की गाली होती है ? उसने कहा वो जितनी भाषाएँ जानती है सभी में माँ की गाली को प्रमुख स्थान प्राप्त है.
आज काफी गरम थी मौसम ठण्डा था और हम लोग उस मौसम की शीतलता में राजनीति, कम्युनिस्ट जैसे घटिया विषय पर बात कर रहे थे. मैंने मन ही मन सोचा और विषय बदल दिया. मैंने कहा चेखव का घर देखना चाहता हूँ जो पास ही में कहीं हैं. वो उत्साहित हो गई. उसे अच्छा लगा कि मैंने चेखव का नाम लिया जिसका घर और दवाखाना साथ ही साथ है.
‘आपने पहला रुसी लेखक कौनसा पढ़ा ?’
‘गोगोल’
‘कैसा लगा ?’
‘हम्म्म ठीक’
वो अब जानना चाहती थी मेरी घुसपैठ कितनी है रुसी साहित्य में. मैंने कुछ पढ़ा नहीं था मैं क्या बतलाता ? दोस्तोवस्की, पुश्किन, तोल्स्तोय, गोर्की, शोलोखोव, अख़्मातोवा, मायकोवस्की और चेखव जैसे कुछ ही लेखकों की कुछ रचनाएं पढ़ी थी. वो भी अपनी रूचि से बरसों पहले. मैंने उसे बताया बहुत पहले जिस पाठ को मैं आज भी नहीं भूल पाता हूँ वो किसी रुसी लेखक का ही है जिसका नाम मुझे याद नहीं, जिसमें जंगल में लगी आग का वर्णन है. आग के बहाने उसने जंगल में फैली अफरा-तफरी का जो दृश्य खींचा है वो भुलाया नहीं जा सकता. हमलोग दूसरी बात करने लगे. वो मुझे चेखव के घर ले गई.
इन दो दिनों में मैंने जाना कि लुडमिला को भूख बहुत लगती थी. वो अक्सर शाम के खाने के बाद रुक जाया करती और रूस खासतौर पर मस्कवा के बारे में बहुत बातें किया करती. उसको पसंद था सैन्डविच. उसका सैंडविच भी विचित्र था, डबलरोटी के बीच केला रखकर वो चाव से खाया करती. छठे दिन जब हमलोग नाश्ता करने गए हॉल पूरा भरा हुआ था और बहुत से भारतीय कलाकार, गायक, नर्तक, लोक गायक, वहाँ मौजूद थे और दूतावास के कुछ लोग उन्हें समूह में वही सब बता रहे थे कि जान बचानी हो तो क्या करना है. भारतीय कलाकारों से ये निवेदन किया जा रहा था कि वे अपने कमरे से अगर फ़ोन करते हैं तो मस्कवा में कहीं भी फ़ोन करना मुफ्त है उसका कोई पैसा नहीं लगेगा, यदि वे अपने देश फ़ोन कर रहे हैं तो उसका भुगतान किये बगैर न जायें बाद में दूतावास को मुसीबत होती उसके भुगतान में. उसी सुबह मंजीत बावा आने वाले थे और उन्हें मैंने बतलाया कि अभी तक चित्र नहीं आएं हैं. आज हम लोग जल्दी ही जाने वाले हैं उन्हें छुड़ाने के लिए. मंजीत ने कहा हम सब साथ चलेंगे.
नाश्ते के बाद हम लोग हवाईअड्डे पहुंचे. मैंने देखा कि पीछे हमारे बॉक्स रखे हुए हैं किन्तु उनका जवाब वही था अभी पहुँचे नहीं. मैंने मंजीत को दिखलाया कि वे रहे बॉक्स और मंजीत ने उन्हें छुड़ाने के लिए रिश्वत दी. लुडमिला बहुत नाराज हुई और उसे शर्म भी आ रही थी और वो लौटते हए रास्ते भर उन्हें गालियाँ देती रही. वो शर्मिंदा हो रही थी इसलिए उसका गुस्सा ज्यादा बढ़ रहा था. उसने बताया कि अभी भी बहुत सी जगहों पर कम्युनिस्ट नौकरियों पर लगे हुए हैं और इनका काम ही अब ये बचा है कि देश को लूटे. मैंने पूछा कि क्या उस दौर में इस तरह होता था ? ये पूछना लुडमिला का नया रूप सामने ले आया. वो रोने लगी उसकी आँखों में बेबसी, दर्द गहरी पीड़ा, अपमान झलक आया.
इस बीच हम लोग दीर्घा पहुँच चुके थे. फिर मैं व्यस्त हो गया बहुत सा काम था और दिन थोड़े. लुडमिला भी कर्मठ थी और हम सब ने मिलकर एक शानदार प्रदर्शनी का उद्घाटन देखा. लोगों में उत्सुकता थी. प्रदर्शनी में हमने रुसी चित्रकार निकोलस रोरिक, जिन्होंने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्ष हिमालय में बिताये हिमालय के चित्र बनाते हुए, के चित्र भी शामिल किये थे जो नगमा से हमें लोन पर मिले थे. प्रदर्शनी के उद्घाटन की शाम दूतावास में सभी लोग आमंत्रित थे रात के भोजन के लिए जहाँ मेरी मुलाकात ओल्गा ओकुनेवा से हुई, जो मास्को में रह कर महाभारत पर काम कर रही थी. वे एक संजीदा print maker हैं. उनके etchings देखने लायक थे और वे खुद भी बहुत ही धीमे बात करने वाली थी. उनकी अंग्रेजी में कुछ रुसी जुबान का पहरा था जिसे समझने में मुझे बहुत ही मुश्किल हुई. उसी शाम मैंने उनसे पूछा कि आप हिन्दुस्तान आने को उत्सुक हैं. वे जल्द ही भारत आ सकेंगी इसका अंदाज उस वक़्त नहीं हुआ.
अगले दिन मेरे पास घूमने के अलावा अब कुछ काम न था और लुडमिला जो बहुत सी जगहों का वर्णन कर चुकी थी उसके साथ मैंने घूमना शुरू किया. पहले हम लोग एक चर्च गए जहाँ icon देखने योग्य थे. विशाल चित्र जिन पर सोने की परत चढ़ा कर उन्हें बनाया गया था चौदहवीं शताब्दी के ये चित्र लकड़ी के लट्ठों पर बने हुए थे. रंगों की चमक सोने के मुकाबले उतनी ही खुबसूरत और आकर्षक. ये मेरे लिए भी एक अनुभव था. इसके पहले मैंने इस तरह के चित्र देखे न थे और न ही कल्पना कि थी. मेरे ज्यादा पूछने पर लुडमिला ने एक चित्रकार से मिलवाने का वादा किया जो आज भी इस तरह के चित्र बनाता है.
मैंने पूछा कम्युनिस्टो ने ये सब बन्द नहीं कराया ? ये तो पाखण्ड और ढोंग है ऐसा हमारे यहाँ के मानते हैं. कोई भी पारम्परिक और साभ्यातिक नैरन्तर्य उनके लिए प्रगतिशीलता का विरोधी है. उसने बतलाया यहाँ सभी पारम्परिक बातें अभी भी चल रही हैं. हम उस कलाकार के यहाँ गए और उसने बहुत से चित्र दिखलाये जो सभी किसी के लिए बनाये गए थे वहाँ तीन चार लडकियाँ भी थी जो इस कला को सीख रही थी. वहीँ पता चला कि इन चित्रों को देश से बाहर ले जाना मना है और बहुत से लोग इसकी स्मगलिंग भी करते हैं. कई लोग नकली चित्र भी बना कर बेचते हैं.
उस दिन के लिए बहुत था हमलोग अमेरिकन कम्पनी मेक डोनाल्ड में दोपहर को बर्गर खाए थे अब कुछ भूख भी लग आई थी सो होटल लौट आये. हमारा होटल, मस्कवा होटल था जो बहुत बड़ा था जिसके चार हिस्से थे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण . इसमें तीन हज़ार कमरे थे और एक हिस्से से दूसरे हिस्से जाने के लिए लगभग एक डेढ़ किलोमीटर का फ़ासला तय करना होता था. मैं पूर्व विंग में था और हमलोग खाने की टेबल पर साथ बैठे थे. लुडमिला बता रही थी अपने बचपन के बारे में जो बहुत ही डर और सन्देह के साथ गुजरा जिसमें किसी पर न भरोसा न करना उसे बचपन में ही सीखना पड़ा.
वो बता रही थी उन दिनों मैं अपने भाई से और निश्चित ही भाई मुझसे डरता था. हम दोनों को ये लगता था कि दूसरा KGB का एजेंट है. हम ही क्यों पूरे मोहल्ले में सभी एक दूसरे पर शक करते थे और ये कहानियाँ लगातार सुनते थे कि उसके चाचा ने पानी पीने से इंकार किया तो दूसरे दिन उनकी लाश मिली या किसी ने मौसम की निन्दा की वो लापता हो गया. परिवार में सभी एक दूसरे पर शक करते थे. किसी को पता नहीं होता था कि कौन KGB का एजेंट है. हम सब एक दूसरे के Informer थे.
जब हम बच्चे थे हमारे घर में माहौल तनाव का हुआ करता. सभी को इन्तजार होता था घोषणा का. रेडियो पर घोषणा होती आज आलू मिलेंगे लोग भागकर लाइन लगाने लगते. आनन्-फानन में राशन की दुकान के सामने लम्बी लाइन लग जाती. दुकान खुलती तब तक बहुत से लोग चुपचाप लाइन में लग चुके होते. मरघट सी शान्ति में खड़े लोग अपनी बारी का इन्तजार करते. आलू मिलना शुरू होते और सबसे आगे लगे लोगों को फ़ायदा था कि उन्हें अच्छे आलू मिलते. राशन की दुकान से मिल रहे सामान पर प्रश्न करना गुनाह था. जब कोई शिकायत करता आलू ख़राब हैं फिर वो जीवन भर आलू नहीं खा सकता. वो किधर जाता पता नहीं चलता. लाइन में लगे हुए अक्सर ऐसा हुआ कि पापा का नम्बर आया तब तक आलू ख़त्म हो चुके थे और उन्हें टूथपेस्ट लेकर वापस आना पड़ता. ये जरूर था आलू दस पैसे में मिल रहे थे तो टूथपेस्ट भी दस पैसे का ही मिलता. इस तरह हम लोगों को जीवन में जब जो चाहिए था वो शायद ही कभी मिला हो.
पति पत्नी पर शक करता कि ये KGB है और पत्नी पति पर. सभी के आपसी सम्बन्ध दिखावटी थे. दूध लेने गए कोयला लेकर लौटे पिता की नज़रों में भय होता, माँ मन की बात नहीं कर सकती थी. सबके लिए रेडियो रक्षक नहीं राक्षस था जिस पर जो घोषणा होती उसे मानने के सिवा कोई चारा न था. लोग मिटटी भी नहीं खाते इस इस डर से कि पकडे जाने पर ये सिद्ध होगा कि खाने को नहीं मिलता जो इस सुनहरे शासन के खिलाफ़ वक्तव्य होगा. मिटटी खाना देश द्रोह है. हमारे लिए खेलने के मैदान नहीं होते थे. बगीचा स्वप्न था. बल्कि मैंने अपने बचपन में ये जाना ही नहीं कि बगीचा भी इस दुनिया में हुआ करता है.
जब में पहली बार जर्मनी गई तब बच्चों को खेलते देखा. मैं बड़ी देर तक उन्हें खेलते देखती रही. वहीँ मैंने जाना कि काफ़ी के कई प्रकार होते हैं. मैं पहली बार दुभाषिये के काम से देश से बाहर गई जर्मनी. एक शाम मेरी काफ़ी खत्म हो गई तो मैं लेने के लिए किसी स्टोर में घुसी और वहाँ काफ़ी के इतने प्रकार देख मैं रोने लगी. मुझे मालूम ही नहीं था कि एक मुचड़े कागज़ के पैकेट में मिल रही काफ़ी के अलावा भी काफ़ी होती है. मेरी दोस्त घबरा गई और मुझे पकड़ कर बाहर ले आई. उसे मैं बतला भी न सकी कि मैं क्यों रोई. बाद में कई बार उस स्टोर में गयी सिर्फ तरह तरह का सामान देखने. कितने तरह के आलू थे ! कितने तरह के साबुन ! अनेक चीजें मैंने पहली बार देखी. ठगे जाने का अहसास हुआ. बचपन के दिन आतंक और भय से भरे दिन थे.
लुडमिला अब रो रही थी उसके आसूँ आखों में जमा थे. डबडबाई आँखों से वो मुझे देख रही थी और उसने कोई उपक्रम भी नहीं किया उन्हें पोछने का.
लुडमिला जो बतला रही थी उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा था. उसका चेहरा धीरे धीरे लाल हो रहा था. हमारा बचपन खेल और मस्ती भरा नहीं था हम लोग शक और डर के कारण आपस में दोस्त भी नहीं बनते. एक चुप्पी बच्चों के बीच रहती. रोज हत्या, बलात्कार होने वाली घटनाओ से डरे हम लोग अपनी बार का इन्तजार करते. अख़बारों में छपा करता था नया सूरज, नयी सुबह, नया संसार आने वाला है, हम सब को उसका इंतजार करना है. वे कहा करते थे ‘ हम पुराने ढंग कि नैतिकता और मानवीयता का बहिष्कार करते हैं जो बुर्जुआ ने नीचे तबके के लोगों को दबाने और शोषण करने के लिए बनायीं हैं. हमारी नैतिकता का कोई उदहारण इसलिए नहीं है कि वो नए आदर्शों पर टिकी है. हमारा उद्देश्य पुराने ढंग के उन सभी तौर तरीको को नष्ट करना है जो शोषण और निर्मम अत्याचार के लिए बनाये गए हैं.
हमें सारे खून माफ़ हैं हमने लाल तलवार उठाई है दबाने और कुचलने के लिए नहीं बल्कि मानवता को मुक्त करने के लिए. खून पानी की तरह बहने दो, खून के धब्बो से झंडो को लाल होने दो जैसे समुद्री डाकुओं का काला झंडा होता था उसी तरह हमारा झंडा लाल होगा खून से भरा हमेशा के लिए. ये सब बातें डराने के लिए काफ़ी होती थी. हर दिन सुनाई देता बोल्शेविको ने कुछ लोगों का क़त्ल सड़क पर कर दिया. हत्या, बलात्कार चोरी, सामान्य बातें थी. ‘चेका’ लोग, जो भक्त थे इस लाल रंग के वे कोकीन और दूसरे नशों में डूबे रहते ताकि आसानी से इन हत्याओं को अंजाम दे सके.
बुर्जुआ लोगों के लिए जरूरी था कि वे अपनी सम्पति की घोषणा करे उन्हें बताना होता था कि कितने खाने का सामान, गहने, जूते, कपड़े, सायकिल, बिस्तर, चादर, बर्तन, आदि हैं. घोषित नहीं करने पर तत्काल मौत की सजा मुकर्रर थी. सभी बुर्जुआ थे, किसी को भी पकड़ा या मारा जाता था. दरवाजे पर दस्तक होती और दरवाज़ा खुलते ही गोली मार कर ‘चेका’ भाग जाता. क्यों मारा पता न चलता. सब देखते कोई पकड़ा नहीं जाता. सबको इन्तजार था नयी सुबह का, नए सूरज का. वो आता ही नहीं था.
मैं जब जर्मनी में थी उस वक़्त मेरे दोस्त ने मुझे गर्व से बतलाया कि पूरी बीसवीं शताब्दी दो जर्मन के नाम है हिटलर और कार्ल-मार्क्स. इन दोनों के पास नयी सुबह का विचार था और दोनों के कारण भरपूर रक्त शुद्धि हुई. हम जर्मन लगातार नए का इन्तजार करते रहे. दोनों के विचारों से हत्याएँ हुई और होती जा रही हैं. पूरी मानवता इस नए सूरज का इन्तजार कर रही है जो हर दिन नहीं आता. जो किसी दिन नहीं आया.
लुडमिला का रोना बढ़ रहा था.
लुडमिला से मुझे सहानुभूति नहीं हो रही थी. किन्तु जो वो कह रही थी उसमें सच का अंश महसूस हो रहा था, बनावटी कुछ नहीं लगा. ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के बाद अब गोर्वोचोव भी चुटकुला बन चुके थे. उनका मजाक टेलीविज़न पर लगातार उड़ाया जाता था. कोई जोकर बनकर आता है जिसके सर पर उसी तरह का जन्म चिन्ह रहता है जो गोर्वोचोव के सर पर था, और वो लगातार कुछ ऐसी हरकतें करता रहता, पिटता रहता लोग उसका मजाक उड़ाते. टी. वी. एंकर उसे छेड़ता रहता और जो कुछ कहता उसका मजाक बनता. सडकों पर भी गोर्वोचोव बने लगे जोकर दीख जाते जो कभी कभी पेरेस्त्रोइका या ग्लासनोस्त चिल्लाते रहते. लोग उन्हें धिक्कारते उनका मजाक उड़ाते और जब मैंने लुडमिला से इस बारे में पूछा तो उसने कहा आज लोगों के सामने कम्युनिस्ट यही बचा जो दूसरे के कर्मों का फल भुगत रहा है. इस समय रूस के लोगों के लिए कोई सबसा बड़ा दुश्मन है तो वह एक विचार जो हमने कार्ल मार्क्स से उधार लिया. कम्युनिज्म लोगों का दुश्मन है. और हम ही लोग मूर्ख थे जो उसके हाथों का खिलौना बने. हमारा संसार, हमारा समाज, हमारे लोगों के सामने अब उसकी पोल खुल गयी.
इस बीच भारतीय महोत्सव में आने वाले दो ग्रुप को सरे राह लूटा गया उनके कपड़े फाड़े गए और उनसे पैसे न मिलने पर उन्हें मारा गया. उनका गुनाह ये था कि वे सात बजे बाद कहीं मेट्रो के गलियारे से निकल रहे थे या किसी सुनसान में पकडे गए. इन घटनाओ के बाद हमें और सख्ती से बतलाया जाता अपना बचाव कैसे करना. पूरा मस्कवा कम्युनिस्ट आतंक से दहल रहा था. हम लोग सुरक्षित स्थान पर थे लुडमिला बतलाती जो लोग थोडा सा बाहरी इलाकों में हैं जहाँ उस तरह की निगरानी नहीं हो सकती, पुलिस जल्दी नहीं पहुँच सकती वहाँ हालात इससे ज्यादा बदतर हैं. उसका कहना था पहले हम लोग संघ के कम्युनिस्ट राज में जानवरों सा जीवन व्यतीत कर रहे थे अब उसके जाने के बाद संघ मुक्त आतंक का माहौल झेल रहे हैं. जानवरों सा जीवन बिताने के लिए मजबूर थे. हर कोई informer था. कोई भी भरोसे के लायक नहीं था. पिता हों या माँ. सब अपनी जान बचने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते थे. और जान कभी बचती नहीं थी. मैं बता नहीं सकती कि उन दिनों हमारे शहर में लगभग साठ-सत्तर लोग रोज मारे जाते थे.
इसका हिसाब नहीं था. कुछ भी हो सकता था कभी भी. रात को किसी भी वक़्त बोल्शेविक आकर आपको पकड ले जा सकते थे. कारण जान नहीं सकता. पड़ोस के लोग डर के मारे चुप रहते. देखकर अनदेखा करते. कोई बोलता नहीं था यदि बोला तो उसके बाद आपका नामो-निशां मिट जाता. वही हालात अभी भी हैं, मैं सुबह जब घर से निकलती हूँ तब मुझे पता नहीं होता कि आज शाम घर वापस आऊँगी या नहीं. कुछ भी हो सकता है.
ये सब घटनाएं हम लोग सुबह नाश्ते के साथ सुनते थे. लुडमिला कभी शर्म से कभी गुस्से से अपने देश को बचाती, सफाई देती और हमेशा कम्युनिस्टो को गरियाती.
एक दिन वो आदेश की कॉपी लेकर आई. ये आदेश १९२१ में किसी जिले का था. इसमें साफ़ लिखा हुआ था
१. किसी भी नागरिक को उसी वक़्त गोली मार दी जाये जब वो अपना नाम नहीं बता रहा हो.
२. जिला अधिकारी और स्थानीय नेता को ये अधिकार दिए जाते हैं कि किसी के घर से हथियार पाए जाने पर उन्हें तत्काल गोली मार दी जाये.
३. हथियार मिलने पर सबसे पहले घर के बड़े लडके को गोली मार कर ख़त्म किया जाये.
४. किसी भी परिवार ने यदि किसी विद्रोही को छुपा रखा है तो सबसे पहले उनकी संपत्ति जब्त की जाये उन्हें जिलाबदर किया जाये और बड़े लड़के को मार दिया जाये.
५. किसी भी परिवार ने यदि दूसरे परिवार के लोगों को शरण दे रखी है, जिसने विद्रोही को छुपाया था उन्हें भी वही सजा दी जाये.
६. विद्रोही अगर भाग गया है उसका परिवार भी नहीं है तब उनकी संपत्ति जब्त कर उन लोगों को बाँट दी जाये जो सरकार के साथ हैं और उनके मकान जला दिए जाये.
७. इन आदेशों का पालन बिना किसी दया भाव के कठोरता से किया जाये.
इस तरह के आदेश हर जिले में वहाँ के चेका भक्त अपनी सुविधा से निकाला करते और उनका पालन जबरदस्ती कराया जाता. मुझे या किसी रुसी को पता नहीं था कि रूस के बाहर की दुनिया अलग है. मैं जब जर्मनी गई तो वहाँ आज़ादी का रूप देख रात भर रोई. हम लोग नरक में रह रहे थे और दुनिया को बतलाया जा रहा था कि लोहे की दीवारों के पीछे आने हुआ नया स्वर्ग है जिसमें हर रुसी रह रहा है. जब जर्मनी में कई तरह की कॉफ़ी देखी या साबुन देखे तो मुझे ध्यान आया कि हम लोग लाइन में लग कर राशन की दुकान से जो साबुन या कॉफ़ी या जो कुछ भी मिलता था उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मानकर इस्तेमाल करते क्योंकि हमें ऐसा ही बतलाया जाता था.
साबुन लेने गए और टोस्ट लेकर लौटे या दलिया लेने गए और तेल लेकर लौटना आम बात थी. कभी जरूरत का सामान मिला ही नहीं और इसकी शिकायत किसी से की नहीं जा सकती ये हमसब ने बचपन में ही जान लिया कि सिगरेट लेने जाना और जूता पॉलिश लेकर लौटना सामान्य जीवन का लक्षण है. अब ये अपमानजनक लगता है और पता लगा कि हम सब जिल्लत भरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर थे. नया सूरज आ रहा था. नयी सुबह होने वाली थी. झंडा लाल रंग से रंगा जा रहा था और हम सबका खून उसमें शामिल था. उसी हँसिये से लोगों के सर काटे जा रहे थे जो गेहूँ उगा रहे थे. हमारा झंडा हमारा प्रतीक बना हुआ था.