वैसे तो मनुष्य सामाजिक प्राणी है, पर कभी-कभी उसे एकांत का प्राणी भी बनना पड़ता है. इसमें वह चाहे तो ख़ुद से मिल सकता है. राकेश श्रीमाल की कविताएँ इसी एकांत से उपजी हैं और एकांत को ही अपना विषय बनाती हैं. वैसे भी राकेश मद्धिम स्वर के कवि हैं, धीरे-धीरे राग में घुलते हुए चाहे वह विरह का जल ही क्यों न हो. उनकी कविताओं में उद्दात्त विस्तृत है, और कला का महीन संतुलन उसे साधता है.
उनकी कुछ नई कविताएँ पढ़ें.
राकेश श्रीमाल की कविताएँ
एक
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कोई तारीख
कोई महीना
कोई मौसम
तय नहीं किया जा सकता
हमारे मिलने के लिए
हम आने वाले इतिहास में मिलेंगे
एकांत में रहते हुए
दो
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मैं तुम्हें
उतना ही जानूंगा
जितना मेरा प्रेम जान पाएगा
हो सकता है
उससे अन्य भी कुछ हो
वह मेरे जीवन का एकांत नहीं
तीन
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कौन कौन से होंगे शब्द
जो मुझमें शामिल हो जाएंगे
मुझ की तरह
तुम्हारी तरह
कैसे फर्क कर पाओगी तुम
यह मैं हूं
या मेरा एकांत
चार
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सब कुछ इतना ही सरल हो
जैसे कल रहा
जीवन से युद्ध भी
लोगों की साज़िश भी
एक ही टिफिन में सुकून भी
हम यूं ही रहे
इस जीवन में साथ
परछाइयों में दृश्य देखते हुए
उम्र का जोड़ घटाव करते हुए
सब कुछ इतना ही सरल हो
जैसा यह एकांत चाह रहा है
पॉच
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फिर भी
इतनी दूर नहीं रहूंगा मैं
कि तुम्हारा हाथ नहीं पकड़ सकूं
तुम्हें थोड़ा परेशान न कर पाऊं
तुम्हारे पास बैठ
बेमतलब बातें ना कर पाऊं
जितना कि
यह एकांत सोच रहा है
छह
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कोई एक मकान है अदृश्य
जिसमें हम दोनों रहते हैं
एक दूसरे के साथ
एक दूसरे से छिपे हुए
मैं सुबह कुछ बोलता हूं
तुम लंबी प्रतीक्षा के बाद
जवाब देती हो मुझे
अर्द्धरात्रि के स्वप्न में
यह हमारा ही एकांत है
जिसके भीतर फैले हुए हैं
घने जंगल, पर्वतों की श्रृंखला
समंदर की तेज लहरों में
उबड खाबड़ बहता पूरा चांद
यह हमारा ही एकांत है
हमारी दूरी जितना बड़ा
हम मिल नहीं पा रहे हैं
सिवाए इस सुख के
हम रह रहे हैं
अपने अपने एकांत में
सात
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मन में बिसरी है
छोटी सी इच्छा
कितना मिलेगा साथ
इस जीवन में
मुझे तुम्हारा
आओ
जी लें
थोड़ा सा समय
कोई एक मौसम
लम्हों की लंबी लता
इसी एकांत में
शायद आज
शायद कल
आठ
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मैं
अपने शब्दों से
बहुत छोटा हूं
अपने मौन से
बहुत बड़ा
कोई है
जो देखता है मुझे
बिना मुझे देखे
कोई है
जो सोचता है मुझे
बिना मुझे बताए
मैं
अपना नहीं
जी रहा हूं केवल अपना एकांत
तुम जैसा बन जाने के लिए
नौ
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इस बार तुम आना
तो मिलने देना
मुझे मुझ से ही
कितना अजनबी हो गया हूं मैं
खुद से ही
धीरे धीरे ही बताना मुझे
धीरे धीरे ही पहचानूंगा मैं
अपने आप को
इस तरह मिलाना
मुझे मुझसे ही
कि भूल ना जाऊं फिर
रहना तुम साथ ही
हमेशा
मेरे ही एकांत से
मुझे मिलाते हुए
दस
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गुमसुम हुए शब्द हो जाते हैं उत्साहित
समय में भी भर जाता है स्फुरण
चुपके से खुलती रहती है एकांत की पलक
विदा की आँख बन्द होने तक
बहुत कुछ कहा जाता है
अपने ही मन में
मिला जाता है अपने से भी
इन्हीं कुछ पलो में
कोई नहीं देख पाता
एकांत का जन्म
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राकेश श्रीमाल
(१९६३, मध्य-प्रदेश)
tanabana2015@gmail.com
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