:: जन्म दिन की शुभकामनाएँ ::
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय से पुखराज जाँगिड़ की बातचीत
आपकी आलोचना अलग तरह की होती है. जैसे-साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका हिंदी आलोचना में भिन्न प्रकृति की पुस्तक है और समाजविज्ञान के ज्यादा करीब पड़ती है. आपके व्याख्यान गंभीर से गंभीर मुद्दों को भी व्यंग्यात्मक लहजे में संप्रेषणीय बना देते है. साहित्य और इतिहास दृष्टि पुस्तक के चलते आपको आलोचकों का मैनेजर कहा जाता है. आपको खोजी और विनोदी शिक्षक भी कहा जाता है ? इसे आप किस रूप में लेते है?
देखिए, मैं न आलोचकों का मैनेजर हूँ और न साहित्य का मैनेजर हूँ. जिसको जो कहना है कहे, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ. रही बात खोजी विनोदी शिक्षक की, तो इसे मैं स्वीकार करता हूँ. खोज और विनोद की प्रवृति मुझमें है.
अपने अध्यापकीय जीवन में मैं चीजों का घालमेल नहीं करता. अध्यापकीय काम में पढाने से लेकर मूल्यांकन में व्यक्ति जितना अधिक निरपेक्ष हो उतना अच्छा होता है. एक सीमा तक कड़ाई जरूरी होती है. द्वंद्व और दुविधा से मुक्त स्थिति का पालन करना पड़ता है. उस प्रसंग में विचारधारा को भी में कोई भूमिका निभाने नहीं देता. विचारधारा को लेकर मैंने कभी किसी छात्र के साथ भेदभाव नहीं किया और न किसी को करना चाहिए. मेरे साथ मार्क्सवाद के विभिन्न धड़ों के साथ-साथ ए.बी.वी.पी. के छात्र भी रहे हैं. व्यक्तिगत रूप से मेरे संबंध उन छात्रों से अच्छे बने जो मेरे साथ सहज रूप से जुड़ते थे. और जुड़ने के बाद ज्ञान से लेकर व्यक्तिगत जीवन की समस्याएं भी साझा करते थे. मैं उनका मार्गदर्शन और सहायता भी करता था. प्रायः छात्र कक्षा में मुझसे भयभीत रहते थे लेकिन घर पर ऐसा नहीं था.
आलोचक मैनेजर पांडेय के बारे में तो सभी जानते हैं, लेकिन व्यक्ति मैनेजर पांडेय के बारे में लोग बहुत कम जानते हैं. आपके गोपालगंज जिले के बारे में, उसकी प्रकृति, संस्कृति और जिंदगी के बारे में, आपके बचपन, प्रारंभिक शिक्षा, साहित्यिक रूचि की शुरूआत आदि के बारे में जानना चाहूंगा?
गोपालगंज जिला मूलतः छपरा जिला का हिस्सा था. बाद में वह जिला बना. एक तरह से मेरा गाँव एक ऐसे गाँव में है, जहाँ आज भी ढंग की सड़क नहीं है, बिजली भी लगभग नहीं है. गाँव काफी बड़ा है पर हर भारतीय गाँव की ही तरह प्रेम और सद्भावना के बदले द्वेष और ईर्ष्या का वातावरण अधिक है. लोग किसी के संपन्न होने से ही डाह नहीं करते बल्कि पढने-लिखने से भी डाह करते है. गाँव में मैं पहला व्यक्ति था जिसने इन्टरमीडिएट परीक्षा पास की. हाईस्कूल पढने के क्रम में बरसात के दिनों में पाँच मील मैं चलकर जाता था. मेरी कद-काठी के कारण जहाँ पानी दूसरे बच्चों के लिए कमर-भर होता था, वह मेरे लिए गर्दन-भर हो जाता था. इसलिए मुझे स्कूल के कपड़ों की गठरी बाँधकर ऊपर की ओर करते हुए नदी पार करनी पड़ती थी. मैं कोई भी सवारी नहीं करता था, साईकिल भी नहीं. नौंवी कक्षा तक मैं हमेशा आठ किलोमीटर दूर पैदल पढने के लिए जाया करता था
मेरी शादी सातवीं कक्षा पास करते ही मेरे गाँव से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर स्थित हरपुर गाँव में हो गई थी. मेरी पत्नी आज भी गाँव में ही रहती हैं. मेरी तीन बेटियां है. दो की शादी हो गई है और वो अपने-अपने परिवार के साथ है. मेरी सबसे छोटी बेटी रेखा राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की श्रृंगेरी शाखा में प्राध्यापक है. मेरे इकलौते बेटे आनंद को 16 अगस्त 2000 को पुलिस ने मार दिया था, जिसके बारे में सभी जानते है.
दसवीं कक्षा (मैट्रिक) में आने पर पहले तो मैं एक व्यक्ति के घर पर रहकर और बाद में छात्रावास में रहकर पढाई करने लगा. इन सभी परेशानियों से गुजरते हुए जब मैंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की तो गाँव के और आसपास के दूसरे गाँवों के लोगों के मन में मेरे लिए प्रेम और सद्भावना बढी. इससे सबसे बड़ा लाभ जो हुआ वह यह कि लोगों के मन में शिक्षा के प्रति सम्मान का भाव पैदा हुआ, लोगों में शिक्षा के प्रति रूचि जागृत हुई.
कुल मिलाकर मेरा गाँव, उसके आसपास के गाँव और पूरा गोपालगंज बिहार का एक पिछड़ा हुआ गाँव है और जिला भी. वहाँ की भाषा भोजपुरी है और उसमें कविता लिखने वाले कई कवि हुए है. इसलिए वहाँ कभी-कभी सांस्कृतिक समारोह भी होते थे और अब भी होते रहते है. वहाँ समय-समय पर कुछ धार्मिक आयोजन भी होते हैं. लेकिन एक सीमा के बाद उनका कोई महत्त्व नहीं रहता.
कुल मिलाकर मेरा गाँव, उसके आसपास के गाँव और पूरा गोपालगंज बिहार का एक पिछड़ा हुआ गाँव है और जिला भी. वहाँ की भाषा भोजपुरी है और उसमें कविता लिखने वाले कई कवि हुए है. इसलिए वहाँ कभी-कभी सांस्कृतिक समारोह भी होते थे और अब भी होते रहते है. वहाँ समय-समय पर कुछ धार्मिक आयोजन भी होते हैं. लेकिन एक सीमा के बाद उनका कोई महत्त्व नहीं रहता.
हाईस्कूल में आने पर एक महत्त्वपूर्ण बात और हुई. साहित्य में मेरी रूचि बढने लगी. उस समय के मेरे शिक्षक लक्ष्मण पाठक प्रदीप हिंदी और भोजपुरी के कवि और पत्रकार भी थे. उनकी प्रेरणा से मैंने कुछ कविताएं भी लिखी. उन्हीं की प्रेरणा व प्रभाव ने साहित्य में मेरी दिलचस्पी जगी जो आगे चलकर निरंतर विकसित होती रही. लक्ष्मण पाठक प्रदीप की प्रेऱणा के अलावा साहित्य में मेरी दिलचस्पी अधिकांशतः विद्यालयी पाठ्यक्रम में शामिल लेखकों की रचनाओं को पढकर विकसित हुई.
बाहर के साहित्य से तब तक मेरा कोई परिचय नहीं हुआ था. उस समय पटना से प्रकाशित योगी नामक पत्रिका हमारे विद्यालय के पुस्तकालय में आया करती थी. उसे मैं नियमित रूप से पढता था. साहित्य से संबंधित बाहरी सूचनाओं का केंद्र वही पत्रिका थी. इसके अलावा मीरगंज से निकलने वाली पत्रिका सारंग संदेश से भी मेरी साहित्यिक जानकारी बढी. विद्यालयी दिनों में प्रेमचंद की कहानियां मुझे बहुत पसंद थी और मैं उसे खोज-खोजकर पढता रहता था. प्रेमचंद की कहानियों का पहला खंड मानसरोवर मेरी पढी पहली पुस्तक है. इसके बाद मैंने ‘मानसरोवर’ का दूसरा खंड भी खोजकर पढा. प्रेमचंद का गबन पहला उपन्यास था जिसे मैंने दसवीं कक्षा में पढा. कविताओं की पहली किताब के रूप में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ मैंने ग्यारहवीं में पढी, लेकिन कुछ भी समझ में नहीं आया. बाद में लक्ष्मण पाठक प्रदीप जी की मदद से उसकी कुछ समझ बनी.
बनारस आप कब आए? बनारस में अपनी प्रारंभिक गतिविधियों के बारे में बताएं? वो कौन-कौन सी घटनाएं या शख्स थे जिन्होंने मैनेजर पांडेय के जीवन का आधार तैयार किया?
मेरा मानस बनारस में ही तैयार हुआ है. मैट्रिक के बाद बाहरवीं के लिए मैं बनारस आया. बाहरवीं से एम.ए., पीएच.डी. तक में बनारस रहा. साहित्य, राजनीति, संस्कृति में मेरी दिलचस्पी और जानकारी का विकास बनारस में छात्र जीवन में ही हुआ. बनारस में मैं जिस कॉलेज में पढता था उसके प्राचार्य कृष्णानंद जी थे और उन्होंने रामचंद्र शुक्ल के तीन आलोचनात्मक निबंधों को ‘त्रिवेणी’ नाम से संपादित किया था. वे जयशंकर प्रसाद और रामचंद्र शुक्ल के व्यक्तिगत मित्र भी थे. ‘त्रिवेणी’ के माध्यम से साहित्य में मेरी जानकारी और दिलचस्पी का विस्तार हुआ.
विश्वनाथ राय वहाँ राजनीति विज्ञान के अध्यापक थे और हमारे छात्रावास के वार्डन थे. उनके माध्यम से मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धांत और व्यवहार, दोनों से प्रेरित और प्रभावित हुआ. वे गाँधीवादी थे और उन्हीं के माध्यम से मैं सर्वोदयी आंदोलन से भी जुड़ा. उन्हीं के माध्यम से मैं पास के ‘गांधी स्मारक विद्यालय’ से जुड़ा और मुझे उसमें पढाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. उस समय के लगभग सभी सर्वोदयी नेताओं से मैं सीधे संपर्क में रहा. विनोबा जी के साथ रहने का भी मौका मिला. केरल से असम की यात्रा के दौरान वे तीन दिन बनारस रहे. बनारस में उनकी देखरेख में कुछ लोग चुने गए. उनमें से एक मैं भी था. इसके साथ जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, दादा धर्माधिकारी, मास्टर सुंदरलाल आदि नेताओं से मिलने-बतियाने, विचार-विमर्श का मौका मुझे मिला. उसके बाद वहाँ मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज में पढता था और मनोहर भवन छात्रावास में रहता था. मनोहर भवन छात्रावास पहले किसी आर्यसमाजी का घर था जिसे बाद में उन्होंने छात्रों के कल्याण के लिए दान कर दिया था. इंटर और बी.ए. मैंने वहीं से किया. बगल के डी.ए.वी. इंटर कॉलेज के प्राचार्य कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’ से संपर्क के मुझे कारण बनारस के सांस्कृतिक सामारोहों से जुड़ने का मौका मिला. उस समय बनारस संगीत का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था. कबीर चौरा मठ के दूसरी ओर कबीर चौरा मोहल्ला है जहाँ गायन, वादन, और नृत्य के अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकार रहते है. उन कलाकारों में एक विशिष्ट परंपरा यह है कि वे सावन भादों के महीने में कहीं बाहर नहीं जाते थे , उनके सारे कार्यक्रम घर पर या बनारस में ही होते थे.
इसी क्रम में मुझे वहाँ के बड़े गायक बड़े रामदास के घर पर लता मंगेशकर के आने और आदर प्रकट .करने के बारे में पता चला. प्रसिद्ध तबला वादक गुदई महाराज (श्यामल प्रसाद) व छोटेलाल मिश्र, प्रसिद्द नृतक गोपीकिशन जैसे महान कलाकारों की कला-साधना को उनके घर पर देखने-सुनने का अवसर मिला. कृष्णदेवप्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’ के साथ रहते हुए वहीदा रहमान, वैजयंती माला, रागिनी व पद्मिनी (दक्षिण भारतीय अभिनेत्री-नृत्यांगना बहनें) को देखने-सुनने का मौका मिला.
1963 में एम.ए. के दौरान मैं बी.एच.यू. परिसर में आया. 1963 से 65 के बीच एम.ए. तथा 1965 से 69 तक पीएच.डी. की. उन्हीं दिनों मैं छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहा. वहाँ हिंदी के समर्थन में एक आंदोलन भी हुआ जिसमें बी.एच.यू. के सक्रिय छात्रों में में भी था. पुलिस दमन के दौरान मेरा बायां हाथ टुट गया था. बाद के छात्र आंदोलनों में भी निरंतर सक्रिय बना रहा. बी.एच.यू. में ही मैं वामपंथी छात्र राजनीति से जुड़ा. इसी दौरान मार्क्सवाद से जुड़ा और मार्क्सवाद से संबंधित ढेरों किताबें व पत्रिकाएं पढी. यह कार्य पीएच.डी. शोध के दौरान सर्वाधिक हुआ. मैंने अपना शोध प्रो. जगन्नाथ सर के निर्देशन में लिखा और 1969 में मुझे पीएच.डी. की डिग्री मिली. शोध के दौरान की सबसे बड़ी घटना हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का चंडीगढ विश्वविद्यालय से बी.एच.यू. वापस आकर रैक्टर बनना थी.
इसी क्रम में मुझे वहाँ के बड़े गायक बड़े रामदास के घर पर लता मंगेशकर के आने और आदर प्रकट .करने के बारे में पता चला. प्रसिद्ध तबला वादक गुदई महाराज (श्यामल प्रसाद) व छोटेलाल मिश्र, प्रसिद्द नृतक गोपीकिशन जैसे महान कलाकारों की कला-साधना को उनके घर पर देखने-सुनने का अवसर मिला. कृष्णदेवप्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’ के साथ रहते हुए वहीदा रहमान, वैजयंती माला, रागिनी व पद्मिनी (दक्षिण भारतीय अभिनेत्री-नृत्यांगना बहनें) को देखने-सुनने का मौका मिला.
1963 में एम.ए. के दौरान मैं बी.एच.यू. परिसर में आया. 1963 से 65 के बीच एम.ए. तथा 1965 से 69 तक पीएच.डी. की. उन्हीं दिनों मैं छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहा. वहाँ हिंदी के समर्थन में एक आंदोलन भी हुआ जिसमें बी.एच.यू. के सक्रिय छात्रों में में भी था. पुलिस दमन के दौरान मेरा बायां हाथ टुट गया था. बाद के छात्र आंदोलनों में भी निरंतर सक्रिय बना रहा. बी.एच.यू. में ही मैं वामपंथी छात्र राजनीति से जुड़ा. इसी दौरान मार्क्सवाद से जुड़ा और मार्क्सवाद से संबंधित ढेरों किताबें व पत्रिकाएं पढी. यह कार्य पीएच.डी. शोध के दौरान सर्वाधिक हुआ. मैंने अपना शोध प्रो. जगन्नाथ सर के निर्देशन में लिखा और 1969 में मुझे पीएच.डी. की डिग्री मिली. शोध के दौरान की सबसे बड़ी घटना हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का चंडीगढ विश्वविद्यालय से बी.एच.यू. वापस आकर रैक्टर बनना थी.
आप 1959 से 1969 तक अध्ययन और शोध के सिलसिले में बनारस रहे. बनारस की कोई ऐसी घटना जो आज भी आपको उतनी ही शिद्दत से याद आती है?
बनारस को याद करते ही जो घटना मेरे जेहन में सबसे पहले आती वह उस दौरान के मेरे एक मित्र वी. बी. सिंह से जुड़ी है. उनका पूरा नाम वीर बहादुर सिंह था. उन्होने प्रेम किया और शादी भी अपनी प्रेमिका से ही करना चाहते थे लेकिन उनकी शादी में बहुत सी बाधाएं थी. उस समय मैंने अपनी जान हथेली पर रखकर उनकी शादी कराई.
आपके अध्यापकीय जीवन की शुरूआत कहाँ से हुई? जोधपुर में आपके विरोध के क्या कारण रहे?
मेरी पहली अध्यापक की नौकरी बरेली कॉलेज, बरेली में लगी. 1969 से 71 तक (दो साल) मैं वहाँ रहा. जुलाई 1971 में मैं जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर से जुड़ा. उसम समय प्रो. वी. वी. जॉन वहाँ के कुलपति थे और उन्होंने ही मेरा साक्षात्कार लिया था.
जोधपुर में नामवर जी और मेरी नियुक्ति एक साथ हुई. उन्होंने पहले ज्वाइन कर लिया. मैं उस समय बरेली कॉलेज, बरेली में पढा रहा था. इसलिए सेशन पूरा करने के लिए 5-6 महिने एक्सटेंशन लिया और सेशन समाप्ति के बाद ही मैंने जोधपुर विश्वविद्यालय ज्वाइन किया. जोधपुर हर दृष्टि से मेरे लिए फायदेमंद रहा. हालांकि शुरू में कई कठिनाइयां भी हुई. नामवर जी चूंकि बड़े आदमी थे इसलिए लोगों की साजिशों का सीधा शिकार भी वहीं बने. मैंने बाद में वि.वि. ज्वाइन किया था इसलिए लोगों को यह लगा कि नामवर जी के कारण ही मैं वहाँ आया हूँ, इसलिए काफी समय तक मैं भी वहाँ के लोगों की उपेक्षा का शिकार बना रहा. जोधपुर में हमारे विरोध के दो मुख्य कारण थे. पहला तो हम दोनों वामपंथी थे. इसलिए सारे दक्षिणपंथी हमसे नाराज थे. बाद के दिनों में वि.वि. और शहर की स्थिति अच्छी हो गई थी और जोधपुर का शायद ही कोई बड़ा सांस्कृतिक समारोह रहा हो जिसमें मैं नहीं गया हूँ. हमारे विरोध का दूसरा बड़ा कारण हमारा बाहरी (आउटसाइडर) होना था. उस समय हमारे विभागीय सहयोगियों में जगदीश शर्मा, महेंद्रकुमार जैन, चेतनप्रकाश पाटनी, वैंकट शर्मा और कल्याणसिंह शेखावत प्रमुख थे. वहाँ के अधिकांश अध्यापक लिखने-पढने से कम और अध्यापकी में अधिक रूचि लेते थे.
जोधपुर में नामवर जी और मेरी नियुक्ति एक साथ हुई. उन्होंने पहले ज्वाइन कर लिया. मैं उस समय बरेली कॉलेज, बरेली में पढा रहा था. इसलिए सेशन पूरा करने के लिए 5-6 महिने एक्सटेंशन लिया और सेशन समाप्ति के बाद ही मैंने जोधपुर विश्वविद्यालय ज्वाइन किया. जोधपुर हर दृष्टि से मेरे लिए फायदेमंद रहा. हालांकि शुरू में कई कठिनाइयां भी हुई. नामवर जी चूंकि बड़े आदमी थे इसलिए लोगों की साजिशों का सीधा शिकार भी वहीं बने. मैंने बाद में वि.वि. ज्वाइन किया था इसलिए लोगों को यह लगा कि नामवर जी के कारण ही मैं वहाँ आया हूँ, इसलिए काफी समय तक मैं भी वहाँ के लोगों की उपेक्षा का शिकार बना रहा. जोधपुर में हमारे विरोध के दो मुख्य कारण थे. पहला तो हम दोनों वामपंथी थे. इसलिए सारे दक्षिणपंथी हमसे नाराज थे. बाद के दिनों में वि.वि. और शहर की स्थिति अच्छी हो गई थी और जोधपुर का शायद ही कोई बड़ा सांस्कृतिक समारोह रहा हो जिसमें मैं नहीं गया हूँ. हमारे विरोध का दूसरा बड़ा कारण हमारा बाहरी (आउटसाइडर) होना था. उस समय हमारे विभागीय सहयोगियों में जगदीश शर्मा, महेंद्रकुमार जैन, चेतनप्रकाश पाटनी, वैंकट शर्मा और कल्याणसिंह शेखावत प्रमुख थे. वहाँ के अधिकांश अध्यापक लिखने-पढने से कम और अध्यापकी में अधिक रूचि लेते थे.
जोधपुर सामंतवाद का गढ रहा है और काफी हद तक आज भी है. ऐसे में आपने वहाँ की ऐतिहासिक विरासत और सांस्कृतिक प्रतीकों को किस रूप में स्वीकार किया? एक शहर के रूप में जोधपुर आपको कैसा लगा? इससे जुड़ी कुछ यादें जिसे आप साझा करना चाहेंगे?
मेरे जीवन में जोधपुर का महत्त्व कई दृष्टियों से है. व्यवस्थित रूप से आलोचना लिखने का काम जोधपुर से ही शुरू हुआ. मेरी पहली किताब ‘शब्द और कर्म’ और दूसरी किताब ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ के अधिकांश निबंध जोधपुर में रहकर ही लिखे गए है. जहाँ तक जोधपुर की ऐतिहासिक विरासत की बात हो तो वहाँ के दो बड़े किलों (मेहरानगढ का किला और उमेद भवन या छतर पैलेस) में मेरी दिलचस्पी वास्तुकला संबंधी बातों में अधिक थी. सामंती तत्व वहाँ छाया रहता था. अध्यापक तक बातचीत में ‘हुकुम’ कहा करते थे. राजस्थान में जहाँ-जहाँ राजे-रजवाड़े थे वहाँ-वहाँ इसका प्रभाव आज भी दिखाई देता है. जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, जैसलमेर, कोटा, बूंदी ऐसे ही बड़े रजवाड़े थे. उन सामंती राजघरानों, रजवाड़ों के खिलाफ लिखना-पढना बहुत मुश्किल था. वर्षों तक इन क्षेत्रों के एम.एल.ए व एम.पी. भी यही होते थे और कई क्षेत्रों में तो आज भी है. यूं तो मीरांबाई की कविताओं पर आलोचनात्मक लेखन की शुरूआत मेरे भक्तिकाल पर लिखे शोध से ही हो गई थी लेकिन मीरांबाई के साहित्य में आए विशिष्ट शब्दों और संदर्भों को समझने का वास्तविक अवसर मुझे जोधपुर में ही मिला.
जे.एन.यू में आप और नामवर जी कब आए? जे.एन.यू आने के बाद आपकी दिनचर्या क्या रही?
जून 1971 से मार्च 1977 तक में जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में रहा. 11 मार्च 1977 को मैंने जे.एन.यू ज्वाइन किया जबकि यहाँ मेरी नियुक्ति अक्टूबर में ही हो गई थी. छात्रों का सेशन पूरा करवाने के लिए यहाँ भी मैंने एकेसटेंशन लिया. दोनों जगह (बरेली और जोधपुर) के विद्यार्थी पीछे पड़ गए थे कि हमारा पाठ्यक्रम जबतक पूरा नहीं हो जाता आप कहीं नहीं जा सकते. जे.एन.यू. में नामवर जी पहले आए. उनके बाद मेरी और केदारनाथ सिंह जी की नियुक्ति एक साथ हुई. जे.एन.यू में आने के बाद स्थितियां काफी बदली. जे.एन.यू. में रहने की शुरूआत गोमती गैस्ट हाउस से हुई. मैं बस से सीधा ओल्ड जे.एन.यू आता और पढाता, था. मैं थक जाता था. मैं वापस जोधपुर गया और नामवर जी से कहा कि मैं नहीं आऊंगा. बाद में उनके सहयोग से बेर सराय में एक डी.डी.ए. क्वार्टर मिला और दस साल मैं वहीं रहा. बेर सराय के क्वार्टर के बाद जे.एन.यू में रहने के लिए ट्रांजिट हाउस आया और चार साल वहां रहा. वहां से 35 दक्षिणापूरम आया और फिर 121 उत्तराखंड. सबसे अंत में 52 दक्षिणापूरम.
दोपहर में मैं आराम करता हूँ. डायबिटीज और बी.पी. की तकलीफ के बाद डॉक्टरों ने सख्त हिदायत दी कि आपको नियमित रूप से किसी भी एक नियत समय पर आराम करना चाहिए. जे.एन,यू की अध्यापकीय व्यवस्था इसके अनुकूल थी. दोपहर दो से चार बजे तक का समय जे.एन.यू के छात्रों और शिक्षकों के दोपहर के भोजन का होता है. इसलिए इस समय कक्षाएं भी नहीं होती है जबकि बरेली और जोधपुर में ऐसा नहीं था.
दोपहर में मैं आराम करता हूँ. डायबिटीज और बी.पी. की तकलीफ के बाद डॉक्टरों ने सख्त हिदायत दी कि आपको नियमित रूप से किसी भी एक नियत समय पर आराम करना चाहिए. जे.एन,यू की अध्यापकीय व्यवस्था इसके अनुकूल थी. दोपहर दो से चार बजे तक का समय जे.एन.यू के छात्रों और शिक्षकों के दोपहर के भोजन का होता है. इसलिए इस समय कक्षाएं भी नहीं होती है जबकि बरेली और जोधपुर में ऐसा नहीं था.
नामवर सिंह जी और उनसे आपके संबंध...
नामवर जी से मेरे संबंधों के तीन स्तर है. पहला विभाग के सहयोगी और सहकर्मी का. इसमें बराबर वह आदरणीय, सम्मानित और श्रद्धेय बने रहे. दूसरा साहित्य और आलोचना में जिस तरह से वे धीरे-धीरे एक नई दिशा में बढ रहे थे. उसे देखते हुए नामवर जी से अलग दृष्टिकोण अपनाना मुझे जरूरी लगा और मैंने अपनाया भी. नामवर जी से अपने इन मतभेदों को मैंने लिखकर व्यक्त भी किया है. तीसरा राजनीति में मैं नामवर जी से भिन्न तरह के वामपंथी धड़े से जुड़ा रहा पर इसे लेकर विभाग में हमारे बीच कभी मतभेद की स्थिति नहीं बनी.
आपने ‘पाइप’ (चुरूट) पीना कब शुरू किया?
जे.एन.यू आने के बाद शुरू किया. जिस समय मैं जे.एन.यू आया था उस समय लगभग सभी प्रोफेसर ‘पाइप’ पीते थे सो उनके प्रभाव से मैंने भी शुरू कर दिया. सिगरेट मैं पहले से ही पीता था. कई मित्रों ने कहा भी कि आप सिगरेट छोड़ दीजिए, यह बहुत नुकसानदेह है. ‘पाइप’ सिगरेट की अपेक्षा कम नुकसानदेह थी सो इसे पीने की एक वजह यह भी थी. उस समय प्रो. अनिल भट्ट, प्रो. जी. पी. देशपांडे, प्रो. सी.पी. भांभरी, अश्विनी रे आदि ‘पाइप’ का नियमित प्रयोग करते थे सो उस वातावरण का असर मुझ पर भी पड़ा और मैंने भी ‘पाइप’ पीना शुरू कर दिया.
संगीत की बात करें तो किसका गायन आपको सर्वाधिक पसंद है?
ओंकारनाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व का गायन मुझे हमेशा अच्छा लगा और इनके रेक़ॉर्डस भी मेरे पास उपलब्ध थे.
फिल्में हमेशा से मनुष्य के लिए गहरे आकर्षण का विषय रही है. इस नए कला माध्यम के प्रभाव से प्रायः कोई अछूता न रह सका है. आपने फिल्मों पर काफी कुछ कहा भी है. श्यामानंद झा ने सिनेमा और साहित्य का संबंध विषयक अपना शोध आप ही के निर्देशन में लिखा है . फिल्मों में रूचि कब से उत्पन्न हुई और वो पहली फिल्म कौन सी थी जिसे आपने बड़े परदे पर देखा? कृपया अपनी पसंदीदा फिल्म, फिल्मकार, अभिनेता और अभिनेत्री के बारे में भी बताएं.
ठीक से और विस्तार से तो इसके बारे में कुछ याद नहीं है. लेकिन हाईस्कूल पास करने के बाद यानी 1959 में मैं कलकत्ता गया था और लगभग एक महीना वहाँ रहा. वहाँ मेरी मित्रता एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो नियमतः रोजाना एक फिल्म देखते थे और मैं भी उन्हीं के साथ रोजाना एक फिल्म देखता. सो फिल्म देखने की शुरूआत वहीं से हुई जो आज भी जारी है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है ‘गर्म हवा’ पहली ऐसी फिल्म थी जिसे मैंने बड़े परदे पर देखी. भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक मैंने हिंदी की फिल्में ही देखी है और अपने जमाने की लगभग सारी फिल्में देख चुका हूँ. ऋत्विक घटक, सत्यजीत रे, मृणाल सेन और गौतम घोष का बंगाली सिनेमा भी मैंने खूब देखा. मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन के सिनेमा ने मुझे बेहद प्रभावित किया और उनकी कुछ फिल्में मैंने देखी. इसके अलावा विदेशी भाषाओं में मैंने अंग्रेजी सिनेमा काफी देखा है, विशेषकर संसार भर का क्लासिक रचनाएं हमेशा देखता रहा हूँ.
‘साहिब बीबी और गुलाम’ (अबरार अल्वी), ‘मुगल-ए-आजम’ (के. आसिफ) और ‘तीसरी कसम’ (बासु भट्टाचार्य) मेरे दिल के बहुत करीब है. ‘साहिब बीबी और गुलाम’ मेरी सबसे पसंदीदी फिल्म है. यह ऐसी फिल्म है जिसे मैं कभी भी और कहीं भी देख सकता हूँ. बीसियों बार इसे देख चुका हूँ और अभी भी देखना चाहता हूँ.
अभिनेताओं में मुझे पृथ्वीराज कपूर, राजकपूर, दिलीप कुमार और बलराज साहनी बेहद पसंद रहे है. अभिनेत्रियों में मुझे मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान और गीता दत्त बहुत पसंद है. इनकी लगभग सभी फिल्में मैंने देखी है और आज भी देखता हूँ.
हाल ही में रिलीज हुई वो अंतिम फिल्म कौनसी है जिसे आपने बड़े परदे पर देखी?
प्रकाश झा की राजनीति मैंने बड़े परदे पर देखी, लेकिन इससे मुझे काफी निराशा हुई. दामुल, परिणति और मृत्युदंड जैसी कई अर्थपूर्ण फिल्मों के कारण प्रकाश झा को मैं बहुत ही महत्त्वपूर्ण फिल्मकार मानता हूँ. इसलिए उनकी फिल्मों के प्रति लगाव स्वाभाविक था. इसी लगाव के कारण मैं ‘राजनीति’ देखने गया लेकिन उसे देखकर घोर निराशा हुई. बिहार में जैसी और जिस तरह की राजनीति होती है फिल्म उसका एक प्रतिशत भी नहीं दिखा पाई.
आखिरी नाटक कौनसा है जिसे आपने थिएटर में देखा?
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास पर आधारित ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (एन.एस.डी.) और सी. पी. देशपांडे की नाटयकृति पर आधारित ‘चाणक्य’ (त्रिवेणी) अंतिम नाटक हैं जिसे मैंने थिएटर में देखा.
अपने पसंदीदा लेखकों के बारे में बताएं? जिनके लेखन ने आपको प्रेरित-प्रभावित किया है.
कवियों में निराला और प्रसाद की कविताएं व महादेवी का व्यक्तित्त्व और उनका गद्य, विशेषकर ‘श्रंखला की कड़ियां’ मुझे बहुत पसंद है. महादेवी जी से मिलने के लिए मैं इलाहाबाद गया था और वहीं उनके घर पर मुझे सुमित्रानंदन पतं जी से भी प्रत्यक्षतः मिलने और बात करने का अवसर मिला. इससे पहले महादेवी जी को मैं कई बार सुन चुका था लेकिन कभी बात नहीं हुई थी. उनके भाषण अभिभूत करने वाले होते थे. वैसी भाषण कला अन्यत्र दुर्लभ है. बाद के दिनों में नागार्जुन मेरे सबसे प्रिय कवि रहे. मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, त्रिलोचन, कुमार विकल और आलोक धन्वा मेरे प्रिय कवि है. फणीश्वर नाथ रेणु, अमरकांत, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती और मन्नु भंडारी की कहानियां मुझे अच्छी लगती है.
हिंदी में दलित साहित्य के प्रारंभिक समर्थकों में आप भी रहे हैं. आप इसकी शुरूआत कब से मानते है?
हिंदी के दलित साहित्य में सबसे पहले ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं के तीनों रूपों (आत्मकथा, कविता व कहानी) ने मुझे काफी प्रभावित किया. जहाँ तक दलित साहित्य की शुरूआत का सवाल है तो 1914 में सरस्वती में छपी हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ हिंदी के दलित साहित्य की पहली आधुनिक कविता है लेकिन प्रकाशन के बाद से आलोचना में कहीं भी इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता. मराठी दलित साहित्य के प्रभाव से हिंदी में दलित साहित्य की शुरूआत के बाद इसका उल्लेख पहली बार रामविलास शर्मा जी ने और बाद में मैंने किया, इसकी चर्चा की और इसके बारे में लिखा भी. तब से यह कविता चर्चा के केंद्र में है.
हाल ही में आप के द्वारा पढी गई साहित्यिक रचनाएँ ?
नए उपन्यासकारों में रणेंद्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास मुझे बेहद पसंद आया और उस पर मैंने लिखा भी. कवियों में चंद्रेश्वर के कविता-संग्रह ने काफी प्रभावित किया. आत्मकथाओं में तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ और सुशिला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ काफी अच्छी लगी. इधर के कवियों में, मदन कश्यप, निलय उपाध्याय, अष्टभुजा शुक्ल, पंकज चतुर्वेदी, अनामिका, सविता सिंह उमाशंकर चौधरी, निशांत और कात्यायनी की कविताएं अच्छी लगती है. गद्यकारों में अखिलेश, अल्का सरावगी, गीतांजलि श्री, भगवानदास मोरवाल का गद्य. कुछ समय पहले लिखी देवेंद्र की कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स!’ मुझे पसंद आई. हालांकि देवेंद्र अब नहीं लिखते.
आप लंबे समय तक जे.एन.यू. के भारतीय भाषा से जुड़े रहे और आज भी उससे जुड़े है. क्या जे.एन.यू. में भारतीय भाषाओं जैसी कोई बात है? या उसका अस्तित्त्व सिर्फ भाषाओं के अध्ययन तक ही सीमित है?
जे.एन.यू की स्थापना समाजविज्ञान और मानविकी को केन्द्र में रख कर हुई. लेकिन बाद में इसमें काफी बदलाव आया. बदलाव का सबसे बड़ा कारण यह था कि बाद के लगभग सभी कुलपति विज्ञान से आए. नतीजन विज्ञान का प्रचार-प्रसार और मानविकी और समाज विज्ञान की उपेक्षा हुई. जे.एन.यू के शुरूआती दिनों में अन्य भारतीय भाषाओं को तो छोड़िए हिंदी में बात करना तो दूर हिंदी में किसी से रास्ता पूछ लेना भी एक दुष्कर कार्य था. बाद में वहाँ कुछ छात्र और अध्यापक दोनों ऐसे आए जिनसे हिंदी बातचीत की भाषा बनी. जिस साझी संस्कृति और भाषाई उद्देश्यों को लेकर हिंदी और उर्दू भाषाओं की शुरूआत हुई, बाद में वह भी उस रूप में विकसित न हो सकी. दोनो एक-दूसरे से जुड़ने की अपेक्षा दूर हुई है. दोनों भाषाओं के अध्यापक इसके लिए समान रूप से दोषी है और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए.
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, 204-E,
ब्रह्मपुत्र छात्रावास, पूर्वांचल, नई दिल्ली-67.