कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र वैचारिक आलोचनात्मक आलेख लिखते रहें हैं, पश्चिमी विचारकों पर उनकी पूरी श्रृंखला है जो समालोचन पर भी है और जो अब ‘बाज़ार के अरण्य में’ (उत्तर-मार्क्सवादी चिंतन पर केंद्रित) शीर्षक से आधार प्रकाशन से भी प्रकाशित है.
अच्युतानंद मिश्र कवि भी हैं और उन्हें कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका है. कविता लिखने के अलावा वह कविता पर भी पिछले कई वर्षों से मनन चिंतन कर रहें हैं.
कविता के बदलते बोध पर उनका यह आलेख जटिल होने से बचते हुए लिखा गया है और रुचिकर है. पिछले दिनों फिर से उठे कविता से छंद के सवाल को भी उन्होंने टटोला है.
कविता का बदलता बोध
कविता का सम्बंध समय से है, समाज से है, मनुष्य से है. लेकिन कविताएं अपनी प्रकृति में, अपनी संरचना में, अपनी बुनावट में स्वायत्त होती हैं. कविता में यह आबद्ध होकर भी स्वतंत्र होना किस तरह सम्भव होता है?
कविताएं समय समाज और मनुष्य से जुड़ी होकर भी उनकी सीमाओं के परे चली जाती हैं. ऐसे में कविता को परिभाषित करना सृजनात्मक प्रक्रिया के विरुद्ध जाना होगा. इसलिए अगर हम कविता पर विचार करें तो वह अनिवार्य रूप से गतिशील प्रक्रिया के तहत ही सम्भव है.
कविता के बारे में विचार करते हुए हम एक सरल सी बात से शुरू कर सकते हैं. लगभग विज्ञान की भाषा में प्रवेश करते हुए. जब दो या दो से अधिक भिन्न गुण वाले वस्तु मिलकर एक तीसरी चीज़ बनाते हों, तो वहां कविता होगी. रसायन की भाषा में जिसे हम अवयव कहते हैं. क्या कवितायेँ भी अवयव की तरह होती हैं दृश्य-अदृश्य, अंतर-बाह्य, मनुष्य-प्रकृति के संयोग से बनती हुयी.
जैसे दो पत्थरों के रगड़ने से आग का निकलना, इसमें दोनों पत्थरों का होना जरुरी है और इससे एक तीसरी चीज़ नमूदार होती है–आग. जब आग पैदा होती है तो हर पत्थर का अस्तित्व दूसरे के महत्व को स्थापित करता है. किसी एक को अधिक महत्वपूर्ण और दूसरे को कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता. हर एक का अस्तित्व अपने साथ-साथ दूसरे को प्रकाशित करता है. इसमें स्वयं का होना और स्वयं से मुक्त होना दोनों ही शामिल है.
मनुष्य की चेतना में आग की खोज किसी चमत्कार से कम नहीं रही होगी. उसने इसे संयोग से पाया होगा. पत्थरों के भीतर छिपी आग को जानकर जहाँ उसे एक तरफ हैरानी हुयी होगी, वहीँ उसके दिमाग में एक असीम विस्तार भी पाया होगा. वह कौतुहल से ज्ञान की तरफ बढ़ा होगा. आग की प्रकृति, उसे निर्मित करने वाले पत्थरों से कितनी भिन्न है. एक ठंडे पत्थर के टुकड़े के भीतर आग के महदूद होने की बात ने उसे आश्चर्य और रचनात्मक संवेग से भर दिया होगा. उसके समक्ष यह प्रश्न आया होगा कि इस आग का रहस्य क्या है? उसने आग को मानव चेतना में मौजूद पाया होगा. इस तरह के बहुत सारे छिपे, अनुद्घाटित रहस्यों के विषय में उसने विचार किया होगा.
उसकी चेतना वस्तुपरकता से आत्मपरकता की ओर बढ़ी होगी. बाह्य वस्तुपरक दुनिया की गतिशीलता ने आत्म में हलचल पैदा की होगी. किसी तड़पते मनुष्य को देखकर उसके भीतर करुणा और ममत्व की लहरें उठी होंगी. वे दृश्य उसके स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित हो गये होंगे. उसे याद कर बार-बार उसके हृदय में एक कचोट सी उठती रही होगी. उसने अपने भीतर एक खालीपन, एक नीरवता को महसूस किया होगा. इस खालीपन, इस नीरवता ने उसे आत्मबोध से युक्त किया होगा. वह आत्मपाश में बंध गया होगा.
आग की ही तरह क्या कविता भी बाहर और भीतर की संघर्ष से निर्मित नहीं होती? क्या हम कह सकते हैं कि कविता, ज्ञान और संवेदना की रगड़ से पैदा हो रही एक तीसरी संभावना है. जिसमें किसी एक को महत्वपूर्ण और दूसरे को कम महत्वपूर्ण मानना, एक को प्राथमिक दूसरे को द्वितीय मानना कविता की रचनात्मक भूमिका को नकारना है?
१)
सामान्य भाषा में क्या हम यह नहीं कह सकते कि अच्छी कविता ज्ञान और संवेदना की परस्परता से पैदा होती है. किसी एक के आधिक्य या दूसरे के कमतर होने से कविता का जादू नष्ट हो सकता है. कविता की व्याख्या करते हुए कुंतक ने ध्वनि और अर्थ दोनों के समान महत्व की बात कही है.
कुंतक का मानना था कि ध्वनि और अर्थ दोनों में परस्पर स्पर्धा होती है. किसी एक के कम और दूसरे के आधिक्य से कविता संभव नहीं. मुक्तिबोध इसी बात को ज्ञान और संवेदना के द्वंद्व के रूप में रखते हैं. वे कहते हैं
मुक्तिबोध जिसे आलोचनात्मक दृष्टि कह रहे हैं, कुंतक के लिए वही परस्पर स्पर्धा है. यानी एक सतत द्वंद्व काव्य विवेक को घेरे रहती है. यह वही अन्दर बाहर का द्वंद्व है, जो कविता को संभव बनाती है. बाह्य दुनिया के समानांतर एक वैसी ही दुनिया हमारे भीतर भी होती है. कवि भाषा के रास्ते दोनों दुनियाओं को एक साथ जीता है. कवि की यह नियति या विडंबना जो भी कह लें, कविता की प्रेरणा वहीँ है.
शायद पहली कविता आग ही रही होगी या फिर स्पर्श या रुलाई या फिर शिकार के लिए भागते हिरण की घूमती बेचैन आँखें या चौंक गये मनुष्य की धड़कन या किसी पत्ते पर रात के ओस की बूंद में चमकती सूर्य रश्मियाँ या इन रश्मियों की स्मृति में स्पन्दित आँखों की पुतलियाँ. इन सब में कविता और कविता का पहला स्पर्श मौजूद रहा होगा.
चमत्कार और ज्ञान के बीच एक नयी चीज़ की खोज ने मनुष्य को जीवन के सौन्दर्य की पहली बूंद का स्वाद दिया होगा. इस प्रक्रिया में जो सबसे पहली बात हुयी होगी वह है- मनुष्य का आत्मविस्तार. कविता ने आत्म को महसूस करने से लेकर आत्मविस्तार तक की हजारों वर्षों की यात्रा को संभव किया होगा.
जब कहीं किस पेड़ की छांव में बैठकर आदमी ने अपनी थकन को थपथपाया होगा, पहली ध्वनि फूटी होगी. ये ध्वनियाँ कविता के अस्फुट स्वर रहे होंगे. जिसे बार-बार असंख्य बार दुहराया गया होगा. अनेक कंठों ने उन स्वरों के स्पर्श का रोमांच अर्जित किया होगा. किसी साथी के स्पर्श के बाद, वर्षा के एक बूंद जल को पी लेने के बाद, हवा के थपेड़ों को अपने बालों पर महसूस करने के बाद.
कविता शब्द से पहले ध्वनि में मौजूद रही होगी. ध्वनि बरबस ही फूट पड़ी होंगी. जैसे पत्थरों के टकराने से आग. मनुष्य ने अपने भीतर भी आग की ऊष्मा महसूस की होगी.
कविता ही मनुष्य को शब्दों की दुनिया में ले गये होंगे. आरम्भ में शब्द महज़ वेदना या पुकार भर रहे होंगे. शब्दों ने वेदना से संवेदना और संवेदना से अर्थ तक की यात्रा की होगी. शब्द से फिर भाषा और भाषा से समाज. शब्द और अर्थ के संयोग ने ही व्यापक सामाजिक बोध को निर्मित किया होगा. मनुष्य और समाज के इस सरल से लगते सम्बन्ध के बीच कविता, भाषा और संवेदना ने कितनी निर्णायक भूमिका अदा की होगी यह बताने की आवश्यकता नहीं लेकिन सबके मूल में निर्णायक भूमिका कविता की ही रही होगी. क्या यह जो मनुष्यता का अस्तित्व है, उसकी मूल बुनियाद कविता है?
(Art Credit: Rebecca Chaperon)
2)
कविता का उत्स कहाँ है ?
क्या वह उस बाह्य गतिशील दुनिया में मौजूद है या फिर मनुष्य के अंतस गुह्य अन्धकार में? कवितायेँ कहाँ से आती है? कवितायेँ हमारी दुनिया में क्या भूमिका अदा करती हैं? मनुष्य और कविता के अन्तर्सम्बन्धों से जुड़े ये प्रश्न उसके अंतर्जगत में सदा से मौजूद रहे हैं. इन प्रश्नों का होना मनुष्य के रचनाशील होने को प्रमाणिक बनाता है.
यह बात बारम्बार दुहरायी गयी है कि पीड़ा से कविता का जन्म होता है. पर क्या कविता पीड़ा है? क्या वह मनुष्य को पीड़ा से निकालती है? पीड़ा कविता का उद्गम भी है और वह मनुष्य को उससे मुक्त भी करती है. कविता का पीड़ा के साथ यह द्वंद्वात्मक सम्बन्ध है. यह सम्बन्ध मनुष्य को कविता के प्रति प्रतिबद्ध बनाता है. क्या यह द्वंद्वात्मकता ही उसमें वह चुम्बकत्व विकसित करता है जिससे मनुष्य बार-बार स्वयं को कविता के समक्ष पाता है? रचना अगर कर्म है तो क्या वह मनुष्य के भीतर मौजूद काव्य चेतना की सार्थकता को इंगित नहीं करता?
यह भी कम दिलचस्प नहीं कि दुनिया की अधिकांश आधुनिक कवितायेँ ऊब, निराशा हताशा, क्रोध और निरर्थकता से पैदा हुयी हैं. कविता से पूर्व जो निरर्थक है, अर्थहीन है, जुगुप्सा उत्त्पन करता है, अकर्मक है. वही कविता में ढलकर अर्थपूर्ण सौन्दर्यात्मक एवं सकर्मक हो जाता है. यही कविता को रहस्यमयी बनाती है. मनुष्य के भीतर यह विवेक कि वह हर रहस्य को भेद देगा उसे कविता की तरफ ले जाता है. कविता का पारस पत्थर हर चीज़ को बदल देता है. कोई भी वस्तु काव्य विषय होने का पश्चात् रूपांतरित होती है. जैसे कोई कुम्हार गीली मिटटी के लोंदे को एक सुंदर से घड़े में रूपांतरित करता है. कविता भी ठीक उसी तरह निरर्थक और सामान्य से लगते विषय को अर्थपूर्ण और सार्थक विषय में बदल देती है. काव्य प्रक्रिया एक सकर्मक प्रक्रिया है, जो सौन्दर्य एवं सौन्दर्य दृष्टि निर्मित करती है.
ऐसा कई बार होता है कि हम किसी की पीड़ा को देखकर मुंह मोड़ लेते हैं. हम उस दृश्य, घटना से स्वयं को आबद्ध न करने का प्रयत्न करते हैं. लेकिन वास्तव में उस दृश्य या घटना को देखते ही हमारा अंतर्मन उससे जुड़ जाता है, मुक्त होने की कोशिश हमें और आबद्ध करती है. हम बार-बार यह याद करने की कोशिश करते हैं कि वह क्या है, जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं. और ऐसा करते हुए हम उसके प्रति अनायास ही एक सम्बन्ध विकसित कर लेते हैं. स्मृति-पटल पर वह दृश्य भली भांति अंकित हो जाता है. मस्तिष्क और ह्रदय के किसी सुराख़ में पीड़ा एक दृश्य, ध्वनि, करुणा या आर्तनाद बनकर प्रवेश कर जाती है. यहाँ से दृष्टा या भोक्ता के भीतर कुछ बदलता है. वह चाहते न चाहते हुए भी उसका एक अंश बन जाता है. पीड़ा, दृश्य, ध्वनि आदि चिन्हों में बदलकर उसे रूपांतरित करने लगती है. उसका आत्म कहीं अवचेतन में इस रूपांतरण का विरोध करता है. वह विरोध और रूपांतरण के द्वैत में कैद हो जाता है. दो किनारों के बीच लहरे उसे इस पार से उस पार धकेलती रहती हैं. उसके भीतर दोलन पैदा होती है. यह दोलन कभी भाषा की ध्वन्यात्मकता में तो कभी दृश्य की धूप-छाहीं दुहराव में व्यक्त होती है.
मुक्ति और बद्धता की यह प्रक्रिया ही व्यापक अर्थों में कविता में दुहराव के तमाम नियमों को विकसित करता है. वह ध्वन्यात्मक दुहराव भी हो सकता है जो सांगीतिक प्रभाव पैदा करता है. वह दृश्यात्मक दुहराव भी हो सकता है जो ह्रदय के अंतस में कम्पन पैदा करे. कविता का अनिवार्य सम्बन्ध दोलन की प्रक्रिया और तरंग गति से है. लेकिन भौतिकी में जहाँ दोलन गति और तरंग गति के अर्थ निश्चित हैं, समीकरण तय हैं. कविता में इनका अर्थ असीम विस्तार लिए है. कविता में मौजूद दोलन गति और तरंग गति का संम्बंध प्रकृति और चेतना में मौजूद हर तरह के कम्पन से है. यह कम्पन बाह्य भौतिक जगत और सूक्ष्म अंतर्जगत दोनों को जोडती है. कविता के लिए दोनों का एकमेक होना अनिवार्य है.
किसी एक की महत्ता कविता के प्रभाव को यांत्रिक बनाएगी. बाह्य की गति जब अंतर्जगत में एक लय उत्पन्न करती है तो चेतना उस लय, उस गति को मूर्त करने का प्रयत्न करती है. इस प्रक्रिया में ध्वनि और दृश्य दोनों चिन्हों की भूमिका निभाते हैं. कहना न होगा की ये चिन्ह पहले से हमारी चेतना में मौजूद रहते हैं. कविता की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से इन रास्तों से होकर गुजरती है लेकिन इस क्रमिकता के भीतर कई तरह के क्रमभंग मौजूद रहते हैं. अगर हम बिंदु को विस्तार दें तो वह एक रेखा है और रेखा को सूक्ष्म करें तो वह बिन्दुओं का योग है. यानि हर क्रमिकता में असंख्य क्रमभंग मौजूद रहते हैं. इन क्रमभंग को हम अन्तराल भी कह सकते है. जैसे ध्वनियों के बीच अन्तराल, शब्दों के बीच अन्तराल. ये अन्तराल कविता की अंतर्लय का निर्माण करते हैं. और इसमें प्रकट तौर पर मौजूद सारे विभाजन नष्ट होते जाते हैं. रुकना भी चलने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग होने लगता है.
3)
कविता और समाज
कविता भाषा के सबसे चैतन्य रूप को सामने लाती है. ऐसा करते हुए वह भाषा को अर्थ की सीमाओं के परे ले जाती. बोलचाल की भाषा जहाँ शब्दों को रूढ़ अर्थ प्रदान करती है, वहीँ कविता नये अर्थों का उन्मेष करती है. कविता भाषा की रूढ़ि को यथा-संभव तोडती है. कविता की सबसे बड़ी भूमिका यह है कि वह हमें इस बात से संपृक्त करती है कि अर्थ भाषा का अंतिम लक्ष्य नहीं और इस संदर्भ में कविता के उपयोगितावादी दृष्टिकोण से आगे निकलकर उसमें करुणा, संवेदना, आक्रोश, पीड़ा और संगीत भरती है. शब्दों में अर्थ और नाद के समन्वय से नये बोध तक पहुँचने की कोशिश कविता की प्राथमिकता होती है.
भाषा का सम्बन्ध समाज और मनुष्य से है और कविता भाषा को ही माध्यम बनाती है इसलिए सामाजिक रूपाकारों में आये बदलाव कविता को प्रभावित करते हैं .
इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि भाषा से कविता का निर्माण नहीं हुआ बल्कि इसके उलट कविता से भाषा निर्मित हुयी है. जब मनुष्य की सामाजिकता का विस्तार हुआ तो उसे अधिक अर्थपरक और उपयोगी संवाद की जरुरत महसूस हुयी और यहीं से कविता और भाषा का पृथककीकरण आरम्भ हुआ. कविता से बाहर की भाषा बाह्य अर्थ तक महदूद होती गयी. वह वस्तुओं की बाहरी दुनिया को इंगित और चिन्हित करने लगी. इस तरह कविता के बाहर की भाषा, भाषा के अन्य आयामों जिसमें ध्वनि, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब आदि थे से धीरे-धीरे पृथक होने लगी और भाषा के विविध आयाम कविता के साथ रह गयें. ऐसे में यह सोचना ठीक नहीं जान पड़ता कि कविता की भाषा कोई विशिष्ट भाषा है, बल्कि यह कहना ज्यादा संगत जान पड़ता है कि कविता की भाषा ही वास्तविक भाषा है.
संवाद की भाषा महज़ उसका एक आयाम है, जिसमें भाषा के रूढ़ होने की संभावना अधिक है. यह कम दिलचस्प नहीं कि जब समाज कविता विहीन संवाद की भाषा में व्यवहार करता है, तो वह उसे ही वास्तविक भाषा मानने लगता है. और कविता को किसी और दुनिया किसी और समाज की भाषा मानने लगता है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि वह कविता के साथ एक अजनबियत महसूस करने लगता है. उसकी चेतना में कविता की भूमिका अनिवार्य की जगह अतिरिक्त की होने लगती है. वह कविता को फुर्सत की चीज़ मानने लगता है. कविता से यह विलगाव उसके भीतर एक संवेदनात्मक विलगाव भी पैदा करती है. वह संवेदनात्मक विवेक को मनुष्य की कमजोरी और भावुकता की तरह देखने लगता है. वह अर्थ-परकता को इस हद तक अनिवार्य और अंतिम मानने लगता है कि उसे संवेदनात्मकता अतरिक्त और गैर जरुरी जान पड़ती है. अर्थ और संवेदना का यह विलगाव समाज का स्थायी भाव बनने लगता है.
आरम्भ में एक बात कही गयी है कि मनुष्य कविता से भाषा की तरफ आया होगा. भाषा की खोज मनुष्य के सामाजिक होने की प्रक्रिया के साथ ही संभव हुयी होगी. मनुष्य सामजिक इसलिए हो सका क्योंकि उसने अपने दोनों हाथ स्वतंत्र किये. स्वतंत्र हाथों ने न सिर्फ साथी के लिए फल तोड़ा बल्कि उसे स्पर्श भी किया और यही आरंभिक कविता रही होगी. जिसे बुनते गुनते वह भाषा तक आया होगा. जैसे-जैसे वह भाषा को अर्थपूर्ण बनाता गया, अर्थ और संवेदना, भाषा और कविता का पृथकीकरण होने लगा. संवाद के केंद्र में अर्थ आ गये. और कविता और अर्थपूर्ण संवाद का विलगाव आरम्भ होने लगा.
इस तरह कविता विहीन समाज की संरचना न सिर्फ एक शुष्क भाषा बोध निर्मित करती है बल्कि एक विरूपित जीवन दृष्टि भी पैदा करती है. हम यह बात भूलने लगते हैं कि भाषा का अंतिम और अन्यतम लक्ष्य कविता ही है.
आधुनिक कविता पर विचार करते हुए अक्सर छंद की वापसी का नारा बुलंद किया जाता है. कुछ इस अंदाज़ में जैसे कि छंद का नष्ट होना काव्यात्मक विकास की प्रक्रिया से भिन्न कोई और अवस्था रही हो और कविता को वापस छंद की राह पर चलाना संभव हो.
कविता पर विचार करते हुए यह प्रश्न ऐसे में अनिवार्य हो जाता है कि कविता- लम्बे समय तक- तक़रीबन 20 वीं शताब्दी के आरम्भ तक छन्दमय ही थी लेकिन आधुनिक युग में छंद लगभग नष्ट प्राय हो गया. प्रश्न उठता है कि अगर कविता छंद के बगैर भी संभव थी तो कविता में छंद का इतना महत्व क्यों था? छंद ने कविता में जो जगह बनाई थी, वह जगह कहाँ गयीं? आधुनिक कविता में छंद का विकल्प क्या है ? साथ ही क्या वास्तव में कविता में छंद की वापसी संभव है?
साहित्य पर विशेषकर कविता के विषय में बात करते हुए हम रूप-वस्तु के द्वैत पर बात करते हैं. क्या वास्तव में कला के किसी प्रारूप में रूप और अंतर्वस्तु का सरल विभाजन संभव है? क्या यह महज़ एक व्याख्यात्मक सरलीकरण भर नहीं है? दरअसल कविता में जितना दृश्य है, उतना ही अदृश्य भी. जब हम कविता को रूप और अंतर्वस्तु के द्वैत में बांटते हैं, तो कविता का मूर्त पक्ष ही हमारे जेहेन में रहता है, उसका अमूर्त पक्ष या अर्थ से इतर जो उसकी वास्तविकता है वह हमसे ओझल होने लगती है. रूप-अंतर्वस्तु के विभाजन की शर्त पर हम कविता के अर्थ से इतर की वास्तविकता से महरूम होने लगते हैं.
हकीकत में किसी कला रूप में इस तरह का विभाजन संभव नहीं. उदाहरण के लिए अगर हम यह प्रश्न पूछें कि कविता में भाषा का सम्बन्ध रूप से है या अंतर्वस्तु से तो यह प्रश्न ही गलत होगा. कविता में मौजूद छंद को भी इसी तरह महज़ रूपगत कसौटी मानना छंद की व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक भूमिका को नकारना है.
छंद का सम्बन्ध प्रकृति में मौजूद ध्वनियों के कम्पन, जीवन-सम्बन्ध और क्रियाशीलता से है. छंद का स्पष्ट सम्बन्ध बाह्य जगत की वस्तुपरकता से है. उस वस्तुपरकता से जिसे हम भाषा के माध्यम से मूर्त करते हैं. उस चेतना से है, जो बाह्य रूपाकारों को ध्वनि और दृश्य माध्यमों में बदलती है.
बाह्य जगत की वस्तुपरकता में अगर क्रान्तिकारी बदलाव आएगा तो वह हमारे भाषिक व्यवहारों को भी परिवर्तित करेगा. यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा कि दुनिया के किस हिस्से में किस तरह के छंद और लय का प्रयोग होता रहा है और उसका वहां के समाज और प्रकृति से किस तरह का सम्बन्ध रहा है. छंद और लय की तलाश किसी भी समाज के लिए प्रकृति के साथ उसके सह अस्तित्व की प्रक्रिया में ही संभव है. इसलिए छंद कोई बाह्य आरोपित या मनोगत व्यवस्था नहीं है. इसे किसी कवि की निजी विशिष्टता के रूप में देखना उसकी वास्तविक संरचना को नकारना होगा. पहाड़ पर रहने वालों की कविता में जिस तरह के छन्दों का प्रयोग होता रहा है, उसका गहरा सम्बन्ध उनकी जीवन स्थितियों से है. उसमें सांस की कम्पन का प्रभाव मैदान पर रह रहे लोगों की अपेक्षा अधिक है. उसमें दूर तक गूंजने वाली ऐसी ध्वनियाँ जो प्रतिध्वनी उत्त्पन करे, स्पष्ट देखा जा सकता है.
इसी तरह समुद्र के किनारे बसे लोगों की काव्य लय में समुद्र की लहरों उठना गिरना, उसका समय बोध अधिक प्रभावी ढंग से प्रयुक्त होता है. कहने का तात्पर्य यह कि दुनिया की तमाम कविताओं में जो लय और छंद रहा होगा, उसका गहरा सम्बन्ध वहां की स्थानिकता एवं सामाजिक सांस्कृतिक संरचना से रहा है. वहां की जीवन शैली से रहा है. लेकिन स्थानिकता के इस व्यापक अर्थ को जिस तरह पिछले तीन सौ सालों की सभ्यता में बदला गया है, उसने निश्चित रूप से इस सम्बन्ध को प्रभावित किया.
ऐसे में छंद और लय को सभ्यता विमर्श के दायरे में रखकर ही समझा जा सकता है. उससे परे छंद के विषय में बात करना उसे एक निर्जीव तकनीकी सूत्र में बदलना होगा. कविता में छंद और लय कविता की युगीन यथार्थ को इंगित करते हैं.
४)
छंद क्यों कारगर हुए
हमारे लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि पिछली शताब्दी के मुहाने तक छंद कविता का अविभाज्य अंश रहा लेकिन पिछले सौ साल की कविता पर नज़र डाले तो यह देखना कठिन न होगा कि आज कविता का वैभव छंद के उस पुराने रूपाकारों से एक हद तक मुक्त है. अगर कहीं किसी कविता में वह प्रयुक्त हो भी रहा है तो उसका प्रभाव सीमित है? प्रश्न उठता है कि छंद कविता में प्रभावी भूमिका लम्बे समय तक क्यों निभाते रहे? हम अगर मध्यकालीन काव्य को देखें तो यह बात कल्पना से परे लगती है कि छंद, लय और तुक के बगैर भी कोई कविता संभव हो सकती है. इसका सहज अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भक्तिकाल की किसी श्रेष्ठ कविता का ज्यों ही हम अनुवाद छंद और लय से परे किसी अन्य भाषा में करते हैं, तो वे अपना प्रभाव खो देती हैं. मध्यकाल की अधिकांश कवितायेँ गेय हैं. संगीतात्मकता उनका प्रधान गुण है. संगीत में सबसे छोटी इकाई ध्वनि और बड़ी इकाई शब्द हैं. वाक्य नहीं. यही वजह है कि कविता का जोड़ शब्दों पर है. फिर प्रकाशन का प्रश्न भी है. कविता के प्रसार का माध्यम श्रव्य होना हैं. मानव मस्तिष्क में वाक्य की अपेक्षा शब्द देर तक और दूर तक रह सकते हैं, रहते हैं.
कहना न होगा कि छंद और लय मध्यकालीन काव्यबोध का अनिवार्य और अविभाज्य हिस्सा रहे हैं. वह कविता की एक ठोस पहचान रही है और इसका सम्बन्ध जहाँ एक ओर स्थानिकता से रहा है, वहीँ दूसरी ओर वह जीवन शैली और कार्यव्यापार से भी जुड़ा रहा है.
अगर हम किसी मध्ययुग के सामान्य किसान के जीवन की कल्पना करें तो हम पायेंगे कि उसका जीवन स्थान विशेष से उम्र भर के लिए जुड़ा रहता था. उसके जीवन में चीज़ें निश्चित समय पर एक खास लय में दुहरायी जाती थी. समय के चक्र को वह दिन रात की सूक्ष्म कोटि की अपेक्षा ऋतुओं के चक्र के रूप में देखता था, उसका जीवन बोध बारहमासा से बंधा था. उसके जीवन की लय बहुत तरह के बन्धनों में ही व्यक्त होती थी. ऋतु-चक्र और फसल-चक्र के बीच मौजूद जीवन से ही उसके जीवन की लय बनती थी. उसका छंद बोध इससे बाहर नहीं था. जहाँ उसकी स्थानिकता उसके छंद और लय के दायरों को निर्मित करती थी, वहीँ उसके जीवन में मौजूद दुहराव उस छंद की ध्वनियों को निर्धारित करते थें. उसका काव्यबोध इन्हीं पूर्व निर्मित परिपाटियों में विकसित होता रहा. ऐसे में उसकी कविता भाषा की सबसे छोटी इकाई में ही पूर्ण होती थी. यह सबसे छोटी इकाई है -शब्द.
शब्द ब्रह्म है, यानि सम्पूर्ण है. मध्यकाल तक की तमाम कविताओं के केंद्र में शब्द हैं. किसान जीवन के केंद्र में शब्द है. जीवन की तमाम अभिव्यक्तियाँ शब्दों में पूर्ण हैं. शब्द के इस व्यापक महत्व को स्वीकारते हुए कबीर कहते हैं.
साधो शब्द साधना कीजै
जे ही शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै
शब्द गुरू शब्द सुन सिख भये शब्द सो बिरला बूझै
सोई शिष्य सोई गुरू महातम जेहि अंतर गति सूझै
शब्दै वेद-पुरान कहत है शब्द शब्दै सब ठहरावै
शब्दै सुर मुनि सन्त कहत है शब्द भेद नहि पावै
शब्दै सुन सुन भेष धरत है शब्दै कहै अनुरागी
षट-दर्शन सब शब्द कहत है शब्द कहे बैरागी
शब्दै काया जग उतपानी शब्दै केरि पसारा
कहै \’कबीर\’ जहँ शब्द होत है भवन भेद है न्यारा
(कबीर समग्र, पृष्ठ 774)
वाक्य क्यों नहीं, शब्द क्यों? क्योंकि शब्दों का सम्बन्ध छंद और लय की उस प्रक्रिया से है जिसका मुद्रण कागज़ की जगह मस्तिष्क पर हो रहा है. स्मृति के किसी कोने में जिस सहजता के साथ लय और छंद में ढले शब्द, शब्द-खंड, शब्द-युग्म रह सकते हैं, वाक्य नहीं. मध्ययुग की तमाम कवितायेँ गेय हैं. गीत और संगीत, छंद और लय सब उसमें इस तरह घुले मिले हैं कि कविता की सामान्य परिभाषा का हिस्सा बन जाते हैं. इससे परे वहां कविता का कोई अस्तित्व संभव नहीं.
कहना न होगा कि वहां शब्द लय और छंद में ढलकर ही कवि की चेतना में दृश्यमान होते होंगे. चूँकि समाज अपनी स्थानिकता से मजबूती से जुड़ा हुआ था. लोग एक दायरे के बाहर कभी नहीं जाते थे तो उन्हें कभी अपने काव्यबोध से परे किसी अन्य काव्यबोध की संभावना पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत महसूस नहीं हुयी. यह तो आधुनिक समाज का बोध है कि कविता जटिल है, संगीत सरल. आधुनिकता ने कविता और संगीत के द्वैत को खड़ा किया है.
Art Credit: Rebecca Chaperon |
५)
आधुनिक कविता का उद्भव
मध्ययुग का मनुष्य एक विशिष्ट जीवन शैली से जुड़ा था. अधिकांश लोग अपने इर्द -गिर्द के छोटे और सुरक्षित दायरे के बाहर नहीं जाते थे. जीवन अनुभव चक्रीय था. सामान्य मनुष्य की चेतना में कुछ उद्दात और श्रेष्ठ की काव्यात्मक परिभाषा व्याप्त होती थी. दुनिया अच्छे-बुरे, राम-रावण, कृष्ण-कंस जैसे सरल द्वैतों में ढली थी. कवि इन गाथाओं के मध्य समकालीनता की लय तलाशता था. अन्तर्विरोध थे, लेकिन वे धीमी गति से प्रकट होते थे. कविता का महत्व सुनने में था. सुनने की प्रक्रिया तीव्र प्रतिक्रिया को जन्म देती थी. इसलिए प्रक्रिया और प्रतिक्रिया के दुहराव में पाठ, स्मृति में टंग जाते थे.
उनका ध्वनि बोध मस्तिष्क में टिका रह जाता था. कविता शब्दों के रास्ते जुबान पर लौट आती थी. उसकी अंतर्लय स्मृति के कोठार में हमेशा के लिए अरक्षित हो जाती थी. लब्बो-लुबाब ये कि कविता की समग्र प्रक्रिया मानवीय श्रम और मनुष्य की चेतना की गति की सीमाओं और विस्तार से बंधी थी. कवि और श्रोता के मध्य कोई तीसरी चीज़ नहीं थी. आधुनिकता के उद्भव ने इस गतिकी को बदल दिया. जीवन की लयात्मकता बिखरने लगी. गति का मान बढ़ने लगा. मनुष्य अपने सीमित दायरे से बाहर आने लगा और दुनिया के विस्तार को उसने गाथा और पुराणों की नज़र से नहीं अपनी खुली आँख से देखना आरम्भ किया.
वह मध्ययुग तक दुनिया के विषय में सुनता था, जो स्मृति के किसी कोने में दर्ज हो जाती थी. श्रव्य परम्परा के रास्ते वह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसारित होती रहती थी. आधुनिकता ने इस प्रक्रिया को बदल दिया अब वह सुनने की जगह देख रहा था. धीरे धीरे कविता श्रव्य से दृश्य में ढलने लगी. इस देखने की प्रक्रिया ने उसकी चेतना को बदलना शुरू किया. उसका अंतर्बोध बदलने लगा.
आधुनिकता के आगमन के साथ ही मनुष्य और प्रकृति के बीच हजारों वर्षों का आदिम सम्बन्ध बदलने लगता है. उत्पादन की प्रक्रिया के तीव्र होने ने उसे यथार्थ के एक नये धरातल पर ला दिया. मध्ययुग में यथार्थ का लक्ष्य आदर्श था. राम कथा में राम का यथार्थ अंततः रामराज्य के आदर्श में परिणत होता है, लेकिन आधुनिकता ने यथार्थ और आदर्श के बीच एक विलगाव पैदा कर दिया. आदर्श काल्पनिकता की जगह लेने लगा. यथार्थ वास्तव में ढलने लगा. मनुष्य का प्रकृति से संघर्ष एकायामी नहीं रह गया. मनुष्य प्रकृति से संचालित होता था. अब वह प्रकृति को संचालित करने का प्रयत्न करने लगा. इस संघर्ष में उसे एक नया मित्र मिला- मशीन. मशीनों ने मनुष्य के हाथों का विकल्प पैदा किया. उत्तरोतर वे मनुष्य का विकल्प बनने लगे. आज हम कह सकते हैं मशीन, मानवीय स्पर्श और विवेक का भी विकल्प बन चुके हैं. यहाँ से उसकी कल्पना ने एक नई उड़ान भरी. आधुनिकता के इन आयामों ने उसके काव्यबोध को बदल दिया. अब जीवन न तो एक सीमित दायरे में व्यक्त होता था और न ही वह ऋतु-चक्रों पर पूर्णतया आश्रित रह गया था. प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने की इच्छा के बलवती होने ने उसके भीतर पर-निर्भरता का मिथक तोड़ दिया. इस टूटने ने उस पुरानी लय को भी जीवन से विश्रृंख्लित कर दिया. यथार्थ और आदर्श के विलगाव की तरह ही कविता और संगीत में भी विलगाव पैदा हो गया.
आधुनिकता ने मनुष्य के जीवन में नये विलगाव निर्मित किये. इन विलगावों ने जीवन चक्र को बदल दिया. जीवन बोध सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने लगा. मध्य युग में जीवन का लक्ष्य था -काव्यात्मक आदर्श. आधुनिक युग में कविता का लक्ष्य हो गया -जीवन बोध.
पुरानी लय के समाप्त होने पर यथार्थ को अब किसी छंद में देख सकना संभव नहीं रह गया. पहले जो चक्रीय था अब वह अन्य ज्यामितिक संरचनाओं में ढलने लगा. चेतना के इस विस्तार ने कविता में मौजूद सूक्ष्म लय को तो रहने दिया लेकिन बाह्य लयात्मकता, ध्वन्यात्मक बोध समाप्त हो गया. शब्दों का महत्व कम तो नहीं हुआ लेकिन शब्दों के महत्व में शब्द सिर्फ अर्थ और ध्वनि भर नहीं रह गये. शब्द यथार्थ और कल्पना के द्वैत में भी ढलने लगे. आधुनिक कविता की संरचना में शब्द की केन्द्रीयता की जगह वाक्य आ गये. वाक्य शब्द की तरह बाह्य ध्वन्यात्मक इकाई नहीं थे, इसलिए वे किसी बाह्य छंद या लय पर भी टिके नहीं थे. आधुनिक कविता में छंद का बंधन नहीं रहा. छापाखाना आ चुका था. संगीतात्मकता का बाह्य दबाव भी नहीं रहा. ऐसे में कविता की संरचना में मूलभूत परिवर्तन आता है. कविता के केंद्र में शब्द नहीं, वाक्य चले आते हैं. अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं \’दुःख ही जीवन की कथा रही\’- जैसे वाक्य क्या मध्यकाल की कविता में संभव थे ? मध्यकाल के कवि इस तरह कहते थे \’कत न वेदन मोहि देसि मरदाना\’. फर्क स्पष्ट है.
पहले की कविता में जो बाह्य संगीत था, वह अब आतंरिक संगीत में ढलने लगा. \’वसंत के अग्रदूत\’ में अज्ञेय ने निराला के हवाले से इसी लयात्मक परिवर्तन की बात की है. उस संस्मरण में निराला अज्ञेय से कहते हैं \”स्वर की बात तो हम भी सोचते थे. लेकिन असल में हमारे सामने संगीत का स्वर रहता था और तुम्हारे सामने बोलचाल की भाषा का स्वर रहता है (अज्ञेय संचयिता, पृष्ठ-465).
कविता अब पुराने अर्थ संदर्भों में श्रव्य नहीं रह गयी थी. उसे सुनकर मन मस्तिष्क पर अंकित नहीं किया जा सकता था. मुद्रण की आधुनिक प्रविधि ने आधुनिक कविता को संभव बनाया. छपाई खानों के आने के बाद कविता को मस्तिष्क में अरक्षित रखने का संकट समाप्त हो गया. इसका सबसे बड़ा प्रभाव न सिर्फ कविता की संरचना पर पड़ा बल्कि कविता पढने, सुनने और समझने की प्रक्रिया में भी व्यापक अंतर आया. कविता के विषय भी बदल गये. मध्ययुगीन कविता के पात्र और चरित्र से पाठक पहले से जुड़े होते थे. काव्यात्मक लय उन्हें शब्दगत करती थी. लोग रामचरित् मानस से पूर्व रामकथा जानते थे, लेकिन मानस ने उस कथा को जिस शब्द संरचना में ढाला, वह सामान्य जनता के कंठ में सहजता से प्रविष्ट हो गया. लोग रामकथा के आदर्श से जीवन में प्रेरणा ग्रहण करने लगे.
यह बात बार-बार दुहराने की आवश्यकता महसूस होती है कि मध्यकाल तक मनुष्य के जीवन में कविता आदर्श की भूमिका निभाती थी, इसलिए कविता पहले से मौजूद आदर्शात्मक और प्रेरक चरित्रों को विशिष्ट शब्द संरचना में ढालती थी. यह विशिष्ट संरचना उस दौर की काव्यात्मक प्रारूप को इंगित करती थी. कविता के विषय थे समाज में मौजूद धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्र. कवि उपस्थित होकर भी अनुपस्थित रहता था. कबीर जैसे कवियों ने निश्चित ही इस परिपाटी से अलग कवितायेँ लिखी और यह अनायास नहीं है कि मुक्तिबोध अपने एक लेख का आरम्भ ही इस वाक्य से करते हैं \”मध्युगीन कवियों में कबीर इतने आधुनिक क्यों लगते हैं?\”
कहना न होगा कि मध्ययुग की कविता का आधार था श्रवन. आधुनिक कविता का आधार है दृश्य. बीसवीं सदी के आते-आते लगभग पूरी दुनिया की कविता से छंद और लय का बाहरी स्वरुप खत्म क्यों हो गया? इस विघटन को सभ्यता के विकासक्रम से किस तरह समझें. प्रश्न उठता है कि आखिर छंद, लय और ध्वनि-बोध के धीरे-धीरे समाप्त होने पर कविता में क्या रह गया? या कहें कि कविता में उसका स्थान किसने ले लिया? आधुनिक कविता में छंद लय और ध्वन्यात्मक बोध का स्थान दृश्यात्मक बोध ने ले लिया.
दृश्यात्मक बोध से हमारा तात्पर्य क्या है? सुनने की प्रक्रिया में घटित से एक दूरी होती है. रामकथा हर कवि के लिए पूर्व में घटित कथा थी. कवि अपनी काव्यात्मक प्रतिभा से उस कथा के गिर्द ध्वन्यात्मक संयोजन को निर्मित करता था और कविता संभव होती थी. आधुनिक कविता ध्वनि को दृश्य में बदलती है. वहां सुनने की अपेक्षा देखने पर बल है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि आधुनिक कविता का सम्बन्ध कहने की अपेक्षा लिखने पर है. यह अनायास नहीं है कि ग़ज़लें कही जाती हैं, लेकिन कविता (आधुनिक कविता ) लिखी जाती है.
६)
यथार्थ से काव्यात्मक यथार्थ तक
देखने की प्रक्रिया में निकटता पर बल होता है. आवाजें हम दूर से सुन सकते हैं, लेकिन देखने में आँख की हदों के पार जाना संभव नहीं. यही वजह है कि आधुनिक कविता ध्वन्यात्मक बोध, लय और छंद की जगह चाक्षुष बिम्बों पर बल देती है. सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि मध्यकाल की कविता में जो भूमिका शब्द और ध्वनि अदा करती थी आधुनिक काल की कविता में वही भूमिका दृश्य और बिम्ब अदा करते हैं. इस प्रक्रिया में देखने पर बल है, लेकिन यह देखना महज़ आँखों देखा हाल नहीं है. यह काव्यात्मक निगाह से निकट की चीज़ों को देखना है. उदाहरण के तौर पर हम निराला की इन पंक्तियों को देखें –
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सांध्य बेला
(मैं अकेला ,राग -विराग )
इन पंक्तियों में देखने पर बल है. लेकिन कवि एक सांध्य बेला को देखता और फिर स्वयं को. वह बाहर से भीतर की यात्रा करता है. सबसे कठिन खुद को देखना है. खुद को देखने में आखें बेमानी हो जाते हैं. देखने की प्रक्रिया बदल जाती है.
यहाँ ढलती हुयी संध्या जीवन की ढलती सांझ में परिणत होने लगती है. शाम का गुजरना या गुजरते जाना उसे स्वयं के गुजरते जाने सा प्रतीत होने लगता है. हम यह देख सकते हैं कि बाह्य एक नये अंतस में ढलने लगता है. बाहर को खुली आँखें भीतर को खुलने लगती हैं और फिर कवि की आँखें अंदर बाहर के विभाजन से परे चली जाती हैं. इस परे चले जाने को ही हम काव्यात्मक दृष्टि कह सकते हैं. यह दृष्टि खुली आँखों से देखने की प्रक्रिया से कितनी दूर चली जाती है. समर्थ कवि वही है जो काव्यात्मक दृष्टि से चीज़ों के देखने को रूपांतरित करता है. आधुनिक कविता यथार्थ को इस तरह काव्यात्मक यथार्थ में बदलती है. वह पूर्वसंचित यथार्थ को ज्यों त्यों नहीं रख देती वह कवि दृष्टि या कवि की देखने की प्रक्रिया में परिणत होकर यथार्थ को रूपांतरित करती है.
निकट के दृश्यों पर निगाह के जमने से कवि के अंतर्बोध में एक व्यापक परिवर्तन आता है. कविता का प्राप्य काव्यात्मक आदर्श न रहकर काव्यात्मक यथार्थ हो जाता है. कवि रामकथा के बंधे बंधाये दायरे से मुक्त होकर अपने इर्द गिर्द देखने लगता है. कई बार इतना निकट कि वह एक समूची दुनिया को स्व तक ले आता है –
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला.
(मैं अकेला , राग -विराग )
लेकिन यह आत्मालाप भर नहीं है. वह स्व को विस्तृत करता है. \’अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ\’ की शब्दगत संरचना से यह बहुत आगे की बात है. इसमें स्वयं को उत्सर्ग कर देने, निज और परे के अंतर को मिटा देने की कोशिश है.
निराला के यहाँ आधुनिक कविता सबसे प्रांजल और प्रखर स्वर उभर कर आता है. वास्तव में जिसे हम आधुनिक हिंदी कविता कहते हैं, उसका आरम्भ निराला से होता है. निराला की कविता समूचे काव्यात्मक वितान के समक्ष खड़ी होती है- उसे बदलती है. हिंदी कविता के इतिहास में निराला के आने से मध्यकाल का समूचा सिराजा बिखर जाता है. जिस तरह एजरा पाउंड और टी.एस.इलियट के आने से यूरोप की कविता के समक्ष परम्परा और वर्तमान की बहस खड़ी होती है, उसी तरह निराला के आने से हिंदी कविता में परम्परा बनाम वर्तमान की बहस शुरू होती है, इसलिए हिंदी कविता में आधुनिकता का आरम्भ निराला से होता है. उससे पूर्व जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, वह वास्तव में आधुनिकता से पूर्व संक्रमण का युग है. जिसमें परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां एक साथ नज़र आती हैं.
निराला की कविता से आधुनिक कविता के आरम्भ मानने के पीछे एक बड़ी प्रेरणा यह भी है कि उनकी कविता काव्यदृष्टि को सूक्ष्मतर बनाते हुए उसका असीम विस्तार करती है. वह पुराने काव्यादर्शों के स्थान पर निज को काव्यात्मक यथार्थ में बदल देती है. यह बात सरोज स्मृति या राम की शक्ति पूजा दोनों ही के विषय में कही जा सकती है. यहाँ विषयांतर न करते हुए संक्षेप में हम सरोज स्मृति पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं. हम जानते हैं कि वह कवि के जीवन में घटित का वर्णन है. सरोज निराला की पुत्री थी और सरोज स्मृति से झांकती कथा निराला के निजी जीवन से झांकती कथा है. लेकिन यह सब जानते हुए भी यह कविता हमारे मन पर इतना गहरा प्रभाव क्यों डालती है? निराला- सरोज का जीवन किसी गाथा या पुराण को व्यक्त तो नहीं करता. फिर इसे हम किसी दूसरे व्यक्ति की कथा समझकर विमुक्त क्यों नहीं होने लगते? दरअसल निराला-सरोज के द्वैत में हम अपनी किसी पीड़ा या सालती हुयी स्मृति को देखने लगते हैं. कवि का जीवन हमारे जीवन के पन्ने पलटने लगता है. यह निकटता पहले संभव नहीं थी. भाषा के बाह्य दबावों से परे यह कविता अपनी आंतरिक संगति से हमारे जीवन वीणा के तार छेड़ती है. निराला जब यह कहते हैं कि दुःख ही जीवन की पीड़ा रही तो वह पीड़ा महज़ निराला व्यक्ति की नहीं बल्कि कवि निराला की पीड़ा बन जाती है और कवि निराला का अर्थ है- वह जो इन पंक्तियों से गुजरता है. सरोज स्मृति हर पाठक के जीवन को संबोध्य होने लगती है जो इस कविता को पढता है. कहना न होगा कि सरोज स्मृति में सरोज की अकाल मृत्यु देश काल की सीमाओं के परे जाकर उतनी बार घटित होती है जितनी बार पाठक इसे पढता है. कविता आकार में रहकर निराकार होने लगती है. अपने वर्तमान से परे जाकर पाठक के वर्तमान में प्रविष्ट कर जाती है. किसी फिल्म की तरह. वह हर दर्शक के सामने घटित होती है. आधुनिक कविता का महत्व यह है कि वह हमारे यथार्थ को काव्यात्मक यथार्थ में बदल देती है. रघुवीर सहाय जब यह कहते हैं –
बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री
और मुझमें कुछ दूर घिसटता जाता हुआ
(चढ़ती स्त्री, आत्महत्या के विरुद्ध )
तो वह घिसटन हर उस पाठक के हिस्से में आती है, जो इस कविता से रूबरू होता है. कवि का वस्तुगत यथार्थ पाठक के विषयगत यथार्थ में बदलने लगता है. कवि व्यक्ति होकर भी पाठकीय समूह में परिवर्तित होने लगता है.
आधुनिक कविता हमारे बोध को अधिक सूक्ष्म और मानवीय बनाती है. वह हमारे आत्म को विस्तृत करती है और अन्तः संघर्ष को प्रगाढ़. बकौल मुक्तिबोध
ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ.
(ब्रह्मराक्षस, चाँद का मुंह टेढ़ा है )
\’आलोचाना\’ के अंक ६४ में भी प्रकाशित यहाँ उसका संशोधित रूप.