मराठी से अनुवाद भारतभूषण तिवारी
काला चबूतरा
चार-एक सौ साल पहले गाँव बसा तब
काला चबूतरा तुरंत नहीं बनाया गया होगा
फाँसी देने की जगह मुकर्रर करने से पहले
मलिक अम्बर को करना था
पानी का इंतज़ाम, बनानी थी नहर-ए-अम्बरी
शानदार इमारतें और एक चर्च भी.
लगान की व्यवस्था करनी थी
खड़की उसका आखरी मकाम था
मगर काला चबूतरा कोई उसकी
प्रायोरिटी नहीं रहा होगा
बुखार से कुम्हलाए बीमारों की तरह
चार रास्ते आ मिलते हैं वहाँ के चौक में
क्रान्ति जैसा कुछ कभी घटा था पता नहीं
इस चौक को अब कोई
काला चबूतरा
के नाम से नहीं जानता
पता नहीं क्यों मगर उसे क्रान्ति चौक कहा जाता है
रज़ाकारों के क़त्ले-आम के किस्सों और काले चबूतरे का नाम
सुनते-सुनते किसी ज़माने में बच्चे जवान होते
वहाँ अब चौक में मई की धूप की सार्वजनिक दहशत
पिघलाती है रास्ते पर का कोलतार
मकबरे का संगमरमर तपता है
थोड़ी-बहुत ठंडक हुई तो वह गाँव के बाहर वाली गुफाओं में होगी
इधर-उधर से आए लोग चखते हैं चटपटी चाट, आइसक्रीम
उनके गाँवों में नहीं इस गाँव के सिराज, वली औरंगाबादी
और यह भी नहीं होगा उनके गाँव में
यहाँ काले चबूतरे पर फांसी दी गई होगी कितनों को
वहाँ से ज़िप-ज़ैप-ज़ूम दौडती रहती हैं गाड़ियाँ
किसी भी पहर बेखबर बेख़ौफ़
वहाँ की चाट कचौड़ी पिघलती है
राह देखकर थक चुकी जीभ पर
पत्थर के काले चौतरे पे खुद ही चढ़कर
चुपचाप गले में फंदा डाल कर
लटकते हैं दिन में अब कितने ही
पृथ्वी का ग्लोब बदलता है ऐनिमेट होकर
विशालकाय घनाकार में
फाँसी चढ़ चुके आदमी नज़र आते हैं फाँसी हो जाने पर ही
और काला चबूतरा
कहीं भी दीखता नहीं.
एक सौ तीस साल पहले किए गए दीनदयाल के उपकार से
लाला दीनदयाल द्वारा खींचे गए फोटो के नीचे
छपा है साल अठारह सौ अस्सी…
ज़ेबुन्निसा का महल और उसकी कब्र, ज़नाना महल आलमगीरी मस्जिद
और मकाई दरवाज़ा
और रौजा में औरंगज़ेब की कब्र, खाम नदी-
सेपिया रंग वाले ये फोटो देखते हुए लालाजी ने भारी-भरकम कैमरे के साथ
बर्तानवी उपनिवेश के बाहर वाले, निज़ामी में धूल खाते पड़े हुए
इस गाँव तक कैसे किया होगा सफर दर कोस दर मक़ाम
यह सोचता हूँ और सलाम करता हूँ मशकूर होकर.
वैसे अंग्रेजों के कैमरे के फ्लैश भी उड़े थे
बीस साल पहले ही
मकबरा, पनचक्की, दिल्ली दरवाज़ा और
गाँव के रास्ते और गाँव के बाहर वाली गुफाओं में.
लालाजी ने यह फोटो खींची तब गाँधी ग्यारह साल के थे और
नौ साल बाद नेहरू पैदा होने वाले थे.
उस फोटो की बहती हवा में
मैंने तीस साल बिताकर एक सौ तीन सालों बाद फिर वह मेरे हाथ लगने वाली थी.
बचपन की विरल स्मृति वाले स्टेट टॉकीज में
फटे हुए काले परदे के पीछे से थके-मांदे देखी हुई अनारकली या मैं चुप रहूँगी
जैसी फिल्में याद आ रही थीं.
स्वर्ग जहाँ आबाद है ऐसे खुल्दाबाद आना था मरने की खातिर
आलमगीर औरंगज़ेब समेत
शाही मुग़ल परिवार के
सारे लोगों को यहीं गड़ जाना था
कब्रों में आना था मरकर.
कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ के अशोक कुमार को घूमना था
यहीं के बाज़ार में और
दरगाह में आखिर में राजकुमार को मीनाकुमारी को यहीं मिलती है
टूरिस्ट गाइड ज़रूर देंगे यह जानकारी कभी भी.
ख़ास-ओ-आम सभी को समो लेने वाले मैदान की बेतहाशा भीड़
तो हुआ करती नेहरू, शास्त्री और इंदिरा की पंचवार्षिक सभाओं में
मगर हम्माम कहाँ है ज़ेबुन्निसा का? ज़नाना महल तो खैर
आर्ट कॉलेज के पते पर मिलेगा
मगर ज़ेबुन्निसा का महल कहाँ है अब? बेदरोदीवार-पर्दानशीं?
गवर्नमेंट कॉलेज से होकर ज़नाना महल की जानिब उतरने के लिए
एक ज़ीना था औरंगज़ेब की निजी मस्जिद की पड़ोस से,
एनसीसी परेड ग्राउंड पर थके हुए कैडेट्स
नेपियन द्वारा पहले ही तस्वीर में कैद की जा चुकी
आलमगिरी मस्जिद के पीछे वाली दीवार गीली करते सामूहिक रूप से
सुबह की परेड के बाद
यहाँ की शूटिंग रेंज पर पहली बार चला कर देखी गई भारी राइफल
काफी भारी थी
सन अठारह सौ अस्सी के फोटो में भी खाम सूखी ही नज़र आती है
मकाई दरवाज़ा और पनचक्की के फोटो में
उसके सूखे पड़े पाट से होकर सिर पर तसला लिए हुए दूसरी तरफ जाती एक महिला की पीठ नज़र आती है
तमाम सदियों में सिर पर तसले ढोने वाली औरतें
की तस्वीरों में पीठ ही नज़र आती है
नेपियन के फोटो में मकबरे का एंगल
अब स्टैंड पर खड़े हुए किसी भी रिक्शे में से
लिया जा सकता है, मगर फोटो में नज़र आने वाले सूखने डाले गए
गोबर के कंडे और काट कर रखी गईं लकड़ियाँ नहीं दिखेंगीं
उसके लिए पश्चिम की तरफ वाले मकबरे की दीवार के बगल में
इक्कीसवीं सदी के ढोरों के बाड़े की तरफ जाना होगा
कहाँ के तुर्क और कहाँ की रबिया यहाँ आकर पड़ी
लो कॉस्ट ताजमहल के संगमरमर के नीचे
नक्काशीदार कब्र में
नहीं तो उसका खाविंद, उधर खुल्दाबाद में दफ़न हुआ
गोबर की कब्र में.
बानोबेगम की कब्र की तरफ से पूरब की ओर दिखती हैं मकबरे की मीनारें,
जिनके दरवाज़े हमेशा बंद रहा करते
और हर बार वहाँ से ख़ुदकुशी कर चुके प्रेमी युगल की कहानी सुननी पड़ती.
दिल्ली दरवाज़े से बाहर गया ही नहीं कभी, हिमायतबाग में दुपहरियाँ बिताने
जाया करता
स्कूल की छुट्टियों में, उसके सिवा
दिल्ली दरवाज़ा पार किया ही नहीं.
परकोटा था ही तैयार उस तरफ से सटक लिया.
फिर वापिस जाने की हिम्मत ही नहीं हुई.
फिर कहाँ जाना होता है गाँव वापिस एक बार बाहर निकल जाने पर
पर वहीँ गड़ी है नाल कहीं तो एक हवेली में
वह हवेली अब न हुई तब भी
बावन दरवाज़े सुनता आया पर सारे कहाँ कभी देखे
किलेआर्क का रंगीन दरवाज़ा फ्रैक्चर होकर बैंडेज लगी हुई हालत में
बाकी इश्तहारों की परतों से रंगे हुए
अब जो कुछ थोड़े बाकी होंगे उतने ही
एक सौ तीस साल पहले किए गए दीनदयाल के उपकार से
विक्रमादित्य से बेताल हुआ बार-बार.
बाकी इक्कीसवीं सदी में यह गाँव
कब का अठारह सौ सत्तावन की पुरानी दिल्ली हो चुका.
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहाँ हो गईं…
करीमा के बारे में कुछ भी नहीं इतिहास में
करीमा के बारे में कुछ भी नहीं इतिहास में
मलिक अम्बर के बारे में कुछ मिल जाएगा
उसके बगल वाली कब्र उसकी है
बस इतना सा ज़िक्र
कहाँ पैदा हुई, कहाँ पली-बढ़ी, कहाँ से आई
बग़दाद से या बीदर से,
इस हब्शी से कब और कहाँ हुआ निकाह
कहीं कुछ खबर नहीं साफ़.
मलिक नाम के भूतपूर्व गुलाम की
बीवी ताउम्र नहीं नज़र आती इतिहास को
मिट्टी तले जाने पर उतना ही बस ज़िक्र.
करीमा के बारे में अफवाहें भी नहीं कानों पर
वरना हवाई किलों के मुकाबले
कितना तो मज़बूत किरदार गढ़ा जा सकता था उसका
अफवाहों के अफीम के खेत सालोंसाल पकते ही हैं
उन पर गढ़े जाते हैं किरदार कानाफूसियों से.
चाँदबीबी का नाम तो हुआ मगर थी तो वह रानी ही
करीमा आखिर एक सरदार की बीवी
भले ही चाँदबीबी के क़त्ल के बाद उसी की हो गई समधन
शौहर सयाना था फिर भी
उसे मारने को तत्पर थे
बादशाह जहाँगीर के साथ कितने ही हमलावर
वह भी ऐसा पक्का कि दबा नहीं आखिर तक
किसी से भी.
बर्बाद हो चुके लड़के की करतूतें देखने के लिए
करीमा ज़िंदा नहीं रही ये अच्छा ही हुआ
शौहर भी चला गया उसके पीछे-पीछे
दो महाद्वीपों और छिहत्तर सालों का फासला नाप कर.
वतन
चाहे जो मौसम हो
रास्ते सिर्फ पड़े रहते
इस्तेमाल न किए हुए कपड़ों जैसे.
कभी आराम से अपनी रफ़्तार से
एकाध तांगा निकल जाया करता पीछे से आगे
या आगे से पीछे
तांगेवाले का चेहरा देखा-भाला ही होता
कभी न कभी
अचानक किसी दिन दिखाई देते
बहुतों के बदन पर नए कपड़े
और ईदगाह मैदान की ओर जाने वाले झुण्ड.
वरना सभी के कपड़े
ज़्यादातर एक से हुआ करते.
तीन दिन तक महसूस होती धधक
धू-धू कर जलती होली की
और न धुल पाए रंग टिके रहते वैसे ही स्कूल में भी.
परकोटों और बुर्जों के भीतर बसे
उस छोटे से गाँव में तब ऐसा लगता
न जाने कितने राज़ इकठ्ठा हैं
अब वहाँ परकोटे टूट गए हैं
बुर्ज ढह गए हैं
वहाँ कोई राज़ ही
बचे नहीं
और
भुर्र से बगल से निकला हुआ चेहरा
चाहे जितना निरखा जाए
पहचाना नहीं जाता.
पैरों तले देखिये क्या जल रहा है
पैरों तले लावा बहता है
पैरों तले पानी बहता है
कान लगाकर सुनें तो सुनाई भी देगा
कहीं कहीं खपरैलें बची हुई भी होंगी
जिनसे पानी बहा गाँव भर में
कहाँ से कहाँ आ पहुँचे
हब्शी के लड़के ने चलवाई हुई
वह जो अब कहीं भी मिलता नहीं
इंसानों के बीच से लुप्त हो चुकी दुर्लभ प्रजाति जैसा
पैरों तले खोदते जाएँ तो उसकी हड्डियाँ भी मिलेंगी
शायद फॉसिल्स में ही लुप्त हो चुकी
नहर की एकाध खपरैल तले
ढूँढो उसे.
फ्रेम से बाहर
अबुल हासन कौन कहाँ का पता नहीं
तुर्क हो सकता है या ईरानी भी
सोलहवीं सदी में आए थे बहुत से मुसव्विर
वहाँ से यहाँ आसरे की खातिर
तो उस अबुल हासन का एक मिनिएचर है
जिसमें बादशाह जहाँगीर साफ़ नज़र आते हैं
यह वही बीवी के मत्थे राज-पाट थोपकर
इन्साफ़ का घण्टा बजाता बैठा
और मुगले-आज़म की किंवदंती में मशहूर हो चुका
ऐय्याश सलीम
इस तस्वीर में वह खड़ा है पृथ्वी के ग्लोब पर
ये ग्लोब है बैल की पीठ पर
और बैल एक बड़ी मछली की पीठ पर
जहाँगीर के हाथ में जो कमान है उस पर
तीर निशाने पर लगा है
शूटिंग रेंज में गोलों में बने हुए होते हैं
वैसे एक गोल में एक आदमी का सिर लटकाया गया है
काले आदमी का
उस काले हब्शी आदमी का नाम
मलिक अम्बर है
आसमान से फ़रिश्ते जहाँगीर को
फख्र से निहार रहे हैं
सभी जानते हैं
ऐसा कभी हुआ नहीं
मलिक को झुकाने की जहाँगीर की हसरत
आखिर तक पूरी नहीं हुई
बादशाह को खुश करने के लिए
ऐसे लाचार आश्रित हमेशा ही
हर ज़माने में मौजूद होते हैं
वो लिखते हैं कसीदे रचते हैं छंद
जी-हुजूरी की तस्वीरें रंगते हैं
उस फ्रेम के भीतर से नहीं दिखाई देती दिशाएँ
होती है फक़त आँखों में धूल झोंकने गुमराह करने की बातें
फ्रेम से बाहर ही रहता है सच्चा इतिहास और
असली इंसान.
फ्रेम से बाहर ही खेलती रहती है हवा.
|
(पेंटिग : गणेश विसपुते) |
ख़ुजिश्ता बुनयाद
पर्दे की फ़्रेम में जो घटता है उसके मुकाबले
ज्यादा घटता रहता है पर्दे से बाहर
पर्दे के बाहर से आवाज़ें आती हैं
पुकारें आती हैं संगीत आता है इतिहास आता है
बारिश आती रहती है हवाएँ बहती हैं
पर्दे की फ़्रेम के भीतर के आदमी फ़्रेम से बाहर देखते हैं
ऊपर देखते हैं फ़्रेम के भीतर से, आसमान की तरफ
वह आकाश हमें दिखाई नहीं देता
पर्दे की फ़्रेम में जो दिखाई नहीं देता वह सुनाई पड़ता है
जो सुनाई पड़ते-पड़ते दीखता है वह सामने पर्दे पर नहीं होता
कमर पर हाथ रखे
पैरों पर खड़े होकर देखें तो
ज़रा सी ऊँचाई पर स्थित कितनी बातें दिखाई देती हैं
नज़र जहाँ तक पहुँचे वहाँ तक
घटने वाली बातों का प्रवाह बिना रुके बहता है
जहाँ खड़े होकर देखता हूँ वहाँ उस जगह भी
पैरों तले घट गया होता है बहुत कुछ
पैरों तले होती हैं पानी की धाराएँ
इतिहास के जीवाश्म से ढला हुआ खनिज
ठंडा पड़ चुका लावा और मृत ज्वालामुखी
यहाँ मिल सकता है एक
सुनियोजित जल-व्यवस्थापन का ताना-बाना भी
बर्बाद फॉसिल की तरह दिखेगा शायद
मिल भी सकता है नगररचना का हुनर
किस्मत कि टेराकोटा में जंग नहीं लगता
इसलिए मुअनजोदड़ो की खुदाई में
मिलता है सुराग किसी सभ्यता का
इस ज़माने में भी जिसमें सारी कोशिशें बर्बाद हो जाती हैं
नहरों की आवाजें सुनाई देंगी ऑफ़-स्क्रीन में
पर्दे पर नहीं नज़र आएँगीं
समूचे गाँव की प्यास बुझाने वाले
खपरैलों की पाइप-लाइनों की सिंकाई करने वाले पर्दे से बाहर ही
वे नहीं दिखाई देते और न ही उनकी भट्टियों का धुँआ
खुजिस्ता बुनियाद याद नहीं पड़ती होगी
राजतड़ाग मतलब क्या? हरसूल पता है
वहाँ से निकली गाँव भर में फैली
हार्टलाइन को छूकर देखो
उसका पानी अब भी निस्संग बेरंग ही है
उसमें अब तक सिन्दूर चुपड़ा नहीं जा सका
मगर ध्यान से पर्दे की ओर अगर देखें न
तो पर्दे से बाहर का ज़्यादा सुनाई पड़ेगा
और पैर जमा कर ढंग से खड़े रहें तो
पैरों के नीचे का भी.
(खुजिश्ता बुनयाद- औरंगाबाद का एक नाम, औरंगज़ेब ने इसी नाम से टकसाल भी शुरू की थी)
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विरासत की स्मृतियाँ
गणेश विसपुते
मराठी से अनुवाद भारत भूषण तिवारी
निर्वासन के प्रारम्भ में स्मृति के बीज होते हैं. वह स्थलांतर के क़दमों से चलते हुए अनपेक्षित और अवांछित भूगोल में पहुँच कर अंकुरित होते हैं. उन बीजों के गुणसूत्र आगे आने वाली पीढ़ियों में अनायास संक्रमित होते हैं. ये गुणसूत्र गुम हो चुकी विरासत की कहानियों में अपनी बनी-बनाई स्मृतियाँ रख देते हैं. यह अपने-आप होता है या जतन करना पड़ता है यह कहा नहीं जा सकता. पर वह स्मृतियाँ कबाड़ में पड़ी होती हैं. गुज़रे ज़माने की ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़िल्मों की तरह रोल होती हैं, तब वैसी ही आवाज़ नेपथ्य में चलती रहती है. फ़िल्म भी कम-ज़्यादा स्पीड से, टूटते-जुड़ते, बीच-बीच में म्यूट होते हुए चलती रहती है. इसके अलावा ऑफ़-स्क्रीन में दूर से आवाज़ें आती हैं, उसमें की कुछ आवाज़ें अपनी ही जो उम्र के तमाम पड़ावों पर बदलती गईं, और कुछ वर्तमान के सरकते पर्दे पर की.
विरासत की कहानियों की स्मृति : 1 : यमुना
सेपिया रंग के दो-चार फ़ोटो हैं उसके. उनमें जो चेहरा है वह जाना-पहचाना है. उस से अनगिनत कहानियाँ सुनीं. सच्ची-मनगढंत. रात में सरसराने वाले पीपल के पेड़ के नीचे सुलाने की खातिर सुनाई गईं. भूतों की – पठानों की – रोहिल्लों की – पैदल चलते हुए दर कोस दर मक़ाम सफ़र करते हुए किए स्थलांतर की.
फ़ोटो में जो चेहरा है वह जवान रहा होगा तब की उसकी कहानी है. जवान विधवा. पचीसेक साल की. निज़ाम के मराठवाड़ा का एक छोटा सा गाँव. सूखाग्रस्त और दहशत के साए में. पति हाल में गुज़र चुका. छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा. पति ज़िन्दा था तब भी हालात बहुत अच्छे थे ऐसा नहीं था. थोड़ी-बहुत कमाई हो जाए तो वह बाज़ार जाता. थोड़ी-बहुत ख़रीदारी हो गई तो वह लौटते हुए बाज़ार में बेचने के लिए लाए गए हिरण लेकर गाँव के रास्ते में उन्हें वापिस जंगल में छोड़ देता. यह नाज़ुक हिरण मार कर खाने के लिए नहीं बल्कि जंगल में कुलाँचे भरने के लिए पैदा हुए हैं ऐसा उसे लगता. संत था. मगर संत दूसरे के घर में हो तो ही बेहतर. मगर वह चला ही गया. पीछे जवान पत्नी.
एक लड़का उम्र नौ साल. एक लड़की उम्र सात साल. कोई ख़ास करीबी रिश्तेदार नहीं. घर से बाहर रज़ाकारी का माहौल. हवा में सर्द ख़ौफ़. एकदम ख़ामोश हो चुके गाँव में रोहिल्लों के घोड़ों टापों की आवाज़ें. कभी अनाज, कभी वसूली, कभी और कुछ. शांत पड़ चुके गाँव में ग़लती से किसी की बहू-जवान लड़की नज़र आई तो घुड़सवारों की तिरछी नज़रें प्यासी हो जातीं. ऐसे में मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम की हवाएँ बहने लगीं और दहशत की चक्की और तेज़ी से घूमने लगी. गाँव में घर के सामने सार्वजनिक कुआँ था उसमें लाशें तैरने लगीं.
एक दिन उसने घर में जो था, नहीं था वह छोटा-मोटा इकठ्ठा किया. गठरी बाँधी. दोनों बच्चों का हाथ पकड़ा और कहीं भी दूर चले जाएंगे लेकिन यहाँ नहीं रहेंगे ऐसा कहकर वह तुरंत निकल गई. कहाँ जाएँगे पता नहीं था. शहर किस तरफ़ है ऐसा शायद पूछा होगा किसी से रास्ते में. मगर वह चलती रही लगातार तीन दिन तक. एक सौ बीस किलोमीटर. बच्चों के साथ.
शहर के उत्तर में दिल्ली दरवाज़ा है. उस दरवाज़े से होकर वह शहर में पैदल चलकर आई. तब देश आज़ादी की दहलीज़ पर था. ऐसे दौर में उसकी जीने की घमासान लड़ाई जारी थी. विधवा. अपढ़. पास में पैसा-धेला नहीं. तीनों को ज़िन्दा रखने की ज़िम्मेदारी सर पर. बच्चों को बड़ा किया. जैसा हो पाया वैसे पढ़ाया-लिखाया. जैसा काम मिला वह किया. हिकमत और हिम्मत थी. उसके भरोसे टिकी रही. आज़ादी के लिए लड़ने वालों में माणिकचंद पहाडे का उस इलाके में बड़ा नाम था. उनके यहाँ काम करने वह और लड़का जाया करते. फिर लड़का धीरे-धीरे पर्चे बाँटने, संदेसे पहुँचाने जैसे काम करने लगा. पुलिस आने वाली है यह पता चला तो घर में रखी चीज़ें-कागज़-पत्तर कहाँ ले जाएं यह सवाल खड़ा हुआ. तब यह आगे हुई और ज़ीने की फर्श की सीढ़ियाँ उखाड़ कर उसमें चीज़ें और पर्चे छुपा दिए, ऊपर फर्श लगाकर फिर से ज़ीना जैसा था वैसा ही लीप-पोत दिया. आगे लड़का गिरफ़्तार हो गया तब जेलर के पास जाकर मिन्नतें कीं- बच्चा है छोड़ दीजिए. यही एक सहारा है – वगैरह कह कर लड़के को वापस ले आई और जीने की लड़ाई में शरीक किया.
कहते हैं अफ़्रीका के ग़ुलामों को अमेरिकी महाद्वीप ले जाया गया तब उनके तन पर कुछ नहीं था. जो कुछ उन्होंने जमा किया था वह अपने देश के साथ ही पीछे छूट गया था. मगर अमेरिका के तट पर पहुँचने पर उन्होंने पटरे के मग, लोटे, बोतलों, लाठियों और हाथ में जो चीज़ आई उन्हें इस्तेमाल करके अपने संगीत को फिर ज़िन्दा किया. वह संगीत उनके ख़ून में, मन में और कानों में था ही. उसी में से जैज़ एक पृथक विधा के तौर शुरू हुआ. यमुना गाँव से आते हुए अपने साथ कुछ नहीं लाई थी. लेकिन उसके पास बातों का खज़ाना था. गीत थे, चुनिंदा कहावतें थीं, ओवियाँ* थीं, कहानियाँ थीं. ज़िद थी. उसने सुपारी के बगीचों के ठेके लिए. जानवर पाले. नवाबों की पुरानी हवेलियाँ खरीदीं और बेचीं. अनपढ़ होते हुए भी तीर्थाटन के निमित्त से उत्तर-दक्षिण भारत अकेले ही घूम आई.
जो कुछ उसके पास संचित था वह उसने हमें अपने बचपन में ही सौंप दिया.
अपनी दादी के तौर पर उसके प्रति अपार कृतज्ञता महसूस करते हुए ही उस जादुई क्षण को लेकर मेरा आकर्षण ख़त्म होने का नाम नहीं लेता.
वह क्षण- जब उसने गाँव छोड़कर जाने का फैसला किया. उस समय मेरे अस्तित्व का भी सम्बन्ध न था. मगर उसकी वजह से मैं औरंगाबाद नाम के गाँव में पैदा हुआ.
विरासत की कहानियों की स्मृति : 2: मलिक अम्बर
निर्वासन नियति भी होता है. जिस भूगोल में पहली साँस ली जाती है,
जहाँ अंकुरित होकर बढ़ने लगते हैं वहाँ से अचानक जड़ें उखाड़कर कहीं और फेंक दिया जाना यह निर्वासन की अटल नियति होती है. एक नौ साल का बच्चा – जिसका नाम अम्बर चापू था या अम्बर जिनू था यह जान पाने का कोई तरीका नहीं मगर दुनिया ने जिसे बाद के दौर में मलिक अम्बर के नाम से जाना,
उसकी कहानी की शुरुआत ऐसे ही जड़ें उखाड़कर दूर फेंक दिए जाने से हुई थी.
|
(१.) |
यह लड़का सोलहवीं सदी के मध्य में अबेसेनियाके हरार में पैदा हुआ. नौ साल के इस हब्शी बच्चे को मुफ़लिसी से बेज़ार माँ-बाप ने बग़दाद के ग़ुलामों के बाज़ार में लाकर मक्का के क़ाज़ी-उल-क़ुज़त के हाथों बेच दिया. उसने फिर उस लड़के को ख़्वाज़ा मीर बग़दादी उर्फ़ मीर क़ासिम को बेच दिया. मीर क़ासिम उसे हिन्दुस्तान के दक्खन इलाके में ले आया. वहाँ लाकर मुर्तज़ा निज़ाम के दरबार के मिरक डबीर नामक सरदार को बेच दिया. मिरक चंगेज़ ख़ान के नाम से भी जाना जाता था. एक आम सैनिक के तौर मलिक ने शुरुआत की. और हिकमत से अपने दम पर मराठों, मुसलमानों और हब्शियों को लेकर ख़ुद की पलटन खड़ी की. ऐन मौके पर निज़ामशाही को बचाया. दरबार में उसकी जगह ऊँची हो गई. शहजादा मुराद उसका दामाद बना और जुन्नर, खड़की यह इलाके उसे जागीर में मिले.
उसमें खड़की यानी किसी ज़माने का राजतड़ाग. काफी समय बाद वह औरंगाबाद बना.
तो इस गाँव में मलिक अम्बर के निशाँ इस गाँव ने टिकाई हुई स्मृतियाँ थीं. गाँव की स्मृतियाँ हमारे बचपन की स्मृतियाँ हुईं. कुछ गिनी-चुनी इमारतों पर, मस्जिदों पर उसकी वास्तुशिल्प की नज़र की छाप है. उसने हरसूल के तालाब से नहर निकाल कर खपरैल के पाइपों में गाँव भर में पानी कैसे पहुँचवाया था इस बात की कहानियाँ हमने सुनीं, निशाँ देखे. गाँव में कहीं खुदाई हो तो खपरैल की नलियों के अवशेष मिलते हैं. अरे, ये नहरे-अम्बरी के खपरैल कह कर उन्हें फेंका जाता. लगान की न्याय्य पद्धति उसने स्थापित की और बाद में कई जगहों पर उसका अनुसरण हुआ. उसकी दृष्टि एक उत्तम प्रशासक की थी. मलिक अम्बर यह इसलिए अपने लिए नज़दीक का नाम हो गया था.
अपने किसी परिचित नाम का कहीं सन्दर्भ निकले तो कान खड़े हो जाते हैं. फिर कहीं-कहीं पढ़ते हुए उसके बारे में तफ़सील हासिल हुई. ‘
सख़्त रोमन चेहरे वाला काला हब्शी काफ़िर’ कुछ इस तरह एक डच ने उसका वर्णन किया था. वह जब तक ज़िन्दा रहा तब तक उसने लड़ने की अपनी छापामार पद्धति से मुग़लों की सेना को हलाकान कर रखा था. जहाँगीर तो उससे गहरी नफ़रत करता था. उसकी आत्मकथा में कई बार मलिक अम्बर का ज़िक्र आता है. “वह नीच घृणित, काला” “काले नसीब वाला” वगैरह अनेक गालियों जहाँगीर ने उसे नवाज़ा है. मलिक अम्बर को शिकस्त देने का जहाँगीर का सपना था. वह मगर पूरा नहीं हुआ. लेकिन उसके दरबार के मशहूर मुसव्विर ने – अबुल हासन ने एक तस्वीर बनाई.
|
(२) |
एकाध पुरानी छुपा कर रखी गई तस्वीर की भाँति यह चित्र विषाद की स्मृति की तरह याद आता रहता है. उसमें जहाँगीर को पसंद आए ऐसा बहुत कुछ था. एक भाले की नोंक पर मलिक अम्बर का सिर टंगा हुआ है. दूसरी तरफ एक भीमकाय मछली की पीठ पर एक बैल खड़ा है. और इस बैल की पीठ पर पृथ्वी है. उस ग्लोब पर खड़े होकर जहाँगीर तीर-कमान से मलिक अम्बर के सर पर निशाना लगा रहा है ऐसा वह चित्र है. उस सिर के ऊपर एक उल्लू बैठा है जो जहाँगीर का तीर उस सिर के आर-पार जाते हुए नीचे गिरा हुआ है. तीर के आर-पार होते हुए इधर दाईं तरफ स्वर्ग के पंछी जहाँगीर के मुकुट की जानिब झपट रहे हैं. इसमें धर्म के तौर पर बैल का हिन्दू मिथक है, मत्स्य है, ईसाई बाइबिल की चित्रकथाओं में दिखाई देते हैं वैसे स्वर्ग से अवतरित होने वाले, जहाँगीर के लिए शस्त्र लाने वाले छुटके फ़रिश्ते हैं.
इस प्रसंग का गुणगान करने वाली फ़ारसी की कुछ पंक्तियाँ नज़र आ रही हैं. ऐसा लगता है कि इसमें नज़र आने वाली पृथ्वी भी ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नज़राने के तौर पर मिले किसी ग्लोब पर आधारित तो नहीं. सर्वशक्तिमान, सारे संसार का अधिपति एक तुच्छ, घृणित नज़र आने वाले काले आदमी के सिर का निशाना साध रहा है इस ख़याल से जहाँगीर को बेहद क़रार मिला होगा.
|
(३) |
वास्तव में ऐसा कुछ हो नहीं पाया. मलिक अम्बरजब तक ज़िन्दा रहा तब तक जहाँगीर का दक्खन फतह करने का ख़्वाब अधूरा ही रहा. मलिक अम्बर भी खूब अस्सी साल जिया. उसकी बीवी का नाम करीमा. म्हैसमाल जाते हुए ख़ुलताबाद के बाहर से रास्ता जाता है वहाँ किनारे पर एक सरकारी गेस्ट हाउस है. उसके पास पहाड़ी के नीचे ही उसकी कब्र है. टूटी-फूटी. नज़दीक ही मलिक अम्बर की कब्र की बड़ी और शानदार इमारत है.
बचपन में साइकिल चलाते हुए एलोरा जाने की यादों में इस इलाके में बिताए हुए आराम के लम्हों की यादें भी हैं. यही वह इलाका है जहाँ इको पॉइन्ट, जो इस जगह का अनधिकृत नाम है, पर खड़े होकर आवाज़ लगाने पर प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है. इसी इलाके में कमाल अमरोही की पाक़ीज़ा का आखिरी सीन फ़िल्माए जाने की अमर स्मृतियाँ हैं. मीनाकुमारी और राजकुमार के किरदारों ने खड़े किए हुए दुखों के शिल्प हैं. ख़ुल्द माने स्वर्ग. इसलिए ख़ुल्दाबाद. उसका दूसरा नाम रौजा. उसका भी वही अर्थ है. इसीलिए औरंगज़ेब को भी आखिरी दौर में यहीं सुस्ताने का मन हुआ.
विरासत की कहानियों की स्मृति : 3: गाँव भर भटकने की
स्मृतियाँ पर्दों पर ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़िल्मों की तरह उल्टी-सीधी नज़र आती हैं. मगर उनमें स्मृतियों के ऑफ़-स्क्रीन से ध्वनियाँ भी उग आती हैं और जादुई समय में ले जाती हैं. जब अलस्सुबह हाथचक्की की घर-घर और गाँव से लाई हुईं -चक्की पीसते हुए रची हुईं ओवियों से इब्तिदा होती तब आँखों में नींद का ख़ुमार बाकी होता. मुँह अँधेरे ही सामने वाली मस्जिद से अज़ान सुनाई देती. उसके स्वर किसी और ही जहाँ के लगते. फिर पड़ोस के मंदिर की आरतियाँ और घंटानाद शुरू हो जाता. फिर उठना ही पड़ता. एक दौर था कि सार्वजनिक यातायात का साधन ताँगे थे. घोड़ों की टापों की आवाज़ों की कानों को आदत थी. यह दौर भी बहुत पुराना नहीं. हमारे बचपन का था. अब तलक भी गाँव की लय सुस्त नवाबी ही थी. वासुदेव, फ़कीर, साधु-बैरागी यह लोग अपने पहरावों की विचित्रता से ध्यान में रहते हैं. रमज़ान के महीने में रातों को फ़कीर लोगों को गाते हुए जगाते- “मैं भी रक्खूँगा रोज़ा, मुझे भी जगाते जा…” तब कभी तो रोज़ा रखने की स्मृति है और बेहद अनिवार हो चुकी भूख छुपाने की भी.
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घर की छत पर जाने के लिए एक सँकरा ज़ीना था. बच्चों के लिए खेलते हुए वह छुपने की जगह हुआ करता. बहुत सा कबाड़ वहाँ पड़ा होता. ज़ीने पर टीन का छप्पर था. छप्पर के नीचे वाले लकड़ी के संबल वाली झिरी में दो तलवारें खोंस कर रखी हुई थीं. यह हमारा रहस्य था. छुपने की खातिर उधर जाने पर हम दोस्तों को वह तलवारें दिखाते. अड़तालीस की उथल-पुथल में कभी हुई लूट-पाट में किसी के यहाँ पुराने नवाबी पलंग नज़र आते, किसी के यहाँ बड़े गंगाजली कलश और बर्तन या और कुछ. हमारे यहाँ यह तलवारें कैसे पहुँची पता नहीं. मगर इतना सच है कि वह कबाड़ में पड़ी हुई थीं. उन्हें देखने पर स्मृति में बनी हुईं मनगढंत-सुनी हुई कथाओं की बहार आ जाती. उसमें जुड़ने वाली ऐसी घटनाओं से वह मन जोड़ती रहतीं.
स्मृति में दहशत की विराट परछाइयाँ भी हैं. एक बार कभी तो गाय काटे जाने की अफ़वाह फ़ैल गई. अफ़वाह ही थी वह. क्योंकि बाद में अख़बार में छपा ही था. मगर ये मजहबी दंगों की क्लासिक वजहें थीं. बाद में भी अलग-अलग वजहों से दंगे हुए. पाँच साल का था तब छोटी बहन पैदा हुई. उस दौर में जच्चा की जैसी हुआ करती थी वैसे नीम अँधेरी कोठरी थी. रास्ते पर की पहली मंज़िल पर. नवाब की हवेली रह चुका यह घर. खिड़की पर सूराख पड़ चुके थे. उस सूराख से रास्ते के नज़ारे देखे जा सकते थे. बड़ों की नज़र बचाकर उस सूराख पर आँख लगाने पर दिखाई दिया था,
लोग हाथों की लाठियों-तलवारों से बेभान होकर मारकाट मचाते चले हैं. मरणान्तिक कोलाहल है. फिर कभी तो रास्ते से गश्त करते हुए हथियारबंद सैनिकों का गुज़रना याद पड़ता है. कर्फ्यू के दौर में हवा में तनाव होता.
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खिड़कियों से सामने वाले अली भाई, जानी मियाँ हालचाल पूछते. “कब ख़त्म होगा यह सब दादा?” ऐसा पिता से पूछते. सामने टोटी की मस्जिद थी और पड़ोस में मन्दिर. गाँव के उत्तर में बसा यह पुराना इलाका. घर एक-दूसरे से लगे हुए दीवारों से दीवारें सटी हुई हुआ करतीं. कई बार छत पर की मुंडेर फाँद कर इस घर से उस घर में जाया जा सकता था. कर्फ्यू के दौर में एक-दूसरे के घरों में दूध, खाना ऐसे ही पहुँचाया जाता. कर्फ्यू में बच्चे भी एक-दूसरे के घर जाकर फिर इसी तरह निर्वेध संचार कर पाते. रात में पड़ोसी छत पर अँधेरे में एक साथ बैठा करते. कोई भी बहुत बोलता नहीं था. मगर हम सब साथ हैं यह भावना ही उन्हें सहारे की तरह लगती होगी. ऐसे ही एक बार एक बूढ़े दादा दीवार से टिक कर बैठे थे. उन्होंने शायद खुद ही से कहा एक वाक्य हमेशा से याद है. बुदबुदाते हुए उन्होंने कहा था “कोहरा घना हुआ है….सुबह होगी तो छँट भी जाएगा.”
मुझे लगता है उस दिन दंगों की दहशत में रात में छत पर दीवार से पीठ टिकाए उन बूढ़े दादा के कहे इस वाक्य को भविष्य में कभी न कभी अर्थ हासिल होगा. मगर बचपन की यादों वाले रास्ते प्रायः सुनसान हुआ करते. कभी ताँगे गुज़रते. गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार स्कूल के दिनों में होता और छुट्टियों में जब तक पैर दर्द न करने लगें तब तक गाँव भर में भटकना. कभी पाण्डव गुफाएँ कभी बीबी का मकबरा. हिमायतबाग़का एक सिरा हरसूल रोड पर था तो दूसरा गवर्नमेंट कॉलेज के पीछे से शुरू होता था. वहाँ सिर्फ पक्षियों की आवाज़ें. हवा में पत्तों की सरसराहट. हाथ में किताब अगर ले जाएँ तो पेड़ के नीचे की ठंडी छाँह में सारी दुपहरी आराम से गुज़रती.
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परकोटे थे. किसी ज़माने में रहे होंगे. सिर्फ अवशेष बाकी थे. मगर बावन दरवाज़ों का ज़िक्र सिर्फ सुना हुआ. एक बार गाँव भर भटक कर देखा तो महज बी सेक दरवाज़े मिले. मगर उतने ही काफी थे. औरंगपुरा, करणपुरा, चेलीपुरा, रणमस्तपुरा. उत्तर की तरफ से मुग़लों के साथ उनके सरदार आए. उनके नामों पर एक-एक बस्ती बसी होगी. उन लोगों के साथ धोबी, नाई, बढ़ई, परदेशी, अलग-अलग जातियाँ, अलग-अलग धर्म- कौन कौन आया होगा. अपनी कक्षा में लड़कों के वैविध्यपूर्ण नाम सुनकर मज़ा आता. उसका कारण तीन सौ साल पहले तैयार हुए इस मेल्टिंग पॉट में था शायद.
हम जिस भूभाग में होते हैं वहाँ के हमसे पहले के, न देखे हुए निशाँ हम हर तरह से खोजते ही हैं. आगे कभी तो मुझे लाला दीनदयाल ने उन्नीसवीं सदी में खींचीं हुईं इस गाँव की तस्वीरें देखने को मिलीं. नेपियन और अन्य ब्रिटिश फोटोग्राफर्स की तस्वीरें भी. फिर उन्हें उस वक़्त के गाँव की जगहों से जोड़ कर देखते हुए इतिहास, स्मृति, बिखराव, वर्तमान यह सब आपस में मिलकर एक हुए जा रहे थे. तब औरंगाबाद पर एक कविता सीरीज़ लिखी थी. उसमें बचपन में सिर्फ सुने हुए काला चबूतरा इस फाँसी दिए जाने के लिए मशहूर जगह के बारे में और मन में उकेरी हुई गाँव की इमारतों के बारे में भी लिखा था. यह इमारतें हमेशा आसपास देखते हुए ही बड़े हुए थे हम.
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स्कूल में एनसीसी में होते हुए अलस्सुबह उठ कर परेड में जाना पड़ता. वह बड़ा ग्राउंड स्कूल ऑफ़ आर्ट के पास वाले मैदान पर था. स्कूल ऑफ़ आर्ट की इमारत यानि ज़ेबुन्निसा का महल था. उसके पड़ोस में थी आलमगीर मस्जिद. और मस्जिद के पड़ोस वाला ग्राउंड. वहाँ परेड हुआ करती. बरगदों की कतार से होकर मोड़ वाले रास्ते पर से ग्राउंड पर पहुँचें तो सुबह की धूप में पीठ पीछे वह भव्य इमारत नज़र आती. बचपन के उन दिनों में वह भव्य ही लगती होगी. मगर हम छोटे थे और नेपथ्य में यह गाँव था और वहाँ का मैदान था. पार्श्वभूमि में ज़ेबुन्निसा का महल था और आलमगीर की मस्जिद थी और बालकृष्ण महाराज के- विट्ठल के मंदिर में होने वाले कीर्तन थे और मस्जिदों से आने वाली अज़ान के सुरावट थे यह स्मृतियाँ पैरों तले ज़मीन में गहरे-खूब गहरे जड़ें फैली होने की तसल्ली देती हैं.
विरासत की कहानियों की स्मृति :4: उसे ज़िन्दगी क्यों न भारी लगे…
गाँव छोटा था अब भी. उसकी लय नहीं बिगड़ी थी. मुशायरे हुआ करते. आम लोगों के लिए हुआ करते. शाहगंज की मस्जिद के सामने वाले चमन में हुआ करते. वहाँ के रास्ते पर. समझ न थी मगर यह कुछ तो अपने जीने को अज़ीमतरकरने वाली शै है यह ज़रूर महसूस होता. कड़ाके की सर्दी में खुले में खड़े होकर मजरूह, कैफ़ी आज़मी, काज़ी सलीम, साहिर लुधियानवी, बशर नवाज़, प्रेम धवन वगैरह की शायरी सुनने की बातें बड़े भाई-बहन बताते हैं. तो बाद के मुशायरों में यह शोअ’
रा नज़र आते हैं क्या यह ढूँढा करते. एक ऐसा ही मुशायरा बीबी के मकबरे में सुना हुआ याद पड़ता है. फ्लड लाइट्स लगे हुए थे. खुशबू फैली हुई थी. बाहर से आए हुए शोअ’
रा मीर और ग़ालिब के हवाले दे रहे थे.
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पान से रंगे हुए होंठ, बड़ी-बड़ी आँखें और गोरे रंग वाले शायर ने पढ़ी हुई ग़ालिब की पंक्ति ‘सब कहाँ कुछ लाला-ओ-ग़ुल में नुमायाँ हो गईं/ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गईं’ पहले-पहल वहीं सुनी. वह स्मृति में इतनी पक्की बैठ गई कि ग़ालिब का कुछ भी पढ़ा-सुना तो मकबरे की उस रात के उजाले की हरियाली और वही माहौल याद आता है. वजह पता नहीं. मगर ग़ालिब की शाइरी से इस दृकप्रतिमा का ऐसा निरंतर साहचर्य हो चुका है यह बात पक्की है. शाइरी का चस्का ऐसे लगते-लगते लगता ही है. माहौल ऐसा था कि सूफ़ियाना परम्परा के निशाँ गाँव के बदन पर अब भी बाकी थे.
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वली साहब का नाम अदब के साथ लेते हुए बुज़ुर्गों को सुना था. यह भी सुना था कि ग़ालिब तक उन्हें अपना उस्ताद मानते थे. दक्खनी उर्दू और उर्दू ग़ज़ल की नींव उन्होंने रखी थी ऐसा बताया जाता है. उनकी ग़ज़लों में बहुतेरे शब्द संस्कृत, मराठी और हिन्दी के मिलते हैं. सूफ़ी घराना था. फ़कीर आदमी थे. हिन्दू-मुसलमान यह फूलों की तरह हँसते हुए नज़र आने चाहिए ऐसा उन्होंने कहीं कहा है. कोई उन्हें वली दखनी कहता है, कोई वली औरंगाबादी तो कोई वली गुजराती. इस शख़्स का जन्म इस गाँव में हुआ. सत्रहवीं सदी के मध्य में. घुमन्तु आदमी थे. घूमते-घूमते अहमदाबाद चले गए. आगे फिर वहीं मन लग गया.
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याद है एक फ़िल्म के प्रसंग की. और वह याद हमेशा कँपकँपा डालती है. नन्दिता दास ने यह फ़िल्म बनाई थी. फ़िराक़. उसमें गुजरात दंगों के बाद वाले दिनों में अहमदाबाद में एक बूढ़ा आदमी- नसीरुद्दीन शाह– ऑटोरिक्शे से जाते हुए रुको,रुको कहते हुए अचानक ऑटोरिक्शा रोकने को कहता है. हमेशा के निशाँ उसे वहाँ नज़र नहीं आते. वह बेचैनी में कहता रहता है, अरे भई, यहाँ तो वली साहब का मज़ार था. वली साहब का मज़ार तोड़कर वहाँ रातोंरात कोलतार की चिकनी रोड बना दी गई. वह मज़ार नष्ट करने से बहुत कुछ नष्ट हो गया. वली की याद आती है तब उनकी ग़ज़लें निकालकर पढ़ता हूँ.
इक़बाल बानो की आवाज़ में पचास-साठ साल पुरानी रिकॉर्डिंग सुनता हूँ:
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िन्दगी क्यूँ न भारी लगे…
स्मृतियों में स्नेह से, पाकीज़गी से, सूफ़ी प्रेम से भिगो डालने वाले इन लोगों के निशाँ मिटा डालने वाली इस हवा में ज़िन्दगी कभी-कभी सचमुच भारी लगने लगती है.
अपनी नाल जिस गाँव में गड़ी है उस मिट्टी में पैदा हुए इन लोगों को याद करता हूँ तो क़रार आता है. सिराज औरंगाबादी तो सूफ़ी फ़कीर ही थे. ग्रेट कवि.
अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लबे-साकी कूँ पैमाने हुए होते
अबस इन शहरियों में वक़त अपना हम किए जाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते
एक सौ बीस किलोमीटर चले हुए कदम एक स्थलांतर था. दो पीढ़ियों पहले गाँव से हुआ निर्वासन था. काला या गोरा कौन अपना पूर्वज? कौन से महाद्वीप से? कितनी नस्ली छौंकों से बना यह अस्तित्व का रसायन? पचास हज़ार सालों वाला? अपने कदम भी पड़े ही गाँव से बाहर. दूसरी तरफ़ जाकर ही ठिकाना बनाया. मगर घर जाने की ललक हमेशा बनी ही रहती है. दादी ने बड़े शौक़ से खरीदी वह नवाब की हवेली. उनकी गलियों में खेलने वाले बच्चे. बड़े होते जाने वाले. स्कूल जाने वाले, अलग-अलग ज़बानें सहज स्वीकार करते हुए बोलने वाले. गाँव भर भटक चुकने पर घर आने की ललक बनी हुई.
मगर अब वह घर नहीं है. वह नवाब की हवेली भी ज़मींदोज़ हो चुकी.
और स्मृति की फ़िल्म रोल होती रही. निरन्तर. पीछे. कहीं तो.
(मराठी-अंग्रेजी का वेब पत्रिका-HAKARA (A bi-lingual journal of creative expression) में मराठी में प्रकाशित.
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* बारहवीं सदी से महाराष्ट्र में स्त्रीगीतों में प्रचलित एक छन्द. यह छन्द बाद में भक्ति आंदोलन के सभी सन्त-कवियों द्वारा अपने अभंग-गीतोंमें अपनाया गया. मराठी का सबसे लोकप्रिय छन्द.
वासुदेव- महाराष्ट्र की एक घुमंतू जाति जो कृष्ण के भजन गाते हुए भिक्षा माँगकर जीवनयापन करती है.
मलिक अम्बर के बारे में अधिक जानकारी के लिए देखें “ लाइफ एण्ड टाइम्स ऑफ़ मलिक अम्बरः राधेश्याम, मुन्शीराम मनोहरलाल, नई दिल्ली, 1968.”
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गणेश विसपुते
‘सिनार’, ‘निरीहयात्रा’, ‘बीच सड़क पर’, ‘आवाज़ें नष्ट नहीं होती’ कविता संग्रह प्रकाशित. कविताओं के भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं.
ओरहान पामुक के ‘मॉय नेम इस रेड’ और उदय प्रकाश के उपन्यास ‘पीली छतरी वाली लड़की’ का मराठी में अनुवाद, लघु फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन, लेख आदि भी प्रकाशित
कोलकाता और पुणे में चित्र- प्रदर्शनियाँ आयोजित
4, Rachana Blossom, Near Jagdishnagar
Ganeshkhind Road, Aundh, Pune 411 052.
Phone: 020-25693917, Cellphone: 09890061421
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चित्र – संकेत
1.ढलती उम्र में मलिक अंबर.
२. जहांगीर बादशहा का वह लघुचित्र जिसमें मलिक अंबर का सिर काटकर भाले पर लटकाकर उसपर निशाना साधते हुए बादशहा को दर्शाया गया था.
३. सन 1860में जे. जॉन्स्टनद्वारा लिया गया मलिक अंबर की मज़ार का चित्र. यह मज़ार खुल्दाबाद में एलोरा के पास है. जिसके पिछे सरकारी गेस्ट हाऊस है. इस गेस्ट हाउस का वर्णन सत्यजित रे ने फेलुदावाले उपन्यासमें किया है. वहीं चित्र में सामने पहाड़ी पर दर्गा नज़र आता है, जहां फिल्म पाक़िज़ा का अंतिम दृश्य फिल्माया गया था.
४. विख्यात सूफी संत ज़रज़री बक्ष की मज़ार, खुल्दाबाद. (फोटोः लाला दीनदयाल, 1890)
५. बिबी का मक़बराः (फोटोः1860; फोटोग्राफर-अज्ञात). सन 1657में पत्नी (दिलरास बानू बेग़म) राबिया उद्दौरानी के मृत्यू के पश्चात औरंगज़ेबने बेटे आज़मशाह द्वारा यह मकबरा बनवाया. यह ताजमहल की प्रतिकृती है. अताउल्लाह ख़ान इसके वास्तूशिल्पी थे. स्कूल की लम्बी छुट्टियों में किताबें लेकर यहां आकर संगमरमर की ठंडी छांवमें बैठना सुखद स्मृती हैं. यहां की लॉन्स पर कभी मुशायरेंभी सुने.
६. महाराष्ट्र स्थित औरंगाबाद के आलमगिरि मस्जिद का चित्र। चित्र लाला दीन दयाल द्वारा 1880 के दशक में खींचा गया था।
७. ज़ेबुन्निसाकामहलः यह औरंगज़ेब की बेटी ज़ेबुन्निसा का आशियाना. वह शायरी में दिलचस्पी रखती थी. इस महल में अब पिछले पचास साल से गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट है. यहां कईं दोपहरें मॉडेल के सामने बैठकर पेंटिंग करते हुए दोस्तों की यादें है. (फोटोः लाला दीन दयाल, 1880).
८. पनचक्की, लाला दीन दयाल, 1880. यहां बाबा शाह मुसाफ़िर का दर्गा है, जिन्हें औरंगज़ेब अपने गुरु मानते थे.
9. मकबरे की ओर जानेवाले रास्तेपर मकाई दरवाज़ा. जिसमें एक स्त्री अपने सिरपर टोकरीमें बोझ उठ़ाई नज़र आती है. यही स्त्री मेरे कविता में भी आयी है.
१०. पुराने चिन्हों को नष्ट कर इतिहास को नष्ट करने की साज़िशें शासकों द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं. हाल ही में ऐसी पुरानी वास्तुओं को नष्ट करने का सिलसिला फिर से शुरु हुआ है. काला चबुतरा नष्ट कर दिया गया. कल मैं गांव बहुत दिनों के बाद गया. क्रांती चौक से गुज़र रहा था कि मुझे कुछ बदला हुआ लग रहा था. पुछने पर बताया गया की शहर को \’सुंदर\’ करने के लिए यह चबुतरा हटाया गया. मलिक अंबर के ज़माने से यह चबुतरा एक निशानी था. जहां गुनहगारों को फांसी दी जाती थी. मुझे फिल्म फिराक़ का वह दृश्य याद आया जिसमें बुजुर्ग (नसिरुद्दीन शहा) रिक्शा से गुज़रते हुए देखतें हैं कि वली साहब की मज़ार दिख नही रही है. काला चबुतरा शीर्षक की एक कविता मैंने कई साल पहले लिखी थी. बस वहां ही अब चबुतरा बचा है.
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भारतभूषण तिवारी
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com