हिंदी दलित साहित्य – २०१८
अन्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में हिंदी दलित साहित्य इस मायने में भिन्न है कि यहाँ रचनाकारों की नई पीढ़ी अपेक्षाकृत अधिक संख्या में पूरे दमखम के साथ लिख रही है. दिल्ली स्थित दलित लेखक संघ (दलेस) ने इस वर्ष अपनी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’का प्रकाशन शुरू किया है. पत्रिका की नियमितता अगर बनी रही तो आने वाले दिनों में यह महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकेगी. दलेस अपनी पत्रिका के माध्यम से नए लेखकों की टीम उभार सकती है. बहुत पहले ऐसा ही काम ‘अपेक्षा’ पत्रिका ने किया था. यह पत्रिका भी दलेस की थी. इसे बाद में दलेस के पूर्व अध्यक्ष डॉ. तेजसिंह ने अपनी तरफ से निकालना जारी रखा था. पत्रिका का संगठनात्मक स्वरूप इस तरह वैयक्तिक हो गया था.
“तुम्हारे हाथों में
सिर्फ दलित साहित्य में ही नहीं, इस समय समूचे हिंदी साहित्य में अगर कुछ बेहतर गीतकारों की सूची बनानी हो तो उसमें निश्चय ही जगदीश पंकज का नाम रहेगा. भाव, भाषा, अंतर्वस्तु, तेवर, वैचारिकी और शिल्प विधान सभी दृष्टियों से जगदीश पंकज श्रेष्ठ गीतकार ठहरते हैं. अपने स्तंभ में दलित कविता पर प्रकाशित अपेक्षाकृत विस्तृत निबंध में उनके गीतों पर कुछ लिख चुका हूँ. इस वर्ष उनका तीसरा संग्रह ‘समय है संभावना का’ (ए. आर. पब्लिशिंग कंपनी, नवीन शाहदरा, दिल्ली) आया है. आक्रोश जगदीश पंकज के गीतों का प्राण-तत्व है लेकिन वह गीत के विन्यास में इतना घुला-मिला होता है कि उसका अहसास ही किया जा सकता है. उनके एक गीत में विन्यस्त बिडंबना-बोध को देखिए-
“अभिव्यक्ति के औजार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर” मिले. अंगरेजी भाषा की शिक्षा ने इस मुक्ति अभियान में केन्द्रीय भूमिका अदा की- “अंग्रेजी शासकों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जो दरवाजा खोला वह इन समुदायों के लिए अचरजकारी वरदान के समान था.” संपादक के अनुसार सर्वाधिक वंदनीय नाम लार्ड मैकाले का है- “अंग्रेजी नौकरशाह एवं भारत शिक्षा मंत्री लॉर्ड मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा का द्वार दलित, शूद्र एवं आम स्त्री तबके के लिए खोला जाना वंदना पाने योग्य काम है.”
1) “मेरा तो यहाँ तक मानना है कि तुलसी के काव्य में अपनी भक्ति अर्पित करते हुए काव्य सौंदर्य की प्रशंसा में रत होना बलात्कार की घटना में सौंदर्यशास्त्र ढूँढने और उसकी वकालत करने के बराबर है.”
2) “विस्मय तो तब होता है जब कथित वामपंथी खेमे के लेखकों एवं आलोचकों द्वारा मार्क्सवादी माने जाने वाले कवि मुक्तिबोध को सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरा दिया जाता है मगर इन मुक्तिबोध के यहाँ एक भी कविता ऐसी नहीं मिलती जो दलित हित को संबोधित हो अथवा ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद की नब्ज पकड़ती हो.”
“अमूमन यह माना जाता है कि दलित रचनाकारों की रचनाओं में आक्रोश का स्वर अधिक है और यहाँ पर प्रेम, साहचर्य और सहअस्तित्व की रचनाएँ बहुत कम हैं पर इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए आपकी यह अवधारणा विखंडित हो सकती है. जहाँ दमन होता है, मुक्ति की शुरुआत वहीं से होती है.”
किसी संग्रह की भूमिका लिखने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि नए पाठक बनाए जाएँ और पुराने पाठक समुदाय को सफलतापूर्वक संग्रह की तरफ आकृष्ट किया जाए. कर्मानन्द की ‘भूमिका’ इस चुनौती या दायित्व को बखूबी समझती है.
“प्रगतिशीलता या कि वाम उनके फैशन में जो है
दूर देश के मार्क्स का नाम बेच
पता नहीं
यह होशियार जीवन जीना
उनने कैसे सीखा?”
इस सचाई से वाकिफ़ कवि ने रोहित वेमुला पर लिखी अपनी हायकु-माला का उपसंहार इस हायकु से किया है-
“बहा शोणित
तेरा, कन्हैया हुआ
मालामाल क्यों?” संग्रह के (पिछले) कवर पृष्ठ पर
विष्णु खरे का एक वक्तव्य दिया गया है. इस वक्तव्य के अनुसार
मुसाफिर बैठा “उत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ दलित कवि हैं और अब से उन्हें उसी तरह लिया-जाना जाए.”
”बिम्ब रचने की क्षमता कवि की संभावनाओं की साक्षी होती है. कर्मानन्द की बिम्बधर्मिता के तमाम साक्ष्य इस संग्रह में देखे जा सकते हैं- “सूरज रोज सुबह भैंसे की तरह गुर्राता है/ चिड़िया की आत्मा भैंसे की आँख में झाँक लेती है.”
कई कविताओं का तेवर क्रांतिकारी कवि जय प्रकाश लीलवान का स्मरण कराता है. एक ऐसी ही बिम्ब-समृद्ध कविता देखें–
“मक्खियों की तरह सत्ता का शहद बनाने वाले
कूकुरों की तरह एक टुकड़े पर लोट जाने वाले
सरकार की भाषा में मुस्कुराने वाले
हमारे आदर्श नहीं हो सकते.”
उर्दू में इतने वर्षों बाद भी दलित साहित्य की कोई धारा विकसित नहीं हुई है. कभी-कभार असम्बद्ध प्रयास जरूर दिखाई देते हैं. यह भाषा उसी इलाके की है जहाँ जाति व्यवस्था की क्रूरताएँ आए दिन दिखाई देती हैं. ऐसे में यह देखना सुखद है कि इस वर्ष उर्दू के कवि हनीफ तरीन ने नागरी लिपि में अपनी दलित संवेदना की कविताओं का संग्रह ‘दलित आक्रोश’(सम्यक प्रकाशन, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली) शीर्षक से छपवाया है. संग्रह की प्रस्तावना तीन लोगों- मूलचंद गौतम, छाया कोरेगांवकर तथा वरिष्ठ दलित लेखक कर्मशील भारती ने लिखी है. करीब 100 पन्नों वाले इस संग्रह की समस्त कविताएँ कुल पाँच अध्यायों में रखी गई हैं. कविताएँ उद्बोधनपरक हैं. ये दलित-मुस्लिम एकता की जरूरत का अहसास कराती हैं-
“जो दलितों का अज्म बढ़ाएं
इनमें गुजराती के 14, हिंदी के 15, मराठी के 1, असमिया के 2, पंजाबी के 1, बांग्ला के 1 और संस्कृत के 2 कवियों को सम्मिलित किया गया है. अपने वक्तव्य में अकादमी के महामंत्री हरीश मंगलम ने दलित साहित्य के अनुवाद का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए जन-जन तक उसकी पहुँच पर ज़ोर दिया है. किताब के अंत में गुजराती दलित कविता के विकास-क्रम पर एक मुकम्मल निबंध दिया गया है. इससे प्रस्तुत किताब की उपादेयता बढ़ गई है. ऐसा ही अगर संस्कृत कविता में जाति-विरोधी लेखन पर एक निबंध दिया जाता तो संग्रह की मूल्यवत्ता और बढ़ जाती. अनुवाद के ऐसे और संग्रह आने चाहिए. इस संग्रह में मराठी दलित कविता का प्रतिनिधित्व बहुत कम हुआ है, न के बराबर. अन्य कई भाषाओँ मसलन उड़िया, मलयालम, कन्नड़ आदि की दलित कविता का प्रतिनिधित्व नहीं है.
आत्मकथा विधा में इस वर्ष दलित स्त्रीवादी लेखिका अनिता भारती का आत्मवृत्त ‘छूटे पन्नों की उड़ान’ (स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली) छपा है. 19 शीर्षकों और लगभग 100 पन्नों का यह आत्मवृत्त एक महानगर में दलित परिवार की जद्दोजहद को सामने लाता है. एक दलित लड़की का सामाजिक और घरेलू परिवेश, शिक्षा, अपनी मर्जी से अंतरजातीय विवाह, नौकरी, एक्टिविज्म, लेखन और व्यवस्था में पिसती, जूझती अन्य स्त्रियों के जीवन का लेखा-जोखा इस आत्मवृत्त को आकार देते हैं. किताब के प्राक्कथन ‘कच्चे घड़े-सा जीवन’ में अनिता भारती ने लिखा है-
“मेरा अंतरजातीय विवाह भी मेरी जिंदगी की किताब का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पन्ना है. अंतरजातीय विवाह के अपने खूब फसाड़ होते हैं. दोनों परिवारों की इतनी पॉलिटिक्स होती है कि अपने विवाह को बचाने और अपने रिश्ते को बचाने में खूब समय चला जाता है. सबसे ज्यादा मुश्किल तो लड़की की होती है जिसकी इच्छाओं और जरूरतों को कोई समझना नहीं चाहता. … पर मैं इसे अपनी उपलब्धि ही कहूँगी कि मुझे ऐसा जीवन-साथी मिला जो साहित्य बेशक न समझता हो, पर अपने अंदर सारी खूबियों को समेटे सही मायनों में एक सच्चा संवेदनशील दोस्त व फेमिनिस्ट पति साबित हुआ.”
मजबूत कथा-पात्रों के सृजन के लिए चर्चित रत्न कुमार सांभरिया के इस नाटक का नायक धियानाराम अपने जिगर के टुकड़े बकरे को बचाने का हर संभव जतन करता है. हेड कांस्टेबल प्रेमसुख से शुरू होकर एस.एच.ओ. और एस.पी. पर जाकर सिलसिला रुकता है. सबकी नज़र धियानाराम के बकरे पर है. दिन 15 अगस्त का और मीट का इंतज़ाम बाज़ार से नहीं हो सकता. ऐसे में स्वाधीनता दिवस का अर्थ दो फाड़ में बंट जाता है. इस दिन का जो अर्थ पुलिस तंत्र के लिए है उसका विलोम धियानाराम और अमरत जैसे पात्रों के लिए. भरपूर नाटकीयता लिए यह कृति मंचन के सर्वथा योग्य प्रतीत होती है. ‘मेरी बात’ में नाटककार ने लिखा है-
पिछले वर्ष के अंत में कैलाश चंद चौहान का उपन्यास ‘विद्रोह’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) प्रकाशित हुआ था. विकट परिस्थितियों के समक्ष हार न मानने वाले विक्रम की संघर्ष गाथा के समानांतर पूजा की संकल्प यात्रा गतिमान होती है. विक्रम को अपने सहकर्मियों की जातिवादी घृणा का मुकाबला करना पड़ता है तो पूजा को अपने परिवार जनों से जूझना पड़ता है क्योंकि उसने करवाचौथ के व्रत से लेकर तमाम अंधविश्वासों को मानने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया है. विद्रोह की यह बहुपरतीय कथा उपन्यास को मूल्यवान बना देती है.
“किधर जाऊँ’ मोची जाति पर भी और किशन लाल का भी पहला उपन्यास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के मेहनती चर्मकारों का जितना विश्वसनीय और मर्मस्पर्शी चित्रण इसमें किया है वह इस समाज के मन-मस्तिष्क में मच रही उथल-पुथल को शिद्दत से बयाँ करती है. इस उपन्यास में मोची समाज की दिनचर्या, कामकाज, लोक परंपरा, रीति रिवाजों के साथ ही दलित समाज के सामजिक-राजनैतिक संघर्षों का एक अलग ही सच उजागर होता है.”
स्थापित कवि-कथाकार सुशीला टाकभौरे इधर अपने उपन्यासों के निरंतर प्रकाशन से चर्चा में हैं. इस साल वाणी प्रकाशन से उनका उपन्यास ‘वह लड़की’ छपा है. इसी वर्ष उन्होंने शिल्पायन प्रकाशन से अपने पत्रों का संग्रह ‘संवादों के सफ़र…’ प्रकाशित कराया है. दलित विमर्श पर शोध करने वाले अध्येताओं के लिए ये पत्र बड़े काम के साबित हो सकते हैं. लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. पूरन सिंह का संग्रह ’64 दलित लघु कथाएँ’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) से छपा है. 128 पृष्ठों की इस किताब में चुभती हुई लघु कथाएँ हैं. कहीं ये लघु कथाएँ जातिगत हिंसा को सामने लाती हैं तो कहीं दलितों के मुंहतोड़ जवाब को उभारती हैं.
धार्मिक पाखंडों का पर्दाफाश, अवसरवादी दलित नेताओं की असलियत इन लघु कथाओं की कथावस्तु का मुख्य हिस्सा हैं. ये कथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छप चुकी हैं और कहा जाना चाहिए कि पाठकों के जेहन में अपनी जगह घेर चुकी हैं.
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