बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताएँ |
१.
अपच सलाह
कुछ इस तरह से वो जीतनी बाजी चाहते हैं
‘पर’ बेचकर, बहेलियों से आज़ादी चाहते हैं.
अवसरवादी हैं सारे, फ़कत कहने को हमारे
जिनसे लोहा लेना था, उन्हीं से चांदी चाहते हैं.
सलाह बदहज़मी, अनुकूल नहीं जरा भी पाचन के
बस वोटों में तबदील, देखनी आबादी चाहते हैं.
इससे भी बड़ी भलाई, कहाँ देती है दिखाई
एसी में बैठे नेता, सुधार बुनियादी चाहते हैं.
भक्त चौराहों पर लड़ते हैं, झगड़ते हैं खुलेआम
खायेंगे भले जूते, पर टोपी खादी चाहते हैं.
कितने दिन झेलेंगे और नाचेंगे कितने दिन
बंदर भी अब बदलने, अपने मदारी चाहते है.
उन वृक्षों को रगड़ खाने से, कौन रोकेगा भला
जो अपने ही हाथों जंगल की बरबादी चाहते हैं.
२.
सच्चे व्यक्तित्व
जब सारी ज़बान बट जाये, जब सत्य झूठ से कट जाये
रख तराजू बाजू में, जब न्याय की देवी हट जाये
तुम अपने पर विश्वास रखो
सौ झूठों की भीड़ में, एक गैलीलियो याद रखो.
जब सारा फूल चढ़ जाये, जब चद्दर मज़ार पर मढ़ जाये
अपने स्वार्थ के ख़ातिर जब, आड़म्बर हद से बढ़ जाये
तुम मानवता को पास रखो
तैंतीस करोड़ देवों के बीच, एक मदर टेरेसा याद रखो.
जब देश भगवा रंग जाये, जब हरा रंग भी जग जाये
बात बात पर संसद सत्र, जब हर पल, हर दम भंग जाये
तुम मर्यादा का ध्यान रखो
सौ ग्रंथों के बीच में, एक सच्चा संविधान याद रखो
जब देश जाति में बट जाये, जब बच्चा भूख से लड़ जाये
सम्मान की चाहत में, जब दिन अंगुलि पर कट जाये
तुम उस शख़्स का मान रखो
सौ बाधाओं के बीच में, एक सशक्त अम्बेडकर याद रखो.
जब माथे पर नाहक बल जाये, जब कोई भभूत मल जाये
संस्कृत के कुटिल श्लोकों से, जब कोई तुमको छल जाये
तुम केवल तार्किक बात रखो
सौ तुलसी के बीच में, एक फक्कड़ कबीरा को याद रखो.
3.
इंसान बन!
मूर्ति नहीं, जान बन
भगवान नहीं, इंसान बन.
धर्म की दीवार से अच्छा
किसी की छत, मकान बन.
जाति तोड़, रिश्ते जोड़
एक ही खानदान बन.
सामान्य में महानता है
महान नहीं, सामान्य बन.
द्रोण के हाथ का
अब न तू सामान बन.
एकलव्य अंगूठा चूम कर
फिर से तीर कमान बन.
भूदेव न बन, श्रम की खा
जब भी बन, किसान बन.
जंग लगे तलवारों में
इतना गहरा म्यान बन.
नेकी कर के भूल जा
इतना तू अंजान बन.
हिंदू बन न मुसलमान बन
बस सीधे इंसान बन.
४.
हमें मालूम है
वैज्ञानिक सोच का तुम
कितना रखते हो मान
हमें मालूम है.
निम्बू मिर्च दरवाज़े पर,
घर पूरा लोहबान
हमें मालूम है.
वसुधैव कुटुंबकम् का
न दो हमें ज्ञान
हमें मालूम है.
तुम्हारी खाट कितनी छोटी,
जिस पर एक न इंसान
हमें मालूम है.
हमारी मूर्खता पर ही
तुम्हारी चलती है दुकान
हमें मालूम है.
हमें चूना लगाकर तुम
खुद खा लेते हो पूरा पान
हमें मालूम है.
हमारी कोख से श्मशान तक
लेते हो हमसे दान
हमें मालूम है.
काटते हो हमारी गर्दन
और बनाते हो हमें ही म्यान
हमें मालूम है.
तुम ही बैठे हो हर डाल
हर पात, हर मचान
हमें मालूम है.
हम जो बोल पड़ें सच तो,
तुम्हारा फट जाएगा कान
हमें मालूम है.
तुम भगवान उगाते हो,
हम उगाते है धान
हमें मालूम है.
तुम कीटभक्षी धरा के,
हम इकलौते किसान
हमें मालूम है.
हम कितने जमीन,
तुम कितने बड़े आसमान
हमें मालूम है.
५.
गुरु न चेला
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
बस सहारा बन
जब फँसा हो कहीं
किसी के जीवन का ठेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
बस सहयोगी बन
रह न जाए कोई इस भीड़ में
बेसहारा और अकेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
उसकी लाठी बन
जिसने दुःख का पहाड़ लड़खड़ाते ही
चढ़ा और झेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
उसका गुब्बारा बन
जो निकल सका न जिम्मेवारियों से
कभी घूमने को मेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
उसकी जीत बन
जिसने तुम पर विश्वास कर
आँख मूंद कर खेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
उसकी उम्मीद बन
जो जुतता रहा बैलों की तरह
पर हाथ एक न ढेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला
फिलहाल इंसान बन
अरे द्रोण! तूने एकलव्य के साथ
विक्टिम कार्ड बहुत खेला.
गुरु न बन
न बन किसी का चेला.
6.
मशक़्क़त
मैं मजदूर हूँ!
कभी मौका मिला तो
बनाकर मजदूर भेजूंगा
कहूंगा खुद ही बना लो
अपने मन्दिर और मस्जिद
शायद समझ पाओ
दुनिया बनाना आसान है
दुनिया बसाने से कहीं..
मैं किसान हूँ!
कभी मौका मिला तो
बनाकर किसान भेजूंगा
कहूंगा खुद ही उगा लो
अपने अक्षत के दाने
शायद समझ पाओ
ईश्वर होना आसान है
किसान होने से कहीं..
मैं इंसान हूँ!
कभी मौका मिला तो
बनाकर इंसान भेजूंगा
किसी दलित बस्ती में
कहूंगा जी कर दिखाओ
तमाम भेदभावों के साथ
शायद समझ पाओ
यहाँ इंसान बनना दूभर है
इंसान होने से कहीं..
मैं वनवासी हूँ!
कभी मौका मिला तो
बनाकर वनवासी भेजूंगा
कहूंगा बचा कर दिखाओ जंगल
पूंजीवाद की आरी से
शायद समझ पाओ
जंगल उगाना आसान है
एक पेड़ बचाने से कहीं..
मैं औरत हूँ
कभी मौका मिला तो
बनाकर औरत भेजूंगी
कहूंगी अब पहचान बनाओ
तमाम बंदिशों से लड़कर
शायद समझ पाओ
आदमी होना आसान है
औरत होने से कहीं…
७
समर्थ
रिश्वत का खाता नहीं हूँ मैं
हाड़ चबाता नहीं हूँ मैं.
धूप संग बरसात भी सह लूँ
किसी का छाता नहीं हूँ मैं.
मजदूर हूँ, कर्मवादी हूँ
मंदिर में जाता नहीं हूँ मैं.
गाता हूँ पर क्रांति गीत
किसी का गाता नहीं हूँ मैं.
उतना कि सफर आसान रहे
ज्यादा उठाता नहीं हूँ मैं.
मैं जाति नहीं, मैं धर्म नहीं
एक सोच का हाता नहीं हूँ मैं.
छेनी मेरी, हथौड़ी मेरी
औरों का जाँता नहीं हूँ मैं.
खून पसीने की कमाई है
दैर-ओ-हरम से लाता नहीं हूँ मैं.
८.
अफ़सोस
चिमनी के तपे लोग
धूप में थके लोग
बारिश की बात करते हैं
मिट्टी के बने लोग.
ज़ेहन से कटे लोग
दिल से हटे लोग
एक छत की बात करते हैं
पैसे से बटे लोग.
करैले से बढ़े लोग
नीम पर चढ़े लोग
फूलों सी बात करते हैं
काटों से कड़े लोग.
बेकारी में मरे लोग
फुटपाथ पर पड़े लोग
कमल की बात करते हैं
कीचड़ में खड़े लोग.
विद्वत पर अड़े लोग
रूढ़ियों के सड़े लोग
समंदर की बात करते हैं
कुएं में पड़े लोग.
गर्दन में गड़े लोग
पैरों में पड़े लोग
दूध की बात करते हैं
छाछ से भी जले लोग.
मंदिर में खड़े लोग
अंधभक्ति में पड़े लोग
भाग्य की बात करते हैं
साइंस के पढ़े लोग.
९.
घुटन
हमें ज़मीन चाहिए,
सारा आसमान तुम रख लो.
हमें संविधान चाहिए,
गीता कुरान तुम रख लो.
हमें रोटी चाहिए
अध्यात्म का ज्ञान तुम रख लो.
हमें रोजगार चाहिए
व्रत और ध्यान तुम रख लो.
हमें विचार चाहिए
ये मूर्ति बेजान तुम रख लो.
हमें क़लम चाहिए
ये तीर कमान तुम रख लो.
हमें सम्मान चाहिए
ये क्रूर भगवान तुम रख लो.
हमें इंसान चाहिए
ये जाति का भान तुम रख लो.
हमें आजादी चाहिए
अपनी संस्कृति महान तुम रख लो.
१०.
रंग
रंगों का कोई धर्म नहीं
उनका अपना गुण-धर्म है
सूरज को कौन उगाता है
उगना तो उसका कर्म है.
अंतर तुझमें और मुझमें क्या
वही गुदा वही चर्म है.
सख़्त टूट जाता हर बार
बचा वही जो नर्म है.
राजा भी खाद बनेगा यहीं
जीवन का यही मर्म है.
धन को नहीं मन को लूट
गर बची जरा भी शर्म है.
खून से ज्यादा, जेब से बढ़कर
मौत की सेज गर्म है.
उतना ही खा कि पच पाए
ये पेट बड़ा बेशर्म है.
बच्चा लाल ‘उन्मेष’ प्रकाशित पुस्तकें : कौन जात हो भाई (कविता संग्रह) तथा छिछले प्रश्न गहरे उत्तर (कविता संग्रह) सम्मान: साहित्य चेतना मंच, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) द्वारा तृतीय ओमप्रकाश वाल्मीकि स्मृति साहित्य सम्मान-2022. तथा संप्रति: सहायक अध्यापक, भदोही. |
बच्चा लाल उन्मेष आदिम शैली के कवि हैं। इनकी प्रतिरोधी कविताएं संवाद की शैली में हैं और उपदेशक कविताएं तुकबंदी शैली मेे। उपदेशपरक कविताओं में गेयता है। ये गेयता ही है जो उनकी कविताओं को गांव के चौपालों और खाली सीजन की बैठकी तक पहुंच बनाती हैं. माटी कृषि से गहरे जुड़े होने और भदौही जैसे बहुत सरल सहज जनसमाज का गहरा प्रभाव उनकी कविताओं की सरलता और सम्प्रेषणीयता का आधार हैं। प्रतिरोधी कविताओं में जहां उनका कवि बोलता है वहीं उपदेशपरक कविताओं में उनका शिक्षक बोलता है।
कविताएँ दलित हों या ग़ैर दलित, छंद का आभास दे कर छंद के नियमों का पालन न करना कहाँ तक सही है?
सरल सीधी परंतु उचित प्रहार करतीं कविताएं।
उन्मेष सचमुच कवि है। निखालिस कवि! वाह!
कविताएँ मैं कम ही पढती हूँ। लगता है उनमें कुछ नया होता नहीं। मेरी ही कमज़ोरी है।
बच्चा लाल उन्मेष की यह कविताएँ तीर की तरह मस्तिष्क में चुभ गईं। क्या तेवर है! विचारों का सैलाब है। कोई ओढ़ी हुई क्रांति नहीं, सोचा, सुलझा, नकार। इनका और भी लेखन हो तो वह पढ़ने की तीव्र इच्छा जागी है। कृपया परिचय कराईये, इनकी और भी रचनाओं से। बच्चा लाल को सलाम।
बच्चा लाल उन्मेष की कविताएं अनुभव दग्ध और मार्मिक हैं। उन्हें बधाई।
फिर भी उन्हें ‘कुछ इस तरह से वो जीतनी बाजी चाहते हैं/‘पर’ बेचकर, बहेलियों से आज़ादी चाहते हैं।।’ जैसी पंक्तियों से बचना होगा। भविष्य में बहेलिये भी उनसे हिसाब माँग सकते हैं। ध्यान रखें बहेलिया एक समुदाय है जिसने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है।
तमाम कच्चेपन के बावजूद उन्मेष अपनी ओर खींचते हैं । पकने पर वो दुनिया के लिए सेहतमंद होंगे इसपर यकीन किया जा सकता है। उन्हें पढा है और आगे भी पढना चाहूंगा।
कविता नम्बर नौ अच्छी लगी।
वैसे तो बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की सभी कविताएँ अच्छी हैं, लेकिन चार कविताएँ, जो क्रमशः ‘इंसान बन’, ‘हमें मालूम है’, ‘मशक्क़त’, और ‘घुटन’ की बेधकता और तीक्ष्णता ज्यादा अच्छी है।
बच्चालाल जी को इन कविताओं के लिए बधाई।