देवीशकर अवस्थी स्मृति सम्मान की शुरूआत के बहाने हिंदी आलोचना में युवाओं की सहभागिता को मिला प्रोत्साहन इसी सृजनधर्मा संवाद की एक प्रमुख कड़ी है. यह हिंदी में आलोचना की संस्कृति के विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण सम्मान है. देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में यह उनके जन्मदिवस (05अप्रैल) पर 1995 से निरंतर दिया जा रहा है. 14वां देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान-2009, केरल के युवा-आलोचक प्रमीला के.पी. को कविता का स्त्रीपक्ष पुस्तक के लिए दिया गया था तो इस बार का 15वां देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान-2010\’ संजीव कुमार को उनकी पुस्तक जैनेंद्र और अज्ञेय के लिए दिया जा रहा है.
देवीशंकर अवस्थी ने 1953 में कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज से हिंदी में एम.ए. किया और इलाहाबाद विवि. से आए अजित कुमार के साथ 23 अगस्त 1953 को उसी डी.ए.वी. कॉलेज के हिंदी विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए. उसी साल उन्होंनें नियमित रूप से लिखना शुरू किया और प्रगतिशील लेखक संघ और परिमल जैसे बौद्धिक संगठनों से भी जुड़े. इस दौरान अजित कुमार के साथ मिलकर उन्होंने कविताएं 1954’ का और 1957 में हरिश कुमार के साथ मिलकर कलजुग पत्रिका के पाँच अंकों का संपादन भी किया. आलोचना के अतिरिक्त वे ए.डी. शंकरन के छद्म नाम से कविताएं लिखते थे और जीवन के अंतिम दिनों में तो वे एक नाटक भी लिख रहे थे. आलोचना और आलोचना (1960) उनके आलोचनात्मक निबंधों का पहला संग्रह था. 1960 में ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में उन्होंने अठारहवीं शताब्दी के ब्रजभाषा काव्य में प्रेमाभक्ति विषय पर किए शोध से पीएच.डी. उपाधि प्राप्तकी.
1961 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आए और आते ही यहाँ की सांस्कृतिक दुनिया की एक जरूरत बनकर छा गए. बकौल अजित कुमार- वह दौर साहित्य और संस्कृति के नए शक्ति-केंद्र के रूप में दिल्ली के उभरने और स्थापित होने का दौर था. समकालीन साहित्य से वे लगातार जुड़े रहे, इसे उनकी पुस्तक-समीक्षाओं में देखा जा सकता है. विश्वविद्यालयी समीक्षा से इतर समीक्षा की उनकी मूल कसौटी समीक्ष्य कृति की आन्तरिक सत्ता का उदघाटन व पद्धति का नयापन थी. विवेक के रंग के आधार पर कहा जा सकता है कि पुस्तक समीक्षाओं को वे आलोचना की प्रारंभिक शर्त व रचना ओर आलोचना के बीच की कड़ी मानते थे, लेकिन आज स्थिति इसके उलट है. उन्होंने प्रायः साहित्य की सभी विधाओं पर लिखा लेकिन कथा-आलोचना हमेशा उनके सृजन के केंद्र में बनी रही और वे कहानी आलोचना के प्रारंभिक आलोचकों में एक थे.
मुक्तिबोध : अजनबी नहीं, मुक्तिबोध की कविताओं को समझने की दृष्टि से उनपर लिखे सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेखों में एक है. उन्होंने नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और सुरेंद्र चौधरी के साथ मिलकर कथासमीक्षा को आलोचना की मुख्यधारा से जोड़ा और आजीवन अध्येता बने रहे. वे निर्णय देने वाले आलोचक से अधिक एक अध्यवसायी बने रहे. इसीलिए अज्ञेय उन्हें मित्र, आत्मीय और सहधर्मी के साथ विकासमान आलोचक मानते थे. वे विवेकवान आलोचक और विकासमान आलोचक के बीच के अंतर को जानते थे. लेकिन देवीशंकर अवस्थी के निधन के बाद उनकी स्मृति में हुई संगोष्ठियों में ही यह तय हो गया था कि खेमेबाजी से बचा आलोचक किसी का नहीं होता. सबके अपने-अपने पूर्वग्रह है और उसमें पाठक व रचना कहीं नहीं है. जबकि अवस्थी जी आलोचना को पाठक और रचना के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते थे. समकालीन साहित्य के मूल्यांकन के साथ वे परंपरा में मौजूद श्रेष्ठ साहित्य के पुनर्मूल्यांकन के हिमायती थे. उनका सृजन विचारधारा के बल पर खड़ी आलोचना को रचना के बल पर खड़ा कर उसे एक सही राह की ओर बढाता है. उनका ध्यान ऐसे परिवेश के निर्माण पर था जहाँ आलोचना रचना के भाव, उसकी संवेदना को महसुस कर सके. आलोचना और आलोचना बड़ी ही सजगता से व्यावहारिक आलोचना के सैद्धांतों का निर्माण करती है. उनके लेखन ने हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है और कथा-आलोचना को अकाल-मृत्यु से बचाया.
साहित्य विधाओं की प्रकृति साहित्य की प्रमुख विधाओं की प्रकृति, स्वरूप और प्रयोजन पर भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के विचारों पर केंद्रित है तो आलोचना का द्वंद्व नई समीक्षा से संबद्द 1954 से 1965 तक के उनके लेखों का संग्रह है. भक्ति का संदर्भ पुस्तक में भक्ति के उदभव और विकास से संबद्ध वैदिक और पौराणिक संदर्भों की लौकिक व्याख्याएं है जिसमें उन्होंने लोकचिंता और शास्त्र चिंता को बहुदेववाद का आधार माना है. छठे दशक के साहित्यिक इतिहास की निर्मिति में देवीशंकर अवस्थी की क्या भूमिका रही इसे बहुवचन के बीसवें अंक में प्रकाशित उनकी डायरी के दो सालों (1955-57) के अंशों और कमलेश अवस्थी द्वारा संपादित उनके पत्रों के ऐतिहासिक संकलन हमकों लिख्यौ है कहा से भी समझा जा सकता है. समसामयिक जीवन और साहित्य दोनों के नजदीकी बोध से शून्य होने के कारण अवस्थी जी हिंदी की अकादमिक आलोचना की आलोचना किया करते थे. बकौल निर्मल वर्मा उनका आग्रह हिंदी आलोचना को समसामयिक संदर्भों में जीवंत और प्रासंगिक बनाना था क्योंकि उनके लिए ‘सामयिकता कोरा मूल्य न होकर केवल एक संदर्भ की कोटी में आता था जहाँ वर्तमान और भविष्य दोनों ही अपनी मूल्यवत्ता प्राप्त करते थे.’ अपनी रचनात्मक प्रतिभा और तटस्थ लेखन के कारण वे सबके प्रिय थे. आलोचना की समृद्धि के लिए वे उसकी सहज और स्वाभाविक पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के लिए निरंतर सक्रिय रहे. नाटक व नाट्य-समीक्षा पर भी लिखा, कथासमीक्षा के अंतर्विरोधों पर बात की. उनका सारा ध्यान कथा-समीक्षा के लिए सिद्दांतों के निर्माण की ओर था जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे. कल्पनालोक के बजाए रचनाओं का यथार्थबोध उन्हें आलोचना के लिए आकृष्ट करता था. वे रचनाकार नहीं रचना को केंद्र में रखकर लिखते थे, इसीलिए गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास चारूचंद्रलेख की आलोचना का साहस जुटा सके. कहीं कोई लाग-लपेट नहीं, है तो बस केवल दोटूकपन. दुर्भग्यवश दिल्ली में ही एक सड़क दुर्घटना में वे 13 जनवरी 1966 को असमय ही हमसे विदा हो गए पर अपने ऊर्जस्वित लेखन में वे आलोचना के युवा प्रतीक के रूप में आज भी जिंदा है, और हमेशा रहेंगे.
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू.