श्वेता सांड
स्त्रियों को विषय मानकर हिन्दी में अनेक उपन्यास लिखे गए हैं जो हमारे समय और समाज की शोषक संरचनाओं को तार-तार कर देने वाला विश्लेषण प्रस्तुत करते रहे हैं. रंजना जायसवाल का हाल में ही प्रकाशित उपन्यास ‘और मेघ बरसते रहे’ स्त्रियों के दुखों-तकलीफों और संघर्षों पर केंद्रित है. रंजना जायसवाल ने एक कवयित्री और फिर कहानीकार के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई और अब उन्होंने उपन्यास लिखकर कथा साहित्य के दरवाजे पर अपनी मजबूत दस्तक दी है. मजबूत इसलिए कि यह भले ही लेखिका का पहला उपन्यास है लेकिन इसमें उन्होंने अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं का संवेदना पूर्ण और लगभग तथ्यात्मक जायजा लेते हुए पक्के अनुभवों का रेखांकन किया है. ये अनुभव हमारे समाज में व्याप्त स्त्री-पुरूष भेद-भाव की भीतरी तहों तक जाते हैं और बताते हैं कि तमाम नारों और प्रयासों के बावजूद जमीनी सचाई यही है कि आज भी दूरदराज की स्त्रियों को बुनियादी सुविधाएं और मौलिक अधिकार तक मुहैया नहीं हो सके हैं. इस विडम्बना को रूपायित करने के लिए तमाम इलाकाई रीति-रिवाजों और बात-व्यवहारों का अवलोकन, गहन प्रेक्षण और फिर अध्ययन करते हुए इसे पात्रों और संवादों की नई शक्ल में प्रस्तुत किया गया है.
शिशुकाल से लेकर किशोरावस्था तक और फिर उसके बाद सारी उम्र स्त्री को किस तरह घर, परिवार, शिक्षण-संस्थानों, ससुराल और कार्यालयों में दोयम दर्जे का व्यवहार झेलना पड़ता है, इसका सधे हुए कथानक में वर्णन करते हुए रंजना जायसवाल नें अपनी औपन्यासिक क्षमता का परिचय दिया है. इतना जरूर है कि ऐसे मुद्दों पर पहले ही इतनी सारी बातें हो चुकी हैं कि कुछ भी नया कहना अपेक्षाकृत मुश्किल होता चला गया है. इसलिए कई बार हमें यह भी लगता है कि जो कुछ इस उपन्यास में वर्णित है, वह कहीं पहले भी पढ़ा है. ऐसी पुनरावृति मूलक चीजों के बीच लेखिका ने स्थानीयता का छौंक लगाकर उपन्यास में जान डालने की भरपूर कोशिश की है. चाहे वह लड़की को कलूटी कहकर उसका मजाक बनाए जाने की घटना हो या फिर इस उपन्यास की एक पात्र नोरा के बहाने स्त्री के श्रम के अवमूल्यन का प्रश्न, लेखिका अनावश्यक आशावादिता से बचती हुई संस्थाओं के ढांचों की कमियों को भी उजागर करती है.
एक रोचक नजरिया यह भी है कि जब एक स्त्री के बारे में दूसरी स्त्री लिख रही हो तो वह लेखन अधिक प्रामाणिक माना जाता है .इसीलिए बेबी नाम की एक लड़की को उपन्यास में ‘घरेलू टाईप’ की कहा गया है, यह बताते हुए कि वह फैशन और सुंदरता की पुजारिन भी है. स्त्रियों के ऐसे तमाम द्वंद्व इस उपन्यास में प्रसंगवश आए हैं और जब ऐसे द्वंद्व सामने आते हैं तो पाठक सोचता है कि असल में स्त्री उत्थान के लिए क्या-क्या किया जा सकता है. उदाहरण के लिए उपन्यास की कुछ स्त्री पात्र एक तरफ तो खुद वस्तु की तरह बनना या दिखना चाहती हैं और दूसरी तरफ उसका विरोध करती सी प्रतीत होती हैं. साहित्य जब डिस्कोर्स के आधार के लिए काम आ सकने वाली अधिरचना हो, तब अनिर्णय और द्वंद्व की ऐसी स्थितियाँ क्या उचित कही जा सकती हैं ? यह उपन्यास ऐसे तमाम बुनियादी सवालों से मुठभेड़ करता है. उपन्यास में कामिनी की परेशानी यह है कि वह आम स्त्री की तरह घर,परिवार, पति और बच्चों के साथ जीवन जिए या फिर स्वतंत्र व्यक्तित्व रखकर अपने जीवन से जुड़े निर्णय लेने वाली एक स्वायत्त स्त्री ? अभय के साठ उसके अंतरंग संबंध अनन्य नहीं हैं क्योंकि कामिनी के जीवन में अनेक पुरूष आए और चले गए .विडम्बना यह है कि जो पुरूष जितनी जल्दी उस्जे जीवन में प्रविष्ट हुआ, उतनी ही जल्दी वह उसके जीवन से बाहर चला गया .अक्सर पुरूष उसकी चौखट से निराश होकर ही लौटे,कोई गाली खाकर लौटा तो कोई अपमानित होकर.
आज जब कहा जाता है कि स्त्रियाँ पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं तब यह बाट प्रासंगिक हो जाती है कि पारम्परिक स्त्री और आधुनिक स्त्री में क्या, कितना और कैसा फर्क है. इस फर्क को पाटने के लिए रंजना जायसवाल ने नोरा जैसा परिपक्व किरदार गढा है लेकिन यह गढन हवाई या काल्पनिक कतई नहीं है. हमारा सामना आए दिन नोरा या कामिनी जैसी अनेक स्त्रियों से दैनिक जीवन में होता रहता है. रेलगाड़ियों में ,बसों में या यात्रा करते हम ऐसे तमाम पात्रों से रूबरू होते रहते हैं. पर किसी से मुखातिब भर होकर रह जाने में और उसके जीवन में यथार्थपरक नजरिए से निष्पक्ष होकर झाँकने में काफी अंतर होता है .इस अंतर को देशकाल, परिवेश और वातावरण के धागे में पिरोकर औपन्यासिक आकृति प्रदान करने में जिन् सूत्रों की आवयश्कता होती है, वे सूत्र लेखिका के यहाँ प्रचुरता से मौजूद हैं.ये सूत्र स्त्री देह से परे झाँकने में रंजना जायसवाल की मदद करते हैं, शायद तभी वे लिख पाती हैं कि-‘देह संभली तो मन भी सम्भला. ये क्या कर बैठी कामिनी ?क्या होगा इस रिश्ते की परिणति?अभय उम्र में छोटा है, अविवाहित है, उसे अपना नहीं सकता,समाज में साथ चल भी नहीं सकता .उसने ऐसा कोई संकेत तक नहीं दिया है,फिर क्यों?’
अपनी देह पर स्त्री का अधिकार है या नहीं ? अगर है तो किस सीमा तक और फिर उसका यह अधिकार लोगों के किन-किन अधिकारों से सीमित होता है, ऐसे अनेक सवालों से ‘और मेघ बरसते रहे’ के पात्र जूझते हैं, उनके उत्तर तलाशते हैं, अनिर्णय की वर्णमाला में उलझते हैं, विकल्पों के महा समुद्र में गोते लगाते हैं और रंजना की खूबी यह है कि ऐसी समस्त यात्राओं में वे किसी बिंदु पर अनावश्यक रूमानियत या जजमेंटल होने से परहेज करती हैं. पर इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि उनकी पक्षधरता कमजोर या धुँधली है. उम्र, इच्छाओं और कामनाओं से भरा स्त्रियों का जीवन हमारे समाज में जिन संघर्षों की भेंट चढ़ जाया करता है,उसका गहन विश्लेषण करते हुए यह कृति पाठक को पसंद आती है और पाठकों को यह लगना स्वाभाविक हो जाता है मानो वे अपनी ही कहानी पढ़ रहे हैं .एक पठनीय उपन्यास, जो सिर्फ स्त्रीवादी दृष्टि से ही नहीं, वरन समग्रता में अपनी विषयवस्तु के लिए सराहनीय है .
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