मीना बुद्धिराजा
यथार्थ का वर्णन कथाकार के लिए जरूरी है लेकिन एक अच्छी कहानी के लिये इसका कोई तयशुदा फार्मूला नहीं होता. यथार्थ पहले से मौजूद कोई वस्तु नहीं, जिसे सिर्फ आख्यान या कहानी के अंदर डाल देने की जरूरत होती है. अपने समय के संकटों और चुनौतियों से जूझते और संघर्ष करते हुए जैसे जीवन चलता रहता है, वैसे ही कहानी भी. संवेदन शील रचनाकार प्राय: यथार्थ का अतिक्रमण करता है,जो वास्तव में यथार्थ का विरोधी नहीं होता बशर्ते कथाकार की दृष्टि जीवन की गहराई में उतर सकती हो. जीवन की जटिल स्थितियों के दबाव में लेखक उसे कैसे रचना में अभिव्यक्त करता है, यह एक कथाकार के रूप में उसकी रचनात्मक शक्तियां अपने समय से किस प्रकार का संवाद कायम करती हैं, उस पर भी निर्भर करता है.
इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में हिंदी कथा- साहित्य में जिन चुनिंदा श्रेष्ठ स्त्री- कथाकारों ने अपनी विशिष्ट व अलग पहचान बनाई, उनमें प्रतिनिधि सुप्रसिद्ध युवा-कथाकार ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ का नाम विशेष उल्लेखनीय है. उन्होनें अपनी रचनाओं में स्त्री- अस्मिता को एक नई पहचान देने के साथ हिंदी कथा- साहित्य को नई संभावनाओं, संवेदना और अनुभव के व्यापक दायरे से भी समृद्ध किया है. समकालीन कथा लेखन में सार्थक हस्तक्षेप करते हुए वे सतत सक्रिय कथा लेखिका हैं, जिनके अब तक छ: कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इनमें कठपुतलियाँ, शिगाफ, स्वप्नपाश, गंधर्व गाथा, पंचकन्याजैसी अनेक रचनायें हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय और पुरस्कृत हो चुकी हैं. अनेक महत्वपूर्ण कथा सम्मानों से अंलकृत मनीषा जी रचना कर्म के प्रति अपनी गंभीरता, ईमानदारी और मौलिक विषयों के अन्वेषण के लिये जानी जाती हैं. नये- नये विषयों का पुनर्संधान करते हुए कथ्य के नये प्रयोग, अछूते किरदार और परिवेश की विविधता मनीषा कुलश्रेष्ठ के उत्कृष्ट लेखन की पहचान है. स्त्री- मन की आकांक्षाओं और त्रासदियों के बेहद निकट जाकर मनीषा जी उनके जीवन की उन आवाज़ों को अपनी कहानियों में उकेरती हैं, जो सामान्य तौर पर अनसुनी रहती हैं और समाज में अभिव्यक्त नहीं हो पातीं. उनके यहां विषय- वैविध्य का बेशकीमती और जीवन के अनुभवों से समृद्धविभिन्न रूप-रंगों का अथाह खजाना है जो पंरपरागत किस्सागोई सेअलग अपने अनूठे नयेपन में उन्हें आज के समय का कहानीकार बनाता है.
एक रचनाकार के रूप में मनीषा कुलश्रेष्ठ लेखन को मात्र भाषा विलास न मानकर उसे मानवीय जीवन की अनिवार्य शर्त मानती हैं. अपने अनुभवों के व्यापक वृत्त मेंआए समय और सत्य के कुछ विशेष प्रंसगों और विचलित करने वाली स्थितियों को रचनात्मक विवेक और संवेदनात्मक घनत्व से कहानी में ढ़ालकर वे पाठकों से जीवंत संवाद करती हैं. उनकी इस अनवरत कथायात्रा के एक महत्वपूर्ण मुकाम के रूप में उनका नवीनतम कहानी संग्रह ‘किरदार’ अभी हाल में ही ‘राजपाल एंड संन्ज़’प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. स्त्री-मन, प्रेम,स्वप्न और द्वंद्व की अविस्मरणीय कहानियों को समेटे ये सभी कहानियाँ कुछ दुर्लभ पंरतु हमारे ही वक्त के सजीव किरदारों के माध्यम से हमारे समय का आईना हैं. इन कहानियों के पार्श्व में कुछ मूल्यगत चिंताएं, कुछ मानवीय सरोकार और स्त्री जीवन की कुछ बेचैनियां हैं जो दृश्य- अदृश्य रूप में उपस्थित होकर आज के अर्थहीन, जटिल और आक्रामक समय में जब संवेदनशीलता लगभग अपराध है, वहां जीवन की सार्थकता की खोज करती हैं. अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे मनीषा जी ने स्वंय कहा है कि-
“मेरे किरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से कुछ दूरी बरतते हुए. मेरी कहानियों में ‘फ्रीक’भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे ज़हन में रहते हैं. जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये किरदार मुझे विवश करते हैं , उतारो न हमें कागज़ पर. कोई कठपुतली वाले की लीक से हटकर चली पत्नी, कोई बहुरूपिया, कोई डायन करार कर दी गई आवारा औरत, बिगड़ेल टीनेजर, न्यूड माडलिंग करने वाली….’’
विषयों की यही आधुनिकता, वैविध्य और मौलिक किरदार उनकी कहानियों की अंदरूनी शक्ति है जो प्रस्तुत कहानी -संग्रह में भी एक नयी कथा-संस्कृति का प्रतीक बनकर उभरती है.
पहली कहानी ‘एक ढ़ोलो दूजी मरवण…तीजो कसमूल रंग’ किसी कस्बे की एक यात्रा के बहाने अव्यक्त और खामोश प्रेम की गरिमा को अत्यंत मार्मिकता से व्यंजित करती है. महानगरों में तथाकथित महान प्रेम संबंध जो खोखले, अस्थायी तथा मृतप्राय: हो चुके हैं और परिस्थितियों से समझौतों के आधार पर टिके हैं, उसके बरक्स बस मे सफर कर रहे दो साधारण किरदारों के बीच स्थिर, मौन और अज्ञात सा दिखता, अपनी लघुता में भी गहरा और विराट प्रेम अविश्वनीय रूप से पाठक को भी चकित कर देता है. मध्यवय कथानायिका और उसके प्रेमीके रूप में एक उच्च- मध्यवर्गीय चित्रकार- कलाकार जोड़ा, जो दुनियादारी के नियमों के हिसाब से आधुनिक और बौद्धिक है, उन्हें भी सच्चा और पवित्र प्रेम एक गंवई- कस्बे की यात्रा के दौरान अनुभव होता है. एक लोकप्रिय राजस्थानी लोक गीत के मुखड़े पर आधारित शीर्षक इस कहानी में यह अदैहिक, अशरीरी और उदात्त प्रेम एक खामोश और मीठी सी धुन के रूप में पाठक के मन में भी बहुत समय तक गूंजता रह जाता है और वेदना का कोई प्रगाढ़ ‘कसमूल रंगराग’ चेतना पर छा सा जाता है.
‘आर्किड’ कहानी सुदूर पूर्वोत्तर के मणिपुर राज्य में सैनिक शासन के दौरान सेना और स्थानीय निवासियों के बीच होने वाले तनाव, विरोधों, झड़पों और तमाम तरह के जोखिम के मध्य वहां के जीवन की कटु और निर्मम सच्चाईयों को प्रस्तुत करती है. अपने अधिकारों और आज़ादी के लिये लड़ने वाले राज्य के लोग आपदा के समय सेना और उनके अस्पतालों पर निर्भर हैं. उनके बनते- बिगडते संबधों के बीच मानवीय संबधों की गहरी पड़ताल यह कहानी जीवंत रूप से करती है. आर्किड के सुंदर फूल की तरह खिलने वाला प्रदेश राजनीतिक लड़ाईयों में उलझकर अपनी सहजता और सरलता को खो चुका है. कहानी के दोनों मुख्य किरदार मिलिटरी अस्पताल में कार्यरत डॉ. वाशी और उनकी सहायक वहां की स्थानीय नागरिक लड़की प्रिश्का के बीच के जटिल रिश्ते कई स्तरों पर और कई आयामों में परिवेश और यथार्थ की क्रूरता को झेलते हुए भी निष्कपट मानवीय संबंधो के आदर्श की एक भावुक अमिट छाप छोड़ जाते हैं.
एक सजग रचनाकार के रूप में मनीषा कुलश्रेष्ठ समय, समाज और उसके विद्रूपों तथा चुनौतियों के प्रति भी सचेत हैं. उनकी कहानियाँ स्त्री अस्तित्व के पक्ष में हमेशा खड़ी हैं और उसके सामाजिक शोषण की भयावह परिणतियों पर भी संवेदंनशील हैं. ‘लापता पीली तितली’ कहानी में बचपन मे हुए यौन- शोषण की शिकार युवती की मानसिक पीड़ा का मनोवैज्ञानिक चित्रण है, जो आज के समय का भी अमानवीय सच है. सभ्य कहे जाने वाले समाज की कुत्सित मानसिकता और रिश्तेदारों, पडोसियों या फिर परिचितों के द्वारा यौन हिंसा से पीड़ित अबोध बच्चियों और महिलाओं को कभी उचित न्याय नहीं मिल पाता. इस अनिश्चित और असुरक्षित माहौल में बालिकाएं अपने अनुभवों से जिस जीवन-दर्शन को सीखती हैं, वह अपमान और खौफ के रूप में उनके व्यक्तित्व और आत्मविश्वास को हमेशा पराजित करता रहता है. समाज की इस भयावह सच्चाई को कहानी यथार्थपूर्ण तरीके से सामने लाती है.
आज के तेजतर्रार युग में हम कई युग और संस्कृतियां एक साथ जी रहे हैं. जैनरेशन गैप के विकट बिंदु पर आकर पुरानी पीढ़ी नये जीवन मूल्यों और आकाक्षांओं को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाती. ‘ब्लैक होल्स’ कहानी एक गहरी नज़र से नई पीढ़ी की गतिविधियों और भावनाओं को आंकने का उपक्रम है. कहानी के अंत में एक पिता के पश्चाताप और बेटी से पराजित व्यक्ति के रूप में बजुर्ग पीढ़ी की शिकस्त और आत्मग्लानि भी छिपी है, जो बदलाव के लिये नये-पुराने के सामंजस्य के रूप में समाधान का विकल्प भी देती है. अतिनैतिकता औरसुरक्षित आदर्शों के भीषण दबाव से मूक विद्रोह करते और लीक से अलग हटकर दिखते,कहीं ज्यादा संवेदनशील और नि:स्वार्थ प्रेम से युवा चरित्र अनिंद्या और रोहन पाठक के दिल को छू जाते हैं.
मनीषा जी सोद्देश्यपूर्ण कहानियाँ लिखती हैं, किसी एक समस्या, सामाजिक विडबंना और कठोर सत्य को केंद्र में रखते हुए वे उसे संवेदना का विस्तार देती हैं. स्त्री की मानवीय गरिमा और स्त्री की नियति के कठिन प्रश्नों को अपनी कहानियों में वे पूरी सजगता से उठाती हैं .‘ठगिनी’ कहानी तथाकथित भारी- भरकम नारी विमर्शों से हटकर पितृसत्ता के षडयत्रों की शिकार स्त्री- अस्मिता की जीवंत व मार्मिक कहानी है. कहानी में पुरुष सत्ता की क्रूर मानसिकता और स्त्री के अस्तित्व को कुचलने वालीसदियों से चल रही नवजात कन्या-हत्या की बर्बर कुरीति का पर्दाफाश करते हुए मुख्य चरित्र युवती कंचन के रूप में उसके जीवन की संचित पीड़ा, त्रासदी और अस्तित्व शून्यता का सजीव चित्रण है. सघन संवेदना से परिपूर्ण यह किरदार भी पाठक की मानसिकता को दूर तक प्रभावित करता है. राजस्थान के गांव-ढाणी, बीहड़- मरुस्थल का लोक- परिवेश और स्थानीय शब्दों का भाषिक प्रयोग कहानी में गतिशीलता और दृश्यात्मक प्रभाव को बढ़ाने के साथ उसे रोचक और पठनीय रूप भी देता है.
साइबर संचार युग व उत्तराधुनिक संभावनाओं का जो नया माहौल आज विज्ञान और मनोचिकित्सा के क्षेत्र में देखा जा रहा है , उसे ग़ंभीरता से उठाते हुए ‘समुद्री घोड़ा’ कहानी ट्रांसजेंडर मातृत्व जैसे अछूते विषय के साथ ही महानगरों की यांत्रिक जिंदगी, असामान्य होते तनावपूर्ण संबधों के साथ स्त्री-पुरुष समानता की फेमिनिस्ट बहसों को भी सामने लाती है. कहानी का विषय अत्याधुनिक होते हुए भी आज समाज के सामने बेबाकी से उपस्थित हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. वक्त की नई आहटों को सुनने और भांपने की दृष्टि से यह एक नये अछूते कथानक और किरदारों की प्रयोगशील कहानी कही जा सकती है.
और आखिर में इस किताब की सबसे सशक्त और प्रतिनिधि कहानी ‘किरदार’की बात की जाए तो कहानी की नायिका और मुख्य चरित्र ‘मधुरा’के रूप में स्त्री -मन के भीतर हो रही उथल-पुथल, अतंर्मन की विकल आकांक्षाओं और अंतर्द्वंद्व को लेखिका बड़ी बारीक संवेदना से उकेरती हैं, जो अंत तक आतेहुए पाठक के मन को भी झकझोर कर विस्मित कर देती है . “मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार’’’ आरंभ मे कही गई भूमिका की यह पंक्तियाँ इस कहानी का एक संकेत जैसे दे देती हैं . स्त्री-जीवन के सच, उससे जुड़े कई असुविधाजनक सवाल और उसके पीछे किरदार की बेचैनी, अंतहीन त्रासदी, अस्तित्व की उद्विग्नता और संवादहीनता के तनाव को कहानी गहराई से रेखांकित करती है.
मधुरा की आत्महत्या जैसे इस बेहद कठोर, कला और प्रेम विहीन दुनिया से अपने को अलग कर लेने का एक आत्मघाती, खामोश विद्रोह और प्रतिशोध का प्रतीक बन जाती है. मधुरा के इर्द- गिर्द इस कहानी का संसार रचते हुए स्त्री- मनोविज्ञान और समाज में‘क्रियेटिव’किरदार’ की आंतरिक दुनिया का एक अलग और अछूते धरातल पर बारीक और संवेदंनशील विश्लेषण किया गया है, जो मनीषा जी की लेखन शैली की अद्भुत विशेषता है. यह परिपक्व मेधा और गहन अंतर्दृष्टि के साथ एक नये अनुभव को लेकर स्त्री के साधारण से दिखते जीवन की असाधारण गाथा है. एकचेतना और कला-संपन्न किरदार’ के भीतर कितना विराट शून्य और अकेलापन आग की तरह धीरे-धीरे सुलगता रहता है-प्रेम की कोई फुहार क्षण- भर को उसे शीतल तो कर सकती है. परंतु उस ‘परम- प्रेम’ एब्सॉल्यूट लव की परिभाषा मधुरा को कभी नहीं मिल पाती, इसलिये परिवार और समाज में अपनी सभी भूमिकाएं निभाने के बावजूद स्त्री के रूप में उसके अपने स्वतंत्र अस्तित्व कीयहखोज अनवरत कहानी के बाद भी जारी रहती है-
“जिस किरदार को निभाने में कोई सुख,कोई अदा, कोई शोखी, खूबसूरती तो हो . तुम मुझे एक खास अंदाज़ में रहने को कहते हो. मैं रंगों, स्याहियों, सुरों और आलापों में व्यक्त होना चाहती हूं .…..
मैं गहरे हरे रंग वाली नोटबुक उठाता हूं . जिससे पन्ना फाड़कर मधुरा ने सुसाईड नोट लिखा था …….एक आखिरी पन्ने पर कुछ लिख कर काटा है पेन गड़ा-गड़ा कर. मैंनें अपना किरदार पूरे जोश से निभाया , अब और नहीं सॉरी !”
कहानी मधुरा के जीवन के अंतर्संघर्ष, बेचैनी और अपूर्णता में ही उसकी पूर्णता को खोजने का प्रयास करती है, उसके अंदर छिपे रहस्यमय अँधेरे को लेखिका की सजग-संवेदंनशील आँख पहचानती है. विश्व के असाधारण फ्रेंच अस्तित्ववादी लेखक और अतियथार्थवादी फिल्मकार माइकेलेजेंलो एंतोनिओनी (मीकेलान्गेलो अन्तोनिओनी) ने कहा है कि- “कला में किसी चीज को पूर्णता में कैसे पकड़ा जा सकता है, जब जीवन ही उसी तरह का नहीं है .” कहानी में पात्रों के मनोविज्ञान पर, उनके आपसी संबधों पर कथा- लेखिका का कुशल सधाव,घटनाओं के ताने- बाने में उभरता मोहक कथा- शिल्प, विचार और भावनाओं के झंझावात मे घिरकर एक नयी भाषाका प्रवाह और अनोखीकथन भंगिमाका दुर्लभ संयोग एक रचनाकार के रूप में लेखिका के कलात्मक उत्कर्ष और अद्भुत कथा- कौशल का प्रमाण है .
एक नयी और अनूठी किताब के रूप में ‘किरदार’की सभी कहानियाँ बेहद पठनीय, रोचक और कथ्य की विविधता के साथ ही पाठक की संवेदनाऔर वैचारिकता को दूर तक प्रभावित करते हुए दिलो- दिमाग में बहुत समय तक याद रह जाती हैं. उनके किरदार’अपने स्वंतत्र अस्तित्व में सांस लेते हैं. अपने सुख, दु:ख, घुटन और कठिनाईयों के साथ टूटते- बिखरते, जीते हुए संघर्ष करते हैं, इसलिये अधिक मानवीय और विश्वसनीय हैं, कृत्रिम नहीं. व्यक्तिगत तौर पर भी मनीषा जी की कहानियाँ पाठकों को ‘हॉंन्ट’ करती हैं, वे जाने- पहचाने कथानक और चरित्रों से अलग हटकर नई लीक पर चलने का जोखिम उठाती हैं. उन अँधेरे चरित्रों की ओर ले जाती हैं, जिन्हें आज की चमक- दमक में हम देखना नहीं चाहते. ज़िंदगी के विविध रूप-रंगों से जुड़े ये सभी किरदार’कहीं बेसब्र, बेतरतीब, बेझिझक और कभी शर्मीले, बेचैन, बेअदब और अलग मिज़ाज के होते हुए भी बेहद आत्मीय लगते हैं. हर किरदार’ की अपनी विशिष्टता और अपना एकाकीपन है. सच में ये किरदार’ थोड़े ढ़के-छिपे लेकिन हमारे आस-पास ही मौज़ूद हैं.
स्त्री- जीवन इन कहानियों में कई मायनों में ज्यादा जटिल और बहुआयामी होकर आता है, इसलिये ये कहानियाँ भी बनी- बनाई लीक से हटकर इनके नये पाठ और मूल्यांकन के नये पैमानों की चुनौती भी प्रस्तुत करती हैं.
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मीना बुद्धिराजा
हिंदी विभाग
अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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