टेरी ईगलटन
(टेरी ईगलटन विश्वप्रसिद्ध आलोचक एवं चिन्तक हैं. श्रमिकवर्गीय पृष्ठभूमि से आये ईगलटन ने 1992 से 2001 ई. तक आक्सफोर्ड में पढ़ाया. आजकल लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं एवं आयरलैण्ड यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.
टेरी, महान आलोचक रैमण्ड विलिअम्स के शिष्य रहे हैं, बहुत लिखा है,एक बार साक्षात्कार में अपने खास मजाहिया अंदाज में कहा भी है कि मैं कन्ट्रास्क्रिप्टिव की तलाश में हूँ जिससे लिखना रूक जाय. 20वीं सदी के चिन्तन प्रवृत्तियों से सघनतापूर्वक जूझते हुए टेरी ने 1989 में ‘सिग्नीफिकेन्स आफ थिअरी’ और 2003 में ‘आफ्टर थिअरी’ लिखा, उन्होंने थिअरी (यह थिअरी के परम्परागत अर्थ से किंचित भिन्न विचार-सरणियों का समूह है जिससे रूसी रूपवाद से लेकर उत्तर संरचनावादी सिद्धान्तों तक के विभिन्न प्रकारों का बोध होता है.) के बारे में बात करते हुए कहा है कि अब हम भाषा की पारदर्शिता एवं साहित्य की व्याख्या की वैचारिक निरपेक्षता को मानने की अवस्था में फिर नहीं लौट सकते मगर थिअरी भी एक वैचारिक फैशन था जिसे बीत जाना था क्योंकि फैशन के नयेपन एवं जीवंतता अवधि -बद्ध होते हैं. टेरीकी प्रमुख किताबें हैं – ‘शेक्सपीयर एण्ड सोसाइटी’, ’क्रिटिसिज्म एण्ड आइडिआॅलजी (1976)’, ‘द इल्यूजन्स आॅफ पोस्ट-माडर्निंज्म (1996)’, ‘द मीनिंग आफ लाइफ (2007)’ इत्यादि. ‘द गेटकीपर’ उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक है जिसमें दिखता है कि कभी चर्च में द्वारपाल रहे ईगलटन का मार्क्सवाद से रिश्ता मात्र बौद्धिक नहीं रहा है.
टेरी धर्मशास्त्रीय विषयों पर भी लिखा है और हाल ही में ‘रीजन, फेथ, रिवाल्यूशन: रिफ्लेक्शंस, आन गाड डिबेट (2009)’ लिखा जो काफी विचारोत्तेजक माना गया.
ईगलट अपने लेखन में हमेशा अपना पक्ष चुनते रहे हैं और यह आकस्मिक नहीं है कि प्रिंस चार्ल्स उन्हें ‘टैरिबल टैरी’ कहते हैं. यह लेख 2010 में फूटवाल विश्वकप के समय लिखा गया था. खेल का पूँजीवाद से जुड़ाव आर्थिक आँकडों में तो दिखता ही है यहाँ इन्होंने मनो- विश्लेषणात्मक पक्षों पर विचार करते हुए पूंजीवाद से इसकी नाभि-नालबद्धता की तफ्तीश की है. यह वाकई उत्कट साहस की बात है कि जब दुनिया इस खेल के ज्वर से आक्रांत था उस समय अलोकप्रिय होने के खतरे उठाकर इन्होंने यह लेख लिखा. यह लेख अपनी व्याप्ति में अन्य खेलों को भी शामिल करता है और हमें सोचने को विवश करता है.)
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यदि परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी के कैमरन का सत्ता में आना बुरा है तो फुटबॉल विश्वकप तो और भी बदतर खबर है. अगर कोई दक्षिणपंथी थिंकटैंक जनसमूह को राजनैतिक अन्याय से ध्यान हटाने के लिए और कठिन श्रम से भरे उनके जीवन में क्षतिपूर्ति का अहसास कराने के लिए कोई योजना लेकर आये तो हर बार यही शै सामने आयेगी – फुटबॉल. आजतक पूँजीवाद की समस्याओं से निजात पाने के लिए समाजवाद के अतिरिक्त कोई और महीन शै कदाचित फुटबॉल के सिवाय नहीं रची गई है और अब तो स्थिति यह है कि यदि समाजवाद एवं फुटबॉल के बीच टक्कर हो तो फुटबॉल ही बहुत आगे निकल जायेगा.
आधुनिक समाज स्त्रियों और पुरूषों को जिस एकात्मकता की अनुभूति से दूर ले जाता है उसे फुटबॉल सामूहिक विभ्रम की हद तक उपलब्ध कराता है. मोटर-मिस्त्री और दुकान के कामगार उच्च-भ्रू संस्कृति से अलगाव महसूस करते हैं मगर सप्ताह में एक बार ये लोग उन लोगों की कलाकारी का दर्शन जरूर कर लेते हैं जिनके लिये ‘जीनियस’ शब्द का प्रयोग कभी-कभार मात्र बढ़ाई-चढ़ाई गई बात नहीं होती. जैज-बैण्ड और नाटक कम्पनी की तरह ही फुटबॉल चमत्कारिक व्यक्तिगत प्रतिभा एवं स्वार्थहीन टीमवर्क को एकसाथ घोल देती है. सहयोग और प्रतिस्पर्धा बड़ी चालाकी से संतुलित कर दी जाती है. इस तरह यह अंधभक्ति एवं संहारक प्रतिद्वन्द्विता जैसे हमारे प्रायः सर्वाधिक शक्तिशाली विकासमूलक (evolutionary) मूल प्रवित्तियों को संतुष्ट करता है. यह खेल ग्लैमर को मामूलीपन के साथ सूक्ष्मतापूर्वक मिश्रित करता है; खिलाडि़यों की वीर पूजा होती है लेकिन उनके प्रति सम्मान इसलिए भी होता है कि वे मामूली आदमियों की तरह होते हैं जिसकी जगह कोई मामूली आदमी ले सकता था. केवल ईश्वर ही इस तरह की अंतरंगता एवं अन्यत्त्व को एक साथ धारण करता है और सेलिब्रिटी होने के उसकी हैसियत को प्रसिद्ध कोच जोसे मोरिन्हो कब का पार कऱ चुका है.
उत्सवों और प्रतिकात्मकताओं से रिक्त हो गये सामाजिक व्यवस्था में फुटबॉल उन लोगों के सौन्दर्यमूलक जीवन को समृद्ध करने के लिए सामने आता है जिसके लिए रैम्बो नाम का मात्र एक सिनेमाई बलिष्ठ व्यक्ति हुआ है. यह खेल प्रदर्शन की चीज तो है ही मगर रंगों के कलात्मक सह-संयोजन से काफी अलग है जिसमें दर्शकों की गहरी सहभागिता की जरूरत होती है. वे स्त्री और पुरूष जिनके काम बौद्धिकताका आग्रह नहीं करते, इस खेल के इतिहास के बारे में चर्चा करते समय तथा खिलाडि़यों के कौशल की बारिकियों का विश्लेषण करते वक्त आश्चर्यजनक पांडित्य प्रदर्शित करते हैं. उस तरह के शास्त्रार्थ जिसके लिए ग्रीक सभायें बुलाई जाती थीं, जहाँ-तहाँ होते दिखते हैं. बर्तोल्त ब्रेख्त के नाट्य-स्थल की तरह यह खेल आम आदमियों को विशेषज्ञों में तब्दील कर डालता है.
इस तरह से परम्परा का जीवंत बोध उत्तर आधुनिक संस्कृति के इतिहासमूलक स्मृतिलोप के विपरीत है जहाँ दस मिनट पहले घटी हर घटना को जीर्ण कह कर कबाड़घर में रख दिया जाता है. यहाँ लैंगिक लोच के न्यायपूर्ण प्रतीत होने वाले अंश भी विद्यमान लग सकते हैं जैसे कि खिलाडि़यों में पहलवानों की ताकत के साथ बैले डान्सरों की नजाकत. फुटबॉल अपने समर्थकों के लिए सुन्दरता, नाटकीयता, संघर्ष, उपासना-विधि, कार्निवाल इत्यादि जुटाता है और यदा-कदा त्रासदी के क्षण भी और निश्चय ही यह सम्भावना भी की कोई अफ्रीका जाये और वहाँ से पाँव गवाँकर लौट आये. अनुशासनबद्ध धार्मिक सम्प्रदायों की तरह यह खेल तय करता है कि आप क्या पहनते हैं, किसके साथ अपने को जोड़ते हैं, कौन सा जयगान गाते हैं और अतीन्द्रीय सत्य के किस वेदी को आप पूजते हैं. टेलिविजन के साथ साथ यह खेल राजनैतिक आकाओं की इस पुरानी दुविधा का हल तलाश लाता है कि हम से क्या करवाना चाहिए जब हम काम नहीं कर रहे हों.
शताब्दियों से समूचे यूरोप में लोकप्रिय कार्निवाल विद्रोहमूलक भावनाओं के लिए सेफ्टीवाल्ब की तरह काम करता रहा है; धार्मिक प्रतीकों के साथ खेल-तमाशा करना तथा अपने आकाओं का मजाक उड़ाना आभास देता है कि यह अराजक अवस्थिति है जो कि वर्गविहीन समाज के पूर्वानुभव की तरह है. फुटबॉल लोगों के गुस्से को भी सामने लाता है जब क्लबों के समर्थक उनके कारपोरेट मोटे आसामियों के खिलाफ विद्रोह पर उतर आते हैं. मगर फुटबॉल मुख्यतः अफीम की तरह है, बल्कि कहें कि कोकीन की तरह.
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मनोज कुमार झा
२००८ के भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित.
तथापि जीवन कविता संग्रह प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक आदि के लेखों का अनुवाद
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों की दिखन’ पर शोध