हम तीन थोकदार (आठ)
बटरोही
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“उनकी ‘उपरांत’ कहानी भा. ज. पा. की राजनीति, बाबरी मस्जिद ध्वंस को हिंदुत्व की विजय के रूप में स्वीकारने और कुम्भ को परम धार्मिक आयोजन मानने की आस्था के बावजूद अपने वितान में मुझे तोलस्तोय के ‘डैथ ऑफ़ इवान इलिच’ की याद दिलाती है. हाँ, यहाँ वे सारे धार्मिक रीति-रिवाज, कर्मकांड और पाप-पुण्य भरे पड़े हैं जो ‘इवान इलिच’ में नहीं हैं- वहां मृत्यु से सीधा साक्षात्कार है, इसलिए वह (‘इवान इलिच’) बहुत बड़ी कहानी है.”
“हिंदी में आंचलिकता का आगमन तो सन ५४-५५ में रेणु के ‘मैला आंचल’ के साथ हुआ – मगर मटियानी सन ५१-५२ से ही अपने पहाड़ी अंचल वहां की बोली-बानी, चरित्र और कथानकों को वैसे ही रूपरंग-गंध-स्वरों के साथ पकड़ रहे थे. खौलते अनुभवों के साथ उनके पास कहानी कहने की कला, लोककथाओं को गूंथने का मुहावरा कहीं भी रेणु से कम नहीं है; बल्कि रेणु में जहाँ कलात्मक तराश (सोफिस्टीकेशन) और मध्यवर्गीय रूमानियत को रास आने वाली सौन्दर्य-चेतना है वहां मटियानी में जमीनी ऊर्जा और चरित्रों की बीहड़ जीवन्तता है. रेणु अज्ञेय से लेकर निर्मल वर्मा तक के पसंदीदा लेखक हैं. उनके पास कोई डिग्री थी या नहीं, मुझे नहीं मालूम लेकिन बहु-पठित और बाकायदा प्रशिक्षित लेखक हैं. उधर मटियानी की अशिक्षा ही उन्हें जीवन और जमीन की ऊर्जा से जोड़ती है. शिल्प और भाषा के प्रयोग भी मटियानी में कम नहीं हैं. देखा और भोगा हुआ जीवन तो है ही. उनके पात्र अस्तित्व से जूझते खुरदरे लोग हैं – रेणु में भावना और रोमानियत अधिक है.”
अपने लेखन में खुद के परिवेश और समाज की भाषा का उन्होंने जो पुनर्सृजन किया, उसकी तुलना के लिए हिंदी में तो फ़िलहाल कोई दूसरा लेखक मौजूद नहीं है. हिंदी की लगभग उपेक्षित बोली ‘कुमाऊनी’ को हिंदी के जातीय चरित्र के साथ जोड़ते हुए उन्होंने जो ढांचा तैयार किया, दुर्भाग्य से उसका विस्तार नहीं हो पाया. मजेदार बात यह है कि मटियानी ने अपने परवर्ती लेखन में उसे महत्व नहीं दिया. किस हिंदी लेखक में अपनी भाषा का यह जातीय तेवर दिखाई देता है:
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ए हो, कथा के भंवरो,कथा की इस पावन-बेला रमौलिया लोकवाद्य ‘हुडुक’ पर हाथ मारता है, कि गढ़ी चम्पावत नगरी में –खड्गधारी, छत्रधारी राजा कालीचंद जिस दिन रानी डोटियाली (नेपाली) की डोली लाए – काला कव्वा बायां उड़ गया, कि काना ब्राह्मण सामने आ गया.रानी डोटियाली को नौ लाख की तल्ली-मल्ली डोटी घोड़ी धाप, एड़ी चाप लगाकर, राजा कालीचंद अपने बाएं बैठने वाली बनाके लाए थे, कि गढ़ी चम्पावत में कालीचंद के मनोराज्य में रूपाली रानी डोटियाली का राज्य होगा. बात सच थी.छत्रधारी, खड्गधारी राजा कालीचंद, कि उसकी सात रानियाँ और जो थीं, सैन से उठने-बैठने, आने-जाने वाली थीं, कि उनके लिए या आकाश में इंद्र का वज्र ही कड़कता था, या महलों में राजा कालीचंद का कंठ ही.पर रानी रूपाली, डोटियाली के सामने तो, एक-दो ही दिन में, राजा कालीचंद फूल का भंवर, सिर का चंवर हो गया था, कि रानी डोटियाली के न बुलाए ही पास आए और लाख लगाए से, परे न जाए.ए हो, रानी रूपाली के रसीले बैन, कटीले सैनों का क्या कहना, कि नौ लाख सिरों का स्वामी, दो छोटे-छोटे चरणों का दास बन गया. जिसकी म्यानधरी तलवार देखकर ही, दुश्मन अपने सिर को अपनी गर्दन पर नहीं पाते थे, वह खड्गधारी, धनुर्धारी राजा कालीचंद – पलक उठाए से उठने, पलक गिराए से बैठने लगा.
(मुख सरोवर के हंस: पृ. १२-१३)
‘ठेठ उत्तरांचल ठाठ में लिखा हुआ शैलेश का उपन्यास ‘मुख सरोवर का हंस’ हिंदी में आंचलिक उपन्यास का एक ‘क्लासिक’ है.’ शायद इसीलिए नागार्जुन ने उन्हें एक पत्र में लिखा, ‘तुम्हारे अन्दर हिंदुस्तान का गोर्की अंगड़ाइयाँ ले रहा है. कितना जहर पिया है तुमने!’
अपने समय के प्रखर विचारक वीरेंद्र कुमार जैन ने तो यहाँ तक लिख दिया,
‘तुम समकालीन हिंदी साहित्य के सबसे बड़े जीवित लेखक हो. जैनेन्द्र, अज्ञेय और नवीनतम प्रतिभाएं, जो चर्चित हैं, सब तुम्हारे जीवन सर्जन-राकात्य साहित्य के समक्ष छोटे पड़ जाते हैं.’
मटियानी की कहानियां : योगिनी माई की करुण चीत्कार
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कहानी : ‘माता’-एक (१९६२)
फिर दो-चार बरस मायावी संसार के चलते-फिरते पाथरों के बीच और कट गए. ठौर-ठौर दुखियारी देह के लिए आधार ढूंढती थकी मगर रोग-शोक और संतापों के अलावा और कोई सुख मिला नहीं. आखिर एक दिन बैरागी चित्त में यही विवेक फूटा कि – भगवती, संसार के चलते-फिरते पाथरों की संगति में तुझ अभागिनी के लिए सुख कहाँ, लली! पापी संसार की माया-ममता तेरी आत्मा के चारों कोनों से आकाशबेल-जैसी लिपटी हुई है. इस बंदिश से तुझे तभी मुक्ति मिलेगी, जब साक्षात् परमेश्वर के चरणों में चित्त लगाएगी.
बस, उस दिन का और यह आज का दिन है.
जैसे दिन-रात जलाभिषेक होते रहने पर भी शिवलिंग कोरे-का-कोरा और थिरायमान का थिरायमान ही रह जाता है, वैसे ही संसार-सागर के ज्वार-भाटों के बीच भगवती माता का चित्त भी एकदम कोरा, एकदम थिरायमान ही रहने का अभ्यस्त हो गया. चित्त की हरेक चोट जिन सरोवरों में घन की चोट खाकर पानी की सतह पर तड़पती मछली जैसी लोट लेती है और व्यथा को पिंडाकार बना-बना कर संसारी चोले को पिघलाती रहती, उनका सारा जल ही सूख गया. सूखे तालाब जैसी पुतलियाँ निस्तेज हो गयीं. राग-अनुराग के हंसों का डेरा ही उजड़ गया. हे शक्तेश्वर शंकर महराज, ऐसा अखंड विराग उपजा कि लगातार तेरह-चौदह वर्षों तक काया-कंठी सन्यासी चोले की भभूत-परतों के नीचे दबी रही. संसार-सागर के सारे रोग-शोकों से चित्त मुक्त रहा. सब भगवत्कृपा!…
सन्यासी चोला धारण करने के बाद नारी संसार-माता हो जाती है, मनुष्य-मात्र उसकी संतान हो जाती है, ऐसा हरिद्वार में दीक्षा-गुरू ने कहा था. मगर संसार-माता बनने वाली सन्यासिनी किसी एक बालक की माता बनने के बराबर भी संसार-सुख नहीं पा सकती, इतना ज्ञान पुरुष के चित्त में कहाँ होता है? नारी और नदी का जैसा चलायमान चित्त पुरुष का कहाँ होता है भला?
हे गुरू, सत्त वचन देना! सन्यासी चोले को पवित्र रखना! बैरागी काया-कंठी को थिरायमान रखना… आत्मा असमंजस और अज्ञान से छटपटा उठी, तो भगवती माता ने दीक्षा गुरू का ध्यान किया, मगर फिर भी, आँखों में, स्मृति में, गोपिका पंतानी का बालक ही खेलता रहा…
मायके की धरती की मोह-माया ही तो खींच लायी. गाँव-गाँव डोलती भगवती माता तिलाड़ी तक पहुँच गयी थी. खासतिलाड़ी से बमणतिलाड़ी का भिक्षा पंथ पूरा करके, ब्राह्मण टोले के पास की गुरुस्थली में विश्राम करना चाहती थी. आखिरी घर गंगाधर पन्त का रह गया था. गोपिका पंतानी अपने छोटे-से बालक को छाती से लगाये घर की देहरी पर बैठी थी. भगवती माता ने पुकारा, ‘भिक्षा माई!’
‘द, माई, भिक्षा कैसे दूँ? यह बानर तो लोथ छोड़ता ही नहीं है. जरा-सी छाती छुड़ाई नहीं कि बिलखने लगता है.’ गोपिका पंतानी बोली थी.
‘माई, लाओ, थोड़ी देर मैं बिलमा दूंगी बालक का हिया.’ भगवती माता के मुँह से निकल पड़ा था और भभूत की परतों से ढंपी आत्मा संताप से कसमसा उठी थी कि – हे प्रभो, सन्यासिनों को बाल-गोपालों की ममता से बचाना चाहिए अपने मन को. ममता से मोह उपजता है और सतगुरु का सच्चा पंथ छूट जाता है. पंथ भ्रष्ट आत्मा फिर नित्य दिसा-विदिसा अपने मोहों का प्रायश्चित खोजती भटकती रहती है… मगर गोपिका पंतानी ने बालक को आगे बढ़ा दिया तो फिर ‘अब नहीं पकड़ती हूँ’ कैसे कहती भगवती माता?
प्रभो, संसारी चित्त चलायमान हो गया था, उसी का दंड दिया है तुमने. जैसे गीले गुड़ की भेली से चिपकी हुई शहद की मक्खी का डंक कभी-कभी गुड़ से चिपक कर टूट जाता है, ठीक ऐसे ही वह बेशरम छौनाछाती से चिपक गया, तो जैसे अभी तक उसके पतले-पतले अधर भगवती माता की छाती से चिपके रह गए हैं. दूध की बान ढला हुआ बालक ठहरा. कब गेरुआ कुरती उठाकर बंजर छाती से दूध पाने के लिए होंठों और जीभ की संगति से मिठियाता चपाचप पीता चला गया, भगवती माता को इस बात की सुध ही नहीं रही. उसे तो लगा कि लगातार तेरह वर्षों से जमी भभूत की भुरभुरी परतों को कुरेदता ही चला जा रहा है. और उसे यह भी लगा कि सन्यासी कंठी का पाथर-चोला पसीज रहा है और कहीं आत्मा की बहुत गहरी, कोमल परत में दरार आ गई है…
निंदियाए बालक को लौटते हुए, भगवती माता बोली थी, ‘द, माई, बालक को भगवन का अंश बता रखा है. जरा-सी ममता मिली नहीं कि पलक मूँद लेता है. मूरत की तरह. जहाँ तक छाती के अमरित के सुख का सवाल है, मुझ जनम बाँझ जोग्याणी की बंजर छाती से इस छौने को क्या मिलता! चलती हूँ माई! जीता रहे हजार बरस तेरा बालक. जै सदगुरु!’
इतना कहकर भगवती माता चलने लगी तो पीठ पीछे से तभी-तभी आई देवरानी से बोलती गोपिका पंतानी की आवाज सुनाई दी थी, ‘द वे सेवंती, बताने को तो अपने को जनम ब्रह्मचारिणी बताती हैं आजकल की जोग्याणियाँ, मगर छातियाँ इनकी नागरी भैंस के थनों की तरह चूती हैं. देख तो जरा, इस छोरे के मुँह में कितना झाग भर गया है. पहले ये जोग्याणियाँ पाप को भरती हैं. फिर अपने दिखावे के चोले का भरम रखने को एक पाप और करती हैं. मगर छाती का दूध तो परमेश्वर की देन है, वह कहाँ सुखाये से सूखता है! दूसरों के बालकों को खेल लगाने के बहाने अपना भार घटाती हैं.’
कहानी : ‘माता’-दो (१९९२)
“मिहलगाँव अपने पूरे वितान में उमड़ आया स्मृति में, तो एक लम्बे अरसे के बाद पारबती आज फिर से व्याकुलता की बाढ़ में खड़ी ही रह गयी, अपने स्नान को स्वयं ही जल उत्पन्न करती प्रतिमा जैसी.
सैमधार से ऊपर को मिहलगाँव के बिष्टों की बड़ी बाखली एक क़तार में दिखाई पड़ती है, जैसे पहले सीधी रेखा खींचकर, तब उस पर एक-एक करके मकान बनाये गए हों और पहले ही कुछ ऐसा तय कर लिया गया हो कि चौमास की धूप में मिर्चियाँ सुखाई गयी हों, तो सबकी छतें रंगीन दिखाई पड़नी चाहिए…
कुछ क्षणों को वह भगवान नांदेश्वर के मंदिर की ओर एकटक देखती रह गई. उसे एकाएक ही हुआ कि मिहलगाँव को लेकर उसे एकाएक ऐसी स्मृति क्यों हुई होगी कि वह मायके का गाँव है? मायका तो तब होगा, जब कहीं ससुराल का अस्तित्व हो? सन्यासिनी को ससुराल ही नहीं, तो फिर मायका भी कहाँ होगा? घर भी नहीं कह सकती. कह नहीं सकती, लेकिन भीतर तो घर बीते दस सालों के उजाड़ में और ज्यादा गूंजता गया है. नेपथ्य में सब कुछ मौजूद है और जैसे माँ-बाबू आज भी पुकार रहे हों – पारबती! पारबती! पारबती!
उसे हुआ कि पूरी शक्ति से चिल्ला उठे! यह सारा जगत ही उसे सिर्फ एक सूना जंगल बनकर रह जाय. आधे जंगल को वह यही चीत्कार करती पार कर जाय कि – कहाँ हो?
उसे हुआ कि बाँहों को दूर तक फैलाती, पुकारती चली जाय – इजा…! बाबू!… और उसका पुकारना पक्षियों के झुण्ड की भांति, एक-के-बाद-एक, मिहलगाँव की दिशा में उड़ता ही चला जाय. ठीक वैसे ही, जैसे कि जोग का अंधड़ उसे दस साल तक पच्छिम में उड़ाता ही चला गया और अचानक पूरब को हुआ है रुख, तो लगता है कि सारी दिशाएं समाप्त हो चुकीं.
उसे सचमुच आधा जंगल दौड़ते-चीखते पार कर चुके होने की सी भ्रान्ति हुई और वैसी ही थकान. उसने सोचा था, आधे को चुपचाप देखती रहेगी. उस भविष्य की तरह, जो अभी भी जाने कहाँ तक है. और जाने कब तक.
वह पूरब की ही तरफ एकटक देखती रही. उसे अचानक ही लगा कि यह भी, शायद, सिर्फ कल तक को है. कल सुबह मंदिर में होगी. वहां से आगे जाना नहीं है.
नहीं, अब वह स्थान पांवों से नहीं, बल्कि सिर्फ चित्त से जाने को रह गया है. जोगन के रूप में वहां जाना ठीक नहीं.
उसे लगा, जैसे अब कहीं कुच्छ नहीं इस समय. सिर्फ वह है, और है वह जीवन, जिसकी सारी दिशाएं बंद जान पड़ती हैं. अब उसे पहली बार अनुभव हुआ कि अगर दिशाएं बंद होंगी, तो कुछ भी खुला नहीं रह जायेगा…
खुद अनुमान लगाओ, तो फिर दूसरों को कैसे रोको? कैसे अपेक्षा करो कि उसे तो ऐसा सोचना चाहिए था? देखना चाहिए था कि एक अकेली औरत अगर इस रात को भीषण रूप से डरावनी हो जाने वाली शमशान भूमि में डेरा डालने को तैयार है तो आखिर कौन-सा जीवन लाया होगा उसे इधर? किस हाहाकार ने ला पटका होगा इसे यहाँ कि अब यही होता है कि नहीं, क्योंकि कोई ठिकाना नहीं कि कब कौन-सा और कैसा स्थान सामने होगा.
छब्बीस की उम्र और जोगन का वेश – जड़ों समेत उखड़कर खुले में हो जाना और कोई सम्बन्ध, किसी आदमी क्या, वस्तु तक से अनुभव नहीं होना… सिर्फ यही चीत्कार कि – तुम्हारा स्त्री जीवन हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो चुका… अब तुम स्त्री के रूप में किसी को नहीं पुकार सकोगी – पशु-पक्षियों और नदी-जंगल-पृथिवी-आकाश तक को नहीं. क्योंकि जोगन सिर्फ गुरू गोरखनाथ को पुकार सकती है – अलख निरंजन का जप कर सकती है – लेकिन इनको जोगन स्त्री नहीं, स्त्री जोगन हुआ करती है.
उन दिनों थोकदार जी, उनकी बहुओं, बेटों अथवा अन्य श्रोताओं के सामने स्वामी जी का प्रवचन की लय को और तीव्र करते ही चले जाना – और इस बात पर एक नहीं बल्कि अनेक भांति से जोर देना कि परम सत्य तो एक ही है… लगातार वेद-वेदान्तों के दृष्टान्त देना. उनको आज के विज्ञान से भी संगत बताना. मध्यमा, बैखरी, पारमिता और प्रज्ञा – जाने कितनी तरह की भाषावली की बातें करना!…
(शैलेश मटियानी और बटरोही) |
“संपन्न परिवार मटियानी का व्यक्तिगत सपना जरूर है, मगर निश्चय ही यह उनका संसार नहीं है. जिन्दगी भर वे जिस दुनिया के रोग-शोक, शोषण-संघर्ष की कहानियां लिखते रहे – ये दोनों लम्बी कहानियां उनसे पलायन और पराजय की आत्म-स्वीकृतियां हैं. चूंकि यह जमीन उनकी अपनी नहीं है इसलिए बार-बार दुहरा-दुहरा कर उन्हें अपने-आपको और पाठक को आश्वस्त करना पड़ता है कि वे उस परिवेश और मानसिकता को जानते हैं. ये दयनीय ‘पैरानोइया’ की कहानियां हैं. बेटे की मृत्यु से उबरने की नहीं – स्वयं धीरे-धीरे उसी लोक में उतरते चले जाने की कहानियां हैं. मुझे इनमें अपनी असमर्थता को लेकर पैदा होने वाले अपराध बोध की गंध भी आती है और सांस्कृतिक प्रतिशोध की भी… यह संसार को पाने की छटपटाहट है जो उन्हें कभी नहीं मिला… कलियुग में आकंठ धंसे आदमी द्वारा देखा गया सतयुग का सपना… संयुक्त परिवार का यह बंधा रूप अखंडित राष्ट्र का एक छोटा घटक है. जिसे हिंदुत्व प्रेरित टीवी सीरियल बार-बार परोस रहे हैं. यह अतीत की वापसी की आकांक्षा है.”
(राजेन्द्र यादव: शैलेश मटियानी की सम्पूर्ण कहानियां भाग एक, पृष्ठ १७, प्रकाशन वर्ष : २००४)
पांच अगस्त को अयोध्या में संपन्न भूमि-पूजन के मेजबान इस आख्यान के सह-नायक के बारे में भी मुझे इसी टिप्पणी को दुहराने का मन कर रहा है. हमारी उपेक्षित धरती से उभरे ये दोनों ही महानायक जिस छोटी-सी उम्र में भारतीय सांस्कृतिक रंगमच में अपने-अपने क्षेत्र में छा गए, वह इतिहास की छोटी उपलब्धि नहीं है, मगर कहा नहीं जा सकता कि आने वाले वक़्त में वे किस करवट खुद को व्यवस्थित करेंगे! फ़िलहाल तो उम्मीद-भरी आँखों से देखना ही हमारी विवशता है.
पांच अगस्त के अयोध्या-उत्सव के मेजबान अपने कथा-नायक की भूमिका को लेकर मेरे मन में उनके प्रति सम्पूर्ण सम्मान के बावजूद वही आशंका जन्म ले रही है जो ‘माता-एक’ की भगवती और ‘माता-दो’ की पारबती के मन में उपजी थी. हालाँकि ये सवाल एक स्त्री के कुछ हद तक निजी सवाल हो सकते हैं कि क्या वह पुरुष की तरह अकेले जीवन का निर्वाह नहीं कर सकती? यह बात भी यहाँ विचारणीय है कि इस कहानी का परिवेश आज से लगभग अस्सी साल पहले का पहाड़ी परिवेश है; निश्चय ही आज एक औरत अकेले जीवन का चयन कर सकती है कर ही रही है. ‘माता’ शीर्षक दोनों कहानियों की नायिकाएं क्रमशः भगवती और पारबती जोग को त्यागकर अपने लिए पति का चुनाव करती हैं, यद्यपि उनके ये ‘पति’ उनकी अपनी रचना हैं, समाज या परिवार के द्वारा थोपे या सुझाये हुए नहीं. एक तरह से वे खुद पर आरोपित ‘पुरुषों’ का अपनी मर्जी से कायाकल्प करके उन्हें खुद को स्वीकार करने के लिए मजबूर करती दिखाई देती हैं. यह स्त्री का पलायन नहीं, उसकी विजय है.
अपने कथानायक योगी के बारे में सामने आ रही इन आशंकाओं से मैं इसलिए सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि नाथ संप्रदाय का कनफटा जोगी होने के कारण उन्हें राजपाठ से कोई मतलब नहीं होना चाहिए या एक जून से अधिक का भोजन घर पर नहीं रखना चाहिए. इन हजारों सालों की यात्रा में आदमी ने अपनी रुचियों और विश्वासों को बनाये रखते हुए खुद को और अपने समाज को बदला है. आज भी बदल रहा है. मेरी निजी रुचियों से वो बातें मेल नहीं खा सकती है, मगर उन्हें बदलना तो है ही. जरूरी नहीं कि वह जीतेंगे ही, मैं भी जीत सकता हूँ, हो सकता है तब, जब मैं इस दुनिया में न रहूँ. मगर दोनों अपनी हार नहीं मानेंगे और शक्ति-परीक्षण ऐसे ही चलता रहेगा. अलबत्ता, इनमें से किसी एक पक्ष की विजय या पराजय का निर्णय लेने का अधिकार निश्चय ही मुझे या उन्हें नहीं है.
यह बात आज तक एक रहस्य बनी हुई है कि मटियानी ने अपनी आरंभिक ४७ कहानियों को किसी भी संग्रह में शामिल क्यों नहीं किया ? ये सभी कहानियां उच्च वर्णों के द्वारा दलितों के शोषण की बेहद मार्मिक कहानियां हैं. इनमें से कुछ का उन्होंने पुनर्लेखन भी किया है हालाँकि उनमें से कई में पात्रों के नाम और शीर्षक भी बदले हैं, जिससे पता लगा पाना कठिन है कि उनमें कौन-सी मूल कहानी है और कौन बाद की. ऐसी अधिकांश कहानियां १९६० से ६५-६६ तक की प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. इन्हीं में एक मार्मिक कहानी ‘दुरगुली’ का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है:
घर पहुंचकर जरा विश्राम किया ही था दुरगुली ने, कि जजमानों के यहाँ से वृत्ति करके लौटे हुए चन्द्रबल्लभ गुरू उसके कमरे में पहुँच गए. वृत्ति में मिला हुआ हलुवा और पूरियों का ढेर उन्होंने कमलुवा-नरुवा को थमा दिया और खुद एक घड़ी रात तक दुरगुली के कमरे में ही रहे. दुरगुली का मन सवेरे से ही दुखी था, सो उसने टालने का प्रयत्न किया था, कि ‘हो गया हो गुरू! अब जरा मुझ अभागिनी को भी विश्राम करने दोगे या नहीं? अरे, तुम ठाकुरों-बामुणों में तो धरम-ईमान नाम की कोई चीज ही बाकी नहीं रही. हजार किस्म के कुकरम भी करते हो , ऊपर से गालियां भी देते हो.’
मगर चन्द्रबल्लभ गुरू जहाँ जल्दी-जल्दी जजमान के घर का पूजा-पाठ निबटाकर लौट आये थे, तो दुरगुली के यहाँ से टलने के लिए थोड़े ही आये थे. कमलुवा-नरुवा हलुवा-पूरी लेकर बाहर चले गए थे.
सामर्थ्य तो नहीं थी और न इच्छा ही, मगर एक बैकर (आधा सेर) चावलों का लोभ दुरगुली को खींच ही ले गया. कभी आड़े समय के लिए थोड़ा-बहुत अन्न घर में रहना ही चाहिए, नहीं तो बालकों का भूख से बिलबिलाना मुँह काटने को दौड़ता है.
धूप अभी सिर्फ ऊंची चोटियों पर ही झलक रही थी, कि गोपुली मूसल लिए चन्द्रबल्लभ गुरू के घर के आँगन में पहुंची. चन्द्रबल्लभ जी की घरवाली पदमावती बौराणज्यू (बहूरानीजी) से धान निकाल मांगने को आगे बढ़ ही रही थी कि मूसल से टकरा कर, तुलसी के कनस्तर के पास रखी तांबे की कलशी लुढ़क पड़ी और बौराणज्यू बिना आवाज दिए ही बाहर निकल आईं.
कुछ देर उन्होंने तुलसी के कनस्तर के पास लुढ़की हुई ताँबे की कलशी को देखा, कुछ देर दुरगुली को देखती रही और फिर एकदम बौखलाकर बोलीं – “बस हो गई आज तुलसी मैया की पूजा-परतिष्ठा! सबेरे-सबेरे न मालूम कहाँ से चुड़ैल जैसी आ पहुँची यह डुमणी रे, इसने भरी-भराई पवित्तर जल की कलशी को ठोकर मारकर दूर फैंक दिया. हे भगवान, अशुद्ध जल के छींटे तुलसी मैया के कनस्तर में भी पड़ गए होंगे… क्यों वे डुमणी, आँखों में अंधकार हो गया है क्या तेरे, जो तांबे की कलशी को ठोकर मार दी? हत्तेरी, कमीन जात का.”
दुरगुली एकदम खिसिया गई. अपराध तो उससे हो ही गया था. एक तो ब्राह्मणों के घर की कलशी ठहरी, उस पर से पूजा के लिए भरा हुआ पानी ठहरा. हाथ जोड़कर बोली, “बौराणज्यू हो, मुझ पापिनी से कसूर तो हो ही गया है, मगर तुम देवी-स्वरूपा नारी ठहरीं, तुम मुझे माफ़ तो कर ही सकती हो. भगवान कसम, हो बौराणज्यू, जो मैंने जानबूझकर कलशी गिराई होगी, तो मेरी उमर मेरे लिए न रहे. मूसल नीचे रख रही थी कि बौराणज्यू से धान निकाल मांगूंगी. अलबलाट में मूसल से टक्कर लग गई…”
“द, तेरा यह लम्बा मूसल तेरे ही हाड़ जलाने में लग जाये!” कहते हुए पदमावती बौराणज्यू ने पहले तो दुरगुली के मूसल को, घृणापूर्वक उठाकर नीचे खेत में फैंक दिया, फिर और जोर से चिल्लाई, “एक तो डुमणी ने मेरी तुलसी मैया को भ्रष्ट कर दिया, ऊपर से बड़ी सफाई जैसी दे रही है. चल डुमणी निकल मेरे घर के पटांगण में से. ले जा अपने उस मूसल को नीचे से उठा करके. तुझ जैसी कमीनी से इस त्यौहार-पर्व के दिन कौन अपने घर का अन्न अपवित्तर कराएगा?”
दुरगुली चुपचाप खिसकने ही लगी थी कि अन्दर से, जनेऊ हाथ में लपेटे हुए, चन्द्रबल्लभ गुरू बाहर को निकले – “क्यों हो कमलाकर की इजा, क्या हल्ला-गुल्ला हो रहा है?”
कमलाकर की माँ पदमावती बौराणज्यू ने, दुरगुली के प्रति फिर से अपनी गालियों को दुहराते हुए बताया कि ‘मैं जरा गोकुल धूप लेने को अन्दर गई थी, इतने में इस दुरगुली डुमणी ने नहा-धोकर पवित्तर जल से भरी हुई कलशी को ठोकर मार के, एकदम अशुद्ध पानी तुलसी मैया के कनस्तर में भी छलका दिया है. तुमने मुँह लगा रक्खा है इस नीच जात को!’ पदमावती बौराणज्यू के इस सीधे आक्षेप से, चन्द्रबल्लभ गुरू एकदम अटपटा जैसे गए और जनेऊ को अँगुलियों में सरकाते हुए बोले, “अरे, कमलाकर की इजा, तू भी कैसी पागलपने की बात करती है? भला मैं क्यों मुँह लगाऊंगा इसको? मुझको क्या लेना-देना हो रहा है इससे? सबेरे-सबेरे आ के तुलसी मैया के कनस्तर को अपवित्र कर गई डुमणी. असल में जब से ‘सुराज’ हो गया है, इनकी आँखें एकदम आकाश चढ़ गई हैं. अब यह दुरगुली डुमणी क्या ठीक से देखकर…”
पदमावती बौराणज्यू की गलियां सुनकर, चुपचाप चली जा रही थी दुरगुली, मगर चन्द्रबल्लभ गुरू की बातें सुनीं तो एकदम पीछे को लौट आई. पदमावती बौराणज्यू ने जो कुछ कहा था, कोई बात नहीं थी, मगर चन्द्रबल्लभ गुरू की बातें सुन करके दुरगुली का कलेजा दुःख और आक्रोश से एकदम तिलमिला उठा.
चन्द्रबल्लभ गुरू अन्दर की ओर खिसकना ही चाहते थे कि दुरगुली आँगन में पहुँच गई, “क्यों हो गुरू, मुझको डुमणी-डुमणी तो तुम इस बिमलकोट के ठाकुर-पंडित बहुत बेर कहते हो. कुतिया की तरह अपनी घरवालियों के सामने दुतकारते हो, मेरी छाया भी छू गई तो तुम्हारे घर का अन्न अशुद्ध हो जाता है. तुम्हारी तुलसी मैया का कनस्तर अपवित्तर हो जाता है? द, आग लग जाये तुम जैसे ठाकुरों-पंडितों के घर के अन्यायी अन्न में और बकौल फूल जाये तुम्हारी तुलसी मैया के कनस्तर में… और समय तो तुम लोग डुमणी-डुमणी कहकर एकदम छि-छी जैसी करते हो, मगर उस समय तुम लोगों की पंडिताई-ठकुराई कहाँ मसान घाट में पहुँच जाती है, जिस समय दुरगुली के आंचल में अपना-अपना मुँह घुसाकर, मेरी देबुली की लझोड़ी हुई जूठी छातियों में ही अपने थोलों (होठों) को घिसते हो?… और उस समय कहाँ जाती है तुम लोगों की ऊंची जात, जिस समय तुम लोग मेरे थोलों की चुसकियाँ लेते, मेरा थूक भी चाट जाते हो! और उस समय…”
दुरगुली को चीखते चिल्लाते सुन कर, पास-पड़ौस के लोग भी एकत्र होने लग गए थे. चन्द्रबल्लभ गुरू तो एकदम अन्दर को भागे ही, पदमावती बौराणज्यू भी अन्दर खिसक गईं कि “द, इस कमीनी डुमणी से अपना फजीता कौन कराएगा?”
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