तुलसी का आत्मसंघर्ष और कवितावलीप्रेमकुमार मणि |
मैं अब अधिक शिद्दत से अनुभव कर रहा हूँ कि कवि तुलसी का जीवन और काव्य दोनों आज भी शोध और अध्ययन की प्रतीक्षा कर रहा है. तुलसी हिंदी भाषी इलाके के मध्यम अथवा बिचौलिया तबके में खूब लोकप्रिय हैं, इतने कि कोई ईर्ष्या कर सकता है. लेकिन, कहा जा सकता है कि यही लोकप्रियता उनका दुर्भाग्य भी बन गया है. मेरा अनुभव है, उन्हें जिस गंभीरता और गहराई से समझा जाना चाहिए था, नहीं गया. इसलिए कि प्रायः उन्हें एक कवि से अधिक धार्मिक गुरु की तरह समझा गया. यह उनकी सीमा अथवा चारदीवारी बन गयी, जिस में तुलसी बाँध दिए गए. उनकी कृतियां साहित्यिक से अधिक धार्मिक महत्व की मान ली गयीं. इसी रूप में उनकी जयजयकार होती रही और उनका कवि रूप उपेक्षित होता चला गया. एक कवि के लिए यह दुखद ही कहा जायेगा.
संस्कृत के सम्मानित कवि अश्वघोष (पहली सदी) ने भी यह पीड़ा झेली थी. ‘बुद्धचरितम‘ और ‘सौन्दरनन्दम‘ जैसे महत्वपूर्ण काव्यग्रंथों के रचयिता कवि को बौद्ध धर्म प्रचारक कहा गया. तुलसी भी हिन्दू धर्म प्रचारक कवि के रूप में स्वीकार लिए गए. प्रचारक होने के फायदे और दंश दोनों को झेलने पड़े.
इसलिए मेरा विचार है कि तुलसीदास को एक कवि के रूप में हम समझने की कोशिश करें, जो कि वह थे. हर कवि की अपनी विशिष्टता होती है, तुलसी की भी थी. यह ठीक है कि उनका एक रूप प्रचारक का भी है, लेकिन वह उससे अलग भी हैं. मेरा जोर इसी पर ध्यान देने का है. बीसवीं सदी के आरम्भ में हिंदी समाज में जब आधुनिक प्रवृत्तियां उभरने लगीं और साहित्य के सामाजिक सरोकारों का भी अध्ययन होने लगा, तब तुलसी-साहित्य पर भी विचार किया गया. लेकिन शायद ही किसी ने आत्मीयता के साथ उन्हें या उनके आत्मसंघर्ष को देखा. उनकी मीमांसा कम पृष्ठपोषण अधिक हुआ. वह पूजनीय-पत्थर बना दिए गए. एक देवता. दुर्भाग्य से उनके इस्तेमाल किये जाने की कोशिशें अधिक हुईं.
एक कदम आगे बढ़ने पर उनका तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो गया. तुलसी सम्बन्धी अध्ययन की एक खासियत यह रही है कि उन्हें प्रायः कबीर के सापेक्ष रख कर देखा जाने लगा. और फिर वर्ण धर्म के समर्थन और विरोध की बात प्रधान हो गयी. तमाम बहस वहीं आ कर सिमट जाने लगी. मेरी दृष्टि से इसके कारण भी तुलसी-विषयक-अध्ययन की उलझनें बढ़ीं. इसलिए मैं चाहूंगा कि इन तमाम मुद्दों से गुजर कर ही हम तुलसी तक पहुंचे तो बेहतर है. लेकिन, यहाँ यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि इसकी गहराइयों में उतरने के बजाय हम इन बिंदुओं का विहंगावलोकन मात्र करेंगे, अन्यथा मूल विषय से भटकने के खतरे खड़े हो सकते हैं. मेरी सीमा केवल एक लेख है, इसका भी मुझे भान है.
सबसे पहले हम तुलसी और कबीर के समय को एक नजर देखना चाहेंगे. तुलसी सोलहवीं सदी (1532-1623) के कवि हैं, जबकि कबीर पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध (1398-1448) के. यानी कबीर की मृत्यु के कोई 84 वर्ष बाद तुलसी का जन्म होता है. तुलसी के जन्म वर्ष पर विवाद है. यदि उनका जन्म वर्ष बढ़ता-घटता है, तो यह अंतर भी घट-बढ़ जायेगा. बावजूद इसके, समय का यह एक बड़ा अंतर है. दोनों दो भिन्न सदी के रचनाकार हैं. समय के इतने लम्बे फासले में युग धर्म तो बदलता ही है, उसकी रुचियाँ भी बदल जाती हैं. कबीर ने दिल्ली सल्तनत की राजनीति देखी थी. उसके आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक उठा-पटक को देखा-समझा था. जिस वर्ष कबीर बनारस में जन्मे थे, उसी वर्ष तैमूर ने दिल्ली को तीन दिनों तक लूटा, रौंदा और तबाह किया था. कहा जाता है दिल्ली छोड़ने के पहले तैमूर ने कोई एक लाख बंदियों को गाजर-मूली की तरह कत्ल करवा दिया था. निश्चय ही दिल्ली वीरान हो गयी होगी. दहशत के सिवा वहाँ कुछ भी नहीं रहा होगा. तब तुगलक वंश का राज था. इस वाकये के बाद उसकी चूलें हिल गयीं.
कुछ ही समय बाद सैय्यद वंश आया. कबीर ने होश सँभालने के बाद, लगभग इसी सैय्यद वंश के राजकाल में अपनी जिंदगी गुजारी. सल्तनत काल मुस्लिम शासन काल ही था. लेकिन मुग़ल काल से तनिक भिन्न था. मामलुक अथवा गुलाम वंश (1206 -1290), उसके बाद के खिलजी वंश (1290-320), फिर तुगलक (1320-1414) और सैय्यद वंश (1414-1451) तथा आखिर के लोधी वंश (1451-1526) की विशेषताओं और कमजोरियों को हम देखेंगे, तब कबीर को समझना भी आसान होगा. इसी सल्तनत काल में एक महिला रज़िया (1205-1240) कुछ वर्षों (1205-1240) के लिए दिल्ली की बादशाह बनती है. इस पूरे सल्तनत काल की, हम ब्रिटिश भारत के ईस्ट इंडिया कंपनी राज काल से कुछ मायनों में तुलना कर सकते हैं. भारत में तुर्क-मुसलमानों का तल छट तबका राज कर रहा था. संभवतः इसी कारण अभी इस्लाम भी अपने मूल रूप के निकट था, जिसे हम इस्लाम का हीनयानी स्वरूप कह सकते हैं. हालांकि इस्लाम में भी पाखंड काफी उभर चुके थे.
कबीर ने इसी भारत को देखा था. इसीलिए यह संभव हो सका कि वह बनारस में बैठ कर पांडे और मौलवी को एक साथ फटकार लगा सकें. यह अनुकूलता शायद इसलिए आई थी कि नई इस्लामी सल्तनत ने हिन्दुओं के वर्चस्वशाली तबके की आर्थिक-सामाजिक स्तर पर कमर तोड़ दी थी. उनकी हेकड़ी ढीली हो गयी थी. ब्राह्मण पुरोहितवाद के सब से बड़े गढ़ बनारस में ही अब कोई बुनकर-जुलाहा उनको चुनौती दे सकता था. अंग्रेजी राज के आरम्भिक दौर में भारत के गैर-शासक समाज के लोगों को यह अवसर अनुभव हुआ था. बंगाल में राजा राममोहन राय और महाराष्ट्र में जोतिबा फुले ने इसी अवसर का इस्तेमाल किया. मध्यकाल में कबीर ने भी ऐसे अवसर का ही इस्तेमाल किया था. कबीर निर्भय थे और उनका साहस भी अदम्य था, लेकिन सच्चाई है कि राजनीतिक स्थिति भी ऐसी थी कि कबीर अपने को अभिव्यक्त कर सकें. इस अनुकूलता को लाने वाले कारकों का उल्लेख नहीं करना और उन्हें रेखांकित नहीं करना भारी भूल होगी. कारणों के जमाव से ही परिणाम सामने आते हैं.
तुलसी एक भिन्न समय और परिस्थितियों के कवि हैं. उन्होंने जब समझ की आँखें खोली होंगी, तब दिल्ली सल्तनत दौर का खात्मा हो गया था. 1526 में तैमूर और चंगेज के मिले-जुले वंशज बाबर ने लोधी वंश को ख़त्म कर उत्तरी भारत के ह्रदय-स्थल पर कब्ज़ा कर लिया था. ये स्थिरता के दिन नहीं थे, झंझावातों के दिन थे. दिल्ली की बादशाहत बदलती रही थी. शेरशाह सूरी (1540-45) आये, उसके बाद उनके बेटे इस्लाम शाह सूरी का राज आया. इस्लाम शाह सूरी ने हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू) को अपना सेनापति और सलाहकार बनाया. 1556 में पानीपत की दूसरी लड़ाई हुई, जिसमें शेरशाह सूरी द्वारा खदेड़ दिए गए मुगलों ने एक बार फिर जीत हासिल की. अकबर,जो तब बालक ही था, के नेतृत्व में मुगलों ने यह युद्ध लड़ा था. हिंदुस्तानी पक्ष का नेतृत्व हेमचन्द्र बक्काल कर रहा था. कहते हैं घायल अवस्था में हेमू को जब बैरम खान ने अकबर के सामने उपस्थित किया, तब अकबर की राय उसकी जान बख्श देने की थी; लेकिन बैरम खान ने उसका कत्ल किया और उसके कटे हुए सिर को भाले में डाल कर पूरी दिल्ली में घुमाया, ताकि दहशत कायम हो सके. देर-सबेर तुलसी ने यह सब जाना-सुना होगा. इससे समझा जा सकता है कि उनके मानसिक गठन के पार्श्व में क्या कुछ था.
कबीर ने अपेक्षाकृत एक शांत जमाना देखा था. उन्हें हिन्दुओं की हिन्दुआई और तुर्कों की तुरकाई देखने का पर्याप्त अवकाश था. उनके हुनर का कारोबार सुरक्षित था और उनकी माली हालत भी ऐसी थी कि उन्हें किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत नहीं थी. वह मिहनतक़श थे, आर्थिक मामलों में आत्मनिर्भर थे. सांस्कृतिक रूप से कबीर उस भक्ति आंदोलन के उन्नायक थे, जिसने बुद्ध के बाद एक नई सामाजिक क्रांति का आगाज किया था. यह सच्चाई है कि कबीर मुख्यतया विचारक हैं. स्वयं को अभिव्यक्त करने के सिलसिले में वह अनायास कवि हो गए हैं. उन्होंने भाषा या राग-अलंकारों पर कभी तनिक भी ध्यान नहीं दिया. अन्य भक्त कवियों ने भी कोई ध्यान नहीं दिया. उन सबका जोर केवल सामाजिक-परिवर्तन और विमर्श की संभव वैज्ञानिकता पर था. मुख्य रूप से ब्राह्मण धर्म की चुनौतियों से वह जूझ रहे थे, क्योंकि तुर्क मुसलमानों के भारत प्रवेश से पहले से ही शंकराचार्य और दूसरे बौद्ध-विरोधियों द्वारा वेदांत का शाइन-बोर्ड लगा कर वर्णाश्रम व्यवस्था को निरंतर मजबूत किया जा रहा था. इतिहास के कतिपय अध्येताओं का मानना है, तुर्क आक्रमणकारियों के साथ इन वेदान्तिकों की मिली-भगत थी और तुर्कों के साथ इन लोगों ने मिल जुल कर बौद्ध अध्ययन केंद्रों को तहस-नहस कर-करा दिया था. इस अवधारणा को नकार भी दिया जाये, तो इतना तो सच है कि बौद्धों को जड़-मूल से ख़त्म कर दिया गया और उत्तर भारत में मजहब के नाम पर अब दो ही प्रधान धर्म रह गए थे -हिन्दू और मुसलमान.
कारीगरों और दूसरे मिहनकश तबकों का एक बड़ा हिस्सा कई कारणों से इस्लाम की शरण में जा चुका था. लेकिन, जैसा कि पहले बतला चुका हूँ ,वहाँ भी मिथ्या-आचारों की कमी नहीं थी. भक्ति आंदोलन इन सब के विरुद्ध एक आवाज़ बन कर उभरा. इन से जुड़े विचारकों, जिन्हें कालांतर में कवि कहा गया, ने वर्णधर्म के विरुद्ध आवाज बुलंद की. साथ ही इस्लाम के मिथ्याचारों की भी बखिया उधेड़ी. इसका नतीजा निकला कि सामाजिक स्तर पर वर्णधर्म और इस्लाम को दरकिनार करती हुई, एक तीसरी सामाजिक शक्ति उभरी जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास करती थी और समानता की आग्रही थी. ‘जात-पात पूछे नहीं कोई,हरी को भजै सो हरी का होई‘ इस आंदोलन का मुख्य नारा बन गया. यह एक अखिल भारतीय आयोजन बन गया. पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिण के कुछ इलाकों से लेकर सुदूर पूरब के बंगाल तक भक्ति आंदोलन की प्रतिध्वनियां गूंजने लगीं. कबीर इसके मान्य सांस्कृतिक नेता बन गए थे.
सोलहवीं सदी, जो तुलसी का समय था, एक भिन्न जमाना था. भक्ति आंदोलन का समय बहुत पहले समाप्त हो चुका था. आधुनिक आलोचकों ने तुलसी को भक्ति आंदोलन के कवि के रूप में दर्शाया है. यह स्वयं एक पाखंड है. भक्ति आंदोलन को दो धाराओं में विभक्त करने की योजना को हमें तिलांजलि दे देनी चाहिए; क्योंकि इससे कुछ विभ्रम ही विकसित हुए हैं. तुलसी विषयक अध्ययन की बड़ी कमजोरी यही है कि व्यक्ति तुलसी की खोज कम से कम की गयी. एक कवि के रूप में तुलसी कहीं अधिक सतर्क और सक्रिय दीखते हैं. न वह अपनी ‘भाखा‘ के डिक्टेटर हैं, न कि काव्य-परंपरा के. हर मामले में वह परंपरा और अनुशासन को स्वीकारते हैं. वह अवधी जबान के कवि हैं और उनके न दिखने वाले काव्य-गुरु मलिक मुहम्मद जायसी हैं, जिसे कोई भी अनुभव कर सकता है. ‘पद्मावत‘ और ‘रामचरितमानस ‘ के अंतर-संबंधों पर अधिक चर्चा और विमर्श की जरूरत है.
तुलसी अवध के इलाके में जन्म लेते हैं. उनके ज़माने तक अवध राजनीतिक तौर पर मुस्लिम शासकों के जिम्मे पूरी तरह आ चुका था. सामाजिक स्तर पर भी दिन-प्रतिदिन इस्लाम का विस्तार हुआ जा रहा था. कोई बाहर से नहीं आ रहा था. हिन्दुओं के समाज का ही एक हिस्सा धीरे-धीरे इस्लाम और इस्लामी राजनीतिक सत्ता की ओर बढ़ रहा था. श्रमशील तबके के लोग वर्णधर्म के पाखंड और तिरस्कार के मिले-जुले आतंक से मुक्त होने के लिए, तो द्विज समाज के लोग सत्ता के लोभ-लालच में. द्विज घरानों के लोग जब इस्लाम के दायरे में आये, तो इस्लाम का अरबी कबीलापन ख़त्म हुआ. वहाँ नवाबी विकसित होने लगी. नवदीक्षित हिन्दू द्विज मुसलमानों के समाज में असरफ बन गए ,नए ‘इस्लामी विप्र अथवा द्विज‘. इस्लाम में जातिवाद का एक सिलसिला विकसित हुआ और हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था से कहीं अधिक ताकतवर अंदाज में हुआ. हालांकि इसका सिलसिला कबीर के पूर्व ही आरम्भ हो गया था. कबीर जब भी हिन्दुओं के जातिवाद पर चोट करते हैं तो मुसलमानों के जातिवाद पर भी करते हैं. यह सिलसिला तुलसी के ज़माने तक बहुत मजबूत हो गया था. यह अचानक नहीं हुआ था कि मुगल बादशाह अकबर ने राजपूत नीति अपनाई थी. इसकी एक पृष्ठभूमि थी. इसी पृष्ठभूमि पर तुलसी खड़े थे.
मैं पहले ही बता चुका हूँ कि तुलसी की व्यक्तिगत तकलीफें कबीर से कहीं अधिक हैं. कबीर यदि लहरतारा पर ला-वारिस मिले भी हों, तो यह उनका अनुभूत नहीं होगा. अधिक से अधिक इस संबंध में उन्होंने सुना होगा. उनका अनुभूत नीरू-नीमा का वह घर आंगन था, जिस पर उन्होंने किलकारियां ली होंगी. वह बुनकर बने. कमाई करते और खाते थे. उनकी अपनी अस्मिता थी. कबीर ने किसी के आगे कभी हाथ नहीं फैलाया. लेकिन, तुलसी ! उसकी कहानी तो हाय-हाय से भरी है. जन्म के बाद जाने किस कारण उसे चुनिया दासी के सुपुर्द कर दिया गया. वह चुनिया भी पांच साल की कच्ची उम्र में ही तुलसी को छोड़ कर चल बसी. अब यह अनाथ बालक तुलसी क्या करे ? माँ-पिता, गांव-घर या जन्म कुल अथवा जाति का कोई पक्का पता नहीं. न माथे पर किसी की छाया,न हाथ में (कबीर की तरह) कोई हुनर. उसकी पीड़ा का अनुमान ही किया जा सकता है. यदि कबीर की तरह तुलसी कारीगरों के परिवार में पलता,अथवा दासी चुनिया ही असमय नहीं मरी होती, तो तुलसी का व्यक्तित्व कुछ और होता.
गुसाईं परिवार का यह बालक यदि चुनिया के साये में सयाना हुआ होता तो कबीर की तरह उसका एक जाति-निरपेक्ष, वर्णधर्म विरोधी व्यक्तित्व विकसित होना ही अधिक संभव था. लेकिन ‘बाले ते ललात,बिललात द्वार-द्वार दीन‘ की स्थितियों ने उसे मांग कर खाने वाला भिखारी बना दिया. भारतीय समाज में यदि कर्मणा ब्राह्मण बनना असंभव है, तो उतना ही असंभव दलित बनना भी है. गुसाईं वाली चंदन-काठी (सुकुमार देह यष्टि) लेकर तुलसी दलित भी नहीं बन सकते थे. उन्होंने कर्म से ब्राह्मण बनने की कोशिश की. वेद-वेदांगों का अध्ययन किया. रामचरितमानस जैसी काव्यकृति दी. नाना आगम-निगम अर्थात धर्मशास्त्रों का सत-सार रामकथा के माध्यम से रखने की कोशिश की. रामकथा तो उनका आत्मसंघर्ष है, लेकिन रामचरितमानस का जो विचार पक्ष है, वह विप्र समाज के समक्ष तुलसी की विनयपत्रिका है. लगभग वैसी, जैसी आधुनिक ज़माने में विवेकानन्द ने हिन्दू द्विज समाज में लगाई और वह स्वीकार ली गई. तुलसी का जमाना भिन्न था. उनकी दरखास्त ख़ारिज कर दी गई. तुलसी ने भी अपनी वैचारिकी में विप्र और द्विज की श्रेणी बनाई है और दोनों को अन्तर्सम्बद्ध भी किया है. इसके वृत्त पर एक सामूहिक स्वार्थ वाली राजनीति भी विकसित करने का प्रयास किया है. इसी का नाम रामराज है. लेकिन वह स्वयं इस रामराज में जगह पाने में विफल हुए हैं.
(दो)
‘रामचरितमानस ‘निश्चित ही तुलसीदास की उत्कृष्ट कृति है, लेकिन मुझे हमेशा अनुभव हुआ है, इसमें तुलसी ने अपना ह्रदय नहीं, मस्तिष्क उड़ेला है. और काव्य का जुड़ाव यदि ह्रदय से न हो, तो न केवल उसकी उत्कृष्टता, अपितु उसकी मौलिकता भी प्रभावित होती है. रामकथा, जायसी के पद्मावत की तरह उनकी अपनी कथा नहीं है. उसे संस्कृत में कवि वाल्मीकि ने बहुत पहले ही कहा है, इसे दुनिया जानती है. रामचरितमानस के प्रत्येक काण्ड की आरंभिक पंक्तियाँ संस्कृत में है, और इससे यह जानकारी मिलती है कि कवि संस्कृत में पारंगत है. लेकिन नहीं, उन्हें केवल बोध कराना था कि वह जानते हैं. उन्हें तो उस जबान का इस्तेमाल करना था, जो जनता की थी. क्योंकि उन्हें जनता से संवाद करना था. हिंदुत्व की सांस्कृतिक जड़ों को जनता के बीच मजबूत करना था. इसलिए उसकी जबान में वह संवाद करना चाहते थे. इसके कारण वैचारिक, और आप कह सकते हैं, राजनीतिक अधिक थे.
उन्हें कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य की परंपरा में नहीं, बुद्ध और कबीर की तकनीक-परंपरा में आने की जिद थी. बुद्ध ने मागधी का प्रयोग किया था, कबीर घुमक्कड़ थे और उनकी काव्य-भाषा पंचमेल थी, तुलसी ने अवधी को काव्य-भाषा के रूप में अपनाया . लेकिन कुछ ही समय बाद वह भी पंचमेल की तरफ बढे. अभी एक युवा अध्येता पंकज पराशर का तुलसी की भाषा पर एक लेख पढ़ रहा था. शोध पूर्ण वह लेख बतलाता है कि काव्य-भाषा के मामले में वह रूढ़ बिलकुल नहीं थे. यह सही है कि उनकी अवधी जायसी की तरह ताज़ी और कज्जल नहीं, कुछ कृत्रिमता लिए प्रतीत होती है, फिर भी वहाँ बहुत कुछ है, जो केवल वहीं है. कथा वस्तु भले पराई हो, योजना और गठन अपनी ही तरह के हैं. और सब से महत्वपूर्ण हैं, वे बातें, वे विचार जिसे व्यक्त करने के लिए तुलसी ने काव्य का सहारा लिया है.
तुलसी के भीतर बहुत द्वंद्व है, छटपटाहट है, उनका आत्मसंघर्ष भी घनीभूत है. कई तरह के और कई स्तरों पर वह संघर्ष झेल रहे हैं. उन्हें हर जगह अपनी मुक्ति की चिंता अधिक दीखती है. वह एक ठौर अथवा जगह पाना चाहते हैं. कबीर बनी-बनाई दुनिया को नकारते हैं. उसे सारहीन बताते है. वर्ण धर्म, जाति, पुरोहिती मिथ्याचार और आडम्बर उनके लिए ढकोसले हैं. उन सब को कबीर खुली चुनौती देते हैं. तमाम शास्त्रों-पोथियों और उन्हें पढ़ने वाले पंडित व मुल्लों को कबीर गँवार और मूर्ख मानते हैं. इस पूरे कायनात से वह बाहर होना चाहते हैं. वह परंपरा से स्थापित गाँव या शहर से अलग मवास पर अपने होने की सूचना देते हैं. (मैं तो बसौं सहर के बाहर मेरी पुरी मवास में) लेकिन तुलसी इससे ठीक विपरीत हैं. उनका रामचरितमानस वेद-पुराण, आगम-निगम परिशोधित है. तमाम धर्म-शास्त्रों की कसौटी पर अपने मानस के खरा होने की वह गारंटी देते हैं.
और इस तरह कह सकते हैं कि वह कबीर की धारा के सीधे विरुद्ध हैं. वह जायसी की तरह शुद्ध साहित्य की तलाश में भी नहीं हैं. उनकी भी राजनीति है, और कुछ अर्थों में गहरी है. वह अपनी राजनीति की प्रस्तावना के लिए साहित्य का सहारा भी लेते हैं. यह अकारण नहीं है कि हिंदी के द्विज -मार्क्सवादी लेखकों को अपने प्रचार साहित्य के लिए तुलसी एक आदर्श के रूप में दीखते हैं.
(राम-दरबार) |
मानस के तुलसी वह नहीं लिखते,जो वह देखते हैं, बल्कि, वह लिखते हैं ,जो उन्होंने पढ़ा है. वह कागद लेखी की बात कहने के लिए आये, आँखिन देखि की नहीं. जो उन्होंने देखा, उसे नजरंदाज किया. पहले दौर में, उन्होंने अपने समकालीन राजकाज की, सामाजिक मिथ्याचारों की बहुत बच कर आलोचना की है. धर्मसत्ता और राजसत्ता का सम्मान करना कोई उन से सीखे. वह बहुत चौकन्ने हैं और उनकी बात के गहरे अर्थ हैं. मानस में चित्रित उनका रामदरबार बहुत हद तक मुगल दरबार का प्रतिरूप बन कर आता है. कबीर का राम विकेन्द्रित है. कण-कण में है. हर सांसों की सांस में है. लेकिन तुलसी का राम ख़ूबसूरत और भव्य किले में रहता है. उसका कुल-परिवार-गोत्र है. वे द्विज हितकारी हैं. सृष्टि की सम्पूर्ण शक्ति उसके पास केंद्रित है. भारतीय परंपरा में इतने शक्ति-केंद्रित राजा और ईश्वर की योजना नहीं है. लोकायत दर्शन हमारे यहां बहुत समृद्ध था. तमाम बौद्ध ,जैन और यहाँ तक कि वेदान्तिकों ने ऐसे शक्ति-संपन्न ईश्वर की बात कभी नहीं सोची नहीं थी. स्पष्ट तौर से, अत्यंत शक्ति-संपन्न ईश्वर का विचार इस्लाम से आया. इस्लाम का मूल धर्मशास्त्र ‘कुरान‘ है. उसकी उद्घोषणा है – ‘ला इलाह इननल्लाह‘ नहीं है अल्ला, अल्ला के सिवा.
यह कहना अजीब लगेगा ,लेकिन सच है कि तुलसीदास ने कुरान में प्रस्तावित ईश्वर की सर्वशक्तिमानता को स्वीकार लिया था. इस तरह न केवल मुगल दरबार बल्कि इस्लामिक ईश्वरीय ढाँचे का भी उन्होंने हिन्दूकरण किया. अल्ला की सर्वशक्तिमानता से उन्होंने अपने राम को सुसज्जित किया. उनका यह भारतीयकरण दरअसल कुरान की वैचारिकी का द्विजीकरण था. अपने नव-हिंदुत्व की मजबूती के लिए इसी तरह आधुनिक हिन्दू संस्था आरएसएस भी इस्लाम की वैचारिकी का इस्तेमाल करता रहा है.
हिंदुत्व की अवधारणा के प्रथम प्रस्तावक सावरकर जब अपनी वैचारिकी ‘हिन्दुओं का सैन्यीकरण और राजनीति का हिन्दूकरण‘ की प्रस्तावना करते हैं तब उनका आदर्श इस्लामिक खलीफा-तंत्र ही होता है. इस्लाम में तो पैगम्बर और खलीफा भर ही हथियारबंद रह सकते हैं, उनका ईश्वर निर्गुण न सही, निराकार अवश्य है. तुलसी ने अपने आराध्य (ईश्वर) और राजा (बादशाह) के द्वैत को ख़त्म कर उसे एकमेव कर दिया है. वह अपने आराध्य ईश्वर को हथियारबंद देखने के आकांक्षी हैं. एक किंवदंती है कि तुलसी ने कृष्ण की उपासना की शर्त ही रखी थी कि मोर-मुरली की जगह धनुष-बाण धारण करो, तब उपासना करूँगा. (कहाँ कहौं छवि आपकी, भले बने हो नाथ/तुलसी मस्तक तब नवै, धनुष-बाण हौं हाथ.)
मुगल काल का सामाजिक तेवर साफ़ तौर से सल्तनत काल से भिन्न था. सल्तनत काल में ही उच्च वर्गीय हिन्दुओं का इस्लाम में प्रवेश आरम्भ हो गया था. ब्राह्मण, कायस्थ और कुछ दूसरे लोग इस्लाम की ओर तेजी से बढ़ने लगे थे. दरअसल उन्हें राजकाज में हिस्सेदारी चाहिए थी. (दूसरों के श्रम पर जीने वाला कोई व्यक्ति या समाज बहुत दिनों तक अपनी आज़ादी सुरक्षित नहीं रख सकता. जीने भर के लिए उसे सत्ता का गुलाम होना ही होता है.) यह हिस्सेदारी मिली भी. उनके इस्लाम धर्म में शामिल होने से मुसलमानों में भी ज़ात-पात की गैर-बराबरी तेजी से उभरने लगी. सैय्यद, शेख वैसे ही निम्न वर्गीय मुसलमानों से नफरत करते थे, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय निम्न-वर्गीय हिन्दुओं से. यह मर्ज लगातार बढ़ रहा था. लेकिन अकबर के ज़माने तक, जिसमें तुलसीदास थे, इस्लाम का पूरी तरह वर्णीकरण हो चुका था.
असरफ, अरजाल और अजलाफ की श्रेणियां बन चुकी थी. अछूत मुसलमानों का भी एक तबका बन चुका था. अकबर की खासियत थी कि उसने इस व्यवस्था को अपने दरबार का समर्थन दिया, जो इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों के विरुद्ध था, लेकिन अकबर की उस समन्वित हिन्दू-मुस्लिम अथवा गंगा-जमुनी संस्कृति और राजनीति के लिए अनुकूल था. इस्लाम के वर्गीकरण ने उसका इतना हिन्दूकरण कर दिया कि द्विज हिन्दूवाद को अब किसी वैचारिक चुनौती का अंदेशा नहीं रह गया था. उस ज़माने से लेकर आज तक तथाकथित सेकुलर राजनीति के दो ढांचे रहे हैं.
एक ढांचा कबीर का है जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के मिथ्याचारों, बाह्याडम्बरों और पुरोहिती कारगुजारियों का विरोध है. यह मिहनतक़श हिन्दू-मुसलमानों की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता पर जोर देता है. दूसरा ढांचा हिन्दुओं और मुसलमानों के वर्चस्व प्राप्त तबके की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता पर जोर देता है. यही गंगा-जमुनी संस्कृति या साझा संस्कृति है. पंडितवाद और मुल्लावाद की एकता की संस्कृति है. (दुर्भाग्य से हमारी आधुनिक सेकुलर राजनीति ने भी इसे ही अपना लिया. )
अकबर ने अपने बहुश्रुत उदार काल में इसे समृद्ध किया. (दो पीढ़ियों के बाद शाहजहां के बेटे दारा शिकोह ने भी इस धारा को आगे किया.) सल्तनत-काल तक राजपूतों का दिल्ली दरबार से समझौता नहीं हुआ था. मुगलों की मुख्य समस्या अफगान-पठान ताकत थी, जिसका नेता कभी शेरशाह हुआ करता था. मुगलों, खास कर अकबर ने महसूस किया, यदि भारत में रहना है, तो पठानों या राजपूतों में एक से समझौता करना ही होगा. पठानों को मुगलों ने अपदस्थ किया था,उनसे सत्ता छीनी थी, उनसे समझौते का प्रश्न ही नहीं था. वे तो मुगलों को खदेड़ने के लिए व्याकुल थे.
अकबर ने राजपूतों पर ध्यान-केंद्रित किया और अंततः उसके एक हिस्से से समझौता करने में उसे सफलता मिली. राजपूतों की ताकत और तलवार के कारण ही मुगल यहाँ जम सके. तलवार या हथियार की इस ताकत को तुलसी समझते थे. अकबर की राजपूत केंद्रित द्विज राजनीति को भी तुलसी समझते थे. तुलसीदास ने अपने मानस में मुगल-दरबार की इस द्विज-वादी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति और विचारणा की मौन सराहना की है, प्रच्छन्न समर्थन किया है. तुलसी ने भूल कर भी अपने समय की राजसत्ता या धर्मसत्ता का विरोध नहीं किया है.
कुल मिला कर उनकी कोशिश समाज की मुख्यधारा में आने की रही. अपने व्यक्ति रूप को ही वह बिलकुल अलग-थलग और असहाय समझ रहे थे. उनकी कोशिश और आकांक्षा होती है कि उनकी विद्वता और योग्यता के बूते उन्हें द्विजत्व हासिल हो जाय. लेकिन इसमें उन्हें निराशा हाथ लगती है. तमाम किस्से-कहानियां और किंवदंतियां यही है कि काशी के ब्राह्मण गुसाईं तुलसी की बार-बार अवमानना करते हैं. स्वयं के ब्राह्मणीकरण का उनका यह आत्मसंघर्ष वशिष्ठ और विश्वामित्र की उस पौराणिक कथा का स्मरण कराती है, जिसमे राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के विश्वामित्र ने अनवरत प्रयत्न किये और विफल हुए. एक गुसाईं का ब्राह्मण होना इतना आसान नहीं था.
(तीन)
रामचरितमानस में तुलसी का वर्णधर्म समर्थन, जिसे अनेक लोगों ने उनका ब्राह्मणवाद कहा है, बहुत स्पष्ट है. मानस में अनेक चीजें हैं, जिनमें एक तुलसी का विचारपक्ष है. उनके मुख्य सामाजिक-राजनीतिक विचार उत्तरकाण्ड के अंतर्गत प्रकट हुए हैं, जब वह राम के अयोध्या लौटने पर उनके राजकाज सँभालने और राजकाज में उनकी प्राथमिकताओं की चर्चा करते हैं. फिर कलियुग, अर्थात तुलसी के समकाल का वर्णन है. यदि यह प्रक्षिप्त नहीं है, तो आलोचकों को इसकी आलोचना का पूरा अधिकार मिलना ही चाहिए. इसलिए कि यह न केवल मनुष्यता-विरोधी अपितु, हमारी काव्य-परंपरा के भी विरुद्ध है, जिस संस्कृत-साहित्य की वेदी पर तुलसी अपने होने की सूचना देते हैं, उसने काव्य को ‘सत्य-शिव और सुन्दर‘ की मर्यादा से संवारा है. और तो और, वाल्मीकि कृत रामायण क्रौंच-वध की संवेदना से आरम्भ होता है और तिरस्कृत लव-कुश की मान्यता-मर्यादा स्थापित कर समाप्त होता है. तुलसी उत्तरकाण्ड में अपने समय के जिस पतन पर कपाल ठोंक रहे हैं, वह सचमुच वास्तविक है क्या ? कहने का तात्पर्य कि क्या सचमुच निम्न जातियों में आये परिवर्तन से क्षुब्ध हैं? “बादहिं शूद्र द्विजन्ह सन हम तुमते कछु घाटी”
पर भला तुलसी दुखी क्यों हो रहे हैं ? द्विजों के बीच उन्हें ही कौन-सा सम्मान मिला है ? यह द्विजवाद जाति (जन्म-मूल ) को देखता है, विद्वता और ज्ञान को नहीं. तुलसी बार-बार इसके ही तो शिकार हुए हैं. काशी के पंडितों के बीच उनकी निरंतर अवहेलना और अनादर हुआ है, क्योंकि उनकी गुसाईं जाति का हिन्दू समाज में कोई सम्मानित स्थान नहीं है. न खेती, न किसानी, न व्यापार, न पुरोहिती. भीख मांगना कोई जीविका हुई. शूद्र से भी नीचे का काम. (अधम चाकरी,भीख निदान). मानस में कौन से तुलसी हैं. कलियुग के अधर्म और रामराज के द्विज धर्म की एक रस्साकशी है.
तुलसी के पूर्व कबीर और रैदास ने भी अपने-अपने यूटोपिया की प्रस्तावना की थी. कबीर का यूटोपिया अमरदेस है और रैदास का बेगमपुरा. दोनों जातिधर्म के भेद को इंकार करते हैं. कबीर के अमरदेस का वर्णन देखिये –
जाति-वर्ण मुक्त अमरदेस जहाँ ब्राह्मण छत्री सूद्र और वैस्य का कोई भेद नहीं है शेख,सैय्यद, पठान, मोगल का भी भेद नहीं है. कोई क्लेश नहीं है. प्रकाश पूर्ण स्थिति है. उसी देस की ओर चलने का संकेत कबीर कर रहे हैं.
लेकिन तुलसी का रामराज तुलसी के शब्दों में –
(उत्तरकाण्ड )
राम के सत्तासीन होते ही तीनों लोकों में हर्ष फ़ैल गया. अब कोई किसी का बैरी नहीं था,और राम के शासन-प्रभाव से गैर बराबरी ख़त्म हो गई.
लेकिन अगले ही कदम पर –
(उत्तरकाण्ड)
लोग वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा के अनुसार अपने-अपने वर्ण (जातिगत पेशे ) का पालन कर रहे हैं और वेद की रीति-नीति के अनुसार चल रहे हैं. इससे लोग सुखी हैं. न भय है ,न शोक.
रामचरितमानस में रामराज का विस्तृत वर्णन है. सभी तरह के सुख हैं. सभी उदार हैं और परोपकारी भी (सब उदार सब पर उपकारी) लेकिन सभी ब्राह्मणों की चरणसेवा में लगे हैं (विप्र चरण सेवक नर नारी). रामराज का विस्तृत वर्णन तुलसीदास करते हैं. राम की दिनचर्या से लेकर पूरे घराने का हाल. मानो आँखों देखा हाल हो. एक कवि और वर्णनकर्ता के रूप में उन्हें महारत हासिल है. सरयू के तटों और भौतिक सम्पदा की अभिराम छटा है. लेकिन दार्शनिक पृष्ठभूमि मनुस्मृति की है. रामराज का संविधान मनुस्मृति है. सब कुछ का केंद्र वर्ण धर्म है.
संक्षेप में इस धर्म की खासियत है कि यहाँ पेशा चुनने का अधिकार व्यक्ति को नहीं है, जैसे समाजवाद में धन रखने का अधिकार व्यक्ति को नहीं होता. वर्णधर्म में जबरदस्त श्रेणी भेद है. ब्राह्मणों की सेवा में सब को, क्षत्रिय की सेवा में वैश्य और शूद्रों को और वैश्य की सेवा में शूद्र को रहना है. शूद्रों को शेष तीनों वर्णों की सेवा में रहना है. उसे न ज्ञान हासिल करने की स्वतंत्रता है, न धन रखने की और न ही सुख की कोई आकांक्षा उसे रखनी है. इस तरह ऐसे राज में सुख होगा वह द्विज-केंद्रित होगा. रामचंद्र को द्विज हितकारी ही कहा गया है. आधुनिक व्याख्या के अनुसार समाजवाद मिहनतक़श तबकों का राज है,उनकी शासन-प्रणाली है ,जबकि रामराज शारीरिक श्रम को हेय मानने वालों, दूसरे के श्रम पर पलने वालों अर्थात शोहदों का राज है.
अकबर का राज भी बहुत कुछ ऐसा ही था. मिहनतक़श लोग परेशान-हाल थे. मानस में कलिकाल वर्णन नहीं होता, केवल रामराज वर्णन होता, तो कोई बड़ा सवाल नहीं उठता. क्योंकि तुलसी ने यह कह कर कि लोग वेद सम्मत मार्ग पर अपने-अपने वर्ण धर्म के अनुसार चल रहे हैं, बात समेट ली है. लेकिन कलिकाल वर्णन में तुलसी कि झुंझलाहट और कुंठा नजर आती है, जो स्वाभाविक नहीं लगता. तुलसी का द्विजत्व वहां बहुत लाउड है, उनकी निम्न तबकों से घृणा छुप नहीं पाती. इसकी अस्वाभाविकता इसलिए भी दिखती है कि तुलसी अपने काव्य में वाल्मीकि रामायण के शम्बूक-वध प्रसंग को नहीं लेते. उस पर चर्चा भी नहीं करते. उत्तरकाण्ड में सीता को वनवास देने का प्रसंग भी नहीं है. रामचरितमानस की सीता अपने पति राम और अपने बच्चो लव-कुश के साथ बहुत मग्न स्थिति में है. ( दुइ सूत सुन्दर सीता जाए, लव-कुश वेद पुरानन्ह गाए.)
ऐसे तुलसीदास कलिकाल वर्णन में इतने कटु कैसे हो जाते हैं ? यह एक रहस्य जैसा अनुभव होता है. इसीलिए इसके प्रक्षिप्त होने का अनुमान करता हूँ.
रामचरितमानस की तुलना में कवितावली एक लघु काव्य-ग्रन्थ है, लेकिन यह इतना ठोस और महत्वपूर्ण है कि इसे मैं तुलसीदास की महत्वपूर्ण कृति कहना चाहूँगा. रामचरितमानस की तुलना में, तुलसी यहाँ अधिक स्वतंत्र स्थिति में अवस्थित हैं, विशद रूप में भी. अपने गठन में यह भी सात कांडों में है, और वही सब काण्ड हैं ,जो मानस में हैं. जैसे बाल कांड से लेकर उत्तरकाण्ड तक. राम-कथा तो यहाँ भी है, लेकिन कोई भी देख सकता है कि वह अवलम्ब के सिवा कुछ और नहीं हैं. तुलसी अपनी और समाज की पीड़ा यहाँ रखते हैं. यह पीड़ा व्यक्तिगत भी है,और सामाजिक,आर्थिक व राजनीतिक भी.
तुलसी ने इसे मानस के बाद लिखा है. वह वृद्ध हो चुके हैं, यह इसके शब्द-शब्द से प्रतिध्वनित होता है. उनके पास अब एक साहस है. जिंदगी भर हाथ पसारते और द्वार-द्वार मांग कर खाते तुलसी अब किसी के मोहताज नहीं हैं. संभवतः बुढ़ापे में उन्हें कहीं महंथी मिल गयी थी. संभव है इससे उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हो गयी हो, यानी मांग कर खाने की स्थिति नहीं रही. इस आत्मनिर्भरता और इससे उपलब्ध मुक्तावस्था का उपयोग उन्होंने भोग-विलास में नहीं किया. वह रचनाकार के रूप में सक्रिय रहे. अब उन्हें अपनी रचनाओं पर न विद्वानों की स्वीकृति चाहिए थी और न ही जनता का अनुमोदन चाहिए था. मानस उन्होंने एक भीड़ के लिए लिखा था, उस भीड़ के लिए जिस में शामिल होने के लिए वह स्वयं व्याकुल थे. लेकिन अब वह भविष्य के लिए लिख रहे थे. उन्हें अब किसी की परवाह नहीं थी. न पुरोहितों की,न पंडितों की. इसलिए कवितावली के तुलसी में कबीर की तरह का फक्क़ड़पना और वैराग्य दीखता है. वह अधिक मस्त हैं. लेकिन मुक्त भी हैं. किसी तरह का कोई अवगुंठन उनके पास अब नहीं है.
अब देखिये कवितावली का बालकाण्ड –
पूरे वर्णन में भले किसी सामान्य मन को दशरथ और बालक राम दिखे, लेकिन जो कोई गहरे देखेगा इस तस्वीर में बहुत आसानी से तुलसी को देख सकता है. वृद्ध हुए तुलसी के मन में गृहस्थ जीवन की अभिलाषा स्वप्न की तरह उभरती है. यदि जो रतना ने विद्रोह नहीं किया होता, अपनी गृहस्ती नहीं टूटी होती, तो उसके घर भी एक बालक होता, जिसे गोद में भर कर वह खुद खेल रहे होते. कितनी पीड़ा है इन पंक्तियों में-
तुलसी जल्दी में हैं. उन्हें बहुत कुछ कहना है. इसलिए अरण्यकाण्ड और किष्किन्धाकाण्ड को उन्होंने एक-एक चौपाई में समेट दिया है. सुंदरकांड में वह थोड़ा जमे हैं, क्योंकि उन्हें लंका जलाने में किसी सुख की अनुभूति हो रही है. यही स्थिति लंकाकाण्ड में भी है. लेकिन कवितावली का मकसद संभवतः उत्तरकाण्ड है. यहीं तुलसी खुलते हैं. जैसा कि मैंने रामचरितमानस के संबंध में पहले कहा है कि उत्तरकाण्ड ही उसका केंद्र है. क्योंकि तुलसी के विचार वही हैं. कवितावली तो मानो उत्तरकाण्ड लिखने के लिए ही लिखी गई थी. शेष सभी काण्ड केवल उसकी भूमिका भर है.
लेकिन कवितावली का उत्तरकाण्ड रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड से, अपने चरित्र में सर्वथा भिन्न है. रामचरितमानस में तुलसी वर्ण धर्म का पक्ष लेते हैं, उसके समर्थन में दीखते हैं. लेकिन कवितावली की स्थिति बिलकुल विपरीत और अलग है. यहाँ तुलसी बहुत ईमानदारी और स्पष्टता से अपने समय की सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का वर्णन करते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वह स्वयं नैरेटर बनते हैं, किसी काक-भुशुण्डि का आश्रय नहीं लेते.
उत्तरकाण्ड के आरंभिक चौपाई के इस हिस्से को देखें –
इन पंक्तियों में कायर, क्रूर और कपूत कौन हैं ? और किस पर गरीबनेवाज अर्थात राम नवाज रहे हैं ? तुलसी ने अपने राम को गरीबनेवाज कहा है. इसके भी कुछ अर्थ हैं क्या ?
कायर, क्रूर और कपूत वह भीड़ है, जिसे ध्यान में रख कर तुलसी ने रामचरितमानस का उत्तरकाण्ड लिखा था. गाल बजने वाले उन पंडितों की भीड़, जिसे कबीर ने पांडे कह कर उनके ज्ञान को चुनौती दी थी. वह भीड़ जिस ने तुलसी का जीना हराम किया हुआ था. जो अपने देश-समाज की स्थितियों से विमुख हो, घरों में घुसे थे. इन्हें तुलसी और क्या कह सकते थे ! लेकिन उनके गरीबनेवाज इतने उदार हैं कि उन पर भी मेहरबान हैं. वह स्वयं को भी नहीं छोड़ते.
नाम तो तुलसी है और इस ने दास का चोला धारण कर लिया है, लेकिन यह भांग से भी बुरा है, ऐसे दगाबाज को भी गरीबनेवाज राम ने स्वीकार लिया है.
मानस के द्विज-हितकारी राम अब दीनबंधु हैं,गरीबों के मित्र. अब वह समाज के वंचित तबकों की सुधि लेने वाले हैं. सीधे तुलसीदास को ही देखना बेहतर होगा –
केवट,अहल्या, बन्दर-भालू जैसे वन्यप्राणियों से लेकर मुस्टण्डे (धींग धमधूसर) तुलसी तक को अपनाने वाले राम सचमुच गरीबों के मित्र, कमजोरों के रक्षक और दया के भंडार हैं. धम-धूसर का तुलसी के मन में क्या अर्थ था, और उपरोक्त पंक्तियों में इसका सही-सही अर्थ क्या होगा इसे भाषाविदों के लिए छोड़ता हूँ. मैंने भोजपुरी में इस शब्द को सुना है, और वहां इसका अर्थ बिना परिश्रम किये खाकर मुटियाये लोगों से है. तुलसी की विनोदप्रियता अपने लिए इस शब्द का चुनाव करती है.
तुलसी अपनी याचकता (भीख मांगने के धंधे) से कितनी नफरत करते हैं, उसके भी चिह्न यहाँ हैं. एक जगह वह लिखते हैं कि राम के सिवा किसी से कुछ मत मांगो. एक वही हैं, जिनके प्रभाव से याचकता भस्मीभूत हो सकती ,जिससे यह दुनिया जल रही है
इस पंक्ति में कवि की जो पीड़ा घनीभूत है, उसे समझना बहुत आसान नहीं है. बालपन से लेकर हाल तक तुलसी द्वार-द्वार भीख मांगते रहे हैं. उनकी पीड़ा कोई भीख मांगने वाला ही समझ सकता है. प्रतिदिन पेट की ज्वाला बुझाने के लिए अपने आत्मसम्मान को कई-कई दफा मारना कितना कठिन होगा, इसे अनुभव करना आसान नहीं है. तुलसी इतने परिपक्व और मन से मजबूत हैं कि अपनी आरंभिक स्थितियों को सार्वजनिक करने में उन्हें कोई संकोच नहीं है. वह अपनी स्थिति जानते हैं –
जाति, सुजाति, कुजाति सबके घर के टुकड़े इस तुलसी ने अपनी भूख मिटाने के लिए खाए हैं. इसे कौन नहीं जानता, दुनिया जानती है.
प्रश्न उठता है, तुलसी अपनी कवितावली में इतने मुखर क्यों हैं ? लगता नहीं, वे राम की कथा सुना रहे हैं. पूरी कवितावली तुलसी की आत्मकथा है. अपनी कहानी के जिस पक्ष को रामचरितमानस में उन्होंने प्रच्छन्न रूप में कहने की कोशिश की है, कवितावली में वह स्पष्ट तौर पर कहते हैं. आधुनिक हिंदी कवि निराला की ‘सरोज-स्मृति‘ और तुलसी की ‘कवितावली’ में बहुत कुछ साम्य है.
कवितावली के उत्तरकाण्ड में भय और पीड़ा से पगे तुलसी निरंतर अकेले भी होते गए हैं. कुछ ऐसा ही अकेलापन हमारे ज़माने के महात्मा गाँधी ने 1946-47 में अनुभव किया था, और उन्हें तब रवीन्द्रनाथ टैगोर की लगभग ऐसी ही वेदना की कविता ‘ एकला चलो रे‘ प्यारी लगने लगी थी. नैराश्य में डूबी और संकल्प में पगी यह कविता गाँधी का आखिरी वक़्त में प्रिय भजन बन गया था. उनकी कोई नहीं सुन रहा था. कांग्रेस के बड़े नेता राजकाज सँभालने में लगे थे और उनकी प्यारी जनता सांप्रदायिक कलह की घनीभूत हिंसा में त्राहि-त्राहि कर रही थी. गाँधी के पास भी राम (यानी खुद की सत्ता) के सिवा कुछ नहीं था.
यही हाल तुलसी का था. इस अकेले में वह आत्मालाप करते हैं. स्वयं को ही सम्बोधित करते हैं कि राम के सिवा तेरे पास कोई नहीं है. जरा देखिये कि तुलसी में यह भावना क्यों आती है – “करूँ संग सुसील सुसन्तन सों, तजि क्रूर,कुसंग,कुसाथहि रे”. पूरे पद की छटा, भाषा, छंद और अनुप्रास की दृष्टि से जो है, वह अपनी जगह है, लेकिन तुलसी यह क्या कहते हैं कि सुशिल और सुसंत लोगों का संग करो. क्रूर, कुसंग, कुसाथ को तजो, संत तो हैं, लेकिन उन्हें सुसंत चाहिए. संतों का वह वर्गीकरण करते हैं. अब तक वह जिनके साथ थे वह क्रूर थे, वह कुसंग नहीं, कुसंग था, कुसाथ था. ये भाव तुलसी में क्यों उभर रहे हैं ?
इस बेटा-बीवी, सखा, परिवार रूपी कुसमाज में क्या है ? सब का मोह त्यागो और संतों के समाज में विराजमान होओ. मानव शरीर मिला है, इस पर विचार करो. गँवार बने, लालची कुत्ते की तरह इधर-उधर क्या डोलते हो. कोसलराज को भजो.
कोसलराज का अर्थ क्या ? क्या इसे हम केवल राजा राम मान लें ? इस का भावार्थ कोसल की राजनीति भी तो हो सकती है. तुलसी कोसल की राजनीति के मुखर हिस्सा बनना तो नहीं चाहते ? और चाहते हैं तो क्यों ? तुलसी की आत्म-भर्त्सना चलती रहती है. उन्हें एहसास है कि अब तक की जिंदगी का उन्होंने सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग किया है, विनयपत्रिका का प्रसिद्ध गीत ‘अब लौं नसैनी,अब न नसैहों‘ इसी मनःस्थिति से उपजी प्रतीत होती है. उनका मन आकुल भी है और व्याकुल भी. वह मानस की रचना से भी संतुष्टि का अनुभव नहीं करते. इन सब के बीच उन्हें अपने जीवन संघर्ष की बार-बार याद आती है –
दुनिया की कथा कहनी आसान होती है, अपनी कथा कहनी उतनी ही मुश्किल. तुलसी ने अपनी स्थिति साफ़-साफ़ बतलायी है. माता-पिता ने जन्मते ही त्याग दिया, फेंक दिया. जिसे आप ईश्वर-विधाता कहते हो, उसने भी अपनी कुंडली में मेरे लिए कुछ भलाई की बात नहीं लिखी थी. मैं नीच निरादृत रोटी के टुकड़ों के लिए कुत्तों से जूझता रहा. और यह सब झेलते हुए रघुनाथ की शरण में आया हूँ.
इससे अधिक वह क्या कह सकते थे. जरा देखिये, क्या हालत है कवि की. कूकर-टूकन लागि ललाई. आधुनिक हिंदी कवि निराला की भिक्षुक कविता में ‘चाट रहे जूठी पत्तल वे कभी सड़क पर पड़े हुए, और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए‘ से कितना दृश्य-साम्य है. लेकिन मुश्किल यहां है कि कविता का नहीं, तुलसी के जीवन का सत्य है यह. तुलसी और नीचे उतरते हैं. ‘सब अंग हीन, सब साधनविहीन, मन वचन मलिन, हीन कुल करतूति हौ.‘ अर्थात वह देह से दुर्बल, साधनहीन, हिम्मतहीन और हीन अथवा नीच कुल के हैं.
तुलसी के शब्दों में सुनने-देखने का अलग ही अर्थ होगा. इसलिए उन्हें ही उद्धृत करना चाहूंगा –
इसी पद में आगे ‘नामु राम ! रावरो सयानो किधौं बावरो‘ कहते हैं. तुलसी का जन्मनाम राम ही था- रामबोला. अपने इष्ट ईश्वर-आराध्य को तुलसी इस तरह अपनी ओर खींचते हैं और प्रयास में स्वयं उसकी ओर अग्रसर होते हैं.
कवितावली के तुलसी और उनके राम का निरंतर सामान्यीकरण हो रहा है. तुलसी सतह से ऊपर उठते हैं और राम आसमान से सतह की ओर उतरते हैं. एक दुर्बल मनुष्य का दैवीकरण और एक देव् का मानवीकरण हो रहा है. इसके राजनीतिक अर्थ भी हैं. तुलसी का राम वाल्मीकि का राम नहीं है. कुछ भिन्न है. वह तुलसीस हैं, और तुलसी के समय की मर्यादा से बंधे हैं. वह शम्बूक वध नहीं करते, शबरी के संग भोजन करते हैं, क्योंकि वह गरीबनेवाज हैं –
जब उनके राम गरीबनेवाज हो चुके होते हैं, तब वह अपने ज़माने, खास कर गरीबों की स्थितियों से उन्हें अवगत कराते हैं –
बड़वाग्नि, अर्थात समंदर में उठने वाली भयंकर आग से भी बड़ी आग पेट की आग है, और देस की हालत यह है कि सब लोग केवल इसके लिए जी रहे हैं. पूरे समाज की स्थिति यही है कि सब के सब सारे कर्म-कुकर्म केवल पेट की आग बुझाने के लिए कर रहे हैं. लोग इतने विवश हैं कि पेट की ज्वाला, यानि भूख मिटाने के लिए बेटे बेटियों को भी बेच रहे हैं.
रामचरितमानस के तुलसी स्पष्ट तौर पर द्विज-हितकारी हैं, उनके ही लिए चिंतित हैं. शेष जनता से उनका कोई अनुराग या उनके प्रति कोई संवेदना मुश्किल से ही मिल सकती है. मिलती भी है तो केवल उन लोगों के लिए जो वर्णधर्म में यकीन रखते हैं और तदनुसार अपना जीवन चला रहे होते हैं. लेकिन अब तुलसी किसानों, मजदूरों और दूसरे कमजोर तबकों के लिए चिंतित हैं. उन्हें फिर देखें –
तुलसी को एहसास है कि वह क्या कर रहे हैं. रामचरितमानस में, जो दुनिया उन्होंने खड़ी की थी, वर्णधर्म को लेकर, विचारों का जो आयाम निर्मित किया था, उसे अपनी कवितावली में स्वयं ही ध्वस्त भी कर देते हैं. प्रश्न उठता है, अपनी ही खड़ी की हुई दुनिया से उन्होंने विद्रोह क्यों किया ? वेद-पुराण, निगम-आगम को शोध कर मानस का जो अपना तथाकथित अमृतकलश, जो उन्होंने निर्मित किया था, उसे अपने ही ख़ारिज क्यों किया ? उन्होंने द्विज-हितकारी राम को दीनबंधु और गरीबनेवाज क्यों बना दिया ? यही नहीं अपनी भगति के जोर से अपने राम को इसके लिए राजी भी कर लिया. कितनी बड़ी एक मौन-क्रांति तुलसी के ‘घर‘ में हो जाती है.
आधुनिक रूसी-साहित्य के विश्व प्रसिद्ध किस्सागो हैं चेखब. उनकी एक कहानी है ‘दुलहन‘. रईस परिवार की एक युवा कन्या नाद्या, जिसकी मंगनी हो चुकी है, अपनी घरेलू नौकरानी के बेटे साशा, जो मास्को में पढाई करता है, के प्रभाव में आकर अचानक गृह त्याग कर देती है. कुछ-कुछ वैसा ही अचानक का विद्रोह तुलसी में दीखता है. रामचरितमानस को अंततः काशी के पंडित समाज ने मान्यता दे दी थी और गुसाईं तुलसीदास इज्जत की जिंदगी जीने लगे थे. उनके प्रशंसकों की एक दुनिया भी बन गयी थी. ऐसे में, लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता उन्हें होनी चाहिए थी, वह जानते हैं कि लोग उनका कुल-खानदान खंगालेंगे और उनके बारे में अनाप-शनाप कहेंगे. लेकिन तुलसी मगन हैं, उनका हाल उनकी ही जुबान में –
ऐसा प्रतीत होता है, कवि गुस्से में हैं. मानस रचना के दौर में अपने द्विजीकरण की जो दरख्वास्त उन्होंने विप्र-समाज के पास दाखिल की थी, मानो उसे अचानक उन्होंने वापस ले ली है. अब उनकी कोई जाति नहीं है, न किसी दूसरे की जाति की उन्हें कोई परवाह है- ‘मेरी न जाति-पाँति ,न चहों काहू की जाति-पाँति ‘
आत्मनिर्भरता किसी को कितना संवारती है, देखिए तुलसी का तेवर –
साधु हूँ, असाधु हूँ, भला हूँ, बुरा हूँ, मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है.. अब क्या मैं किसी के दरवाजे पर खड़ा हूँ ? जो हूँ सो बस राम का हूँ. कितनी तरह की बातें होती हैं. कोई दगाबाज कहता है, कोई कुसाज. सब की बातें सुनता रहता है तुलसी, फिर भी अब ह्रदय में कोई ऊब नहीं होती, क्लेश नहीं होता.
परिवर्तन का यह कैसा रूप है कि जो तुलसी वर्णाश्रम के बिछौने पर बैठे थे,अब राम-भगति की भूमि पर विनम्रता से दूब की तरह पसरे हैं. यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि कवितावली में उस रामराज का कोई वर्णन नहीं है, जिसे लेकर रामचरितमानस की खूब चर्चा होती है. यहां राम की महिमा खूब है, उनके सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की. लेकिन राजा राम की यहाँ बहुत चर्चा नहीं है. आश्चर्य है हिंदी साहित्य के विद्वानों ने रामचरितमानस और कवितावली के तुलसी के अंतर को ठीक से क्यों नहीं देखा.
कवितावली अपने कलेवर में भले लघुकाय हो, तुलसी के वास्तविक स्वरूप की पहचान यहीं मिलती है. तुलसी के जीवन और साहित्य की गुत्थियों को सुलझाने में कवितावली की बड़ी भूमिका है. मैं उम्मीद करता हूँ कि विद्वानों की नजर इस ओर जाएगी और तुलसी विषयक कुछ और नए तथ्य हमारे सामने आएंगे.
प्रेमकुमार मणि |
बहुत महत्वपूर्ण। तुलसीदास को समझने के और नए आयाम हैं इसमे।