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समालोचन

Home » बोली हमरी पूरबी : रफीक सूरज (मराठी कविताएँ )

बोली हमरी पूरबी : रफीक सूरज (मराठी कविताएँ )

मराठी के युवा कवि रफीक सूरज की कविताएँ पहली बार हिंदी में अनूदित होकर प्रकाशित हो रही हैं. यह महती कार्य किया है भारतभूषण तिवारी ने. मराठी कविता में एंटी स्टेबलिशमेंट की मजबूत धारा रही है जो अरुण कोलटकर, दिलीप चित्रे से होते हुए नामदेव ढसाल तक फैली है. रफीक इस साहित्य आंदोलन से प्रभावित […]

by arun dev
February 4, 2017
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मराठी के युवा कवि रफीक सूरज की कविताएँ पहली बार हिंदी में अनूदित होकर प्रकाशित हो रही हैं. यह महती कार्य किया है भारतभूषण तिवारी ने.
मराठी कविता में एंटी स्टेबलिशमेंट की मजबूत धारा रही है जो अरुण कोलटकर, दिलीप चित्रे से होते हुए नामदेव ढसाल तक फैली है. रफीक इस साहित्य आंदोलन से प्रभावित हैं.  इन कविताओं में स्थानीयता पर ज़ोर है और नाराज़गी साफ दिखती है.
भारतभूषण तिवारी ने हिंदी की अपनी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए डूब कर इनका अनुवाद किया है. 

रफीक सूरज की कविताएँ                                                                    
___________________________________

मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी

जा रही हैं गाड़ियाँ

जा रही हैं गन्ने से भरी गाड़ियाँ चीनी मिल की दिशा में
मेरे घर के सामने वाले रास्ते से
सोडियम वेपर के प्रचण्ड उजाले में
मुझे साफ़ दिखाई दे रहा है चिल्ला जाड़ा
चिल्ला जाड़े में अधनींदा गाड़ीवान कम्बल लपेटे
पीछे गाड़ी में गन्ने के बहुत बड़े ढेर पर उसकी औरत
छोटे से बच्चे को अपने आग़ोश में लिए फैली पड़ी है
धूप में सुखाने डाले गए पुआल की तरह


गोबर से भरे अपने पुट्ठों को गाड़ी से सुरक्षित दूरी पर रख

एक शांत लय में बैल खींच रहे हैं गाड़ी
चलने
की आवाज़ न होने पाए इसलिए

उनके पैरों में साइलेंसर लगाए गए हों जैसे..
कोई ट्रैक्टर–ट्रॉली वाला निकल जाता है गाड़ी से आगे
कुत्सित हँसी के साथ ओवरटेक करके
तब बैल थरथराते हैं अपने अस्तित्व मात्र के सर्द भय से
डरी हुई आँखों के साथ खींचते रहते हैं जगन्नाथ का रथ
मिल की दिशा में
आर्तनाद करते हुए….
मैं देखता रहता हूँ खिड़की से
मिल की ओर जाने वाली गाड़ियों का दृश्य
शरीर पर गर्म शाल लपेटे
मेरी ओर पीठ किये लेटी पत्नी को बाहों में भींचे
मैं सावधानी बरतता हूँ कि सोडियम वेपर के उजाले का यथार्थ
आँखों तक न पहुँचे
मादक इस जागने को परे ढकेल
मस्त ओढ़ लेता हूँ अलस्सुबह की प्यारी नींद!

बोझ

पहली ही दफे चक्की से पिसान लाने पर

सिर पर रखा आटे का डिब्बा उतरते ही
इतना हल्का महसूस हुआ उसे, मानों मन भर बोझ कम हो गया हो
कुछ देर पहले गली से गुज़रते हुए

उसके नएपन को मुड़–मुड़कर देखने वाली निगाहें
और गजरे से सजी हुई लम्बी चोटी का
लहराना सँभालते सँभालते
ऐसी हालत हो गई थी उसकी

कि कब किनारे लगूँ!

वह थककर चौखट पर ही बैठ गयी
दोनों पैर फैलाकर..
माँ बताती रहती है कई बार
दो–दो गगरियाँ डेढ़–डेढ़ मील
दूर से चलकर पानी लाने की बातें
तब की, जब मेरे बखत उसे पाँचवा महीना लगा था…
(
कल माँ ने ऐसे ही बताई थी एक कहानी
चक्की पर चार पसेरी अनाज अकेले पीसने की!)
झुलसाई समूची देह सँभाले
वह चुपचाप सुनती रहती है
दीवार पर बंद पड़ी घड़ी
और सुनाई ना देने वाले उसके गजर को

और मैं
उस अकेली को सौंपे गए गर्भ का बोझा लाँघकर
अपराधी की तरह चेहरे पर मफ़लर लपेट
ऐसे बाहर निकलता हूँ जैसे कुछ हुआ ही न हो!

धूप

सदासर्वदा बिना कुछ कहे
छायाओं का
उत्पादन करने वाले पेड़
वैश्विक मंदी के इस दौर में
सरेआम फैली हुई
धूप की इस अपरिमित पूँजी का
अब किस भरोसेमंद
व्यवसाय में
निवेश करेंगे?


बोध

जर्जर हो चुके बूढ़े की भाँति
अँधेरे में पेड़ कैसे
पिलपिले लगने लगे हैं…
टहनियों पर, पत्तों–पत्तों पर
अँधेरा जम चुका है
ऐसे समय आँखों का खुलना–बंद होना तक निष्क्रिय!
मगर फिर भी इस घुप्प अँधेरे में
किस टहनी पर किस पखेरू का
घोंसला है, इसका बोध
ये पेड़ कैसे रखते हैं?



अब तक  तो

अब तक तो आ रहा है उजाला खिड़की से
और थोड़ी खुली हवा भी
अब तक तो दिखाई देता है चौकोर आकाश
सरसराते पेड़ों के सहारे खड़ा हुआ
सामने का खुला मैदान सचमुच धीरे धीरे सिकुड़ता चला है
खेल में मगन बच्चों का कोलाहल भी सुनाई नहीं देता पहले की तरह
जगह जगह निशान पड़े हैं प्लॉटों के
कंधे तक ऊँचाई वाले सीमेंट के खम्भे ज़मीन में गड़े हुए
और उन पर लिपटे कँटीले तार
कभी कभी सुनाई देती हैं लॉरी से पत्थर गिरने की
ज़ोरदार आवाज़ें या ज़मीन में घुसने वाली बोअर मशीनें
अब तक तो सलामत है सामने का रास्ता
मंदिर से आने वाली घंटियों की आवाज़ या
प्रातःकाल की नीरव शान्ति में सुनाई देने वाली मस्जिद की अजान

जितना मुझे दिखाई देता है आकाश, उसकी लम्बाई–चौड़ाई में मुझे इतनी सी कमी भी अब मंज़ूर नहीं
खिड़की से नज़र आने वाले दृश्य में अब ज़रा सी भी भीड़ मुझे नहीं बढ़ानी.



भूत

पहले शाम होते ही गाँव की हदों से बाहर

जाने में डर लगता था

वहाँ भूत मँडराते हैं ऐसा लगता था!
अब गाँव के बाहर फैले बंजर में 
घरों, कारखानों में राह बनाते
रात–बिरात भी बिना डरे घूमता हूँ..
फिर क्या यह कहा जाए कि भूत कम हो गए हैं
या फिर भूतों की आदत पड़ गई है

जनाज़ा रुका हुआ है

वे आये

जबरन उन्होंने मुझसे कुछ कविताएँ

छीन लीं
और उनकी मस्जिद बना दी
और वे भी आये
डर दिखाकर वे भी मेरी बची हुई कविताएँ
लूटकर ले गए
और उनका मंदिर बना दिया
मेरी पूर्वानुमति की किसी को भी
ज़रूरत महसूस नहीं होती
धन्यवाद देना तो दूर ही रहा!
मेरी कविताओं को विवादग्रस्त घोषित कर दिया गया है
फिलहाल वे सशस्त्र पहरे में
मातम मना रही हैं
मुझे मेरी कविताओं से मिलने नहीं दिया जाता
दीदार तक करने की इजाज़त नहीं
मेरी भोली–भाली कविताएँ
आपके ऐसे बर्ताव से मेरी कविताएँ ढह जायेंगी, बेचारी…
मेरा जनाज़ा कब से रुका हुआ है
मेरे लिए तयशुदा कब्र के निशाँ के लिए
क्योंकि
बचा नहीं है
कविता का एक भी पत्थर….

कहाँ से आ रही है यह

कहाँ से आ रही है यह झरझर आवाज़

आवाज़ के साथ हनुमान का भेस बनाये यह लड़का

चपटा सीना जितना हो सके उतना फुलाकर
यहाँ–वहाँ भीख माँगते हुए चार–आठ
आनों के लिए उसकी लाचार गदा ऊपर उछलती है
किसी ने फिर दे दिया एकाध केला या एकाध रोटी
तो उसे रखने के लिए
झोली है ही कंधे पर टँगी!
कोई उसे तस्वीर में खड़ा कर लेता है बीचोंबीच
पहले ही उसकी साभिनय मुद्रा दयनीय
गदा उठाकर मारनेवाली…
कोई बदमाश उसकी गदा ले भागता है और वह
अनुनय करता जाता है उसके पीछे–पीछे
तो कोई उसका मुकुट छीन लेता है
और अपने सिर पर रख लेता है– 
ऐसे समय बिना मुकुट, बिना गदा पूँछ वाला हनुमान
अपने कन्धे पर रखे औरों के हाथों के
बोझ तले दबा–दबा
भीड़ के बीचोंबीच, तस्वीर में क्लिक होते हुए!
गोकाक फॉल्स[1] की यह झरझर आवाज़…


इसेंट्रिक[2]

गाँव के मध्य में स्थित तालाब के किनारे वाला बरगद के पेड़

के बारे में उसके दो सौ साल पुराने होने की बातें दर्ज हैं

ऐसा कहते हैं कुछ पुराने जानकार बूढ़े, कब्र में पैर लटकाए हुए लोग
रेंदालकर[3] को गुज़रे हुए ही अब 80-90 से ज़्यादा साल हो गए हैं
उन्हें भी सूझी होंगी कई कविताएँ
बरगद की इन जटाओं को पकड़ कर झूलते हुए! 
गाँव में बस स्टैंड नहीं था तब से यह पेड़ खड़ा ही है
आने जाने वाले यात्रियों के लिए छाया ओढ़कर
सात–आठ लोग तो अब भी दिखाई दे रहे थे
नीचे चबूतरे पर लेटे हुए
पेड़ के नीचे से गुजरने वाले रास्ते को अब दिक्कत होने लगी है
जो अब छोटा पड़ने लगा है…
शुरू में टहनियों का फैलाव छाँट कर कम किया गया
और फिर ज़मीन तक पहुँचने वाली लम्बी–लम्बी जटाओं के गुच्छे
इर्द–गिर्द गहरे कुएँ की तरह गड्ढा खोदकर
तोड़ डाली गईं कुल्हाड़ी से रास्ते की दिशा में जा चुकी जडें
आधे से अधिक तना चीर–फाड़ करके रास्ता अच्छा–ख़ासा चौड़ा हो गया है
पेड़ फिर से रास्ते में न घुस जाएँ
इसलिए बड़े ध्यान से खड़ी की गई है
कॉन्क्रीट की आदमकद दीवार कि जिस से
न मिले पेड़ को बढ़ने के लिए पर्याप्त मिटटी, हवा या पानी 
या सोख न ले एकदम बगल वाला गटर या
उखाड़ न डाले गटर के बगल का रास्ता गुस्से में!
पेड़ की शोभा बढाने वाला, इर्द–गिर्द का विस्तृत चबूतरा
एक तरफ से तोड़कर सिर्फ़ आधा रखा गया है
चबूतरे पर जाने के लिए बनी सीढ़ियाँ
यातायात में होने वाली परेशानी के कारण उखाड़ डाली गई हैं
अब हो गई है पक्की व्यवस्था
कोई पहुँच न पाए पेड़ तक आसानी से!
अब पेड़ कैसे एकदम बदल गया है
अब पेड़ कैसा अनबैलेंस्ड 
चबूतरे की एक ओर सरका हुआ
अब पेड़ कैसा केंद्र चुका हुआ इसेंट्रिक
मैं आते–जाते रोज़ देखता हूँ
वह अनबैलेंस्ड पेड़
और भर–भर आती हैं मन में चिन्ताएँ इस बात की
कि महिलाएँ पेड़ की प्रदक्षिणा कैसे करेंगी!

 


[1] कर्नाटक का एक मशहूर पर्यटन स्थल–  
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95 
 [2]Eccentric- उत्केन्द्रीक (गणित) 
3] मराठी कवि एकनाथ पांडुरंग रेंदालकर (1887-1920)
रफीक सूरज
(19 मार्च 1970)
मराठी साहित्य में एम.ए., पी.एच.डी.
प्रकाशित कृतियाँ: आभाल, बेबस – २०१३ (कहानी संग्रह, 1990), रहबर (उपन्यास, 2006), आवडनिवड (काव्य समीक्षा, 2008), सोंग घेऊन हा पोर (कविता संग्रह, 2011)
संपर्क: प्लॉट नं. 38, शांतिनगर, टेलीफोन एक्सचेंज के पास, हुपरी, ज़िला– कोल्हापुर – 416203
ईमेल: rafiksuraj@yahoo.com



________

भारतभूषण तिवारी

bharatbhooshan.tiwari@gmail.com

 

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