साहित्य के सामाजिक, आर्थिक अभिप्रायों की विवेचना की सुदृढ़ आलोचनात्मक प्रविधि है. हिंदी में भी रचनात्मक कृतियों में समय और समाज को देखने-परखने की कोशिशें हुईं हैं, इस लिहाज़ से ख़ासकर कहानियां और उपन्यास उपयुक्त रहते हैं.
‘छबीला रंगबाज़ का शहर’ और ‘वास्कोडिगामा की साइकिल’ के लेखक प्रवीण कुमार की कहानियों में बनते हुए शहर और बिगड़ते हुए गावं की शक्ल-ओ-सूरत पर कथाकार और समाज विज्ञानी नरेश गोस्वामी का यह लेख स्थायी महत्व का है.
तथाकथित भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण और अब कारपोरेट संस्कृति ने जो तहस-नहस मचाया है उसकी अचूक, दृष्टि संपन्न और ठोस पहचान इस लेख में की गयी है. गाँव के ताने-बाने पर संवेदनशील विश्लेषण है. ऐसी आलोचना का सुयोग हिंदी में बहुत कम कहानियों/कथाकारों को मिलता है.
आइये पढ़ते हैं.
भीतर और बाहर का शहर
नरेश गोस्वामी
प्रवीण कुमार अपने पहले संग्रह- ‘छबीला रंगबाज़ का शहर’ में पठनीयता के साथ विमर्शों की एक ऐसी सिम्फ़नी लेकर उतरे थे जिसे रचने और प्रस्तुत करने के लिए किसी भी लेखक को बरसों बरस और कभी-कभी जीवन भर इंतज़ार करना पड़ता है. अब ‘वास्कोडिगामा की साइकिल’ के बाद उन्होंने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि उनकी कहानियों पर समीक्षकों, आलोचकों, अध्येताओं और प्रतिष्ठित कहानीकारों की टिप्पणियां हौसलाअफ़जाई के कर्मकांड से प्रेरित नहीं थीं. प्रवीण की कहानियों में योगेंद्र आहूजा ‘वाह्य यथार्थ’ और ‘आंतरिक विभाजन’ या ‘आत्म’ और ‘जगत’ के कृत्रिम, सरलीकृत विभाजन’ का सायास अतिक्रमण देखते हैं, संजीव कुमार उनमें ‘स्थानीय राजनीति की तिकड़मों, मीडिया के खेल और सामुदायिक-मानवीय संबंधों को समेटते सघन कथा-सूत्रों’ की मौजूदगी दर्ज करते हैं तो अखिलेश के शब्दों में उनकी कहानियां ‘समाज में व्याप्त हिंसा की पहचान’ और उसका ‘प्रतिरोध’ करने की कूवत रखती हैं. [1]
लेकिन, यहां मैं यहां प्रवीण की चटख-चुटीली भाषा या शिल्प के नवाचार आदि जैसे सूत्रों के बजाय उनकी कहानियों में शहर की उपस्थिति पर बात करना चाहता हूं. मुझे लगता है कि इस पहलू पर बाक़ी पाठकों और समीक्षकों की निगाह भी गयी होगी कि प्रवीण की कहानियों— ख़ास तौर पर ‘छबीला रंगबाज़ का शहर’, ‘लादेन ओझा की हसरतें’, ‘नया जफ़रनामा’, ‘वास्कोडिगामा की साइकिल’ और ‘बसई दारापुर की संतानें’ में शहर इतनी दफ़ा और इतनी अलग-अलग छवियों के साथ उपस्थित होता है कि उसे इन कहानियों का एक स्थायी पात्र कहना बहुत ग़लत नहीं होगा.
समाज-वैज्ञानिक भाषा में कहें तो इन कहानियों में जिस महा-रूपांतरण- भूमंडलीकरण अथवा वैश्वीकरण के अनगिन दृश्यों और उनमें निबद्ध अदृश्य प्रक्रियाओं से हमारा परिचय होता है, उसमें शहर का रूपांतरण एक आधारभूत परिघटना है. लेकिन, इन कहानियों का शहर हमें रास्ता देने से पहले चंद सवाल पूछना चाहता है. मसलन, हम उसे कहां से और कैसे देखना चाहते हैं? वह पूर्व-प्रदत्त संज्ञा है या प्रक्रिया? क्या एक शहर दूसरे शहर से अलग होता है? क्या आज से तीन-चार दशक पहले तक छोटे या कस्बाई शहर महानगर से जितने अलग और भिन्न दिखाई पड़ते थे, उसमें कोई फ़र्क़ आया है? मतलब समकालीन शहर पुराने शहर का विस्तार है या उसकी काया पर उभरा कोई गूमड़? फिर, यह फ़र्क़ एकरेखीय है या आकस्मिक. इस परिवर्तन के कारक शहर की आनुवंशिकी में पहले से मौजूद थे या उन्हें शहर की धमनियों में बाहर से इंजेक्ट किया गया था? क्या उप-नगरों ने मूल शहरों को अपदस्थ कर दिया है? और आखिर में, शहर के इस बदलते विन्यास ने उसकी सामाजिकता को किस तरह प्रतिकृत किया है? प्रवीण कुमार की इन कहानियों में ये सारे सवाल रक्त की तरह बहते हैं.
लेकिन, आगे बढ़ने से पहले दो शब्द इस लेख के बारे में. यह लेख न प्रवीण की कहानियों की समीक्षा है, न उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन. इन कहानियों से गुज़रते हुए मेरे साथ सचमुच के शहर और कस्बे भी चलते रहे. इस तरह, यह कहानियों के शहर (भीतर) और वास्तविक शहर (बाहर) के बीच महज़ एक आवाजाही है.
(एक)
इस अनाम शहर के हुलिये पर ध्यान दें, जो ‘देखने में शहर है, महसूस करने में सामंत’, जिसमें ‘कोई झुककर नहीं चलता,… सब तने रहते हैं…. इसलिए शहर में जब चलो तो अपनी चाल में अकड़ रखो. यदि कोई परिचय जानना चाहे तो तुम अपने को राजपूत, भूमिहार या यादव कह देना’.[2]भारत के किसी भी अन्य शहर की तरह यह भी ‘प्राचीन शहर में आपका स्वागत है’ की तख़्ती टांगे रखता है. यह बात अलग है कि शहर के वर्तमान में यह प्राचीनता पार्श्वनाथ के द्वार पर अंकित उस प्रस्तर-अभिलेख की तरह हो गयी है जिसे आंख गड़ाकर ही पढ़ा जा सकता है.
दिलचस्प ये है कि इस शहर में एक ओर सामंती मिज़ाज क़ायम है तो दूसरी तरफ़ वैश्वीकरण भी दस्तक दे चुका है. हिंदी के अध्यापक ऋषभ के सामने इस परिघटना का नक़्शा खींचते हुए अरूप कहता है :
भूमंडलीकरण् के बाद चकाचौंध जैसी एक चीज़ का इस शहर में पदार्पण हुआ. आसपास के गांवों की आबादी उड़-उड़कर यहां बसने लगी. फिर दूसरी प्रक्रिया शुरु हुई. जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी वे उनके लड़के-लड़कियां दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर में फिट हो गए. और जो कमजोर थे उनके बच्चे और ख़ासकर बच्चियां यहीं फिट होने की जुगत में लगे. पिछले पांच-सात वर्षों में यहां की लगभग सभी बड़ी दुकानें, होटल, रेस्त्रा इन लड़कियों से गुलजार हो गए. जिनका एक नया नामकरण था रिसेप्शनिस्ट.[3]
इसी प्रक्रिया का एक अन्य चिह्न वह मॉल है जिसे सिनेमा हॉल तुड़वा कर बनवाया गया है. भूमंडलीकरण का एक दूसरा चिह्न यह है कि शहर में इंटरनेट कैफे खुल गए हैं जिनका आधिकारिक उद्देश्य समाज में सूचना और ज्ञान का प्रसार करना था. लेकिन यह शहर का अपना मिज़ाज है कि उसका इस्तेमाल देह-दर्शन या आभासी सेक्स के लिए ज़्यादा किया जा रहा है.
भूमंडलीकरण के रथ पर सवार होकर व्यक्ति को उद्यमशीलता के लिए सन्नद्ध हो जाने का संदेश देती तथा शेष समाज को इंस्पेक्टर-लाइसेंस राज के ख़ात्मे के फ़ायदे गिनवाती इस विचारधारा के बावजूद स्थिति यह है कि अध्यापकों और शिक्षामित्रों को तीन महीने में एक बार सैलरी मिलती है जिसे वे सूद पर उठा देते हैं. इसे यूं कहें कि शहर में कुछ अंतर्विरोध पीछे से चले आ रहे हैं, कुछ नए पैदा हो रहे हैं, लेकिन दोनों ही किस्म के अंतर्विरोधों का हल इलीट के पक्ष में हो रहा है. छबीला का सच बयान करने के लिए अरूप की जान पर बन आती है, लेकिन जगतानंद के अपराध और सनसनी के धंधे में अपने करियर की उड़ान देख रही तन्वी आगे बढ़ गयी है.अब शहर की नस मीडिया के हाथ में है और वह ख़ुद सनसनी की गिरफ़्त में आ गया है. सामाजिक जीवन के ठोस यथार्थ को अपदस्थ करने के लिए मीडिया कोहर दिन नये शिगूफ़े चाहिए. भूमंडलीकरण के बाद मीडिया की बदलती पारिस्थितिकी को समझने के लिए यह उद्धरण विशेष महत्व रखता है :
‘यह तब की बात है जब इस शहर में चकाचौंध जैसी एक चीज़ घुस चुकी थी. उसी समय सेठ जगतानंद ने क्रांति शुरु करनी चाही ‘द सिटी चैनल’ की शक्ल में. पर राष्ट्रीय चैनलों के सामने यह लोकल टिक नहीं पाया. फिर सेठ की नज़र ऐसे राष्ट्रीय चैनलों पर पड़़ी जो सनसनी फैलाने में माहिर थे. और पैसा भी पीट रहे थे. सेठवा को लगा कि अगर सनसनी राष्ट्रीय स्तर पर हो सकती है तो शहर के स्तर पर क्यों नहीं. धन और बल का प्रयोग करते हुए उसने चुनिंदा तथाकथित पत्रकारों को सनसनी खोजने में लगा दिया. यह वही दौर था जब मेरे और तन्वी जैसे लड़के-लड़कियों की फौज कॉरसपांडेंस’ बनकर टीवी पर खुद को देखने का सपना पाले लगातार हाथ-पैर मार रही थी. अचानक इस शहर का पोस्टमार्टम शुरू हुआ. पार्क के जोड़ों, अस्पतालों की बदहालियों, घूस लेते हवलदारों, घूस देते ट्रक ड्राइवरों, जुए के अड्डों, चकलाघरों,… इस शहर के लोग नागासाकी को नहीं जानते पर परणामु बम का अनुभव सबने कर लिया.[4]
कहानी का यह लंबा उद्धरण वर्चुअल युग के शुरुआती चरण का प्रतिनिधि चित्र है जब मीडिया समाज के दैनिक यथार्थ को बहिष्कृत करने की तैयारी कर रहा था. पिछले बीस-पच्चीस सालों के दौरान मीडिया का यह निर्मित यथार्थ जितना सघन और व्यापक होता गया है, हाशिये के लोग उसी अनुपात में बेदख़ल होते गए हैं. अकारण नहीं है कि प्रक्षेपित यथार्थ और ज़मीनी यथार्थ के द्वंद में फंसे ऋषभ को यह शहर बहरूपिया दिखाई देने लगता है. ऋषभ को अरूप की वह बात भी याद आती है कि छोटे शहर किस तरह ‘आधुनिकता और मध्ययुगीनता, ज्ञान और हेकड़ी, रंगबाज़ी और सादगी, महिलामुक्ति और टिकुली, जींस और साड़ी, जाति और जाति’ के आत्मसंघर्ष में हांफते रहते हैं. उसे बार-बार महसूस होता है कि कुछ भी ‘निश्चित करने वाले तर्क और उपकरण इस शहर में असफल सिद्ध हो चुके हैं.’[5]
लेकिन इसी शहर के मैदान में युवाओं के झुंड के झुंड सरकारी नौकरी की तैयारी में लगे रहते हैं. यानी शहर का एक यथार्थ यह भी है जो ‘कुछ भी निश्चित कर देने वाले उपकरणों की नज़रों से ओझल’ रह जाता है.[6]
यह एक वाक्य उत्तर-आधुनिकता के बहाने फैलाई गयी अनिश्चितता, अ-निर्णय तथा उसकी अनेकार्थी व्याख्याओं को धराशायी कर देता है.
(दो)
‘लादेन ओझा…’ का शहर छबीला के शहर से अलग है. छबीला के शहर में जीवेश्वर की हत्या की एक कि़स्त आम्बेडकर छात्रावास के अंत:वासियों से ली जाती है. दूसरी किस्त के लिए पत्रकार अरूप को खोजा जा रहा है. उसे इस सत्य का पता चल चुका है कि वह राजपूत, भूमिहार या यादव न होकर श्रीवास्तव है, इसलिए वर्चस्व की इस लड़ाई में वही मारा जाएगा.
लेकिन लादेन ओझा के शहर में जैसे सभी जातियां समरस हो चुकी हैं. उनके बीच कोई प्रतिस्पर्धा या नफ़रत नहीं बची है. यह राष्ट्रवादी शहर है जिसमें अन्य के रूप में केवल मुसलमान बचा है जिससे बेपनाह नफ़रत की जा सकती है. इसीलिए बूढ़े मैनुद्दीन का पीछा करते लड़कों को कोई शर्म नहीं आती. चौरसिया पान भंडार पर खड़े राष्ट्रवादी युवा मंडल के नौजवान मैनुद्दीन से जानबूझकर बदतमीजी करते हैं. दुकानदार देख रहे हैं पर चुप लगा जाते हैं. ‘सालो, लादेन मारा गया, अब तो होश में आओ.’‘ सालो, कश्मीर में उसकी मौत पर मातम मना रहे हो.’ राष्ट्रवादी मंडल तू-तड़ाक पर उतर आता है. फिर तयशुदा आरोपों की एकतरफ़ा बमबारी की जाती है :
‘थाली, छेद, एहसान फ़रामोश, ग़द्दार, फंडिंग, लादेन, अलक़ायदा, कश्मीर, पाकिस्तान, मुसलमान, कट्टर,क्रूर, आतंकवादी, जनसंख्या विस्फोट…’ . ज़ाहिर बुजुर्ग मैनुद्दीन ‘डर गए थे क्योंकि‘ दुनिया उन्होंने देखी थी. देख भी रहे थे.’[7]
एक समय बाज़ार और महाजनी पर एकाधिकार रखने के बावजूद कतिपय जाति-समूह सामाजिक ताने-बाने को नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं थे. व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे जाति-समूह और संगठन भले ही हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक रहे हों, लेकिन सामाजिक संरचना में उनकी दख़ल बहुत निर्णायक नहीं होती थी. लेकिन, पिछले बीस-तीस बरसों में ग्रामीण- क़स्बाई शहर में व्यवसायियों, कारोबारियों और महाजनों का वर्चस्व कुछ इस तरह बढ़ा है कि खेती से प्रत्यक्ष और द्वतियक स्तर पर जुड़ी जातियां भी उसी विमर्श में बहने लगी हैं. वर्ना ऐसा संभव नहीं होता कि कोई राहगीर यह कहने की हिमाक़त कर पाता : यह गुंडागर्दी अपने गंजहों के बीच दिखाओ… यह शहर है, देहात नहीं’.[8]
असल में, राष्ट्रवादी शहर लादेन ओझा से उसका गंजहापन और मैनुद्दीन सेउसकी नागरिकता छीनना चाहता है. पिछले दिनों इकबाल मियां जिस अजनबियत को लोगों की आंखों और बातों में महसूस कर रहे थे, वह अब ज़मीन पर उतर आई है : ‘मैनुद्दीन और ओझा जी धरती पर पस्त गिरे थे. उनकी बगल में कांच की छोटी चूडि़यां टूटकर बिखर गयी थी.’ [9]राष्ट्रवादी शहर ने दोनों की साझी ज़मीन छीन ली है.
(तीन)
‘नया जफ़रनामा’ के परिवेशगत साक्ष्यों, तथ्यों और ब्योरों पर नज़र डालते ही पता चल जाता है कि शहरी नियोजन की शब्दावली में इसे स्लम कहा जाता है. लोगबाग इसे जे.जे. कोलॉनी भी कहते हैं. लेकिन, कहानी के बाड़े में दाखि़ल होने से पहले एक बार देखें कि वह दिल्ली के बीहड़ में कहां स्थित है.
अनंत पर्वत यानी ‘पर्वत क्या कूड़े का पहाड़ है अब. रंगबिरंगी पन्नियों का पहाड़. शहर जो फेंकता है, वह यहां चमकता है.’ शहर के अधिकार संपन्न नागरिकों के कल्पना-लोक में यह जगह मानवीय गरिमा से इस क़दर हीन हो चुकी है कि रचनाकार पाठकों को जैसे पहले ही आगाह कर देना चाहता है : ‘लोग भी रहते हैं इधर’. स्वतंत्रता के बाद विकसित होते शहरों में ऐसी जगहों को फैलते-फफूंदने के लिए छोड़ दिया गया है. इसलिए ‘सरकारी आंखों से देखें तो डेंगू, मलेरिया-चिकनगुनिया न जाने क्या–क्या फैलाने वाले मच्छर पाए जाते हैं यहां.’[10]
कहानी में स्पष्ट उल्लेख है कि 1857 के गद़र के समय यहां अंग्रेज बहादुर और भारतीय सिपाहियों के बीच झड़प हुई थी. बूढ़ा कानू शहीद हुए प्यासे सैनिकों की प्यास बुझाने के लिए सूखे कुएं में पानी डालता आर हा है. लेकिन अब इस इतिहास पर किसी को गर्व नहीं होता. ‘जहां बलवा होकर न्याय और आज़ादी के जीवाणु पैदा हुए’ वहां अब सरकार और संभ्रांत नागरिकों की निगाह में केवल ‘एडिस पैदा होते हैं.’ [11]
दिल्ली के आर्थिक सर्वेक्षण (2008-09) के मुताबिक़ दिल्ली शहर की नियोजित कोलोनियों में केवल23.07 प्रतिशत आबादी रहतीहै. जबकि आवास की बाक़ीश्रेणियों झुग्गी झोंपड़ी, स्लम, अनधिकृत, पुनर्वासकोलोनी, गाँव व शहरीगाँव आदि में 46.7 प्रतिशत आबादी वासकरती है.[12] यहां व्यक्ति की गरिमा और नागरिकता का मानचित्र इस बात से तय होता है कि कौन किस जगह रहता है. इस हिसाब से अनंत पर्वत का निवासी मौजू वोटर तो है, लेकिन उसकी नागरिकता संदेहास्पद बना दी गयी है. चूंकि स्लम को आवास की वैध श्रेणियों में शामिल नहीं किया जाता लिहाज़ा मौजू, कानू, शाहिदा, तुलसी, शब्बो या जग्गी राज्य के नागरिक नहीं रह जाते. वे केवल राज्य की आबादी का हिस्सा होते हैं.
हमारे समय के महत्वपूर्ण राजनीतिक सिद्धांतकार पार्थ चटर्जी कहते हैं कि राज्य के संविधान तथा क़ानून द्वारा प्रदत्त औपचारिक ढांचे में समग्र समाज ही नागरिक समाज है. इसमें हर नागरिक को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं. इस दृष्टि से प्रत्येक नागरिक सिविल सोसायटी का अंग है. लेकिन यह औपचारिक ढांचा व्यवहार में काम नहीं करता. संविधान में जिस तरह के अधिकार-संपन्न नागरिक की कल्पना की गयी है, वह रोज़मर्रा के समाज में नहीं मिलता. ऐसे में, उसे नागरिक समाज का अंग नहीं माना जा सकता. राज्य की संस्थाएं भी उसे नागरिक समाज के सदस्य के रूप में नहीं देखती.[13]
क्या मौजू और उसकी दुनिया संवैधानिक सुरक्षा के बाहर भटकते लेकिन अपने संख्याबल के कारण चुनावों के लिए अनिवार्य बन चुके राजनीतिक समाज का अंग है?एक अर्थ में अनंत पर्वत की दुनिया सरकार व उसकी विभिन्न एजेंसियों पर आश्रित है, लेकिन मौजू इस प्रदत्त भूमिका का अतिक्रमण करता है. वह जानता है कि नागरिकता के दैनिक विमर्श में ऐसी बस्तियों को अपराध के अड्डे के रूप में प्रचारित-प्रक्षेपित करके उनकी मनुष्यता छीन ली जाती है. वह बहिष्करण, ग़लतबयानी और तयशुदा स्वार्थों के इस खेल को बख़ूबी समझता है, इसलिए तुलसी से बात करते हुए वह आवेश में कहता है : ‘मौसी… ये साले जितने भी हैं, शोर करते हैं पहले, बस्ती में ड्रग्स है चरस-गांजा है, नयी पौध नशाख़ोर है. चोर-उचक्कों और जेबकतरों का ट्रेनिंग कैंप है बस्ती में. धंधा होता है यहां… दलाल, गुंडे, हिजड़े… सारे बीमार लोग रहते हैं… तब साले ये आते क्यों हैं ?’[14]
मौजू का इशारा ग़ैर-सरकारी संस्था (एनजीओ) ‘स्वप्निल’ की ओर है जो अनंत पर्वत को गोद लेने की जुगत में लगी है. बस्ती की बच्चियों को टीके लगाने और लोगों को रोज़गार देने के तमाम दावों के पीछे संस्था का अघोषित उद्देश्य सरकारी योजनाओं के विज्ञापन बटोरना है. एनजीओ की बृहत्तर भूमिका के बारे में सोचें तो अब यह बात लगभग स्थापित हो चुकी है कि ऐसे संगठनों का मूल तर्क और उनकी कार्यशैली मोटे तौर पर नव-उदारतावाद के गर्भ-गृह से ही निकली है. यह अकारण नहीं है कि वैश्वीकरण के बाद धीरे-धीरे राज्य की सामाजिक जिम्मेदारियां ऐसे ही संगठनों को सौंप दी गयी. दरअसल, नवें दशक के आसपास जब विश्व-बैंक का प्रतिष्ठान तीसरी दुनिया के आर्थिक तंत्र को नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था से प्रतिस्थापित करने की तैयारी कर रहा था तो साथ ही इन संगठनों को भी ज़मीन पर उतारा जा रहा था. इन संगठनों की भूमिका एक ऐसी मध्यस्थ संस्था की थी जो राज्य के जन-कल्याणकारी कार्यों को जारी रखने का भ्रम रचते हुए वस्तुत: उसके लिए एक ऐसा वातावरण तैयार कर रही थी कि जब राज्य जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्वों से पूरी तरह विमुख हो जाए तब भी किसी को कोई ख़बर न हो.
मौजू को बस्ती में काम करने आई एनजीओ के दावों को लेकर कोई भ्रम नहीं है. वह एक जगह कहता है कि एनजीओ वाले बस्ती की लड़कियों को ‘लाली-पाउडर लगाकर बेच देंगे’. बस्ती में रोज़गार पैदा करने का सच कहानी में इस तरह उजागर होता है कि ‘पूरी सर्दियों में भाग-दौड़ के बाद भी बस्ती में ढंग का रोज़गार पैदा नहीं हुआ’.[15]
दरअसल, मास्टर प्लान का नियोजित शहर ज़मीन और नक़्शे की भाषा में सोचता है. उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि योजना से बाहर छोड़ दिए या जान बझूकर बहिष्कृत कर दिए गए लोग कहां जाएंगे. किसी मध्य या उच्चवर्गीय और सुनियोजित कोलॉनी के दाएं-बाएं या पीछे धंसी किसी झुग्गी-झोंपड़ी कोलॉनी में कोई मौजू क्या सोचता है, शाहिदा और तुलसी झील के किनारे फेंक दिए गए नवजात शिशु को क्यों बचा लेती हैं- मानवीय अस्तित्व के इन सवालों से शहर के योजनाकारों का कोई सरोकार नहीं है.
राज्य को ऐसी श्रेणियां चाहिए जिनसे शासन का काम आसान हो जाए. बकौल जेम्स स्कॉट, आधुनिक शासन-तंत्र असीमित ब्योरों को निश्चित श्रेणियों में इसीलिए सूचीबद्ध करना चाहता है ताकि शासन की विभिन्न प्रक्रियाओं का निरूपण और संग्रह का काम सरलता से किया जा सके. राज्य की शक्तिशाली संस्थाएं यही भूमिका निभाती हैं. एक समय के बाद लोगों का दैनंदिन अनुभव भी उन्हीं से तय होने लगता है.[16]
ग़ौर से देखें तो आवासीय क्षेत्रों का ‘नियोजित’ और ‘अनधिकृत’ जैसी श्रेणियों में विभाजन शासन-तंत्र की इसी मानसिकता का परिचायक है. इस संदर्भ में यह तथ्य ओझल नहीं होना चाहिए किइन श्रेणियों की वैधता क़ायम रखने तथा उनमें विचलन की संभावना को रोकने के लिए निगरानी का एक जटिल तंत्र स्थापित किया जाता है. अनधिकृत या ग़़ैर-क़ानूनी कोलॉनियों के संबंध में हमारा न्याय-तंत्र इसी तरह की निगरानी करता है.
वैध/अवैध के इस विभाजन को मेरी डगलस गंदगी की अवधारणा के साथ जोड़ कर देखती हैं. उनके अनुसार गंदगी को अव्यवस्था का पर्याय माना जाता है और चूंकि अव्यवस्था एक सीमाहीन प्रत्यय है जिसमें किसी निश्चित ढर्रे या पैटर्न की निशानदेही नहीं की जा सकती, इसलिए उसे ख़तरे और सत्ता का प्रतीक भी मान लिया जाता है.[17]इस दृष्टि से देखें तो स्लम अर्थात् शहर के अनियोजित और अनधिकृत हिस्से को नियोजित से अलग रखना सामाजिक हैसियत तथा वर्चस्व की निरंतरता का अंग है.
बहरहाल, ग़नीमत है कि अनंत पर्वत में अभी ‘स्लम-टूरिज़्म’ का प्रवेश नहीं हुआ है, वर्ना मौजू को स्लम का टूर कराने वाले एजेंसियों से भी भिड़ना पड़ता. उल्लेखनीय है कि पिछले बरसों में रियो डि जनेरियो के रोचेना फ़वेला, जोहानेसबर्ग के सोवेटो, जकार्ता के कंपुगो के अलावा मुंबई के धरावी स्लम में भी पर्यटन शुरू हो गया है.[18]
धीरे-धीरे एक ऐसा परिप्रेक्ष्य बनता गया है जिसमें इन बस्तियों की आर्थिक गतिविधियों— घरेलू और लघु-उद्योगों तथा लोगों की उद्यमशीलता परज़्यादा चर्चा होने लगी है. अकादमीय जगत इसे मातहत लोगों के शहर (सबाल्टर्न अर्बेनिज़म) के रूप में देखने का आग्रह करता है. मसलन, प्रसिद्ध मानवशास्त्री अर्जुन अप्पादुरै द्वारा स्थापित संस्था– पुकार, ने धरावी के संसार पर केंद्रित फिल्म स्लमडॉग मिलेनियरकी मजम्मत करते हुए कहा था कि यह फिल्म धरावी को ‘स्लम’ के बने-बनाये चौखटे में फि़ट करके उसकी जटिलताओं और लोगों के जीवट का अवमूल्यन करती है. संस्था ने अपने प्रकाशित वक्तव्य में धरावी को सरकार की बेरुखी के बरक्स और ख़ास तौर पर वैश्विक मंदी के हालिया माहौल में आर्थिक सफलता की एक मिसाल के रूप में प्रस्तुत किया था.[19]
कहना न होगा कि साधारण जनता की पहल क़दमी और उसके उद्यम को गौरवान्वित करने वाला यह नजरिया एक सीमा के बाद इस बुनियादी तथ्य को स्थगित कर देता है कि स्वावलंबन, स्व:रोज़गार और आर्थिक प्रगति के तमाम आंकड़ों के बावजूद नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था के साथ ऐसी बस्तियों का संबंध अधीनस्थता से आगे नहीं बढ़ पाता. दूसरे, आर्थिक पहलुओं पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देने के कारण नागरिकता का प्रश्न चर्चा से बाहर हो जाता है.
इस संदर्भ में ‘नया जफ़रनामा’ की दूरंदेशी यह है कि मौजू ग़ैर-सरकारी हस्तक्षेप के कुचक्र या सीमा को पहचानता है. और एक आंगिक बुद्धिजीवी के रूप में मास्टर उसे नयी शक्तियों को समझने में मदद करता है : … उभरती हुई शक्तियों को पहचानो, हेनीबल. शक्ति-संरचना के नये औजार हैं ये. प्रयोग करना सीखो.[20]
(चार)
यह कहानी गांव के बचे-खुचे वजूद और शहर की शक्ल में जड़ जमाते नव-उदारतावाद का एक जबरदस्त एथ्नॉग्राफि़क दस्तावेज़ है. सूबेदार खेत्तरपाल का गांव इतना बदल गया है कि उसकी मिट्टी भी ‘बांगर’ हो गयी है.[21]
मिट्टी बदलना मतलब सब कुछ बदल जाना. अपार्टमेंट बनने के बाद सब कुछ एक जैसा हो गया है. सूबेदार अपने ही गांव में रास्ता भटक जाता है. दिल्ली बदल रही है— यह झलक तो उन्हें रिटायरमेंट से पहले ही मिलने लगी थी, लेकिन यह एहसास उन्हें बिल्कुल आखि़र में आकर होता है कि वे ‘गांव खोजते रहे और इस बीच गांव के गांव शहर होते गए’.[22]
बसई-दारापुर के इस बदलते विन्यास को नव-उदारतावाद से अलग रखकर नहीं समझा जा सकता. लेकिन, लातीनी अमेरिकी देशों के अनुभवों से यह धारणा रूढ़-सी हो गयी है कि जैसे उसे किसी एक फ़ैसले के बाद रातोंरात क्रियान्वित कर दिया जाता है. इसके उलट, भारत जैसे विशाल देशों में, जहां कम से कम चुनावी लोकतंत्र सार्वजनिक जीवन का अहम अंग रहा है, नव-उदारतावाद धीरे-धीरे और क्रमबद्ध ढंग से आया है. इसका क्रियान्वयन सुविधा, उपभोग और आनंद की वस्तुओं— कार, बाइक, कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन, सुंदर-सजीले अपार्टमेंटों की अनंत श्रेणियों और उनकी बहुतायत की चतुर्दिक फैली छवि के रूप में किया गया है. नोएडा और दिल्ली के बाहरी इलाक़ों पर केंद्रित अध्ययनों से पता चलता है कि नव-उदारतावादी पूंजी की आमद के साथ यहां का बाहरी और मानसिक भूगोल बुनियादी तौर पर बदल गया है.
मसलन, वंदना वासुदेवन अपने अनुभवपरक अध्ययन में बताती हैं कि नोएडा के देहात में हाई-वे, बिल्डर फ़्लैट, मॉल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऑफि़स बनाने के लिए किसानों को किस तरह ज़मीन बेचने के लिए मजबूर किया गया. उनका कहना है कि नव-उदारतावादी पूंजी की इन इमारतों के बीच गांव अपनी जड़ से उखड़ गया है.[23]
इस क्षेत्र से परिचय रखने वाले लोग बताते हैं कि जिन इलाकों में सिंचाई-सुविधाओं की कमी के चलते गांव के गांव रेतीले और बंजर हो गए थे, वहां दो-चार बीघे के सीमांत किसान-परिवारों के पास भी लंबी-चौड़ी गाडि़यां आ गयी हैं. हालत यह है कि जिस ज़मीन से परिवार का गुज़ारा नहीं चल पाता था, उसे नव-उदारतावादी पूंजी ने करोड़ों-अरबों का खेल बना दिया है.
ज़ाहिर है कि यह पूंजी अपने साथ हिंसा और अपराध के बहुत-से प्रकट-अप्रकट रूप लेकर आई है. ‘बसई-दारापुर…’ अपराध की दिनों दिन फैलती इस अर्थव्यवस्था का एक सघन और प्रामाणिक दस्तावेज़ है. सूबेदार का बड़ा बेटा वैश्विक अर्थव्यवस्था का शुरुआती खिलाड़ी है. पहले राउंड की सफलता उसे मिल चुकी है, लेकिन अब वह कार और अपार्टमेंट की किस्तों में घिर गया है. वह चाहता है कि सूबेदार ज़मीन बेच दे. दूसरा बेटा जगबीर एक बार बाप के पैसे फूंक चुका है. लेकिन वह पूंजी और अपराध की कार्यप्रणाली को तेज़ी से समझ रहा है. इसलिए अपने विजिटिंग कार्ड पर बाबा श्याम खाटू की जय लिखवाते हुए ‘पिछडवाड़े में हाथ डालकर काम कराने’ का हुनर भी सीख गया है. दिल्ली-एनसीआर के ग्रामीण और कस्बाई जीवन से वास्ता रखने या उसके अध्ययन में दिलचस्पी रखने वाले लोग जानते हैंकि कैसे पहलवानी के अखाड़े स्थानीय दबंगई, गुंडई और अपराध के आपूर्तिकर्ता बनकर रह गए हैं.
इस इलाक़े के लोग बतकही में कहते हैं कि बढ़ती उम्र के कारण जब पहलवान बेकार हो जाता है तो वह किसी हाईवे पर तख़्त डालकर बैठ जाता है और रंगदारी का काम शुरू कर देता है. निस्संदेह, यह बदलाव अचानक या अप्रत्याशित नहीं है. इसके पीछे विस्थापन और पलायन का दशकों लंबा सिलसिला है जिसने गांव-देहात के पूरे सांस्थानिक-पारिस्थितिक-तंत्रको छिन्न-भिन्न कर दिया है.
मसलन, दिल्ली-एनसीआर के एक गांव में लंबी अवधि के फ़ील्डवर्क पर आधारित एक ऐसे ही अध्ययन में समाजशास्त्री सतेंद्र कुमार ने उन प्रक्रियाओं की बारीक शिनाख़्त की है जिनके चलते देहात अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक विशिष्टताओं से रिक्त होकर महज़ आवासीय-स्थल के रूप में बदलने लगे हैं. और वहां एक ऐसी नयी सामाजिक उभर रही है जो लोगों के बीच प्रत्यक्ष संपर्क के बजाय तकनीक और आर्थिक कारकों के ज़रिये ज़्यादा संसाधित होने लगी हैं.[24]
बहरहाल, ‘बसई-दारापुर…’ के सूबेदार का छोटा बेटा जगबीर ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त और अपराध के इर्दगिर्द पनपती इस अर्थव्यवस्था का सफल उद्यमी बनता जा रहा है. वह बड़े भाई ओमवीर की तरह भद्रजनों में शामिल नहीं होना चाहता. पिता की पिटाई का बुरा नहीं मानता और दक्ष इतना हो गया है कि अखाड़े के गुरूजी को पचास-पचास की पार्टनरशिप पर राज़ी कर लेता है. ज़मीन की वर्ग-फुट में पैमाइश करने वाली इस नयी आर्थिक संस्कृति में सूबेदार खेत्तरपाल और उनके बालसखा बलवान सिर्फ़ मृत्यु का इंतज़ार कर सकते हैं. कभी बस के कंडक्टर द्वारा तिहाड़ को केवल जेल मान लेने की ग़लती पर बलवान बिफर गए थे. उन्होंने कंडक्टर को थप्पड़ जड़ते हुए कहा था :
साले… तिहाड़ गांव पहले बसा कि तिहाड़ जेल? बता, बता तू? गांव की इज्जत होती है कि नहीं. उसके नाम पर जेल बनाकर गांव की इज्जत खा गए और हंसते हो तुम लोग.[25]बलवान की यह लताड़ दरअसल किसानी- अस्मिता के अपहरण से उपजा एक सामूहिक क्षोभ है :
साढ़े सात सौ गाँव खा गयी तेरी ये दिल्ली. बहत्तर पंचायतें. दस हज़ार कुएँ और हज़ारों जौहड़. लाखों पेड़. तब बनी है तेरी यौ डायन दिल्ली. समझा ससुरे. हमें खाकर बनी है आज की दिल्ली.[26]
नव-उदारतावादी संस्कृति में पली-बढ़ी जगबीर की पीढ़ी को सूबेदार और बलवान की लुप्त हो चुकी दिल्ली से कोई सरोकार नहीं है. इस ‘नयी’ दिल्ली को महेंद्र चौधरी जैसे दलाल ज़्यादा अच्छे से समझते हैं. इसीलिए तो वह दुकानदार से कहता है : ‘के बात कर दी तन्ने सुरेश? इब गांव के गांव बिक गए, यू खेत्तरपाल चीज के सै?बलवान तो फिर भी इस ध्वंस को स्वीकार कर चुका है. वह सूबेदार से कहता है : अब बांट दे. कब तक रोकेगा. निबट ले इब. इब पूरी दिल्ली ही ख़रीदी-बेकी जा रही है.[27]लेकिन, सूबेदार ख़ुद को जैसे नये बॉर्डर पर पा रहे हैं :
एकदम अलग-थलग और अकेले. जैसे कोई सिपाही ठंडे अंधेरे में बॉर्डर पर खड़ा हो और धुंध की वजह से उसका दिशा-बोध अचानक लडखड़ा जाए. वह तय ही न कर पाए कि देश किधर है. अब वह किस चीज़ की रक्षा कर रहा है.[28]आखि़र में सूबेदार का आर्तनाद— ‘बता, किस किस नै बचाऊं?’ उस बूढ़े और मरणासन्न आदमी का बयान है जिसे नव-उदारतावादी पूंजी ने अंतिम तौर पर पराजित कर दिया है.
यहां यह अलग से रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है कि अपने प्रामाणिकता और जीवंत तथ्यों के कारण यह कहानी शहरी-अध्ययन के किसी भी स्तरीय लेख को चुनौती देसकती है. इसमें सिर्फ़ अपनी पहचान खोते गांव या उसे गिरफ़्त में लेते जा रहे शहर के वस्तुनिष्ठ ब्योरें भर नहीं है. यहां एक समूची पीढ़ी के अप्रासंगिक हो जाने का इतिहास दर्ज है.
दिल्ली में तेरह साल रहने और यहां का भोटर (वोटर) होने के बावजूद बजरंगी ख़ुद को नागरिक नहीं गिरमिटिया मानता है. दो बच्चों और पत्नी के साथ किराये पर रहता है. साइकिल उसके बेटे का आकर्षण, पत्नी की इच्छा और खुद बजरंगी के लिए एक ज़रूरत है. अगर उसके पास साइकिल न हो तो वह फ़ैक्ट्री जाने का दैनिक ख़र्च वहन नहीं कर सकता. बजरंगी लोहा गलाने की फ़ैक्ट्री में काम करता है, लेकिन भाई जी के लिए भीड़ भी आउटसोर्स करता है. यह उसका मूल द्वंद है. वह जान चुका है फ़ैक्ट्री से उसके जीवन की गाड़ी नहीं चल पाएगी. इसलिए वह काम में कम राजनीति में ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगा है. फ़ैक्ट्री से ग़ैर-हाजि़री के कारण उसके परिवार की स्थिति दिनोंदिन ख़राब होती जा रही है, फिर भी उसे लगता है कि एक दिन राजनीति में उसका सितारा ज़रूर बुलंद होगा. बजरंगी भाई जी का ताबेदार है और भाई जी एक ऐसा पूर्णकालिक नेता जिसके लिए राजनीति चौबीस घंटे का काम है. वही उसकी जीविका है. अपनी राजनीति को लेकर भाई जी बिल्कुल साफ़गो हैं :
‘हम लोगों के लिए पार्टी उतनी मायने नहीं रखती बजरंगी. जिस दिन किसी बड़ी पार्टी का नेता दिल से हमें मानने-सुनने लगे, वही हमारी पार्टी होगी.’[29]
बजरंगी भाई जी का मातहत है :
‘भाई जी को हर चार-पांच महीने पर आदमी चाहिए हॉल और स्टेडियम भरने के लिए. बड़ा जलसा करते रहते हैं. ऊपर से दिल्लीभर में पुरबियों की होली-दीवाली, छठ-पूजा, विश्वकर्मा पूजा और मार तमाम धार्मिक-राजनीतिक जलसो में भाई जी के साथ परछाईं बन कर रहना होता है.’[30]
इस सेवा के बदले भाई जी ने बजरंगी के बेटे का दाखि़ला केंद्रीय विद्यालय में करवा दिया है. इस राजनीतिक सक्रियता का बजरंगी को एक अन्य लाभ यह हुआ है कि उसकी मुहल्ले में भी इज़्ज़त बढ़ गयी है.
लेकिन, इसके अलावा उसका बाक़ी जीवन अभावों से घिरा है— मुहल्ले के पंसारी के सात हज़ार रूपये चढ़ चुके हैं. परिचितों से अधिकतम ले चुका है, और मिजो से इसलिए नहीं ले सकता क्योंकि अभी तक उसका पिछला हिसाब ही चुकता नहीं हो पाया है. कहानी में क़दम-दर-क़दम ज़ाहिर होता जाता है कि बजरंगी की राजनीतिक हैसियत भाई जी पर निर्भर करती है. और बड़ा मुक़ाम हासिल करने के लिए ख़ुद भाई जी को साहेब सर की कृपा चाहिए. भाई जी की राजनीति में कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका निभाते और उसके साथ घूमते-फिरते बजरंगी जान गया है कि ‘नॉर्थ और साउथ ऐवेन्यू कहे जाने वाले इस इलाक़े में ही असली इंडिया है. सारा का सारा पॉवर यहीं क़ैद है.’[31]
अनगढ़ ढंग से कहें तो एक अर्थ में भाई जी और बजरंगी तीसरे व्यक्ति— साहेब सर की राजनीति के उप-ठेकेदार हैं. शक्ति और सत्ता का मूल स्रोत साहेब सर के पास ही है. निचले स्तर पर किसको क्या मिलेगा यह उन्हीं पर निर्भर करता है.
क्या पदानुक्रम पर टिकी इस राजनीति में बजरंगी का कल्याण संभव है ? इसे साहेब सर की कोठी और बजरंगी के आसपड़ोस के संसार से समझा जा सकता है. साहेब सर की कोठी देखकर बजरंगी हक्का-बक्का रह जाता है. उसके लिए वह एक दिव्यलोक था जिसमें ‘दर्जन भर चमचमाती गाडि़या खड़ी थीं. जिनकी रखवाली एक दर्जन पुलिस और आधा दर्जन अल्सिशियन कुत्ते कर थे.’ किस्म-किस्म के पेड़, संगमरमर की सीढि़यां, आदमकद के नक्काशीदार गमले. घास इतनी हरी कि बजरंगी को कालीन का गुमां हो जाता है. जिस हॉल में आगंतुक भीड़ को बैठाया गया है वहां एसी के कारण इतना ठंड हो गयी है कि लोगों को सुबकी आने लगी है. बजरंगी के ज़ेहन में सवाल उठता है : ‘एक ही शहर में किस क़दर दो मौसम हो जाते हैं.’ बजरंगी महसूस करता है कि सीढि़यां चढ़कर वह जिस दरवाज़े से दाखि़ल हुआ है, वह बीस-पच्चीस फ़ीट ऊंचा है. हॉल के फ़र्श पर ही नहीं दीवारों पर भी कालीन मढ़ा है.[32]
अब इस ‘दिव्यलोक’ के बरक्स बजरंगी का आसपड़ोस रखकर देखिये. कहानी के तथ्यों से पता चलता है कि वह जिस गली में रहता है उसके मुहाने पर एक छोटा-सा पार्क है जो अब कूड़ेघर में बदल चुका है.जैसाकि हमने ऊपर इंगित किया था, दिल्ली शहर का चौथाई से भी कम हिस्सा नियोजित है. शेष भाग वह है जो एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच अनधिकृत से नियमित हो जाने का इंतज़ार करता रहता है. क्या ‘दिव्यलोक’ की राजनीति शहर के उस हिस्से का उद्धार कर सकती है जहां बजरंगी रहता है?या दूसरे शब्दों में, क्या इस राजनीति में भागीदार बनकर बजरंगी की नागरिकता मतदाता की सीमित स्थिति का अतिक्रमण कर सकती है?
दरअसल, इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें यह देखना होगा कि वैश्वीकरण के तीन दशकों में दिल्ली शहर का सामाजिक-स्थानिक दृश्य किस तरह बदला है. आज इस बात पर आश्चर्य होता है, लेकिन नवें दशक यानी वैश्वीकरण की औपचारिक घोषणा से पहले दिल्ली या कोई भी महानगर किसी एक वर्ग का नहीं माना जाता था. निस्संदेह, शहर को धर्म, जाति, आर्थिक हैसियत तथा क्षेत्रीय संस्कृति के आधार पर चिह्नित और विभाजित करने के आग्रह पूर्व-औपनिवेशिक काल से चले आ रहे हैं. यह भी सच है कि स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्य ग़रीबी के संरचनात्मक कारणों की निरंतर अनदेखी करता रहा, लेकिन इसके समानांतर वह तीन-चार दशकों तक बड़े शहरों की ग़रीब जनता को आवास, पानी, बिजली, परिवहन, शिक्षा और स्वच्छता आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने का प्रयास भी करता रहा.[33]
विकास और कल्याण की ऐसी योजनाएं शहरों की बेतहाशा बढ़ती आबादी को देखते हुए हमेशा नाकाफ़ी साबित हुईं, फिर भी आठवें दशक के आखिरी बरसों तक शहर का ग़रीब नागरिक राज्य की निगाह में ‘अतिक्रमणकारी’ नहीं हुआ था.
लेकिन, नवें दशक में वैश्वीकरण का शंखनाद होते ही यह मंजर बदलने लगा. नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था और उसके साथ उभर रही नयी राजनीतिक व्यवस्था में महाशक्ति बनने की दावेदारी कर रहा भारत का अभिजन-समूह अब राष्ट्र के भौगोलिक-सामाजिक स्पेस को वैश्वीकरण के अनुरूप पुनगर्ठित करना चाहता था. चूंकि वैश्वीकरण की इस ग्रिड में ‘ग्लोबल सिटी’ की भूमिका प्रमुख थी, इसलिए हमारे योजनाकार, नीति-निर्माताओं तथा उद्योग-जगत के लिए वह एक नारा बन गया. यहां यह भीग़ौरतलब है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सूचना-प्रोद्यौगिकी जैसे नये क्षेत्रों से लाभान्वित विभिन्न समूह का बोध ग्लोबल सिटी के मानकों— बहुमंजिला इमारतों, शॉपिंग मॉल्, बिजनेस सेंटर, चौबंद आवासीय स्थलों (गेटिड इन्कलेव) और फ़्लाइओवरों की मौजूदगी से तय होता गया है. वैश्वीकरण की अन्यान्य प्रक्रियाओं से अस्तित्व में आया यह नया मध्यवर्ग और उसकी कल्पनाओं व वरीयताओं का संसार अब शहर की स्थानिकता में अपनी इच्छानुसार काट-छांट करने की स्थिति में आ गया है. संक्षेप में कहा जाए तो नवें दशक के बाददिल्ली जैसा हर महानगर वंचित और हाशिये के लोगों को अपने स्पेस से बेदख़ल करता जा रहा है. शहरी समाजशास्त्र के कतिपय अध्येताओं का मानना है कि वैश्वीकरण के बाद शहर ग़रीबों की बेदख़ली का एक नया मोर्चा बनता गया है.[34]
नयी अर्थव्यवस्था के संपन्न-सम्मानितों के लिए शहर को सुंदर और हरा-भरा बनाने की इस प्रतिक्रियावादी मुहिम में हमारे न्याय-तंत्र की भूमिका अग्रणी रही है. एक तरह से देखें तो वंचितों को बेदख़ल करने के लिए न्यस्त-स्वार्थों ने सबसे ज़्यादा सहारा इस तंत्र का लिया है. इसका एक उदाहरण स्वच्छ पर्यावरण की हिमायत में खड़े संगठनों की सक्रियता में देखा जा सकता है. इस दौर में दिल्ली से ख़तरनाक उद्योगों को हटाने के नाम पर छोटे-मोटे उ्दयोगों की 98000 हज़ार यूनिट बंद कर दी गयीं. जिसके चलते लगभग पचास हज़ार लोग बेरोज़गार हो गए. कामगारों को उनका लंबित वेतन नहीं दिया गया. इस प्रसंग का सबसे अमानवीय पहलू यह था कि है कि मामले की सुनवाई के दौरान कामगारों को कभी भी अपना पक्ष नहीं रखने दिया गया.[35]
शहर के सामाजिक-भौगोलिक स्पेस को पुनगर्ठित करने की इस नव-उदारतावादी योजना में न्याय-तंत्र की जन-विरोधी भूमिका का एक और ज्वलंत उदाहरण दिया जा सकता है. मसलन, 1999 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी ने दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में गंदगी का हवाला देते हुए उसे गिराने के आदेश दिए थे. लेकिन, सरकार ने जब इस फ़ैसले को लागू करने में असमर्थता जताते हुए कहा कि वह विस्थापित लोगों के लिए वैकल्पिक जगह का प्रबंध नहीं कर सकती तो अदालत ने 2006 में अवमानना का मुद्दा उठाकर सरकारी एजेसियों को मजबूर कर दिया. नतीजा यह हुआ कि नांगल माछी नामक बस्ती एक दिन नक्शे से पौंछ दी गयी.[36]
दिल्ली में स्पेस, सत्ता और पहचान के इर्दगिर्द उभर रही हिंसा पर केंद्रित अपने अध्ययन में अमिता बाविस्कर ने एक नृशंस घटना का उल्लेख किया है जिसमें नियोजित बस्ती के निवासियों ने झुग्गी बस्ती से पार्क में दिशा-मैदान के लिए आए एक किशोर को इतनी बेरहमी से पीटा कि उसकी मौत हो गयी थी.[37]
उल्लेखनीय है कि यह किशोर बिहार से चंद रोज़ पहले ही दिल्ली आया था और वह इस इलाक़े से परिचित नहीं था. सनद रहे कि यह घटना 1995 की है जब दिल्ली के स्पेस पर उच्च और मध्यवर्ग की दावेदारी अपने शुरुआती दौर में थी.
इस क्रम में यह भी देखें कि बजरंगी जिस दिल्ली में रहता है उसकी हालत यह है कि वहां 39 फ़ीसदी आबादी के पास आवास के नाम पर महज़ एक कमरे की जगह है. इसका मतलब यह है कि इस शहर में पांच लोगों का परिवार एक कमरे में रहता है; 24 फ़ीसदी घरों में पीने का पानी नहीं है और 21 प्रतिशत घरों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है. यह अकारण नहीं है कि 1951 में दिल्ली की कुल आबादी में स्लम की आबादी केवल 5 फ़ीसदी थी जो 1991 में 18 फ़ीसदी पर पहुंची और अब 27 फ़ीसदी हो चुकी है. ग़ौरतलब है कि ये आंकड़ें दिल्ली ह्यूमन डिवेलपमेंट रिपोर्ट, 2006 में दर्ज हैं.[38]ज़ाहिर है कि बीच के इन वर्षों में हालात बद से बदतर हुए हैं. मसलन, दिल्ली में 2008 से पहले गिराई गईं सढ़सठ झुग्गियों के परवर्ती अध्ययन से पता चलता है कि इनकी जगह महंगे फ़्लैट, ऑफि़स, शॉपिंग मॉल और सड़क आदि का निर्माण किया जा रहा था.[39]कई मामलों में झुग्गियों की जगह पार्क बनाए जा रहे थे. कहना न होगा कि दिल्ली को साफ़-सुथरा और हरा-भरा बनाने की यह परियोजना बजरंगी जैसे लोगों के संवैधानिक अधिकार छीनकर पूरी की जा रही थी.
अब एक बार फिर बाहर के इस शहर से कहानी के शहर में लौटें और याद करें कि कहानी की चर्चा के आरंभ में हमने यह सवाल पूछा था : क्या ‘दिव्यलोक’ की राजनीति शहर के उस हिस्से का उद्धार कर सकती है जहां बजरंगी रहता है?या दूसरे शब्दों में, क्या इस राजनीति में भागीदार बनकर बजरंगी की नागरिकता मतदाता की सीमित स्थिति का अतिक्रमण कर सकती है?
इस कहानी की एक बड़ी उपलब्धि यह है कि वह इस सवाल का जवाब ख़ुद ही दे देती है : साहेब सर और भाई जी की राजनीति ने शहर को आग में झोंक दिया है. बजरंगी इस राजनीति से मिलने वाले लाभ देख चुका है, अब वह उसका ख़ूनी दौर देख रहा है— अफ़वाह, भय और दंगा. अकारण नहीं है कि बजरंगी जीवन और राजनीति के स्थानीय संदर्भों की सीमाओं से मुक्त होकर अंतर्राष्ट्रीयतावाद की ओर बढ़ रहा है. रंग और नस्ल को लेकर उसके भीतर जो छिटपुट पूर्वाग्रह थे उन्हें बजरंगी के बेटे ने दुरुस्त कर दिया है. यह कोई साधारण बात नहीं है कि बजरंगी सोलोमन और उसकी प्रेमिका आबेबा सोल के रूप-रंग की भिन्नताओं से परे जाकर उनकी मानवीय गरिमा और ऊष्मा को लक्षित करता है. इसलिए एक समय के बाद जब सोलोमन पेड़ के नीचे हंडिया में साग पका रही अपनी दादी का बजरंगी से परिचय कराता है तो बजरंगी को साग की सुगंध ठीक वही लगती है जो बरसों पहले उसकी दादी की हंडिया से उठा करती थी. बजरंगी ध्यान से देखता है तो पाता है कि बटलोई भी वही है. फिर सोलोमन की दादी को देखता है और अचकचा जाता है कि ‘वह सोलोमन की दादी नहीं थी अब.’ यह अन्य से तादात्म्य अनुभव करने की चेतना का प्रभाव है कि बजरंगी दंगे के ऐन बीच हिरिया, जिरिया, सोलोमन और आबेबा को बचाने निकल पड़ता है.
यह बजरंगी के व्यक्तित्वांतरण का क्षण है. यह उसके लिए साहेब सर और भाई जी की राजनीति से स्वतंत्र होकर अपने जैसे लोगों की खोज पर निकलने का क्षण है. यह संघर्ष की अंतर्राष्ट्रीयता का क्षण है.
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