संस्कृति शोर बनाम समझ नरेश गोस्वामी |
‘मैं इस अन्धविश्वास को नहीं मानता कि हर चीज़ इसलिए अच्छी है क्योंकि वह प्राचीन है. मैं यह भी नहीं मानता कि कोई चीज़ इसलिए अच्छी है क्योंकि वह भारतीय है.”
महात्मा गांधी
(निर्मल कुमार बोस (1948), ‘सेलेक्शंस फ्रॉम गांधी’, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, पृ. 278.)
आलोक टंडन अपनी इस किताब की भूमिका के पहले पन्ने पर ही साफ़ कर देते हैं कि हमारे दौर में संस्कृति का शोर तो बहुत है लेकिन उसकी समझ की स्थिति यह है कि कोई संस्कृति को सभ्यता का समानार्थी मान लेता है. कोई उसे धर्म का अनुषंग मानकर कर व्याख्या करने लगता है तो कोई उसे परम्परा का भाजक बनाकर कुछ और ही मान निकालता रहता है. इसलिए, लेखक का स्पष्ट आग्रह है कि संस्कृति की सीमित और विस्तृत परिभाषा में मौजूद द्वंद्व को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.
इस किताब के स्वर और स्वरूप में संस्कृति के सूत्रों की गुत्थी को सुलझाने— बेमेल सूत्रों को एक-दूसरे से अलगाने, उन्हें निथारने और एकांगी परिप्रेक्ष्यों को दुरुस्त करने का मंतव्य झलकता है. केवल एक सौ छह पृष्ठों की यह पुस्तिका संदर्भों और उद्धरणों की नुमाइश न लगाकर विषय के आधारभूत सूत्रों— ऐतिहासिक और समकालीन पहलुओं, औद्योगिक-प्रोद्यौगिकी क्रांतियों के बाद उसके बदलते स्वरूपों और सत्ता के साथ उसके प्रकट और अदृश्य संबंधों की अलग-अलग कोणों से पड़ताल करती है. लेखक ने यहाँ विवेचना की ऐसी शैली अपनाई है जिससे केवल यह पता नहीं चलता कि संस्कृति का सकारात्मक आशय क्या होता है, बल्कि यह भी स्पष्ट होता चलता है कि उसे किन श्रेणियों में अपघटित नहीं किया जा सकता.
मसलन, आलोक टंडन का कहना है कि संस्कृति केवल कला और साहित्य तक सीमित नहीं होती; न ही उसे धर्मग्रंथों के वचनों का संकलन या अतीत में विकसित विचारों और धारणाओं का समुच्चय कहा जा सकता है क्योंकि अपनी समग्रता में वह एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया होती है जो समय की प्रवृत्तियों से अनुक्रिया करती है तथा जिसे हरेक कालखंड की वर्चस्ववादी शक्तियां अपने हितों-इरादों के अनुसार अनुकूलित करना चाहती हैं.
संस्कृति के इस अर्थान्वेषण में आलोक टंडन हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्यामाचरण दुबे, भगवतशरण उपाध्याय, अमृत्य सेन, नंदकिशोर आचार्य से लेकर एंतोनियो ग्राम्शी, रेमंड विलियम्स, टेरी ईगलटन, भीखू पारेख और योहान गाल्टुंग आदि से मुखातिब होते हुए उसकी एक गत्यात्मक, समावेशी, अंतरजातीय और अंतरावलंबी परिभाषा पर पहुंचते हैं. संस्कृति की सारतत्त्ववादी एकवचनीयता में उन्हें एक दुराग्रह दिखाई देता है क्योंकि वह ‘अतीत के किसी बक्से में रखी स्वर्ण मणि’ न होकर उस सतत गतिशील नदी की भांति होती है जो अपने प्रवाह में अनेक धाराओं को समेटे हुए बहती है. इसलिए उनके विश्लेषण में संस्कृति मूल्य-दृष्टि, मूल्य-निष्ठा तथा आचरण के समन्वय के रूप में उभरती है.
लेकिन, इस किताब में संस्कृति के इस अवलोकन और विवेचन का एक दूसरा आयाम भी है जिस पर संस्कृति के ज़्यादातर अध्येताओं का ध्यान नहीं जाता. यहाँ हमारा आशय उस प्रवृत्ति से है जिसके प्रभाव में अधिकतर चिंतकों का इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि मनुष्य के संगठित अस्तित्व का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो संस्कृति की धारणाओं के बजाए उसकी भौतिक-प्राकृतिक परिस्थितियों और सार्वभौम ज़रूरतों से निर्धारित होता है. लेखक का कहना है कि समाज के लिए संस्कृति एक आधारभूत ढांचे का काम करती है परंतु उसे मनुष्यता का प्रमुख घटक या जीवन का अंतिम नियंता नहीं माना जा सकता क्योंकि अंततः जीवन की भौतिक परिस्थितियां ज़्यादा प्रभावशाली और निर्णायक होती हैं. यहाँ लेखक का यह तर्क ध्यान की दरकार रखता है कि संस्कृति को सर्वोपरि मान लेने से एक तरह का सापेक्षतावाद पैदा होता है जो अन्याय को संस्कृति का अंग बताकर उसके संभावित प्रतिरोध को कमज़ोर कर देता है. ख़ास तौर पर, बहुलतावादी समाजों में यह प्रवृत्ति तब नागरिक और मानव-अधिकारों के अवमूल्यन का कारण बन जाती है जब सांस्कृतिक भिन्नता को मूल्य का दर्जा देकर उसे हस्तक्षेप और सवालों से परे मान लिया जाता है.
संस्कृति को मानव-समाज के सबसे निर्णायक घटक के रूप में प्रक्षेपित करने की इस प्रवृत्ति को घेरते हुए लेखक यह तर्क देता है कि मानव-समाज में गरीबी, भूख, बेरोजगारी, बीमारी, युद्ध और पर्यावरण के विध्वंस जैसी समस्याएं केवल सांस्कृतिक सूत्रों के भरोसे हल नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है कि इससे यह निष्कर्ष निकालना ग़लत नहीं होगा कि
‘संस्कृति की एक निश्चित सीमा है, जबकि मानव-जीवन अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है. इसलिए, मानव जीवन के सभी आयामों को उसके अधीन करके नहीं देखा जा सकता.‘
एक तरह से देखें तो, इन अनेक व्याख्याओं के ज़रिए लेखक संस्कृति के प्रश्न को धार्मिक-ईश्वरीय संकल्पनाओं के संधि-स्थल से उठाकर मनुष्य के संगठित कर्म, बुद्धि और विवेक के धरातल पर स्थापित करता है. हमारे समय में जब संस्कृति के अध्ययन और प्रदर्शन का लगभग हरेक उपक्रम सामासिकता के यथार्थ को दरकिनार कर अतीत के उत्सव में बदल गया है तो इस दृष्टिकोण का प्रतिपादन करना निश्चय ही संस्कृति के सत्ता-पोषित और प्रायोजित भाष्य का प्रतिवाद करना है. यह बौद्धिक हस्तक्षेप इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि संस्कृति की मूल्यवत्ता इस बात से तय होती है कि वह वर्तमान की चुनौतियों का सामना कैसे करती है तथा भविष्य के समाज के लिए उसके पास क्या रूपरेखा है.
(2)
यह किताब इस अर्थ में भी विचारोत्तेजक है कि लेखक मौजूदा सांस्कृतिक संकट को भारतीय नवजागरण की असमाप्त यात्रा से जोड़कर देखता है. हालांकि पहली नज़र में ऐसा लगता है कि इतनी संक्षिप्त चर्चा में इतने व्यापक और जटिल सवाल कहाँ तक उठाए जा सकते हैं या उनके साथ कैसे न्याय किया जा सकता है, लेकिन लेखक ने इस बहस की आधारभूत संकल्पना को जिस तरह प्रस्तुत किया है, उससे यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस विषय पर वह आंगिक ढंग से सोचता रहा है. ग़ौरतलब है कि इस बहस में लेखक केवल अपना परिप्रेक्ष्य नहीं रखता; केवल अपने तयशुदा निष्कर्षों की बात नहीं करता, बल्कि नयी दिशाओं में जाता है. नवजागरण की ज़मीन से उपजी प्रक्रियाओं, प्रस्तावों, प्रवृत्तियों को देखने के साथ उसके पश्च-प्रभावों को भी अपने विमर्श में शामिल करता है.
लेखक का मत है कि ‘बुद्धिसम्मत आलोचनात्मक सोच’ का विकास नवजागरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवदान था. यह नवोत्थान का एक ऐसा क्षण था जिसके अंदर पश्चिमी सभ्यता के निपट प्रतिकार से लेकर समन्वय जैसी प्रवृत्तियां सक्रिय थीं. उसका मानना है कि नवजागरण की मुख्यधारा अपने धर्म और परम्परा के खिलाफ़ नहीं थी, बल्कि उसका उद्देश्य यूरोपीय संपर्क से उत्पन्न नए ज्ञान के साथ समायोजन करना था. वह इस संपर्क को भारतीय समाज में लौकिकता, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, सह-अस्तित्व और बौद्धिक उदारता जैसे मूल्यों के साथ धार्मिक सुधारों के एक ऐसे उत्प्रेरक के रूप में दर्ज करता है जिससे पहले बुद्धिसम्मत आलोचनात्मक विवेक की संरचना को विकसित होने का मौक़ा मिला और इसी के साथ सांस्कृतिक विरासत को देखने की एक नयी बौद्धिक दृष्टि भी पैदा हुई.
लेखक को इस बात का ख़याल है कि भारतीय नवजागरण यूरोप के नवजागरण से किस मायने में भिन्न था. यूरोपीय नवजागरण में अतीत से विच्छिन्नता और अनास्था का भाव बहुत प्रबल था जबकि भारत के नवजागरण में अतीत की उपलब्धियां उसका एक बुनियादी आधार था. जैसा कि हमने इस खंड के आरंभ में इंगित किया था, लेखक भारतीय नवजागरण को मौजूदा भारतीय संस्कृति की आधारशिला के रूप में देखता है. उसकी नज़र में नवजागरण की यह आधारभूत चेतना एक ऐसी निरंतरता है जिसका प्रभाव स्वाधीनता आंदोलन से लेकर संविधान की परिकल्पना और रचना तक दिखाई देता है. इसलिए, वर्तमान सांस्कृतिक संकट— रूढ़िवाद, विवेक और तार्किकता के क्षरण आदि के समाधान के लिए उसे नवजागरण की दूसरी लहर आवश्यक प्रतीत होती है.
हालांकि, स्वाधीनता आंदोलन में नवजागरण के मूल्यों की उपस्थिति से संबंधित चर्चा में लेखक ने इस बात की ओर इशारा किया है कि एक समय के बाद आंदोलन में सामाजिक सुधार का पक्ष हाशिए पर चला गया, लेकिन हमारे विचार में लेखक को स्वाधीनता आंदोलन के इस अंतर्विरोध के कारणों को थोड़ा और स्पष्ट करना चाहिए था कि नवजागरण के मूल्यों से प्रेरित राष्ट्रीय नेतृत्व को ऐसी क्या हड़बड़ी थी कि उसने सामाजिक पुनर्निमाण का रास्ता छोड़कर अपनी ऊर्जा को केवल राजनीतिक संप्रभुता के प्रश्न पर केंद्रित कर लिया?
यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है कि लेखक भारतीय संविधान की रचना को सांस्कृतिक पुनर्विन्यास की लगभग दो शताब्दियों लंबी इस परिघटना के शिखर-बिंदु के तौर पर देखता है, जबकि आज स्वतन्त्रता, समता और भाईचारे के आधुनिकतावादी मूल्यों पर आधारित, स्त्री और दलित के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने तथा धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन की गारंटी करने वाले संविधान की वैधता को ही चुनौती दी जा रही है. दूसरे, लेखक ने ख़ुद भी स्वीकार किया है कि नवजागरण से निसृत ऊर्जा ने हमारे सामूहिक मानस को जिस तर्कशील, समावेशी और उदार संस्कृति की कल्पना थमाई थी, वह धीरे-धीरे जाति-धर्म की संकीर्णताओं और अस्मितावादी राजनीति में फंसकर संकटग्रस्त हो गई है. उसका कहना है कि भारत में एक समय परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से जिस तरह की आधुनिकता का विकास हो रहा था, वह प्रक्रिया एक गहरे गतिरोध का शिकार हो गई है. आधुनिकता बनाम परम्परागत संस्कृति का यह द्वंद्व हमारे समाज में कुछ नव-अर्जित हिंसक कट्टरताओं के साथ आज भी जारी है. सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के नाम पर समाज में घृणा का विस्तार हो रहा है.
सवाल है कि सामासिकता के बजाए बहुसंख्यकों की संस्कृति को राष्ट्र का पर्याय साबित करने वाली इस प्रतिक्रिया के स्रोत कहाँ छिपे थे? क्या इस संबंध में नवजागरण के बहुस्तरीय अध्ययन कोई रास्ता खुल सकता है?
ख़ैर, संस्कृति के इस विहंगम और क्षैतिज अवलोकन में आलोक टंडन ने उन प्रक्रियाओं पर भी उंगली रखी है जिन पर रोज़मर्रा की राजनीति और घटना-क्रमों पर नज़र रखने वाले टिप्पणीकारों का तो बहुत ध्यान नहीं जाता, लेकिन जिनका संचित प्रभाव इतना व्यापक होता है कि एक समय के बाद पूरा परिप्रेक्ष्य ही बदल जाता है. मसलन, मौजूदा सांस्कृतिक संकट की पड़ताल के क्रम में उनका यह कहना इस संकट के सामाजिक निहितार्थों की ओर इशारा करता है कि संचार-क्रांति के भूमण्डलीय नेटवर्क से प्रचारित-प्रसारित अनंत उपभोग का जीवन जीने के लिए जिस स्तर की आर्थिक सफलता अपेक्षित होती है, वह सामाजिक नैतिकता को छिन्न-भिन्न किए बग़ैर हासिल नहीं की जा सकती.
(3)
भार और आकार के लिहाज़ से यह एक छोटी-सी किताब है. इसके परिचय में भी इसे पुस्तिका ही कहा गया है. लेकिन, यह भ्रम है पहले पृष्ठ से ही टूटने लगता है. पाठक को बहुत जल्द एहसास होने लगता है कि वह देखने में छोटी लेकिन विचार की सघनता और व्याप्ति में एक बड़ी किताब है. इसके पन्नों से गुज़रते हुए वह बात ख़ुद ब ख़ुद उजागर होने लगती है कि छोटी किताब का मतलब सूचनाओं, तर्क-पद्धति, शोध-पद्धति, और विश्लेषण में कटौती या उनका संकुचन नहीं होता. वह इस तथ्य से भी दो-चार होता है कि छोटी किताब बड़ी किताब का सार-संक्षेपण नहीं होती. यह भी कि असल में किताब की महत्ता विचार के गठन, प्रस्तुति और उसके स्वरूप से तय होती है. इस तरह, एक ही विषय की छोटी किताब उस विषय की महाकाय किताब से ज़्यादा उपयोगी और अंतर्दृष्टि पूर्ण हो सकती है. अक्सर तो होता यह है कि वृहद्कार किताबों को केवल आकार, पृष्ठों की संख्या तथा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर आदि पर प्रतिष्ठित विद्वानों के नामों के आधार पर ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है, जबकि ग़ौर से देखा जाए तो यह किताब के महत्त्व के बजाय उसके विज्ञापन और प्रचार से जुड़ा मामला ज़्यादा है. वस्तुत: एक स्तर पर यह विचार और विवेक विरोधी रवैया होता है क्योंकि किसी भी किताब का मूल्यांकन कम से कम इन तीन आधारों पर तो किया ही जाना चाहिए :
(1) क्या वह प्रस्तुत विषय की प्रचलित व्याख्याओं और उसके ज्ञात सीमांतों का कितना विस्तार करती है?
(2) क्या वह विद्वत्ता के नाम पर पिष्टपेषण सहित भ्रामक और अपुष्ट धारणाओं की शिनाख्त करने में मदद करती है?
(3) क्या वह अपने पाठक को वाग्जाल, वितंडा और सूचनाओं के ग़लत प्रयोग को प्रश्नांकित करने की क्षमता प्रदान करती है?
लेकिन, याद रहे कि यह किताब विशद, व्यापक, संश्लिष्ट, बहुआयामी और बहुस्तरीय विश्लेषण की महत्ता को ख़ारिज नहीं करती.
असल में, इस किताब का महत्त्व यह है कि वह संस्कृति के परिपथ पर औचक रौशनी डालकर यह दिखाती है कि इसका प्रवाह और उन्मेष कहाँ अवरुद्ध हो गया है? उसकी आंतरिक गतियां कहाँ रुक गई हैं. इस रौशनी में गर्वोक्तियों और आनुभविक वास्तविकताओं की फांक को साफ़ देखा जा सकता है.
आखिरी बात, यह किताब अपने पाठक को निष्क्रिय मान कर नहीं चलती. वह उसे बहस में शामिल करती है तथा अपने पाठ को इस तरह प्रस्तुत करती है कि पाठक उसमें भागीदार बन जाता है. शायद यह इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि यह किताब ज्ञान प्रदान करने की अहमन्यता में नहीं संवाद करने की ग़रज से लिखी गई है. वह तथ्यों और सूचनाओं का घटाटोप खड़ा न करके रूढ़ हो चुकी धारणाओं के बरक्स व्याख्याओं का एक जनपक्षधर विन्यास प्रस्तुत करती है.
सम्प्रति: |
नरेश गोस्वामी की यह विचारोत्तेजक समीक्षा आलोक टंडन की ‘संस्कृति’ पुस्तिका को पढ़ने-गुनने के लिए पाठक में उत्सुकता जगाती है. बावजूद इसके नरेश जी का यह कहना बहसतलब है कि “लेखक भारतीय संविधान की रचना को सांस्कृतिक पुनर्विन्यास की लगभग दो शाताब्दियों लम्बी इस परिघटना के शिखर-बिंदु के तौर पर देखता है , जबकि आज स्वतंत्रता ,समता, और भाईचारे के आधुनिकतावादी मूल्यों पर आधारित ,स्त्री और दलित के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने तथा धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन की गारंटी करने वाले संविधान की वैधता को ही चुनौती दी जा रही है.” सवाल उठता है कि स्वतंत्रता,समता और भाईचारे के मूल्यों को आधुनिकतावादी माना जाए या आधुनिक ? दीगर बात यह कि ‘संविधान की वैधता को चुनौती’ एक राजनीतिक आरोप है ,जो हर जमाने में विपक्षी दल तत्कालीन सत्ताधारी दल पर लगाता रहा है .कांग्रेस और ख़ासकर इंदिरा जी के शासनकाल में जिस तरह के आरोप उनपर लगते थे, वे ही आरोप आज भी दुहराए जा रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि आज़ादी के बाद हर राजनीतिक दल ने संविधान की दुहाई देने के बावजूद उसकी मर्यादा का कमोबेश उल्लंघन किया है.
नरेश गोस्वामी की विचारोत्तेजक और सारगर्भित समीक्षा। इस किताब को पढ़ने के लिए प्रेरित करती हुई।
भारतीय नवजागरण की पहली लहर की ऊर्जा कैसे सुस्त पड़ती गई, इस सवाल से यह किताब कितना टकराती है, रूढ़िवाद, विवेक और तार्किकता का क्षरण क्यों हुआ,यह बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
फिर भी नरेश गोस्वामी ने अपने धारदार समीक्षा से इसे पढ़ने की ललक जगा दी है।
श्री नरेश गोस्वामी की लिखी पुस्तक ‘संस्कृति-शोर बनाम समझ’ की श्री आलोक टंडन द्वारा की गई समीक्षा पढ़ते हुए भी वैसी ही विचार प्रक्रिया बुद्धि में चलती है जैसे समालोचन में प्रकाशित बाक़ी बहसों में ।
कम वाक्यों में समाहित है तो निर्विघ्न [बेहतर है एक बार में] पढ़ी गई । अमूमन ३-४ दिनों बाद पढ़ पाता हूँ लेकिन पढ़ने की ललक बनी रहती है ।
धर्म-संस्कृति-नवजागरण से रूबरू होती हुई मस्तिष्क के जाले साफ़ करती है । ख़रीदकर पढ़ने की चाहत सूची में लिख लेता हूँ । ७० की उम्र में काम करने की निरंतर घटती क्षमता के कारण कुछ पुस्तकें पढ़ना बकाया हैं । गोस्वामी जी, टंडन जी और अरुण देव जी का धन्यवाद ।