भरत तिवारी (२६ अप्रैल १९७३, फैजाबाद), पेशे से आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाइनर हैं. दिल्ली में रहते हैं. लेखन के साथ- साथ संगीत और फोटोग्राफो में भी दखल है. कई पत्र-पत्रिकाओं में गजलें प्रकाशित हैं. मुंबई के प्रसिद्ध पृथ्वी थियेटर में एकल कविता पाठ.
गज़ल
भरत तिवारी
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एक बोसा एक निगाह-ए करम दे आका
आशिक को आज जलवा दिखा दे आका.
इश्क-ओ ईबादत में तकाज़ा नहीं करते
मंज़िल-ए इश्क का तू पता दे आका.
सारी बुत ओ किताबें रखी हैं मुझ में
कैसे देखूँ और पढूँ ये तो बता दे आका.
हम तेरे ही रहे तू भी हमारा हो जा
आ के अब लाज मेरी बचा दे आका .
हर इक ग़म का तुही है यहाँ चारागर
मुझ पे बारिश रहम की बरसा दे आका.
अपने दर आशिकों को बुलाता है तू
अब अपना चेहरा भी दिखा दे आका.
तेरा ज़र्रा संवारे ‘शजर’ की हस्ती
नूर-ए-जमाल मुर्शिद को दिखा दे आका.
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सियासत से बच न पायी
खबरनवीसों की खुदायी.
हाथ जिसके कलम थमायी
उसने सच को आग लगायी.
हुक्मरां के खून की अब
लालिमा है धुन्धलायी.
ना चढ़े अब कोइ कालिख
पर्त ज़र की रंग लायी.
नाम-ए-धर्म के खिलौने
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई.
वक्त की कहते खता वो
ले रहे जैसे जम्हाई.
देश का प्रेमी बना वो
इक मुहर नकली लगायी.
सोन चिड़िया फ़िर लुटी है
सब विभीषण हुए भाई.
चोर की दाढ़ी जिगर में
अब ‘शजर सब ने छुपाई.
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अपनी मिट्टी भुला के कहाँ जाओगे
सफ़र है लंबा अकेले कहाँ जाओगे.
बहुत करीब होता है मिट्टी से रिश्ता
सिलसिला तोड़ कर ये कहाँ जाओगे.
जुड़े रहना बच्चे की तरह मिट्टी से
बिछड़ गये अगर माँ से कहाँ जाओगे.
न समझो सिर्फ धूल-ओ गर्द मिट्टी को
इसी में आखिर मिलोगे कहाँ जाओगे.
घड़ा है एक बस तू भी मिट्टी का ‘शजर’
न धूप में जो तपोगे कहाँ जाओगे.
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कसम से वो कहर बरपा रहा है
सूखे मेरे लब, जिस्म थर्रा रहा है.
नज़र उसकी क़ातिल महक है शराबी
रूह पर मेरी उसका नशा छा रहा है.
कुछ ऐसी जादुई कशिश तस्वीर में है
उसमे मुझको खुदा नज़र आ रहा है.
रु ब रु मिले तो मुझे चैन आये
क्यों दूर रह कर तरसा रहा है.
रचा ले मुझे जैसे हिना हाथ पर
वक्त मिलने का अब करीब आ रहा है.
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तरोताज़ा सुबह तुम्हारे घर जो आज आयी है
ये पैगाम-ए-मुहब्बत दोस्ती का साथ लायी है.
हुई काफी हमारी और तुम्हारी ये लड़ाई अब
सुनो यारा चलो हैं सुनते दिल की बात आयी है.
निकालो गर्द दो आराम थोड़ा सा ज़ेहन को भी
बेचारा भर ले दम आब-ओ-हवा अब साफ़ आयी है.
चलो वादा करें हम उम्र भर की अब मुहब्बत का
रखें सम्हाल कर इनको ये जो गुम लम्हे लायी है.
तुम्हे सदका दुआओं का ‘भरत’ जो तुमने हों माँगी
के तुम छाँटोगे अब बदरी जुलम की जो ये छाई है.
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दुश्मनो से भी मिलो तो यार की तरहें मिलो
सर्द सुबहों की नरम सी धूप की तरहें मिलो.
दूर हो कर खत्म ना हो ये मुहब्बत देख लो
साँस से, बारिश की सोंधी खुशबू की तरहें मिलो.
साँस से, बारिश की सोंधी खुशबू की तरहें मिलो.
हो मिरे हमराह तो हर मोड़ पे मिलना मुझे
ता-उम्र ना हो जुदा उस राह की तरहें मिलो.
चाँद बेटी में दिखे तो रोज़ घर में ईद हो
बाप हो जिसके उसे हमराह की तरहें मिलो.
तुम “शजर” बचपन रिहा कर दो उम्र की क़ैद से
और अपने आप से तुम दोस्त की तरहें मिलो.