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Home » मंगलाचार : राहुल द्विवेदी – कविता

मंगलाचार : राहुल द्विवेदी – कविता

राहुल द्विवेदी कविताएँ लिखते हैं. छिटपुट प्रकाशन भी हुआ है. अन्तराल के बाद फिर सक्रिय हुए हैं. यह कविता मुझे ठीक लगी. निरंतरता बनाएं रखें और संग्रह भी जल्दी आए इसी उम्मीद के साथ यह  कविता.  आख़िर पुरुषों को रोने से रोका क्यों जाता है ? जबकि यह एक मानवीय सहज प्रक्रिया है. पुरुष बने […]

by arun dev
September 3, 2017
in Uncategorized
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राहुल द्विवेदी कविताएँ लिखते हैं. छिटपुट प्रकाशन भी हुआ है. अन्तराल के बाद फिर सक्रिय हुए हैं. यह कविता मुझे ठीक लगी. निरंतरता बनाएं रखें और संग्रह भी जल्दी आए इसी उम्मीद के साथ यह  कविता. 

आख़िर पुरुषों को रोने से रोका क्यों जाता है ? जबकि यह एक मानवीय सहज प्रक्रिया है. पुरुष बने रहने के लिए समाज उससे न जाने कौन कौन से  अ-मानवीय कार्य कराता है. 



कविता

चूंकि पुरुष रोते नहीं हैं !                            

राहुल द्विवेदी




(1)

याद आता है मुझे
कि बचपन में,
भाई के गुजर जाने पर ,
जब आँसू छलक ही आए थे
पिता की आंखों में …
हौले से कंधे को दबाकर
रोक दिया था बाबा ने…
और कहा था
तुम पुरुष हो…
देखना है तुम्हें बहुत कुछ
संभालना है परिवार
और जंग लड़नी है तुम्हें
बनना है एक आदर्श…..
इसलिए  गांठ बांध लो तुम

पुरुष रोते नहीं हैं.

(2)

बाबा को निश्चित ही
परंपरा में  मिला रहा होगा
यह सबक….
पीढ़ी दर पीढ़ी
सतत…

शायद इसीलिए वो,
जूझते रहे ताउम्र……
अपने आपसे,
अपनी बेबसी से,
गरीबी से ….
चूंकि वह एक पुरुष थे,
(और पुरुष रोता नहीं है भले ही झुक जाएँ उसके कंधे)
वो हमेशा दिखते रहे एक चट्टान की तरह…

उनका चेहरा हमेशा रहा भावना शून्य
जबकि आजी,
कितनी ही  रातों को सिसकती रही
उस घटना के बाद …
पर,
नामालूम  क्यों
मुझे आज भी रात के सन्नाटे में
सुनाई देती है एक हूक
अक्सर—
जैसे कि घोंट ली  हो
किसी ने अपनी आवाज ….

निश्चय ही वो हूक
मुझे लगता है
बाबा की है,
जो सुनाई देती है बदस्तूर
लमहा दर लमहा
साल दर साल
उनके चले जाने के बाद भी……..

(3)

इधर जज़्ब हो गए
आँसू पिता के……
चूंकि उन्हे देखना था परिवार
संभालना था छोटे भाइयों को
बूढ़ी माँ को,
उस बाप को भी—
जो  कि था एक पुरुष….
और हाँ,
अपने परिवार को भी…….
सचमुच—-
नहीं देखा मैंने कभी
रोते हुये अपने पिता को
जबकि,
ये महसूसा है मैंने
कि अचानक बूढ़े हो गए
उस दिन के बाद से वो…….

बेसाख्ता ठहाका  नहीं गूँजता अब घर में
कुछ कुछ कठोर से हो गए हैं
मेरे पिता….

गुमसुम गुमसुम से रहने लगे हैं वो
अब…..
ना जाने क्या क्या ढूंढते रहते  हैं
किताबों में,
कोई पुराने पन्ने
जिसमे छिपी हो कोई मुस्कान
शायद……

और फिर चुपके से
देख लेते हैं  सूनी निगाहों से
आसमान की तरफ.

(4)

बचपन में  मुझे भी
समझाया था उन्होनें  कितनी बार
नहीं  रोते इस तरह…
जब मैं मचल उठता था किसी बात पर
और चुप हो जाता था मैं
ये सुनकर कि,
पुरुष रोते नहीं हैं….

पर मालूम है– मेरे पिता !
तुमसे छिप कर,
न जाने कितनी – कितनी बार,
बाथरूम में  खुले नल के नीचे ,
गिरते पानी के धार  में
धुल गए हैं मेरे आँसू…
जब मैं हारता था
अपने आप से .
……..और उस बार तो,
खूब रोया था सर रख कर
पत्नी के कंधों पर
जबकि वह थी बीमार
बहुत- बहुत  बीमार….

पर आश्चर्य है !
वह बन गई थी एक पुरुष उस क्षण……
उसके कमजोर कंधे हो गए थे बलिष्ठ—-
उसने ही,
हाँ सचमुच उसने ही
पोछे थे मेरे आँसू—
ये कहते हुये एक फीकी हंसी के साथ
कि कुछ नहीं होगा मुझे……

(5)

क्षमा करना मेरे पुरखों  !
मैं रोक न सका अपने आँसू
और अक्सर ही——
मैं नहीं दे पाता सांत्वना
अपनी पत्नी को,
या फिर किसी भी स्त्री को
जब वह रोती है
तब मैं नहीं बन पाता पुरुष
छलक ही जाते हैं मेरे आँसू
उनके आंसुओं के साथ…।

हे पूर्वजों ,
फिर से क्षमा करना मुझे !
कि नहीं रोक पाता मैं  बेटे को
जब रोता है वह, तब……
नहीं बताता मैं उसे
कि पुरुष हो तुम
और पुरुष रोते नहीं हैं
(जिसकी आड़ मे खो गए हैं युवा इस अहंकार के साथ कि वो एक पुरुष हैं ….)
जी हाँ ,
नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
हावी हो उस पर….
वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
तो सहम जाय
जैसे कि बेटियाँ……..

{बेटियाँ असुरक्षित हैं}

______________________


राहुल द्विवेदी
05/10/1974
एम.एससी. (रासयानिक शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
सम्पर्क :
अवर सचिव , भारत सरकार

कमरा नंबर : सी 1, 1009, संचार भवन , नई दिल्ली
 rdwivedi574@gmail.com
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