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समालोचन

Home » मंगलाचार : वर्षा सिंह

मंगलाचार : वर्षा सिंह

पेंटिग : Arun Samadder (द्रौपदी) आज आपका  परिचय वर्षा सिंह की कविताओं से कराते हैं. स्त्री – जीवन के यथार्थ की सहज अनुभूति और समझ से बुनी इन कविताओं में संभावनाएं  हैं. इन्हें पढ़ते हैं और साथ में एक खास पेंटिग आपके लिए – द्रौपदी शीर्षक से.   वर्षा सिंह की कविताएँ          […]

by arun dev
July 1, 2016
in Uncategorized
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पेंटिग : Arun Samadder (द्रौपदी)

आज आपका  परिचय वर्षा सिंह की कविताओं से कराते हैं. स्त्री – जीवन के यथार्थ की सहज अनुभूति और समझ से बुनी इन कविताओं में संभावनाएं  हैं. इन्हें पढ़ते हैं और साथ में एक खास पेंटिग आपके लिए – द्रौपदी शीर्षक से.  

वर्षा सिंह की कविताएँ                                

हम सब हड़ताल पर हैं


हम  सब हड़ताल पर हैं
हम सारी स्त्रियां
हमारी बात हो गई है

नदियां नहीं बहेंगी
हवा भी नहीं चलेगी
नदियां भी हड़ताल पर हैं, हवा भी
ज़ाहिर है हमारी हड़ताल तक कोई खुश्बू नहीं मिलेगी

फूलों-तितलियों से समझौता हो गया है
वे भी हमारे साथ हड़ताल में शामिल हैं
और अग्नि ने तो धधक कर कहा है
वो चूल्हे में नहीं आएंगी
सिर्फ मोमबत्तियों की लौ बन जलेंगी
वो भी हड़ताल पर हैं, हमारे साथ
एक मुर्दा गंधहीन-बहावविहीन

जियो तुम बलात्कारियों
तुम्हारी सृष्टि ऐसी ही होनी चाहिए
तुम्हे ख़ुश्बू से हमेशा-हमेशा के लिए महरूम कर देना चाहिए
ताजी हवा-ताजा पानी
तुम्हारे हिस्से न आने पाए

तुम निवाला बनाओ अग्नि वो भोजन न पकाए
तुम्हारे लिए ऐसी सज़ा की मांग करती हैं




दो बहनों की बातें


यादों की  बस्ती में रहती हैं बहनें
बीती बातों को बुहारती हैं बार-बार
पापा का गुस्सा, मां की मनुहार
बचपन की बातें, बचपन के दोस्त
बचपन की चोरियां, बचपन की लड़ाईयां
पिटाईयां, मिठाईयां, सपने, ख्वाहिशें
किस्से, किताबें और उदासियां
बचपन की गुजरी बातों का जायका

बचपन की गलियों में साथ-साथ भटकती हैं बहनें
यादों के पुलिंदों पर पड़ी धूल झाड़ती हैं बहनें
अपनी छूटी गली, छूटा मोहल्ला, छूटा शहर
अतीत की खिड़कियों को खोल
बीती बातों की नदियों में लगाती हैं छलांग

बचपन की सहेलियों की ठिठोलियां
बतियाती हैं बार-बार
कभी हंसती हैं, कहकहे लगाती हैं
कभी आंखों के कोने पर उतर आए
आंसुओं को चुपचाप छिपा जाती हैं बहनें
उड़ती हैं बातों के पंख लगाकर
और आखिरकार फिर आ बैठती हैं
अपनी-अपनी मुंडेर पर




छल

उस छल का क्या करे
जिससे छली जाती है हर रोज
घर में, मन में
अपनी ही आंखों में
होती है तिरस्कृत
उतरती चली जाती है
अंतर्मन की सीढ़ियों से
दिल के कोनों में कहीं बसी
गहरी  उदास झील किनारे
चुप बैठती बड़ी देर वहां
मन का मौन टूटता नहीं

आंखों से अंदर ही अंदर
झर-झर बह गए आंसू
भरती जाती झील लबालब
तूफान उमड़ने को होता है
पर उमड़ता नहीं
खुद से हारी हार
बड़ी खतरनाक
दिल टूटता है
अब मगर रोता नहीं
लौट आएगी जल्दी ही
हां मालूम है
कोई नहीं कर रहा इंतज़ार.




मत कहना किसी से


मत कहना किसी से
प्यार कर रही हैं लड़कियां
मत बताना प्रेमियों का हाथ थाम
चली जाती हैं कहां
चंदा से हमेशा बतियाती रहीं
हवाओं से भेजती रहीं संदेशे
चंदा को कहीं कर न दिया जाए नज़रबंद
हवाओं को बांध न दें वे सभी
मत कहना ये भी किसी से
कैसे प्रेम में छली जाती रहीं लड़कियां
मत बताना हथेलियों पर धड़कता ह्रदय
फेंक आती हैं कहां

हां कर सको तो करो
लड़कियों की खिलखिलाहटों पर
उनके हासिलों पर करो चर्चा आम
बताओ गणित के प्रमेय
खूब सुलझा रहीं लड़कियां
अंतरिक्ष में कर रही सैर आजकल
एवरेस्ट पर पहुंच दिया हौसले का सुबूत
मत बताना सदियों से उनके हिस्से का प्रेम
नृत्य बन थिरकता है पांवों में
मत कहना फिर क़त्ल कर दी गईं
नदी का पानी उस रोज क्यों हुआ लाल

______



वर्षा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार, 15 वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में (सहारा समय, आउटलुक वेब) कार्यरत
वर्तमान में आईएमएस ग़ाज़ियाबाद में असिस्टेंट प्रोफेसर
ईमेल- bareesh@gmail.com

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