‘गाय की यौनेच्छा’ से गाय को पालने वाला हर व्यक्ति परिचित है. शायद कविता में गाय अपनी इस यौन–इच्छा और मनुष्य द्वारा उसके गर्भाधान की कृत्रिमता के साथ पहली बार आ रही है अपनी पूरी पशु पालक शब्दावली के साथ. वह तमाम ‘पवित्रता’ और भावुकता के साथ एक पशु है और उसकी कुछ नैसर्गिक क्रियाएं हैं यह हम भूल जाते हैं.
\’उस रोज़\’ में सांप्रदायिकता की आग में झुलसता प्रेम है. ‘सफेद दाग़ वाली लड़की’ में उसके विवाह में उसके दाग़ छिपाने के जतन के बीच इस तरह के विवाह की विद्रूपता का विवरण है. ‘पागलों के गाँव में एक सरेख स्त्री’ में स्त्री को पागल समझा जाता है और वह यौन हिंसा की शिकार है.
सुशील मानव की ये प्रारंभिक कविताएं हैं, वे अप्रचलित विषयों पर लिखते हुए शब्दावली भी अलहदा ही चुनते हैं. इनमें इतना काव्य-रसायन तो है ही कि वे आपको विचलित करें.
सुशील मानव की कविताएं
उस रोज़
उस रोज़ जब झींगुर दिन की आखिरी अज़ान दे रहे थे
मकई के पत्तों पर टिड्डे कर रहे थे संध्यावंदन
मैंने तुम्हारे कान में फूंका था दो शब्द
‘त्वाही शिनहयामी’
और तुमने धर दिए थे दो बोसे मेरी पउलियों पर, और
शिवाले की घंटिया बज उठी थी तभी
‘अना उहीबुकी’
तुम्हारी होंठ से झरे दो लफ़्ज़
मेरी रूह में ज़ज्ब हो गए
न मुझे अरबी आती थी
न तुम्हें संस्कृत
हम दोनो की ज़बां पर ही रचा बसा था हिंदी का स्वाद
फिर अपने ज़ज्बात और एहसास बयानी के लिए
हमने धर्मग्रंथों की ही भाषा क्यों चुनी
मुझे नहीं मालूम
तुम्हारे होठ चूमने के बाद, उस रोज़
मेरे होठ हिंदू थे, या कि हो गए मुसलमान
मुझे नहीं मालूम
मुझे नहीं मालूम कि
मेरी सांसों से गलबहियां करती तुम्हारी सांसे
उस रोज
मेरी सांसों को कलमा पढ़ा रही थीं, या कि खुद पढ़ रही थी ऋचाएं
मेरी सांसों से
मुझे नहीं मालूम
उस रोज तुम्हारी देह के नमक का भोग पाकर
तुम्हारी आदिम गंध का आचमन कर
सारी रात गोदती रही मैं, रामनामी
तुम्हारी देह में
मेरी पलकों को कुरान-ए-पाक़ सा चूमते हुए
तुम्हारी उंगुलियों ने, उस रोज़
मेरी देह पे जाने कितनी आयतें उकेरीं
और मिनार ओ गुंबद को तराशकर
मेरी देह को तुमने अपना इबादतगाह बना लिया
अपनी सारी आस्था, अपना सारा विश्वास
तुमने मुझमें आरोपित कर दिया
मैंने तुम्हारी आस्था औ विश्वास धारण किया
मैंने तुम्हारा वजूद धारण किया
तुम्हें धारण करते हुए
काली कभी, तो कभी गौरी हुई मैं
सुनो, उस रोज
पढ़ी थी जो दुआएं, तुमने
मेरी देह के मस्जिद में
वो दुआएं कुबूल हो गई
पर
जनन की हरीतिमा भय के भगवे से भयभीत है
कहीं मेरे गर्भ को गर्भगृह घोषित कर
मूर्ति न धर दें वे
सुनो, हमारे गंगोजमन संगम को वो लोग वैतरिणी कह रहे
संस्कृतियां वैतरणियों से इतनी ख़ौफ़ज़दा क्यों हैं
देखो तो कितना गंदा और जहरीला हो गया है गंगा का पानी
अम्मा कहती थी, नदियां जब हो जाएं नालों में तब्दील
तो जानना संस्कृति का संकट है
इस मुल्क़ की आबोहवा में अब अज़ान औ आरती की संगत नहीं रही
सुनो तो हवाओं में हर ओर लहूलुहान चीखें और खूनी नारों का कोहराम
‘जय श्री राम’ का नारा लगाता गुजरता है कोई
मेरे बगल से, जब
बाबरी मस्जिद सी सिहर उठती हूँ मैं.
गाय की यौनेच्छा
तमाम इंसानी नैतिकताओं को बताते हुए धता
पुरजोर चोंकरती है गाय
कामेच्छा से भरकर
कभी कभी तो लगातार, पूरे पूरे दिन
बाकायदा करते हुए ऐलान
कि चाहिए एक अदद साँड़, समागम ख़ातिर
बहुतायत हुआ करते थे जब साँड़
खुद-ब-खुद चले आते थे पागल प्रेमियों की तरह, गायों के बुलावे पर
सुनकर उनकी कामतप्त पुकार
सूँघते फिजाओं में, मदमाती यौनिक गंध
कई बार हवाओं के बहाव संग जब
पहुँचती फेरोमोंस की गंध एक साथ कई चौंड़े मुँछहे नथुनों तलक
तो एक से ज्यादा साँड़ आ धमकते गाय के पास
और घंटो के कटाजुझ्झ के बाद कमजोर साँड पीछे हट जाते
और विजेता संग समागम करती गाय
एक वो भी वक़्त था जब, गाय और भैंस चरने जाती खुले मैदानों में
और, अपनी यौनिक ज़रूरतो की पूर्तिकर
वापिस आ जातीं चरही पर, धनाकर चुपचाप
एक वक़्त, गाय के गरम होने पर
हम लिवा जाते
अपने गाँव या दूसरे गाँव के उस आदमी के दुआरे
जो पालकर रखता था साँड़
और अम्मा पहले से ही बनाकर रखती थी गुड़ का घोल
और छुआकर हल्दी-अक्षत गाय के खुर सिर और पीठ से
पूरे घर को हिदायत देती, खबरदार
ग़र एक भी लौंचा छुआ जो गाय के देह से
जबकि आज डॉक्टर पशु दे गया है हिदायत
बैठने न पाये गाय अगले तीन घंटे तलक
और डंडा लिए रखवाली कर रहे लोग
एक फोनकॉल पर आ धमकता है पशु डॉक्टर
और पूछता है पूरी बेशर्मी से
किसका बीज डालूँ, साहीवाल का या कि जर्सी का
वो यूं ही हर महीने किस्म किस्म के उन्नत बीज लिए आता है
और ज्यादा उन्नत ज्यादा पैदावार देने वाली नस्ल के सपने देकर
प्लास्टिक ट्यूब से आरोपित कर देता है सीमन
गाय की गरम योनि में
जबकि खूँटे में बँधी बँधी गाय
विरहिणी सी कसमसाती तड़फड़ाती रह जाती है अपनी यौनिक ज़रूरतों के बरअक्श
जबकि अपनी जेब गरम कर चला जाता है डॉ पशु
और फिर फिर चोंकरने लगती है गाय
दूसरे ही महीने गरम होकर
आजिज आकर कहते हैं पिता बेंच ही दो इसे
औने-पौने जो भी मिल जाए दाम
ठूँठ गाय को भला कौन पूछेगा, दलील देता है छोटा भाई
माँ कहती है दो-चार दिन लगातार
ले जाकर बाँध दो ताल के किनारे
कि बहुत से साँड़ आते हैं वहाँ, घास चरने
जबकि बार बार गाय को करके पशु डॉक्टर के हवाले
उसकी यौनेच्छाओं को आहुत कर देते हैं पिता
क्रोध में सींग से मार-मारकर, गाय गिरा देती है हउदा
उलझार देती है सारा चारा, चरही के बाहर
लगातार कूदती फाँदती पेरती रहती है, खूँटे के चारों ओर
बेहद हिंसक होकर
दूर से झौंउकारती है चारा-पानी डालने वाले को भी
और फिर किसी तरह खूँटा पगहा तुड़ाकर भाग खड़ी होती है गाय
घर से भागी लड़कियों की मानिंद
गाय के पीछे लग जाते हैं हेरवइया
कुछ देर डहडहाने फटफटाने के बाद पकड़ ही लाते हैं वो वापिस
और पहले से ज्यादा मजबूत खूँटे में बाँध दी जाती है गाय
सकड़े में जकड़ी जकड़ी हफनाती है गाय
अधराहे धराई प्रेमिकाओं की तरह
गाय को देखकर बार बार उभरता है मेरे जेहन में
अभुवाती बुआ का अक्स
विदेशिया फुफा से वर्षों की दूरी में
जब खेलता था उनकी देह पर भूत.
सफेद दाग़ वाली लड़की
माड़व के कच्चे बाँस सा हरा है माँ का मन
कर्जा-ऋण काढ़ औकात से ज़्यादा दहेज दे रहे पिता
फिर भी फिक्र के तीर में
कोरवर-बड़ा सा कोंचा हुआ है मन
कितनी बार तो उसने मिन्नतें की माँ से
कि मत ब्याहो मुझे माँ इन सफेद दागों के साथ
कि नहीं अपनाएगा कोई पुरुष, इन सफेद अभिशापों के साथ
कि जी लूँगी मैं अकेली ही
कि इतना तो योग्य मुझे बनाया ही है तुमने
पर मां तो माँ
आखिर तक अँड़ी रही अपनी टेक पर
कि नहीं रे, छोड़ देगा तो छोड़ दे
कि एक बार हो जाए तेरा ब्याह
कि एक बार तू देख आए सासुर की देहरी
फिर न लिवा जाए तो न सही
कि एक बार तेरी देह छू तो ले कोई पुरुष
कि एक बार टूट तो जाए तेरी देह से कँवारेपन की लीक
फिर तू परित्यकता बन ताउम्र पड़ी भी रही चौखट पर तो ग़म नहीं
कि देखनेवालों की आँखों की बिलनी होती है कुँवारी लड़की
कि मरकर भी छछाती हैं कँवारी लड़की
खाली माँग लिए अपने अधूरेपन की अभिशप्तता के साथ
लड़की ने धिक्कारा
क्या माँ स्त्री होकर इतना अवमूल्यित करती हो मुझे
अपनी अज्ञानता में बिटिया का हित ढूँढ़ती मुस्कुरा देती है माँ
समझ गई लड़की जब टालनी होती है कोई बात
यूँ ही पीड़ित मुस्कान मुस्करा देती है माँ
ज़्यादा तनाव से फट गई हो ज्यूँ ज़ख्मों पर पड़ी ताजा पपड़ी
शगुन की पिढ़ई पे बैठी कइनी सी काँप रही लड़की
सुहागरात में नंगे किए जाने के ख्याल रह रहकर डरा रहे
कि क्या होगा कल, जब
उसकी देह से नोचे जाएंगे कपड़े और जेवर
बेपर्द हो जाएगा सरे-समाज
उसकी देह का सच
उसके पिता का झूठ
दुआ माँग रही लड़की कि काश
उसकी देह से चिपक जाते कपड़े
त्वचा की तरह सदा सदा के लिए
हाथ में हल्दी रँगाये
खुद को कोस रही सफेद दाग वाली लड़की
कि क्योंकर उसके मन में आया कभी
सांवरी रंगत से परे
गोरे होने का आधा-अधूरा खयाल
खुशी के पल में अपराधबोध के कांकर चालती
आत्मग्लानि से झन्ना हुए पिता की अंतरात्मा
अगुवा समझा रहा
कि थोड़ी बहुत कमी तो सबमें होती है भाई
ये दुनिया खोटविहीन तो नहीं
कि सत्य पे अँड़ जाएं तो
शादी-ब्याह ही न हो किसी का
कि रह जाएं सबके सब, कँवारे ही
सेनुरदान के बाद माँ की ओर तिरछे नज़र ताकती है लड़की
मानो कहती हो कँवारेपन का अभिशाप टूटा
कहो तुम्हारी साध तो पूरी हुई ना माँ
सेंदुरबहरनी के वक़्त कहती है मन ही मन
सेंदुर बहारकर मेरे सुहाग की बलाइयाँ लेने वाली हे धोबइन काकी
काश कि मेरे मेरी देह के दाग़ भी झार लेती तुम
सफेद दागों के बरअक्श बेमानी लग रहे उसे विवाह के सारे मंत्र
सात फेरे और सातों वचन
झूठ लग रहा
सात जन्मों तक एकसूत्र बाँधने का दावा करनेवाला गठबंधन
एकबारगी उसके मन में उगते हैं ख्याल
कि फाड़कर फेंक दे पंडित के सारे पोथी-पन्ने
फेंक दे खोलकर परिणय सूत्र
वरने आए वर को गिरा दे मारकर लात
फिर करुणा-कातर पिता का चेहरा दिखते ही
आत्मविसर्जित हो जाती है लड़की
कि कहाँ कहाँ न दौड़े पिता उसके इलाज की खातिर
नून-रोटी खाकर भी महँगे से महँगा इलाज करवाया
गाँव के ओझा-वैद्य से लेकर महानगर के स्किन स्पेशलिस्ट तक
कोई भी तो न छूटा जहाँ न गए हों पिता
बेटी के सफेद दागों को उम्मीद में लपेटे लिए
गुज़रते वक़्त के साथ भारी होता जा रहा लड़की का मन
निजी अंगों सा छुपा लेना चाहती है वो सफेद दागों को
पर दाग़ हैं कि मानो बढ़ते चले जाते हैं
हर बीतते पल के साथ
बढ़ते-बढ़ते धँक लेते हैं दाग़ उसके पूरे वजूद को
फिर भी नहीं रुकता उनका बढ़ना
फिर माँ, फिर भाई और आखिर में पिता को भी
अपने में समाहित कर लेते हैं सफेद दाग़
ध्रुवतारा देखते वक़्त एकबारगी लगा उसे कि
उसके देह से छिटककर मानो आकाश की देह में जा चिपके हों सफेद दाग
चाँद सितारों की शक्ल में
कितना निरीह लग रहा है लावा परछते
बात-बेबात दुनिया से अँकड़ जाने वाला बड़ा भाई
ज़रूर उसके भी मन में कल की आशंका
उग आई है नागफनी सी
कलेवा में दूल्हें को सगुन की दही खियाती माँ को देख
लगा जैसे माँ दूल्हे को खिलाए दे रही है
उसकी देह से निकालकर सफेद दाग
माड़व हिलाई की रस्म में मानों
माड़व नहीं पिता का वजूद हिला रहे हों समधी
यूँ काठ बने देख रहे पिता
कोहबर का रंग है कि चढ़ता ही नहीं मन पे
लाल चुनरी में भी बदरंग है लड़की का मन
नैहर से विदा होती सोच रही सफेद दागवाली लड़की
न गुण, न सऊर, न डिग्रियाँ
आज उसकी अपनी योग्यता देह ही है
और उसके अब तक का जीवन अर्जन
सिर्फ़ सफेद दाग.
पागलों के गाँव में एक सरेख स्त्री
मेल मिलाती दुनिया में
बेमेल थी वो
पागल थी वो
दुनिया ज़हान की ज़ानिब
नंगी देह लिए
जिस गली जिस घर से गुज़रती
नज़रे फेर मुँह छुपा लेते लोग
तथाकथित सभ्य पुरुष
एक समय में एक ही पुरुष के सामने नंगी होने वाली सभ्य औरतें
जी भर गरियाती सरापतीं
राँड़ कहीं मर-खप भी न जाती कि
इससे पिंड छूट जाता
शोहदे कुछ ज़्यादा फैलकर कहते
ये रंडी पूरे गाँव के लड़कों को बर्बाद करके ही मरेगी
यूँ तो वो कुछ न बोलती किसी को, किसी से
लेकिन, जब कोई हुलकारता
तो वहीं, उसी दर, उसी समय बैठ जाती
अनशन फाने दो-दो घंटे न उठती
जो कोई न छेड़े तो चुपचाप चलती चली जाती
किसी से कुछ न माँगती-जाँचती
हाँ कोई कुछ स्वेच्छा से दे देता तो खा लेती चुपचाप
और बिना कोई एहसान लिए-दिए उठकर चल देती
बच्चे पागल पागल कहकर अद्धा कत्तल फेंक मारते
पर वो, न कभी पलटकर गाली देती
न ढेला-चेंका मारती
जाने कपड़ों से ऐसी क्या चिढ़ थी
कि कोई जोर-जबर्दस्ती पहना भी दे
तो अगले ही पल देह से नोच-फाड़कर फेंक देती
जबकि पूरा गाँव कपड़े पहनाने पर आमादा था
मेरी उम्र के किशोर स्त्रीत्व की परिभाषा पढ़ रहे होते जब उसकी नंगी देह से
मैं उसकी आँखों में कुछ ढूँढ़ रहा होता
और वो पलकें गिराकर भरसक छुपाने का जतन करती
कई बार चलते चलते वो रुककर मुझे देखती अपलक
कई बार मन होता कि मैं उसकी नंगी छातियों में लिपट जाऊँ
कई बार उसकी छातियाँ मुझे ओगरी हुई लगीं
पर मैं डरता रहा
उससे नहीं, उसके लिए
एक रोज लोगों को बतियाते सुना
वे रायशुमारी कर रहे थे कि क्यों ना
किसी ट्रक ड्राईवर के हवाले कर दिया जाए
ड्राईवर माने तो ठीक, न मानें तो कुछ रुपए-पैसे ले-देकर ही सही
दरअसल वो मेरे गाँव की न थी
न ही किसी के चीन्ह-पहिचान की
कोई चार-पाँच महीने पहले की एक सुबह अचानक
वो गाँव में घूमती दिखी थी, नंगे बदन
किसी ट्रक ड्राईवर ने कहीं और से उठाया था उसे
और नोच निछियाकर
मेरे गाँव के नजदीकी सड़क पर फेंक गया था शायद
जहाँ से चलकर वो गाँव में आ गई
इस बीच न किसी ने उसे हँसते देखा
न रोते, न गाते, न बोलते
उस रोज जब उस निचाट दुपहरिया में कोई न था
अमरूद की छाँव के सिवा
भागा भागा मैं उसकी अलंग लग गया
छातियों में समा लेने से पहले उसके दो नंगे हाथ खुले
और मुझे पहने रहे किसी अंजान भय में
इस तरह कुछ ही पल बीते होंगे कि
मुझे छातियों के मैग्मा में अचानक फुलाव सा महसूस हुआ
भावनाओं की राख में दबा कोई एहसास जिंदा हुआ हो शायद
जाने कब से भीतर ही भीतर
परत दर परत दबी कुचली अनगिनत चीखें चीत्कार की ध्वनि दाब लिए
मन की बर्फीली परतों को तोड़ती मुँह फाड़ बाहर आ गईं
भयंकर और बेहद दारुण चीत्कार
एक अपार वेदना से भरे चीत्कार के बाद वो जार जार रोने लगी
उसके हाथों की पकड़
मेरे शरीर पर और पुख्ता होती गई
मेरे कंधे में जलन पैदा करते टपकते उसके आँसू
पूरे गाँव ने पहली बार सुना देखा, उसके आंसू
उसकी रोवाई और वो भयावह दारुण चीत्कार
लोगों ने जबर्दस्ती खींचकर विलगाया मुझे उसकी छातियों से
उसके बाद मेरे साथ क्या हुआ ये कविता का विषय नहीं
पर हां मेरी माँ भयभीत हुई
किसी अज्ञात अनहोनी की आशंका से भरकर
उस चीत्कार से डरकर
दो रोज बाद की एक सुबह
वो कपड़े में मिली
मरी हुई
पंचनामा के बाद जब पुलिस के लोग लेकर जा रहे थे उसकी लाश
और मैं चीखकर कहना चाहता था सबसे कि
नंगी कर दो इस औरत को एक आखिरी बार
एक बार सहलाना चाहता हूँ मैं उसकी नख-दंत धँसे देह को
एक प्रेमसिक्त चुंबन का फाहा
धरना चाहता हूँ
उसकी ज़ख्मी योनि पर.
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सुशील ‘मानव’
अगस्त 1983
हिंदी साहित्य,समाजशास्त्र और जैव-रसायन से परास्नातक
स्वतंत्र पत्रकार (हाल-फिलहाल बेरोजगार)
समाजिक सराकारों में रुचि, विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए कई वर्षों से कार्यरत हूँ.
फूलपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
susheel.manav@gmail.com
मोबाइल- 06393491351
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