विभाग या अन्य कहीं जब तर्क देने की नौबत आती तो हम मुक्तिबोध की स्थापनाओं का सहारा लिया करते थे और मानते थे कि जब मुक्तिबोध ने इस विषय पर लिख दिया तो बात खत्म. यह विश्वास हमारी पीढ़ी के अंदर समय के साथ दृढ़ से दृढ़तर होता गया. इसलिये मैं कह रहा था कि मुक्तिबोध से हमने न केवल साहित्य बल्कि जीवन की सचाई और उस पर निर्भीक होकर चलना भी सीखा है. मैं यह मानता हूं कि मुक्तिबोध पर केवल पढ़कर नहीं बोला जा सकता. हिंदी में मुक्तिबोध अकेले हैं जो पीछे से नहीं, चुपके से नहीं बल्कि आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं और भटकने पर बार-बार सचेत भी करते हैं. कविता, कहानी और आलोचना इत्यादि विधाओं और लंबे-लंबे पत्रों में वे वैचारिक बहस करते हैं, बहस करना उन्हें अच्छा लगता है, जिस ईमानदारी से वे तर्क देते हैं, उसी ईमानदारी से वे दूसरों को सुनते भी हैं. इसके लिये मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा.
धर्मवीर भारती द्वारा उत्पन्न विवाद पर वे श्रीकांत वर्मा को पत्र लिखकर हिदायत देते हैं कि
जब आ. रमेश मुक्तिबोध ने फोन कर आने का आमंत्रण दिया, तब बहुत देर तक मैं असमंजस में रहा था. जीवन में ऐसे अवसर कम आते हैं जब आप अंदर से बड़े खुश होते हैं पर उस खुशी को बाहर नहीं आने देना चाहते. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना है ? पर मुझे लगा अपने सर्वाधिक प्रिय रचनाकार पर बोलने का अवसर मिला है तो हिचक कैसी. वर्धा आने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध का परिवार रायपुर में रहता है. रमेश जी हमारे आदर्श हुआ करते थे, जब भी कोई नाम लेता था तो हमारे सामने उनका एक चित्र बनता था, जो कुछ-कुछ मुक्तिबोध जैसा ही हुआ करता था. पर न मिलने का कोई आधार था और न फोन करने का साहस. एक अव्यक्त झिझक अंदर बैठी हुई थी, जो चाहते हुये भी बात नहीं करने दे रही थी. विगत छः-सात वर्ष पहले जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में नया भवन बनकर तैयार हुआ और यह तय हुआ कि इसका नाम ‘मुक्तिबोध भवन’ रखा जाय, तभी यह भी तय हुआ कि रमेश जी और उनके पूरे परिवार को बुलाकर इसका उद्घाटन करवाया जाय. तब पहली बार रमेश जी को देखा, तो आंखें जुड़ा गईं. उस समय आपके रायपुर के ही अनूठे कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल अतिथि लेखक के रूप में परिसर में ही थे. तब मैंने उनसे पूछा था कि मुक्तिबोध की शक्ल किससे मिलती है तो उन्होंने कहा ‘दिवाकर’ जी से.
उस समय मुक्तिबोध की पांडुलिपियां लेकर चारों भाई वर्धा आये थे. कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा था और मुक्तिबोध की प्रतिमा तो वाकई बोलती-सी लग रही थी. कार्यक्रम के कई साल बाद तक विद्यार्थियों का एक समूह ‘अंधेरे में’ कविता का पाठ कई अवसरों पर मुक्तिबोध की प्रतिमा के सामने खड़े होकर सस्वर करता रहा था, तब पूरा मुक्तिबोध भवन गूंज उठता था. तब ‘अंधेरे में’ कविता अपने असली रूप में खुलती थी, जितनी अच्छी तरह से अधिकांश अध्यापक कक्षाओं में नहीं खोल पाते. इसलिये मुझे लगता है मुक्तिबोध को बगैर समझे या दूसरे रास्तों से समझकर नहीं पढ़ाया जा सकता. उन्हें खुद ही समझना पढ़ता है और समझने के बाद तथाकथित कठिनाई स्वतः दूर होती चली जाती है.
मुझे यह जानकर और आश्चर्य हुआ कि प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन को उनका परिवार आयोजित करता है, जिसमें किसी प्रकार की सहायता सरकार या अन्य किसी संस्थान से नहीं लेता. आश्चर्य इसलिये भी कि मुक्तिबोध तो हम सबके हैं, अब वे केवल व्यक्ति भर नहीं रह गये हैं बल्कि उस गंभीर परंपरा के पर्याय बन चुके हैं जो निरंतर आगे बढ़ रही है. ऐसे समय में जब आयोजन केवल धन उगाही या कैरियर बनाने के साधन बनते जा रहे हैं तब इस प्रकार की निष्ठा देखकर मन भर आता है. मुक्तिबोध का सही रास्ता तो यही है. वे अतिरिक्त धन और वैभव के विरुध्द थे, धन या अन्य किसी प्रकार का प्रदर्शन उन्हें बेशर्मी लगती थी. उनके प्रिय कथाकार प्रेमचंद ने कहा था
‘किसी व्यक्ति की तमाम अच्छाइयां सुनने के बाद जब यह भी बताया जाये कि वह पैसे वाला है तो मेरे सामने उसकी समस्त अच्छाइयां तिरोहित हो जाती है और मुझे लगने लगता है कि उस व्यक्ति ने इस अमानवीय व्यवस्था से समझौता कर लिया है.’
इस पत्र में वे अपनी सीमा भी बताते हैं और उसका परिणाम भी. हम दुनियादार लोग हैं इसलिये परिणाम पहले देखते हैं. कठिन और टेढे़ रास्तों पर चलने में हमें डर लगता है, जीवन में किसी प्रकार की चुनौती का सामना करते हुये हमारी रूह कांपती है इसलिये हम तुरंत समझौते पर उतर आते हैं. यही कारण है कि मुक्तिबोध का साहित्य तो हमें अच्छा लगता है पर उनके संघर्षों से हम बचते हैं. मध्यवर्गीय आदमी सुविधाजीवी होता है, पर सुविधाएं उसे अंदर से कमजोर भी करती हैं यह उसकी समझ में या तो आता नहीं या वह उसे मानता नहीं है. मुझे बार-बार मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ का मेहरबान सिंह याद आता है जो कहता है ‘भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिंदगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है. लेकिन उससे फायदा भी होता है. सिर सलामत तो टोपी हजार.’
मैं पिछले महीने रात के डेढ़ बजे दिल्ली में टेक्सी पकड़कर हवाई अड्डे जा रहा था. टेक्सी ड्राइवर युवा था. मैंने उससे पूछा ‘कैसा धंधा चल रहा है’ तो उसने कहा ‘मंदी है. सुबह से किश्त जमा करने लायक रुपये भी नहीं आये. हालत तो खराब है, ऐसी स्थिति में घर-परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है.’ मुझे उसकी बातों से दुख हुआ तो मैंने प्रतिप्रश्न करते हुये कहा ‘लेकिन वोट …’ वह मेरी बात समझ गया और बीच में ही बोला ‘बाबू जी, वोट तो बच्चों के भविष्य के लिये देते हैं, हमारी उम्र तो गरीबी में कट गई लेकिन हमारे बच्चे खुश रहें, हमने तो कश्मीर नहीं देखा लेकिन हमारे बच्चों के लिये जिसने कश्मीर का रास्ता साफ किया है वोट तो उसी को देंगे.’
मुक्तिबोध के साहित्य का बीज शब्द ‘आत्मा और विवेक’ है. उनके लिये ये शब्द भर नहीं थे वरन् उनके जीवन-मरण के सवाल थे. वे ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जिसकी आत्मा मर गई हो और विवेक नष्ट हो गया हो. ‘अंधेरे में’, सतह से उठता आदमी, क्लाड ईथरली, समझौता तथा ‘विपात्र जैसी कहानियों से आत्मा और विवेक की छटपटाहट निकाल दें, तो वे कहानियां सपाट हो जायेंगी. लेकिन मुक्तिबोध सपाट कहानियों के कथाकार नहीं थे. कुछ लोग सहज ही उनके अपने संघर्षों को उनके लेखन में देखने लगते हैं, यह सही है कि लेखक के अपने संघर्ष अलग-अलग रूपों में लेखन में आते हैं पर क्या यह कह देने मात्र से मुक्तिबोध के योगदान को समझा जा सकता है ? कहना न होगा कि इस प्रकार की सहज स्थापनाओं के कारण मुक्तिबोध का मूल्यांकन नहीं हो पाया. क्या कारण है कि मुक्तिबोध की कहानियां ‘नयी कहानी’ आंदोलन के दौर की महत्वपूर्ण कहानियां हैं, पर जब ‘नयी कहानी’ का मूल्यांकन किया गया तो न उसमें मुक्तिबोध थे और न उनकी कहानियां जबकि मूल्यांकन करने वाले उनके अपने मित्र ही थे.
यह सर्वविदित है कि परंपरा को तोड़कर सर्वथा नया और मौलिक देने वाले का मूल्यांकन बाद में ही होता है, इसलिये मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, वैसे-वैसे मुक्तिबोध का मूल्यांकन होगा और वे बड़े और बड़े लेखक होते जायेंगे. दरअसल, मुक्तिबोध की कहानियां उस खांचे में सहज नहीं उतारी जा सकतीं, जो खांचा उस समय के कहानीकार और आलोचकों ने बनाया था. केवल कहानी ही नहीं उनकी कविता भी उस समय के खांचे में कहां फिट बैठती थीं ? मुक्तिबोध किन्हीं खांचों में समाने वाले न व्यक्ति थे और न रचनाकार. वे खांचों को तोड़ने में यकीन रखते थे, जिससे मनुष्य की आत्मा और विवेक को बचाया जा सके. हम लोग राजनांदगांव की नौकरी को बहुत महत्ता देते हैं, निर्विवाद रूप से उसकी महत्ता थी पर मुक्तिबोध का स्वभाव ऐसा न था. उन्होंने नेमि बाबू को पत्र लिखकर अपनी मनःस्थिति के बारे में कहा –
‘वह लगभग एकदम एकांत स्थान है. एक या दो साल के भीतर ही, वहां से मेरा मन उकता जायेगा.’
उकताने का मूल कारण उनकी आत्मा थी जो किसी प्रकार के बाहरी बोझ को स्वीकार नहीं करती थी, उनका विवेक उन्हें यह अनुमति नहीं देता था कि अच्छा जीवन जीने के लिये किसी प्रकार का समझौता किया जाये. यह विडंबना ही है कि एक ओर जीवन के अभाव उन्हें समझौता कर मध्यवर्गीय जीवन जीने को विवश कर रहे थे तो दूसरी ओर उनकी आत्मा इसे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थी. यह द्वंद्व उनकी कविता और कहानियों में जिस प्रकार आया है, उससे वे हिंदी के विरल रचनाकार साबित हुये. आत्मा को वे न केवल महत्व देते थे वरन् नये-नये रूपों में उसे प्रतिष्ठित भी करते थे. यथा ‘उसकी आत्मा एक नये महीन चश्मे से स्टेशन को देख रही थी’, ‘इतने में दिल के किसी कोने में कोई अंधियारा गटर एकदम फूट निकलता है. वह गटर है आत्मालोचन, दुख और ग्लानि का’, ‘क्लाड ईथरली हमारे यहां भले ही देह-रूप में न रहे लेकिन आत्मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहां रह ही सकते हैं’, ‘जिस समाज में जननेंद्रिय भी बेची जाती है, वहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेचनेवालों की संख्या असीम है. उतनी बड़ी संख्या है आत्मा को रेहन रखने वालों की’, ‘मैंने सिर्फ एक अच्छा काम किया है. बड़े आदमियों के ज्यादा चक्कर में न पड़कर मैंने आम तौर से छोटे आदमियों का अहसान लिया है. वे छोटे आदमी यह नहीं कहते कि तुम अपनी आत्मा मुझे बेच दो.’ ऐसे वक्तव्य और स्थापनाओं के पीछे मुक्तिबोध की वह बेचैनी है, जो आत्मा को बचाये रखने के लिये रात-दिन उद्विग्न रहती है.
मैं बहुत विनम्रता के साथ यह पूछना चाहता हूं कि क्या हिंदी में ‘क्लाड ईथरली’ जैसी दूसरी कोई कहानी है ? अपने किये का पश्चाताप न कन्फेशन से किया जा सकता है और न आध्यात्मिक बनने से. यदि मनुष्य की आत्मा जीवित है और वह उसकी बात सुनता है तो वह उसे पागल कर देती है. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जायें, यानी दुरुस्त हो जायें या उसी पागलखाने में पड़े रहें.’ मुक्तिबोध के यहां सारा खेल मन और मस्तिष्क का है, जिसे आत्मा और विवेक भी कहा जा सकता है. क्लाड ईथरली ने हिरोशिमा पर जो भारी बम फेंका था, उससे पूरा शहर बर्बाद हो गया था, यहां तक कि 90प्रतिशत चिकित्सक भी खत्म हो गये इसलिये बचे-खुचे घायल लोगों का इलाज भी संभव नहीं हो सका. ईथरली की आत्मा ने उसे अपने इस कुकृत्य के लिये कभी क्षमा नहीं किया. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है. आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है वह भोला-भाला सीधा सादा बेवकूफ है. जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है. लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है. पुराने जमाने में संत हो सकता था. आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.’ यह केवल व्याख्या भर नहीं है बल्कि उनकी अपनी आदर्श स्थापनाएं हैं जो उनकी रचनाओं में गुंथी हुई हैं.
इस कहानी को पढ़ते हुये मुझे आश्चर्य हुआ कि उदारीकरण जो एक प्रकार का अमेरिकीकरण ही है, की भनक मुक्तिबोध को इक्कीस वर्ष पहले ही लग गई थी. वे लिखते हैं ‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमरीका है. एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्लैंड-रिटंर्ड कहलाते थे. और आज वाशिंगटन जाते हैं. अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और राकेट हों तो फिर क्या पूछना !’ और आगे लिखते हैं ‘मुख्तसर किस्सा यह है कि हिंदुस्तान भी अमरीका ही है.’ कहना न होगा कि अमरीका की जो ताकत आज दिखाई दे रही है, उसे मुक्तिबोध ने बहुत पहले ही पहचान लिया था. अमरीका और उदारीकरण के बारे में मैं इसलिये कुछ नहीं कहूंगा कि वह अलग बहस की मांग करता है और इससे मुद्दे से भटकने का खतरा उपस्थित हो जायेगा. मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि मुक्तिबोध की समझ कितनी दूरगामी थी कि भविष्य के खतरे और उसके कारण उन्हें स्पष्ट दिखाई देने लगे थे.
मुक्तिबोध की कहानियों की विशेषता जटिलता नहीं है, जिसकी चर्चा अधिकांश लोग किया करते हैं. जटिलता जीवन के रहस्यों को उलझाती है, संघर्षों की धार को भोथरा करती है और सीधे रास्तों को टेढ़े रूप में दिखाती है, मुक्तिबोध की कहानियां ऐसा नहीं करतीं. वे अपने दौर में लिखी जा रही कहानियों से भिन्न प्रकार की कहानियां लिखते हैं लेकिन वे कहानियां उस दौर में भी और आज भी अलग से पहचानी जाती हैं. अलग से पहचान बनाये जाने के अपने संकट हैं, जिनसे मुक्तिबोध परिचित थे पर वे उन संकटों की परवाह नहीं करते थे. यदि परवाह करते तो वे ‘नयी कहानी’ की उस भीड़ में खो जाते, जिसे ‘नयी कहानी’ के तीन झंडावरदारों ने दबा दिया था. यह महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद जिस मध्यवर्ग को ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ में विशेष महत्व दिया गया, उस मध्यवर्ग के स्वार्थ और इकहरे संसार से मुक्तिबोध को चिढ़ है.
हिंदी की महान कविता ‘अंधेरे में’ और उनके आलोचनात्मक लेखों के अलावा कहानियों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है. ‘सतह से उठता आदमी’ के कृष्णस्वरूप के वैभवपूर्ण जीवन और उसके दब्बू स्वभाव पर कन्हैया का थूकना सामान्य घटना नहीं है. धन-दौलत से विलासितापूर्ण जीवन तो जिया जा सकता है पर दब्बूपन दूर नहीं किया जा सकता. कृष्णस्वरूप, रामनारायण और कन्हैया तीनों वर्गीय दृष्टि से अलग हैं पर तीनों अपने वर्ग चरित्रों से ही कहानी को महत्वपूर्ण बनाते हैं. यह समझ कम कहानीकारों में पाई जाती है, मुक्तिबोध बारीकी से पात्र और घटनाओं को उठाते हैं और उस मुकाम पर ले आते हैं जहां कहानी अपने आप बहुत कुछ कहती-सी लगती है. उन्हें जल्दबाजी में नहीं पढ़ा जा सकता, उनके यहां हर शब्द का महत्व है, इसलिये सुनार की चुनौटी से उठाये गये शब्द लुहार के भारी हथोड़े की चोट करते हैं. वे सामान्य ढंग से कहानी को उठाते हैं और अपने स्वभाव के अनुसार बहस करते-करते उस जगह ले आते हैं, जिसकी कल्पना पाठक नहीं करता.
कई कहानीकार कहानी के आरंभ से उसके अंत का पता दे देते हैं पर मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते. वे अपने पाठक को घुमाते हैं और खुद भी उसके साथ संवाद करते चलते हैं लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि पाठक को यह खबर नहीं लगने देते कि वे उसे कहां और कितनी दूर ले जा रहे हैं. बराबर बनी रहने वाली उत्सुकता उनकी किस्सागोई का भी नमूना है और उस दृष्टि का भी जिसके लिये वे जाने जाते हैं.
अभी कुछ दिन पहले ‘चंद्रयान 2’ चंद्रमा पर भेजा गया, इसका खूब प्रचार किया गया इसलिये किया गया कि लोग देश की आर्थिक मंदी और कश्मीर के कर्फ्यू को भूल जायें. ‘चंद्रयान 2’ निश्चित ही बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसरो और हमारे समर्पित वैज्ञानिक इस प्रकार के शोध लगातार करते रहते हैं पर उसके एक हिस्से के विलुप्त होने को ऐसे दर्शाया गया जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो. धवल वस्त्रों से सुसज्जित प्रधानमंत्री इसरो प्रमुख को गले लगा रहे हैं, इसरो प्रमुख रो रहे हैं, एंकर भी रो रहे हैं और ऐसा वातावरण बना रहे हैं कि टीवी देखने वाले भी रो रहे हैं. आप सभी जानते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में हर प्रयोग सफल नहीं होता पर वैज्ञानिक रोते नहीं हैं बल्कि वे उससे सीख लेकर आगे सफल और महान प्रयोग करने का संकल्प लेते हैं. अभिनंदन विमान उड़ा रहे हैं और हमारे चैनल्स लगातार दिखाते हुये भावुक टिप्पणी कर रहे हैं और सारे देश को लगने लगता है जैसे हमारा ‘वार हीरो’ विमान उड़ाकर फिर से पाकिस्तान को खत्म करने जा रहा है.
ये सब जानबूझकर किया जा रहा है ताकि आप उन बहसों और चर्चाओं को नहीं सुन सकें जो देश की बेराजगारी और मंदी की सप्रमाण व्याख्या कर रही हैं. भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहे देश के भोले लोगों के लिये यह खबर कितनी उत्साहवर्धक है कि रूस को भारत एक हजार करोड़ डालर का कर्ज देगा, जिस भारत की अर्थव्यवस्था खुद संकट में है, जो रिजर्व बैंक की सुरक्षित राशि का उपयोग करने की स्थिति में आ गयी है, वह देश एक जमाने में अमेरिका को टक्कर देने वाले रूस को कर्ज दे रहा है तो हमारी छाती अचानक छप्पन इंच की नही तो कुछ कम भी नहीं होती है. यह एक प्रकार का भ्रम है. भ्रम की स्थिति यह है कि यहां नही तो विदेश में नौकरी मिल रही है और बच्चे भाग रहे हैं अमेरिका, कनाडा और न जाने कहां-कहां ! घर में अकेले और बूढ़े मां-बाप हैं जो उदास और बीमार होकर व्हाटसएप पर अपने खिलखिलाते बच्चों को देख रहे हैं. हमें याद है कि एक जमाने तक मां बाप अपने ही देश में बहुत दूर बच्चों को नौकरी करने नहीं भेजा करते थे, बच्चे बुढ़ापे की लाठी होते हैं लेकिन अब घुटनों में दर्द है पर लाठी विदेश में है, क्या करें ?
कहना न होगा कि लाखों के पेकेज ने इस देश की सत्तर प्रतिशत गरीब आबादी के सपनों में दीमक डाल दी है. आर्थिक असमानता अकल्पनीय ढंग से बढ़़ रही है और हमारे युवा पंखहीन-स्वप्नहीन होकर अनिश्चित भविष्य जी रहे हैं. लोगों की जब समझ में आयेगा तब-तक सारे पंख बिक चुके होंगे तब यह अनुरोध व्यर्थ ही होगा कि ‘ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो.’ बड़ा व्यापारी हंसते हुये कहता है ‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूं, पंख के बदले दीमक नहीं.’ ये व्यापारी कौन हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है. कहानी में एक ‘भगवे खद्दर कुरते वाला भी है, यह भगवे कुरते वाले कौन हैं और वे क्या कर रहे हैं, इसे आप सब मुझसे अधिक जानते हैं.
छत्तीसगढ़ की यह भूमि केवल छत्तीस गढ़ों या नक्सलवादियों के लिये ही नहीं जानी जाती बल्कि माधवराव सप्रे, मुकुटधर पांडे, मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा विनोद कुमार शुक्ल के लिये भी जानी जाती है. हमारी अपनी पहचान बन चुके हिंदी के विरल रचनाकार मुक्तिबोध की पुण्य तिथि पर उनके परिवार के साथ आप सबने मुझे याद किया, यह स्मृति मेरे लिये आजीवन धरोहर की तरह रहेगी. मुक्तिबोध की स्मृति को प्रणाम करते हुये आप सबसे विदा लेता हूं. धन्यवाद ! आभार.
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