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Home » कविता का स्त्री उत्सव : प्रेमचन्द गांधी

कविता का स्त्री उत्सव : प्रेमचन्द गांधी

कवि, संस्कृतिकर्मी प्रेमचन्‍द गांधी ने विश्व साहित्य से स्त्रिओं द्वरा रचित स्त्री संवेदना और सौंदर्य – बोध की कुछ कविताओं का चयन कर उनका हिंदी में अनुवाद किया है. ये कविताएँ साथ साथ रहने वाली पर समानांतर दुनिया का अंतरतम प्रदर्शित करती हैं. ऐसा कुछ जो अब तक हमारी संवेदना से अछूता ही रहा. चयन […]

by arun dev
October 27, 2012
in अनुवाद
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कवि, संस्कृतिकर्मी प्रेमचन्‍द गांधी ने विश्व साहित्य से स्त्रिओं द्वरा रचित स्त्री संवेदना और सौंदर्य – बोध की कुछ कविताओं का चयन कर उनका हिंदी में अनुवाद किया है. ये कविताएँ साथ साथ रहने वाली पर समानांतर दुनिया का अंतरतम प्रदर्शित करती हैं. ऐसा कुछ जो अब तक हमारी संवेदना से अछूता ही रहा. चयन और अनुवाद बेहतरीन. 






ll कविता का स्‍त्री उत्‍सव है यह ll         

स्‍त्री मन और देह को जितना रहस्‍यमयी माना-कहा जाता रहा है, उसके पीछे पुरुषवादी समाज की सदियों पुरानी सोच है, जिसने रहस्‍य के आवरण में जीवन की कठोरतम सच्‍चाइयों को दुनिया से बेदख़ल रखा. जिन समाजों में स्त्रियों को स्‍वतंत्रता मिली, उन्‍होंने इन रहस्‍यों से न केवल परदा उठाया, बल्कि ऐसी संवेदनशील रचनाएं भी प्रस्‍तुत कीं जो धर्म और नैतिकता के बंधनों में कभी संभव नहीं थीं.ज़ाहिर है कि पुरुष उन विषयों पर अधिकारपूर्वक कभी नहीं लिख सकते थे, इसलिए महिलाओं के पुरज़ोर समर्थन के बावजूद उनकी रचनाओं में वह स्‍वर कभी नहीं आ सकता था. भारतीय भाषाओं में बेहद वर्जित माने जाने वाले इन विषयों पर कम ही लिखा गया है.

पिछले दिनों कुछ ऐसी कविताएं पढ़ते हुए महसूस हुआ कि इन्‍हें हिंदी में लाना चाहिये. इस कोशिश में विभिन्‍न स्रोतों से प्राप्‍त कविताओं में से कुछ कविताएं मैंने हिंदी में अपनी भावभूमि और भाषा में रखने की कोशिश की है. संख्‍या में कम इसलिये कि बहुत-सी कविताओं के संदर्भ हमारी चेतना को शायद इस तरह नहीं संवेदित कर सकें, जैसे इन कविताओं के. इधर हिंदी में कुछ युवा कवयित्रियों ने वर्जित विषयों पर लिखने की शुरुआत की है, लेकिन वे जितनी चौंकाने वाली रचनाएं हैं उतनी संवेदना के धरातल पर नहीं. इन अनूदित कविताओं से नारी मन और देह के अज्ञात संवेदनशील क्षेत्रों का एक नया संसार खुलता है कि इन विषयों पर ऐसे भी लिखी जा सकती हैं कविताएं… इसी उम्‍मीद के साथ ये कविताएं प्रस्‍तुत हैं. कविता की मूल संवेदना को बनाये-बचाये रखने की पूरी कोशिश अनुवाद में की गई है, फिर भी कमियां हैं तो अनुवादक की.

:: प्रेमचन्द गाँधी  

     

एक खाली कोख

एलिसन सोलोमन


मैंने नहीं देखी कोई कविता
मासिकधर्म की बदसूरती के बारे में
वैसे ऋतुचक्र चमत्‍कारिक होते हैं
चंद्रमा की चाल नियंत्रित रखती हैं हमारी जिंदगियां
रक्तिम लाल फूलों के सुंदर अवशेष
वे हमारे स्‍त्रीत्‍व की निशानियां हैं
हमारी शक्ति
कुदरत के साथ हमारा पक्‍का रिश्‍ता


मैंने कभी नहीं देखी कोई कविता

जो बताती हो उस उत्‍सुक इंतज़ार को
ना पाने की नहीं
बस रक्तिम निशान पाने की
बारंबार फिर से
यह जानते हुए कि मासिकधर्म
चमत्‍कारिक नहीं हैं
गहरे लाल फूल सिर्फ निशानी हैं
एक खाली कोख की
मैंने कभी नहीं पढ़ी कोई कविता
जो बताती हो कि
मासिकधर्म एक मानसिक अवस्‍था है
यह कि एक खाली कोख भी
बहुत खूबसूरत होती है
जब मैं देखती हूं ये कविताएं
मैं जान जाती हूं कि
बांझ स्‍त्री भी लिखती है कविताएं.

अपने गर्भाशय के लिए कविता

लूसिलै क्लिफ्टन

अरे गर्भाशय तुम
तुम तो बहुत ही सहनशील रहे हो
जैसे कोई ज़ुराब
जबकि मैं ही तुम्‍हारे भीतर सरकाती रही
अपने जीवित और मृत शिशु और
अब वे ही काट फेंकना चाहते हैं तुम्‍हें
जहां मैं जा रही हूं वहां
अब मुझे लम्‍बे मोजों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी
कहां जा रही हूं मैं बुढ़ाती हुई लड़की
तुम्‍हारे बिना मेरे गर्भाशय
ओ मेरी रक्‍तरंजित पहचान
मेरी एस्‍ट्रोजन रसोई
मेरी कामनाओं के काले झोले
मैं कहां जा सकती हूं
तुम्‍हारे बिना
नंगे पांव और
कहां जा सकते हो तुम
मेरे बिना

गर्भपात 

नीना सिल्‍वर 

“क्‍या था तुम्‍हारे पेट में?”
मेरी मां की सवालिया आंखें
नासमझी का आवरण ओढ़े
उबल पड़ती हैं
ठण्‍डी हवा खड़खड़ाती चली जाती है
इस बीच मैं अविचल खामोश खड़ी रहती हूं
धुले हुए गर्भाशय की दीवारों से जद्दोजहद करती
उस दर्द का वह फूला हुआ घाव सहते हुए 
जो उसे देह से अलगाने के कारण लिपट गया दीवारों से 
“यह ज़रूर ग़ैर यहूदी बच्‍चा रहा होगा
तुमने इसे इसीलिये छोड़ दिया क्‍योंकि
वो शख्‍स़ यहूदी नहीं था.”
मैं झुकते हुए हंसती हूं
आंसुओं से भरा विरोध जताते हुए
मेरी जिंदगी में किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं
चाहे कोई कितना भी सुंदर क्‍यों न हो
तुम जानती हो मां
मैं तो अभी शुरुआत कर रही हूं
जागने की 
खुशियों की एक नई भोर लाने की
मेरी अपनी बच्‍चों जैसी हंसी पाने की
जिसे तुम या कोई नहीं छीन सकता
अब चाहे तुम कितनी भी त्‍यौरियां चढ़ा लो


अपनी आखिरी माहवारी के लिए 

लूसिलै क्लिफ्टन

अच्‍छा लड़की अलविदा
अड़तीस बरस बाद आखिर अलविदा
इन बीते अड़तीस बरसों में
तुम कभी नहीं आई मेरे लिए
परेशानियों के बिना
अपनी शानदार लाल पोशाक में
कहीं भी किसी भी तरह
अब आखिर यह विदाई हो चुकी है
मैं उस दादी मां की तरह महसूस कर रही हूं जो
बदचलन कहे जाने के दिन गुज़र जाने के बाद
हाथों मे अपनी तस्‍वीर लिये बैठी है
और आहें भर रही है कि क्‍या वह
सुंदर नहीं थी…
क्‍या वह खूबसूरत नहीं थी… 

जननी

पॉला अमान

“दूधों नहाओ और पूतों फलो !’’
सेब और सांपों की चमकदार जगहों में
बुदबुदाती-गूंजती है यही आवाज़
“क्‍या तुम्‍हारा परिवार है”
अजनबी पूछते हैं ऐसे
जैसे एक बच्‍चा ही इकलौता फल है
मेरे जैसी उम्र की एक स्‍त्री के लिए
और संभावित प्रसवन-शक्ति ही
दुनिया के लिए उसका आखि़री विश्‍वास है
जैसे-जैसे मेरे जन्‍मदिन चालीस की ओर लपकते हैं
मेरे भीतर हर मौसम में परिवार और
उसके गुणसूत्र नाचते रहते हैं लेकिन
एक छोटे और जिद्दी शिशु की परवरिश के लिए
मैं सुबह चार बजे नहीं उठ जाती हूं
जब मैं गीत लिखने लगती हूं
गर्भावस्‍था के सपने देखने लगती हूं
प्रेरणाओं से भरा फूला हुआ पेट
जो पैदा करता है स्‍वर और शब्‍दों को
मेरे दिल के बाहर निकाल फेंकता हुआ
चीख कर उन्‍हें अपनी ही जिंदगी देता हुआ
अब मैं कविताएं करती हूं
मैं गूंजते व्‍यंजनों से
बेतरह भर दूंगी इस दुनिया को,
मैं ख़तरों से अंजान लोगों की देहरियों पर
रक्तिम छवियां और
विलाप करते शब्‍द छोड़ जाउंगी
मैं बेशर्म दुस्‍साहसिकता की मांस-मज्‍जा 
और उम्‍मीद की अस्थियों से भर देने वाली
रातों के रूपक पैदा कर छोड़ जाउंगी.
मां के आंसू

शेरी एन स्लॉटर

यह बहुत ही गंदी और ख़तरनाक दुनिया है
किसी भी बच्चे को जन्म देने के लिए,
फिर चाहे लड़का हो या लड़की

बिना इस बात से डरे कि कहीं उन्हें
ना चाहते हुए भी किसी गैंग में शामिल हो जाना है
या कि जीना है नशेडि़यों वाली गलियों में
बेफिक्र उस डर से जिसमें उन्हेंतोड़ने हैं तमाम कानून

और इन्कार करना है किसी भी स्कूल में जाने से
और भटकना है सड़कों पर आवारा
उन ख़तरों से अंजान बनकर जो टकरा सकते हैं
जिंदगी के किसी भी मोड़ पर
बिना इस बात से डरे कि कम उम्र में ही
वे जन्म दे देंगे बच्चों को
कि विद्रोही हो जाएंगे अपनी मांओं से
उन सब डरों से डरे बिना जो कि वे हो सकते हैं

एक ऐसी सरकार जो कहती है कि
‘
आइये और सेना में शामिल हो जाइये’
मांओं के आंसुओं से कब्रिस्तानों में बाढ़ आ गई है
और मैं महसूस करती हूं कि
मैं वो वह कभी नहीं चाहूंगी
जो मेरे पास अभी तक नहीं है.


मेकअप

डोरा मलेक

मेरी मां बिना मेकअप वाली औरतों को पसंद नहीं करती
‘क्‍या है जिसे वे छिपा नहीं रहीं’
मतलब कोई मुर्दा चीज़ है जो बची है
और बची ही नहीं बल्कि जिंदा है
मैं जो कुछ भी कहती हूं वह
बादलों को बिल्‍कुल शांत कर देती है
जैसे वे उस खूबसूरत मुर्दा चीज़ को जानते हों
बिल्‍कुल असल, कोई मस्‍कारा नहीं, कोई सबूत नहीं
नीला आकाश, खाली चेहरा
एक विश्‍वसनीय झूठा खाली चेहरा नकली पैंदा
दुख जैसे जेहन में छुपा बैठा खरगोश
त्‍वचा जैसे कोई सहमत विचार वाला मूर्खतापूर्ण एकांकी
मेले में हर बच्‍चे के गाल इंद्रधनुष हो जाते हैं
ईश्‍वर मुझे मेरा चमकदार व्‍यक्तित्‍व दो
हर सांस जैसे एक खेल है
जियो हमेशा
मैं बहुत छोटी हूं
मुझे एक गुमनामी को दूसरी गुमनामी से
मिलाने के लिए मत कहना
मैं कहती हूं कि
मुर्दा चीज़ों को गुलाबी रंग दो कि इससे
वे सूर्योदय नहीं हो जाएंगी
जीवितों को नीला रंग दो कि
इससे वे आकाश, समुद्र, रसदार फल या कि
मुर्दा नहीं हो जाएंगे
ईश्‍वर हमें बख्‍श दो
हमारे कपड़ों को छोड़ दो
हमें नाकों चने मत चबवाओ
हमारी त्‍वचा को भीतरी परत तक उधेड़ दो
धरती भी साल में एक बार रंग बदलती है
लाल पत्‍ते पहने हुए जैसे
दरख्‍त बजाते हैं दुख और दर्द. 
प्रतिज्ञा

स्टीफनी हैरिस


रात का खाना एक कुरबानी है
बासी खाना और करीने से सजी मेज
जैसे ही वह उंडेलता है उसमें अपने दुख
वह इस कदर भर जाती है दुखों से कि
बमुश्किल हिल-डुल पाती है
फिर भी वह हर शाम उसे अपनी ही तरह अपनाती है
सूप और सलाद के दौरान
सुकून का जाम सजाने के बीच
उसके गिलास में ताकत भरते हुए
ख़ुद का गिलास उसका खाली ही रहता है

इसमें कुछ भी नया अथवा असामान्य नहीं है
उसकी मां और दादी ने भी यही सब किया होगा

मैं खुली आंखों से दुनिया देखने वाली
ग़ौर से देखती हूं यह सब
और प्रतिज्ञा करती हूं कि
जब मैं गिलास भरने लायक बड़ी होउंगी
तो सिर्फ एक गिलास होगा और
वो होगा मेरा अपना केवल…

खच्‍चर

जेन स्प्रिंगर

जब उन्‍होंने कहा कि मत बोलो तब तक
कहा ना जाए जब तक बोलने के लिए
हमने अपने कान मकई के भुट्टों जैसे बड़े कर लिए
जब उन्‍होंने हमें सब कुछ खा लेने के लिए मज़बूर किया
हम उनके तमाम दुखों को निगल गईं
जब उन्‍होंने हमें दीवार पर चित्रकारी करने के लिए पीटा
हमने परदों के पीछे वाले दरवाज़े रंग डाले
पीढि़यों तक वे ऐसे ही
हमें बेतरह बचाने की कामना के साथ
जीवन गुज़ारते रहे
बिना यह जाने कि कैसे बचाना है
और इसी सबके बीच हमने
असामान्‍य जगहों में तलाश लिया प्रेम
अपनी देह और चेहरों के उजाड़ गिरजों में
उनके लंबे तिरछे मुड़े हुए चेहरों में.
_______________________________________

सभी Sculpture : Mayyur Kailash Gupta   


प्रेमचंद गांधी

२६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह :  इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्‍कृति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा.
विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com

Tags: कविता का स्त्री उत्सव
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