मोहम्मद रफ़ी पर यह शानदार क़िताब अंग्रेजी में राजू कोरती और धीरेंद्र जैन ने लिखी है जिसे प्रामाणिक जीवनी कहा जा सकता है इसमें शोध के साथ उनके ७००० गाये गीतों को भी ध्यान में रखा गया है, जिसे सुंदर ढंग से नियोगी बुक्स ने छापा है. इसका हिंदी में अनुवाद कवि और कला-मर्मज्ञ प्रयाग शुक्ल ने किया है.
इसकी चर्चा कर रहें हैं रोहित कौशिक
मोहम्मद रफ़ी की संघर्ष-गाथा
रोहित कौशिक
संगीत की दुनिया में मोहम्मद रफ़ी ने जो मुकाम हासिल किया, वह बहुत कम लोगों को नसीब होता है. यह मुकाम उन्हें विरासत में हासिल नहीं हुआ, बल्कि इसे पाने के लिए उन्होंने अनवरत संघर्ष किया. राजू कोरती और धीरेंद्र जैन ने मोहम्मद रफ़ी की गौरवमयी संगीत यात्रा को बहुत ही खूबसूरती से अपने शब्दों में पिरोया है. यह पुस्तक मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी. नियोगी बुक्स से प्रकाशित इस पुस्तक का बहुत ही सुन्दर अनुवाद वरिष्ठ कवि प्रयाग शुक्ल ने किया है. यह प्रयाग शुक्ल के अनुवाद का ही कमाल है कि इसे पढ़ते हुए यह महसूस नहीं होता है कि हम कोई अनूदित पुस्तक पढ़ रहे हैं. प्रयाग शुक्ल का अनुवाद सहज और सरल तो होता ही है, उनके अनुवाद में एक अलग ही लय दिखाई देती है. इसीलिए पाठक इस पुस्तक से एक आत्मीय संवाद स्थापित कर लेता है.
रफ़ी इतने सहज-सरल और उदार थे कि फिल्म उद्योग में स्थापित होने के लिए संघर्ष कर रहे विभिन्न लोगों और छोटे संगीत-निर्देशकों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे. वे फीस की चिन्ता नहीं करते थे और अगर उन्हें कोई गीत अच्छा लगता था तो उसे जरूर गाते थे. एक रुपये की प्रतीक राशि में उन्होंने निसार बज्मी के लिए ‘चंदा का दिल टूट गया है रोने लगे हैं सितारे’ गीत गाया था. जब ‘चंगेज खान’ (1957) में प्रेमनाथ पर फिल्माया जाने वाला गीत ‘मुहब्बत जिंदा रहती है, मुहब्बत मर नहीं सकती’ उन्होंने गाया और संगीत-निर्देशक हंसराज बहल ने उनसे पूछा कि इसके लिए आप क्या फीस लेंगे? तो रफ़ी ने उनसे कहा-
“छोड़िए भी, इस गीत की धुन सोने में तुलने लायक है. यह गीत गाना ही मेरी सबसे बड़ी रकम है.”
रफ़ी का यह विश्वास था कि हर संगीतकार उनका गुरु था. शब्दों पर पूर्ण अधिकार होने के बावजूद वह अपने को संगीतकार से ऊपर कभी नहीं रखते थे. संगीतकार का कहा हुआ, उनके लिए सब कुछ होता था और वह उसी तरह गाते थे जैसा कि सामने वाला चाहता था. यहाँ तक कि अगर कोई नया संगीतकार भी गीत के शब्द उनके सामने रखकर कहता था कि मैं चाहता हूँ कि आप बता दें कि इसे किस तरह गाएंगे तो रफ़ी विनम्रतापूर्वक कहते थे-
“नहीं, वह आपका क्षेत्र है, मेरा काम तो, जैसा आप कहेंगे, वैसे गाना है, क्योंकि आप मेरे गुरु हो और मैं आपका शिष्य हूँ.”
जनप्रिय लेखक गुलशन नंदा ने एक बार कहा था कि अगर किसी हिंसा पर उतारू भीड़ को शांत करना हो तो रफ़ी साहब की आवाज ही वह कर पाएगी. रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर, पंजाब के एक छोटे से गाँव कोटला सुलतान सिंह में हुआ था. रफ़ी को शुरू से ही लोक गायकों की नकल करना और उनकी तरह गाना अच्छा लगता था. गाँव में रफ़ी को ढोर-डंगर चराने में खूब मजा आता था. उन्होंने तब स्थानीय मिरासियों को उप-शास्त्रीय शैली में गीत गाते हुए सुना था, जिनमें लोक गीत भी हुआ करते थे. वे पशुओं को चराते हुए अपने गाँव के आसपास के मिरासियों की तरह गाने की कोशिश करते थे और गाँव वाले भी खुश होकर उन्हें सुनते थे. गाँव में कोई ऐसा कला का महारथी नहीं था, जो रफ़ी को शास्त्रीय संगीत की बारीकियाँ सिखा सकता. रफ़ी के पिता अपनी अर्थिक स्थिति सुधारने के लिए लाहौर चले गए और वहाँ एक ढाबा खोल लिया. कुछ समय बाद उन्होंने रफ़ी को भी लाहौर बुला लिया. वहाँ उनके पिता ने उन्हें एक सैलून में बाल काटने का काम दिला दिया. वे अपने ग्राहकों को पंजाब के लोक गीत गाकर खुश रखते थे. एक दिन ऑल इंडिया रेडियो में संगीत के कार्यक्रम अधिकारी जीवन लाल मट्टू , रफ़ी की आवाज सुनकर सैलून के बाद रूक गए. उन्होंने अन्दर जाकर रफ़ी से पूछा कि क्या वे रेडियो सिंगर बनना चाहेंगे ? मार्च 1943 में रफ़ी ऑल इंडिया रेडियो के लाहौर स्टेशन के स्टूडियोज में आडिशन में सफल रहे और इस तरह वे एक रेडियो कलाकार बन गए. इसी समय रफ़ी ने एक नए उभरते फिल्म संगीत-निर्देशक श्याम सुंदर की पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए सोनिए नी, हीरिए नी, तेरी याद ने सताया गीत गाया. इस गीत ने बाम्बे (अब मुंबई) फिल्म-जगत में पार्श्वगायिकी के क्षेत्र में उनके लिए दरवाजे खोल दिए. हालांकि यह फिल्म चली नहीं और इसी के साथ यह गीत भी डूब गया.
(नौशाद के साथ रफ़ी) |
लेखकद्वय ने विभिन्न अध्यायों के माध्यम से विस्तृत फलक पर मोहम्मद रफ़ी की जीवन यात्रा को प्रस्तुत किया है. दरअसल जीवन लाल मट्टू के अलावा मास्टर इनायत हुसैन ने भी रफ़ी को लोक गायन की बारीकियाँ सीखाई. लाहौर में रफ़ी ने कई अन्य कलाकारों और उस्तादों से भी काफी कुछ सीखा. जब रफ़ी लाहौर में थे, तब वहाँ कई पंजाबी और हिन्दी फिल्में बन रही थीं, लेकिन तब श्याम सुंदर के अलावा किसी संगीत-निर्देशक को यह नहीं सूझा कि वह उनकी रेशमी आवाज का इस्तेमाल करें. लाहौर में मास्टर गुलाम हैदर, रफ़ी को बहुत पसन्द करते थे. 1943 के अंत में गुलाम हैदर बंबई चले गए. मास्टर गुलाम हैदर के बहुत बार बुलाने के बाद रफ़ी भी बंबई चले गए. बंबई में 1945 में रफ़ी ने फिल्मों के लिए कुछ गीत गाए लेकिन उनका ज्यादा असर नहीं हुआ. हाँ, मिलने वाला मेहनताना जरूर अच्छा था. लाहौर में एक गीत गाने के लिए उन्हें 25 रुपये मिलते थे लेकिन बंबई में एक गीत गाने के लिए 300 रुपये मिलते थे. गुजर-बसर के लिए वे निजी महफिलों में भी गाया करते थे. उन्हें 1946 में बड़ा ब्रेक मिला. उन्होंने जुगनू फिल्म में यहाँ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है डुएट गीत की रिकाडिंग की. 1947 में जब फिल्म रिलीज हुई तो इस डुएट ने धूम मचा दी. इसके बाद रफ़ी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
जब रफ़ी ने शहीद फिल्म के लिए एक गीत वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हो गाया तो यह लोगों को इतना पसंद आया कि घर-घर में रफ़ी की चर्चा होने लगी. उस समय के ज्यादातर संगीत-निर्देशक, जिनमे अगुआ तो पंडित हुस्रलाल-भगतराम ही थे, रफ़ी की प्रतिभा को धार देने में बेहद दिलचस्पी लेने लगे. जब रफ़ी का फिल्मी कैरियर तेजी से आगे बढ़ रहा था, उस समय उनके पुरखों के प्रदेश, पंजाब में साम्प्रदायिक विभाजन बढ़ रहा था. मार्च 1947 में लगभग 500 सिखों और कुछ हिंदूओं की रावलपिंडी इलाके में निर्मम हत्या कर दी गई. रफ़ी को इस बर्बरता से काफी दुख पहुँचा. रफ़ी शुरू से ही सात्विक प्रकृति के और सज्जन व्यक्ति थे. मौका मिलते ही वे साम्प्रदायिक सद्भाव वाले गीतों को अपनी सुरीली और दमदार आवाज देने के लिए बेचैन रहते थे. उनका मानना था कि हिंदू, सिख, मुसलमान आपस में भाई-भाई ही तो हैं. पंडित हुस्रलाल-भगतराम के अन्तर्गत रफ़ी का स्वर खूब मँजता चला गया और लता मंगेशकर के साथ वे भारत के अग्रणी कलाकार बन गए.
1950 के बाद ज्यादातर संगीत-निर्देशक यह मानने लगे थे कि फिल्म संगीत में रफ़ी की दौड़ लंबी होने वाली है. जब नौशाद ने दुलारी (1949) और दीदार (1951) जैसी फिल्मों ने लिए बेहतरीन धुनें बनाईं, तो रफ़ी छा गए. 1952 में रफ़ी ने अपनी आवाज और अंदाज में अचानक बदलाव किया और धीमे स्वरों को ऊँचे पायदान पर ले गए. फिल्म संगीत पर लिखने वाले कई लेखकों और फिल्मों के इतिहास पर नजर डालने वालों ने 1952-53 के बाद रफ़ी की उपलब्धियों को दर्ज किया है. लेकिन उनमें से ज्यादातर ने रफ़ी के शुरुआती दिनों के संघर्ष और सफलता पर पैनी नजर नहीं डाली है.
इस पुस्तक में गहन शोध के बाद उन लगभग 7000 गीतों का वर्णन है जो रफ़ी ने देश-विदेश में प्रस्तुत किए. रफ़ी ने यों तो बंबई पहुँचते ही पूरी तल्लीनता से काम करना शुरू कर दिया था, लेकिन पहली सफलता उन्हें मिली, इक दिल के टुकड़े हजार हुए (प्यार की जीत, 1948) और सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी (गैर-फिल्मी गीत, 1948) जैसे गीतों से. निश्चय ही 1942 से लेकर 1980 का विशाल कैनवास ऐसा रहा है, जिसमें रफ़ी ने अपने रंग भरे. 1980 के बाद की पीढ़ी में यूँ तो कई लोगों को दर्ज किया जा सकता है, लेकिन उनमें से कोई भी ऐसी सफलता अर्जित नहीं कर सका.
निःसन्देह 40 वर्षों की अपनी जीवन संगीत यात्रा में रफ़ी हमेशा बुलंदियों पर रहे. कुछ लोग रफ़ी-किशोर की प्रतिद्वंद्विता का बखेड़ा खड़ा रहते हैं, उनकी जानकारी के लिए यह बता देना अच्छा होगा कि उस समय किशोर के घर में दो ही तस्वीरें थीं-एक काली की, दूसरी रफ़ी की. जयदेव ने एक बात जोर देकर कही थी कि जब मन्ना डे शास्त्रीय रंग में गाते हैं तो वहाँ उनकी बराबरी और कोई नहीं कर सकता है. कुछ समय तक मन्ना डे स्वयं भी यह मानते रहे कि वे शास़्त्रीय गीतों के बेताज बादशाह हैं, लेकिन उनके अपने अनुभवों ने कुछ समय बाद यह स्वीकार करने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया कि रफ़ी की शास्त्रीय गायकी में प्रवीणता उनसे कम नहीं है.
चित्रगुप्त ने एक बार कहा था कि मैंने रफ़ी की समूची रेंज को खंगाला है. वे शास्त्रीय गीतों को गाते हुए भी उतने ही अच्छे लगते हैं, जितने कि कोमल रोमांटिक गीतों को गाते हुए. दरअसल रफ़ी ने देशभक्ति के गीतों को भी एक नई ऊर्जा दी. हिन्दी फिल्मों के इतिहास में देशभक्ति के गीतों को मील का पत्थर बना दिया.
(प्रयाग शुक्ल) |
राजू कोरती और धीरेन्द्र जैन ने 1960 के दशक में रफ़ी और लता मंगेशकर के बीच रायल्टी को लेकर जो विवाद हुआ था, उसका गम्भीर भी विश्लेषण किया है. लता का विचार था कि सिंगर्स को रायल्टी मिलनी चाहिए जबकि रफ़ी का कहना था कि एक बार गीत रिकार्ड हो जाने के बाद, सिंगर का उस पर कोई अधिकार नहीं रह जाता.
इस पुस्तक में लेखकद्वय राजू कोरती और धीरेन्द्र जैन का परिश्रम साफ दिखाई देता है. इस पुस्तक की सामग्री को रागात्मक और सार्थक अनुवाद के माध्यम से हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने का श्रेय तो प्रयाग शुक्ल को ही जाएगा. इस श्रमसाध्य कार्य के लिए प्रयाग शुक्ल साधुवाद के पात्र हैं. नियोगी बुक्स ने इसे बहुत सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया है. बड़ी बात यह है कि इस पुस्तक में केवल मोहम्मद रफ़ी की जीवनी भर समाहित नहीं है, बल्कि यह फिल्मी जगत और संगीत की दुनिया के विभिन्न किरदारों के व्यक्तित्व को भी हमारे सामने रखती है. एक तरह से यह फिल्मी जगत के विभिन्न कालखंडों का ऐतिहासिक दस्तावेज भी है.
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