अब्बास कैरोस्तमी: सिनेमा का कवि
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फोटोग्राफर, पेंटर, डिजाइनर, किताबों के इलस्ट्रेटर और फ़िल्म निर्देशक अब्बास कैरोस्तमी (1940-2016) ने विज्ञापन फिल्मों से अपना करियर शुरू किया और अब दुनिया के श्रेष्ठ फिल्मकारों शुमार किए जाते हैं. इनके बारे में प्रख्यात फिल्मकार अकीरा कुरोसावा की यह उक्ति बड़ी मशहूर है:
“कैरोस्तमी की फिल्मों के बारे में अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं हैं, उन्हें समझने के लिए आपको उनकी फिल्में खुद देखनी पड़ेंगी.”
फिल्म समीक्षकों का मानना है कि उन्होंने यथार्थ और कथा (फिक्शन) के साथ बड़े काव्यात्मक प्रयोग किए हैं. वे कथा को यथार्थ की तरह और यथार्थ को कथा की तरह दिखाते हैं. इस बारे में अब्बास कैरोस्तमी का स्वयं का यह उद्धरण बहुचर्चित है:
“हम सत्य के करीब तब तक नहीं पहुंच सकते जब तक हम झूठ का रास्ता न पकड़ें.”
उनकी कुछ अन्य चर्चित और पुरस्कृत फिल्में हैं:
क्लोज़ अप, एंड लाइफ़ गोज़ ऑन, थ्रू द ऑलिव ट्रीज़, व्हेयर इज द फ्रेंड्स होम, टेन, शीरीन, सर्टिफाइड कॉपी, लाइक समवन इन लव इत्यादि.
दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित कान फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के खिताब के अलावा उन्हें दुनिया भर के शिखर के पुरस्कार और सम्मान मिले पर अपने देश ईरान में उनकी फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं के बराबर ही हुआ.
अब्बास कैरोस्तमी के कुछ उद्धरण:
“अंधकार कितना भी घना हो उसके अंदर कविता जरूर बसती है, और यह कविता तुम्हारे लिए है.”
“बीमारी खराब चीज होती है पर उससे भी खराब है एक चीज है- मौत! मौत से बुरा कुछ नहीं होता. जब आप इस दुनिया से अपनी आंखें मूंद लेते हो, यहां की खूबसूरती, कुदरत के बेनजीर नज़ारे और खुदा की नेमतें- इन सब से दूर चले जाते हो, फिर से कभी न लौट पाने के लिए. लोग-बाग कहते हैं कि इस दुनिया को छोड़ो, दूसरी दुनिया ज्यादा आबाद और खूबसूरत है. पर आज तक उस दुनिया में जाकर कभी कोई लौट पाया है जो बता सके वह दुनिया इसके मुकाबले कितनी खूबसूरत है?”
“फिल्म बनाने में महत्वपूर्ण बात यह होती है कि कहानी को कहा कैसे जाता है. उसके कहने का अंदाज काव्यात्मक (पोएटिक) होना चाहिए और इसका पाठ सभी दर्शकों के लिए एक समान नहीं होना चाहिए बल्कि उन सबके लिए उसे अपने-अपने ढंग से अलग-अलग देखने समझने का अवसर होना ही चाहिए, और मुझे लगता है कि जो सिनेमा इतिहास के पैमाने पर खरा उतरेगा वह सिर्फ यांत्रिक ढंग से कहानी सुनाने वाला नहीं बल्कि काव्यात्मक सिनेमा ही होगा.”
“मेरे घर की लाइब्रेरी में उपन्यास और कहानियों की किताबें बिल्कुल नई दिखती हैं क्योंकि मैं उन्हें एक बार पढ़ता हूं और अलग रख देता हूं. लेकिन लाइब्रेरी के कोने-कोने में कविता की किताबें बिखरी पड़ी रखती हैं- बार-बार और जाने कितनी बार उन्हें उलट-पलट के देखता हूं और पढ़ता हूं. कविता हमेशा आपसे दूर भागती है,उसे समझना आत्मसात करना बहुत मुश्किल होता है…. जितनी बार भी आप उसे पढ़ते हैं आपके आसपास की परिस्थितियों और आपके मनोभावों के हिसाब से उसके अलग-अलग अर्थ निकलते हैं. इससे बिल्कुल उलटी बात है कि आप जब कोई कहानी या उपन्यास पहली बार पढ़ते हैं तब उसका जो अर्थ आपके दिमाग में खुलता है वह स्थायी होता है. मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा हूं कि सभी उपन्यासों के साथ ऐसा ही होता है- कुछ कहानी और उपन्यास ऐसे भी होते हैं जिनमें काव्य तत्व बहुत मुखर होता है. इसी तरह से कुछ कविताएं ऐसी होती हैं जो किसी कहानी उपन्यास की तरह बिलकुल सपाट होती हैं.”
अब्बास कैरोस्तमी की एक फिल्म है “विंड विल कैरी अस” (Bād mārā khāhad bord), जो आधुनिक फारसी कविता की बेहद महत्वपूर्ण स्तम्भ फरुग फरोख्जाद की इसी शीर्षक की कविता से प्रभावित है. इस फिल्म में यूँ तो जीवन मृत्यु के सवाल को अपनी तरह से देखने का प्रयास किया गया है,पर फिल्म जिस वाक्य से शुरू होती है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है:
“ये रास्ता न तो कहीं से आ रहा है, न ही कहीं ले जा रहा है.”
यानी जीवन मृत्यु के सवाल मानव जाति की शुरुआत से ही उसको उलझाये हुए हैं और सदियाँ बीत जाने के बाद भी उनका कोई सर्वमान्य समाधान नहीं खोजा जा सका है.
विंड विल कैरी अस
इस फिल्म में तेहरान से तीन लोगों का एक दल सात सौ किलोमीटर दूर कुर्दिस्तान के एक ऐसे गाँव में जा कर अपना डेरा डंडा डालता है जहां सेल फ़ोन का सिग्नल तभी मिल पाता है जब ऊँचे टीले पर जा कर संपर्क साधने की कोशिश की जाए. इस छोटे से गाँव में सेल फ़ोन से आवाज आ तो कहीं भी जाती है पर अपनी आवाज भेजने के लिए खासा संघर्ष करना पड़ता है. शहर से जो दल आता है गाँव के लोगों को उनके मकसद के बारे में बिलकुल नहीं मालूम…बस गाँव का ही एक छोटा सा बच्चा उनके और गाँव के लोगों के बीच सेतु का काम करता है. शहर से आए हुए लोग दरअसल खबरों से जुड़े वो लोग हैं जिनके पास सूचना है कि इस गाँव में एक बूढी स्त्री मृत्यु शय्या पर है और उनका असली मकसद उसकी मृत्यु के बाद किये जाने वाले खासम खास रस्मो-रिवाज का फोटोग्राफिक दस्तावेजीकरण करना है.
जैसे-जैसे फिल्म आगे बढती जाती है इसके मृत्यु पक्ष धीमा पड़ता जाता है…कभी झूठ न बोलने वाला लड़का गाँव और मृत्यु वाले घर की जानकारी इकट्ठा कर के बाहर से आए दल को खबर देता रहता है कि बूढी स्त्री अब तो बेहतर होने लगी है…लगभग एक व्यावसायिक मज़बूरी और अनिच्छा(मृत्यु) से शुरू हुई ये यात्रा कब धीरे-धीरे शहरी लोगों के सुदूर गाँव के रीति रिवाज और जीवन को गहरे जुड़ाव के साथ समझने की यात्रा में बदलने लगती है इसका आभास ही नहीं होता.
बार-बार गाँव के ऊँचे टीले पर खुदाई करते हुए एक व्यक्ति (चेहरा कभी नहीं दिखता,एक बार दिखता भी है तो नजदीक से पैर का तलवा) की उपस्थिति दिखाने की कोशिश की जाती है जो दरअसल चोरी छुपे कब्रों को खोदने के अभियान में जुटा हुआ है…पूछने पर बोलता है कि संचार के लिए खुदाई कर रहा है. फिल्म में एक प्रसंग ऐसा भी आता है कि कब्र खोदते खोदते आस-पास की ढेर सारी मिट्टी उसके ऊपर गिर जाती है…दम घुटने से मृत्यु के करीब पहुँचता हुआ ये आदमी शहर से आए दल की चिंता का कारण तो बनता है, उसको ये लोग अपनी गाड़ी से डॉक्टर के पास ले चलते हैं पर बीच में ही किसी और मामूली काम में उलझ जाते हैं और उसको उसके हाल पर ही मरता हुआ छोड़ देते हैं…आधुनिक जीवन की विडंबना यह है कि जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा की जा रही थी वह जीवन की ओर लौट जाता है और जो बार-बार प्रगति की राह पर चलने के अभियान में लगा हुआ दिखाई पड़ता है,उसका दम घुटना कोई खास आकर्षण और दायित्व बोध नहीं पैदा करता.
बूढी स्त्री की मृत्यु का दस्तावेज बनाने गए लोगों को उसकी वास्तविक मृत्यु में कोई खास रस नहीं मिलता…उस मृत्यु में रस्मी तौर पर जुटी कम उम्र की और युवा स्त्रियों की छवियाँ उनको ज्यादा मूल्यवान,लाभप्रद और जरूरी लगती हैं. फिल्म में कब्र खोदनेवाला बे-चेहरे वाला किरदार शहर से आए दल के मुखिया को चाय के लिए ताज़ा दूध दिलाने के लिए अपनी युवा प्रेमिका के घर ले जाता है…घुटन भरे अंधेरे तहखाने में रोशनी के छोटे छोटे वृत्तों में जीवन की बे-पनाह सुन्दरता से रु-ब-रु होने पर हमें फरोग फरोख्जाद की बेहद लोकप्रिय कविता…
“हवा बहा ले जाएगी हमें”…का पाठ सुनने को मिलता है… बार बार…प्रकट रूप में मृत्यु की बात करने वाली जीवन की उत्तप्त स्मृतियों का आख्यान कहती हुई एक कालातीत कविता….
हवा बहा ले जाएगी हमें
फरूग फरोख्जाद
मेरी पल भर की रात
हवा का वायदा है पत्तियों से मिलने का
मेरी पल भर की रात
लबालब भरी हुई है विनाशकारी संताप से
सुनो, क्या तुम्हें सुनाई दे रहे हैं परछाइयों के थपेड़े?
मैं अजनबी, डूब उतरा रही हूँ इस मायूसी में
मुझे आदत पड़ गई है
अब मायूसी की
सुनो, क्या तुम्हें सुनाई दे रहे हैं परछाइयों के थपेड़े?
रात में कुछ-कुछ घट रहा है
रक्तिम और व्याकुल होता जा रहा है चंद्रमा
देखो तो कैसे जाकर चिपक गया है छत से
और वहाँ से छूट कर कभी भी
फर्श पर गिर सकता है बरबस
बादल, जैसे हों स्यापा करती हुई औरतें
बाट जोह रहे हैं अब हो ही जाए बारिश
खिड़की के पीछे कुछ है
जो दिखता है,फिर
छिप जाता है पल भर में
थरथर काँप रही है रात
और ठिठक जाती है धरती
अपनी धुरी पर घूमते-घूमते
इस खिड़की के पीछे
छुपकर कोई अजनबी निहार रहा है
तुम्हें …. और मुझे
ओ तुम, सिर से पाँव तक हरे भरे
बढ़ा कर रख दो अपनी हथेलियाँ
उत्तप्त स्मृतियों की मानिंद
मेरी आसक्त हथेलियों के ऊपर
अपने रस भरे होंठों को
करने दो चुंबन मेरे प्रेमासक्त होंठों का
लगे तो कि हम उत्सव मना रहे हैं
अपने जिंदा होने का
हवा बहा ले जाएगी हमें
अपने संग संग …..
हवा बहा ही ले जाएगी हमें
अपने संग संग …..
(अहमद करीमी हक्काक के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित )
इस कविता के बारे में अब्बास कैरोस्तमी एक इंटरव्यू में कहते हैं:
“हवा बहा ले जाएगी हमें” यह बताती है कि आज नहीं तो कल हम सबको मरना है. यही है एक बड़ा कारण है जिसके चलते हमें आज के जीवन को भरपूर जी लेना चाहिए. एक दिन तो हवा हमें बहा ही ले जाएगी जैसे पेड़ों से छीन कर ले जाती है पत्तियां. और हम हैं कि सोचते रह जाते हैं : हमारा वजूद रहेगा इस धरती पर हमेशा-हमेशा के लिए.
फ़िल्म का एक अंश
(इस फ़िल्म का एक दृश्य) |
(दूध का बर्तन हाथ में थामे दरवाजे पर दस्तक देता हुआ)
बहजाद- क्या यह काकरहमान का घर है?
एक औरत- स्वागत है.
सलाम.
मुझे किसी ने दूध के लिए यहाँ भेजा है. थोड़ा दूध मिल जाएगा?
नीचे तहखाने में चले जाओ… पर अपना सिर बचा कर जाना.
इधर से?
(सीढ़ियों से नीचे उतरता है)
हाँ, नीचे चले जाओ. पर सिर बचा के.
जी.
पर नीचे इतना अंधेरा क्यों है?
नीचे लालटेन है…वैसा अंधेरा नहीं है.
(दूध का बर्तन दिखा कर पूछता है)
नीचे कोई है?
हाँजी, जैनब है.
(ऊपर से नीचे झाँक कर आवाज़ देती है)
जैनब, इधर देखो…इनको दूध चाहिए.
(बहजाद तहखाने में नीचे उतर कर चारों ओर देखता है)
यहाँ तो बहुत अंधेरा है.
(अंधेरे में आगे बढ़ता जाता है)
कोई है यहाँ ?
(लालटेन लेकर एक युवा औरत सामने आती है,उसका लाल परिधान दिखता है पर उसका चेहरा नहीं दिखता)
क्या मेरे लिए गाय का दूध निकाल दोगी?
थोड़ा ठहरो, अभी निकाल देती हूँ .
(बहजाद के हाथ से बर्तन थाम लेती है)
यहाँ इतना अंधेरा है…इसमें कैसे दूध निकालोगी?
मुझे इसकी आदत है… मैं यहीं काम करती हूँ .
यहाँ रहोगे तो तुम्हें भी आदत पड़ जाएगी.
इससे पहले कि मेरी आदत पड़े, मैं यहाँ से चला जाऊँगा.
हमारे पास फ्लैशलाइट भी है. वैसे इस वक्त बिजली गई हुई है.
(जैनब दूध दुहने के लिए बर्तन लेकर बैठ जाती है)
(बहजाद बोलने लगता है)
“जब तुम आओगे मुझसे मिलने मेरे घर ….”
क्या कहा?
“मेरे प्रिय, साथ में लेते आना रोशनी बिखेरता हुआ एक चिराग
और खोल देना यह खिड़की भी
जिससे देख सकूँ मैं भर आँख
सड़कों पर खुश नसीबों के नाचते गाते जनसमूह”
तुम क्या कह रहे हो?
कुछ नहीं, यह एक कविता थी. क्या उम्र है तुम्हारी?
16 साल.
16 साल! क्या कभी स्कूल गईं?
हाँजी.
कितने दिन स्कूल गईं?
5 साल.
5 साल, यह तो अच्छी बात है.
तुम्हें फरूग के बारे में मालूम है?
हाँजी, जानती हूँ .
अच्छा,बताओ तो कौन है?
गौहर की बेटी, और कौन.
अरे नहीं, मैं जिसके बारे में बात कर रहा हूँ वह एक कवि है. अच्छा, अपना नाम बताओ.
(वह कुछ बोलती नहीं चुप रह जाती है)
नहीं बताओगी?… कोई बात नहीं.
चलो, मैं तुम्हें दूसरी एक कविता सुनाता हूँ. जब तक तुम दूध दुहती रहोगी यह हमें व्यस्त भी रखेगी. मेरी किसी बात का जवाब नहीं दोगी?
चलो, आगे बढ़ो.
हाँ, तो मैं कह रहा था…
“मेरी पल भर की रात
हवा का वायदा है पत्तियों से मिलने का … “
समझ रही हो न?
हाँ ,दोनों मिलते हैं एक दूसरे से…..
वैसे ही जैसे तुम युसूफ से मिलने गई थीं.
कहाँ ?
कुएँ पर.
कुएँ पर?
हाँ ,बहादुर लड़की हो… शाबाश.
“मेरी पल भर की रात
लबालब भरी हुई है विनाशकारी संताप से
सुनो, क्या तुम्हें सुनाई दे रहे हैं परछाइयों के थपेड़े?”
परछाइयाँ, समझती हो क्या होती हैं?
जी,परछाइयाँ…माने अंधेरा….
“मैं अजनबी, डूब उतरा रही हूँ इस मायूसी में
मुझे आदत पड़ गई है
अब मायूसी की.
सुनो, क्या तुम्हें सुनाई दे रहे हैं परछाइयों के थपेड़े?
रात में कुछ-कुछ घट रहा है
रक्तिम और व्याकुल होता जा रहा है चंद्रमा
देखो तो कैसे जाकर चिपक गया है छत से
और वहाँ से छूट कर कभी भी
फर्श पर गिर सकता है बरबस
बादल, जैसे हों स्यापा करती हुई औरतें
बाट जोह रहे हैं अब हो ही जाए बारिश …..
खिड़की के पीछे कुछ है
जो दिखता है,फिर
छिप जाता है पल भर में
थरथर काँप रही है रात
और ठिठक जाती है धरती
अपनी धुरी पर घूमते-घूमते
इस खिड़की के पीछे
छुपकर कोई अजनबी
फिक्र कर रहा है हमारी
निहार रहा है
तुम्हें …. और मुझे.
ओ तुम, सिर से पाँव तक हरे भरे
बढ़ा कर रख दो अपनी हथेलियाँ
उत्तप्त स्मृतियों की मानिंद
मेरी आसक्त हथेलियों के ऊपर
अपने रस भरे होंठों को
करने दो चुंबन मेरे प्रेमासक्त होंठों का
लगे तो कि हम उत्सव मना रहे हैं
अपने जिंदा होने का … “
पूरी हो गई कविता.
“हवा बहा ले जाएगी हमें
अपने संग संग …..
हवा बहा ही ले जाएगी हमें
अपने संग संग …… “
तुम्हारा दूध का बर्तन भर गया.
अच्छा ठीक….हवा बहा ले जाएगी हमें….मैं यूसुफ का दोस्त हूँ. दरअसल मैं उसका बॉस हूँ .
शुक्रिया! अपनी लालटेन थोड़ी ऊपर उठाओ जिससे मैं तुम्हारा चेहरा देख पाऊँ …. मैंने अब तक यूसुफ की शक्ल नहीं देखी है… तुम्हें देखूँगा तो कम से कम उसकी पसंद का पता तो चल जाएगा.
(जैनब जैसे बैठी थी चुपचाप वैसे ही बैठी रहती है)
तो क्या तुम अपना नाम नहीं बताओगी? और न ही तुमने अपना चेहरा अब तक मुझे दिखाया. चलो, कोई बात नहीं… पर इधर लालटेन तो दिखाओ वरना मैं कहीं किसी चीज से टकराकर गिर न जाऊँ .
(जैनब उठती है, उसे रास्ता दिखाती है. फिर अचानक पूछ बैठती है. )
उसने कहाँ तक पढ़ाई की थी?
किसने?
जिसकी कविता तुम अभी सुना रहे थे?
फरूग? मुझे लगता है चौथी पाँचवीं तक की पढ़ाई उसने की होगी…. देखो, कविता लिखने के लिए किसी डिग्री और डिप्लोमा की दरकार नहीं होती…. यदि तुममें प्रतिभा होगी तो तुम भी कविताएँ लिख सकती हो.
(सीढ़ी के पास पहुँचकर बहरोज उस से पूछता है)
अच्छा बताओ, कितने पैसे हुए दूध के?
छोड़ो, जाने दो.
शुक्रिया, बहुत-बहुत शुक्रिया!
हाँ, देने ही हो तो मेरी माँ को दे देना.
एक बार फिर शुक्रिया!
(बहरोज सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर चला आता है…
ऊपर आकर पीछे मुड़कर देखते हुए बोलता है)
खुदा हाफिज!
(ऊपर जैनब की माँ कुछ काम कर रही थी… बहरोज उसके पास जा कर पूछता है)
दूध के कितने पैसे देने हैं?
तीन सौ तोमन.
यह लीजिए (बहरोज जेब से पैसे निकाल कर उसे थमा देता है)
शुक्रिया.
आपका भी शुक्रिया.
खुदा हाफिज.
(यह कहते हुए बहरोज दरवाजे से बाहर निकल आता है. तभी जैनब नीचे से आकर अपनी माँ से कहती है)
तुमने उससे पैसे क्यों लिए? उसे बुलाओ और अभी वापस करो.
पर उसने मुझसे पूछा तो मैंने बता दिया. खुद मैंने माँगा थोड़े ही.
(दरवाजे पर जाकर जैनब की माँ उसे आवाज देकर बुलाती है. बहरोज लौटकर जाता है)
आप हमारे मेहमान ठहरे… भला आपसे पैसे क्यों लेने.
(यह कहते हुए वह पैसे बहरोज को वापस थमा देती है)
नहीं, आप इन्हें रख लीजिए.
आपका बहुत शुक्रिया. आप हमारे घर आए, यह हम दोनों के लिए बड़ी इज्जत की बात है.
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