फ़िल्म
लेकिन : मिथक का यथार्थ
गोपाल प्रधान
बीसवीं सदी के नब्बे दशक के शुरू में आई फ़िल्म लेकिन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी. इसके गीतों के बाद से ही हिन्दी फ़िल्मों में अच्छे मधुर गीतों का नया दौर शुरू हुआ. इस फ़िल्म से ही डिम्पल कपाड़िया के अभिनय का वह सिलसिला शुरू हुआ जिसमें उनकी अभिनय प्रतिभा ने नयी नयी ऊँचाइयाँ छुईं. इस फ़िल्म से राजस्थान की पृष्ठभूमि पर, राजस्थानी लोकधुनों पर बने गीतों, रेगिस्तान की तकरीबन पेन्टिंग की तरह फ़ोटोग्राफ़ी के जरिये, अच्छी फ़िल्मों का निर्माण शुरू हुआ. इस फ़िल्म को गीतों, डिम्पल की अभिनय क्षमता, परिधान सज्जा और रेगिस्तान की बेहतर फ़ोटोग्राफ़ी के चलते प्रसिद्धि मिली और इन्हीं क्षेत्रों में पुरस्कार भी मिले.
लेकिन किसी फ़िल्म की जान यह सब नहीं होता. यह तो उसका तकनीकी पक्ष है. कोई फ़िल्म महत्वपूर्ण होती है सामाजिक यथार्थ की अपनी समझ और उसकी प्रस्तुति के चलते. इस नुक्ते नजर से लेकिन को देखने से पहले कुछ चीजों पर स्पष्ट हो लिया जाय. अस्सी के दशक में नया सिनेमा या समानान्तर सिनेमा या फिर कलात्मक सिनेमा का चलन हुआ लेकिन दशक का अन्त आते आते उसका ज्वार उतर गया. इन फ़िल्मों में व्यावसायिक सिनेमा के मुकाबले यथार्थपरक फ़िल्मांकन पर जोर दिया गया. लेकिन कलात्मक फ़िल्म होते हुए भी आपाततः यथार्थपरक फ़िल्म नहीं है . इस फ़िल्म में अनेक हिन्दी फ़िल्मों में प्रयुक्त लोकविश्वासों मसलन पुनर्जन्म, इस जन्म की प्रेमिका के अगले जन्म में मिलने या आत्मा के भटकने आदि का उपयोग किया गया है.
हिन्दी क्षेत्र में यह विश्वास प्रचलित है कि आदमी की मृत्यु तक यदि उसकी कोई इच्छा अधूरी रह जाय तो आत्मा भटकती रहती है. इसी आत्मा को भूत कहते हैं . भूत का एक अर्थ अतीत भी होता है. फ़िल्म में गुलजार ने मानो इसी भूत को समझने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने दो युगों को आमने सामने ला खड़ा किया है. एक तरफ़ है डिम्पल जिसके बारे में पहले ही दृश्य में कुछ लोकविश्वासों के प्रयोग से यह महसूस हो जाता है कि वह कोई जीवित लड़की नहीं बल्कि अशरीरी है. उसकी पलकें नहीं झपतीं, वह ट्रेन के डिब्बे के बाहर निकल गयी लेकिन चिटकनी अन्दर से बन्द है. अपने बारे में वह एक जगह कहती है कि मैं एक फँसा हुआ समय हूँ. दूसरी तरफ़ है विनोद खन्ना; वह एक पुरातत्वविद है, आधुनिक समाज में रहता है किन्तु अपने काम के सिलसिले में अक्सर पुरातन से टकराता है . उसका दावा है कि वह समय को सूँघ लेता है. लेकिन डिम्पल कोई व्यतीत नहीं जिसे समझने में वह माहिर है. वह तो आधुनिक के भीतर फँसा हुआ अतीत है. समय की इन कोटियों के इन्हीं प्रतिनिधि पात्रों की अनेक मुलाकातों के जरिए पूरी कहानी सामने आती है.
समय क्या है ? उसे हम आम तौर पर एक प्रवाहमान कालधारा के बतौर देखते हैं. इसके सूचक हैं– दिन और रात का होना, ॠतुओं का चक्र अथवा किसी की मृत्यु तो किसी का जन्म. लेकिन समय बदलता भी है. दो भिन्न समयों में इतना अन्तर होता है कि उन्हें हम दो युग भी कहते हैं. ऐसा लगता है कि समूची समाज व्यवस्था के बदल जाने से युग बदल जाता है. इसी आधार पर हम आधुनिक युग और प्राचीन युग जैसी कोटियों का निर्माण करते हैं. लेकिन सामाजिक परिवर्तन में कभी ऐसा नहीं होता कि पुराने और नये के बीच एकदम स्पष्ट विभाजक रेखा खींच ली जाय. पुराने के भीतर ही नये के बीज पड़ जाते हैं और नयी व्यवस्था के बन जाने के बाद भी पुराने के अवशेष बहुत सारी अभिरुचियों, चिंतन प्रणालियों और ढाँचों के रूप में बचे रह जाते हैं. डिम्पल आधुनिक में फँसे हुए किस समय का प्रतिनिधित्व करती है ?
वह खुद अपनी कहानी विनोद खन्ना से अनेक मुलाकातों में बयान करती है. दूसरी ही मुलाकात में विनोद खन्ना को वह जिस काल की यात्रा कराती है उसमें हम देखते हैं कि एक आदमी रस्सियों से बाँधकर लाया गया, उसे दीवार से लटकती जंजीरों में कसा गया . फिर उसे कोड़ों से पीटा जा रहा है और उसके खून के छींटे दीवार पर बिखर रहे हैं. इस तरह गुलजार हमें बताते हैं कि डिम्पल जिस काल में रहती है उसे हम राजे– रजवाड़ों के अत्याचारों से भरे हुए सामन्ती युग के नाम से जानते हैं. इस अत्याचार का शिकार वह आदमी तो है ही जिसे कोड़ों से पीटा जा रहा है खुद डिम्पल भी उसी अत्याचार का शिकार है . तीसरी मुलाकात में विस्तार से अपने ऊपर हुए जुल्म की दास्तान सुनाती है. वह और उसकी बहन अपने पितातुल्य उस्ताद जी से नाच गाना सीखती हैं. उसका बचपन का एक साथी भी है मैरू. एक दिन स्थानीय राजा भाई परम सिंह के दरबार में उसकी बहन गान और नृत्य कला का प्रदर्शन करती है. राजा उसे अपने पास ही रख लेना चाहता है. उस्ताद जी किसी तरह उसे भगा देते हैं . गुस्साकर राजा उस्ताद जी और डिम्पल को कैद में डलवा देता है . वह इन्तजार करता है कि कब डिम्पल जवान हो और उसे अपने हरम में डाल ले. उस्ताद जी उसे भी पीतल के एक बड़े हन्डे में बिठाकर भगा देते हैं. जिम्मेदारी मैरू की है कि वह उसे रेगिस्तान पार करा दे.
एक बार रेगिस्तान पार हो जाये तो भाई परम सिंह की पहुँच से भी पार हो जायेगी . लेकिन मैरू इस काम में सफल नहीं हो पाता . डिम्पल रेगिस्तान में फँस जाती है . वह एक सदी से बैठी है लेकिन उस राह से कोई नहीं गुजरा जो उसे उस काल से बाहर खींच लाये. डिम्पल की यह पूरी कहानी अपनी बुनावट, ताजगी और तीव्रता के चलते लोककथाओं जैसी लगती है. गुलजार की खूबी इस लोककथा का ऐसा उपयोग है जिसमें डिम्पल सामन्ती व्यवस्था की शिकार सभी औरतों के दर्द की आवाज बन जाती है. वह जो एक बार शारीरिक शोषण का शिकार हुई तो आज तक मुक्त नहीं हो सकी . अब तक रेगिस्तान में उसे लोग मारते पीटते और डराते हैं. यह रेगिस्तान फ़िल्म में नहीं बल्कि एक एक आदमी के घर तक फैला हुआ है जहाँ सदियों से पथराई आँखें लिए बैठी औरत चौखट पर किसी की आहट का इन्तजार करती है जो उसे इस शाश्वत गुलामी से मुक्ति दिलाये.
इस लम्बे इन्तजार के बाद विनोद खन्ना से उसकी भेंट होती है . विनोद खन्ना सिर्फ़ पेशे से पुरातत्वविद नहीं है बल्कि पुरातन से उसका लगाव या सहानुभूति आज के जमाने में भी पुराने ढंग के टेलीफ़ोन और पुराने ढंग के ताले के प्रयोग से प्रकट होती है. उसे डिम्पल से मिलने के बाद लगातार यह महसूस होता है कि वही उसका पूर्वजन्म का प्रेमी है. उसे यह भी लगता है कि डिम्पल का प्रेमी उसे आजाद कराने का जो काम पूरा न कर सका था उसकी जिम्मेदारी भी उसी पर है. इसी अहसास के साथ वह लगातार डिम्पल के करीब आता जाता है . लेकिन उसके इर्द गिर्द का बाकी समूचा आधुनिक युग ? बाकी सारे लोग तो अतीत के इस अवशेष को झूठ मानते हैं . उन्हें कतई यकीन नहीं है कि इस जमाने में भी अतीत की उस छाया का वजूद है . यदि उसकी कोई व्याख्या आधुनिक युग के पास है तो परामनोविज्ञान जैसा रहस्यमय शास्त्र ही. तथाकथित आधुनिकता मानो अपने जमाने में मौजूद पुरातनता को पहचानने से इन्कार कर देती है . विनोद खन्ना के साथ दिक्कत यह है कि वह युग के इन दोनों छोरों पर मौजूद है. वह डिम्पल के साथ उसे रेगिस्तान पार करा देने के लिये बेचैन मनुष्य भी है और आधुनिक समय का पुरातत्वविद भी. इसीलिए आश्चर्य नहीं कि हरेक मुलाकात के बाद बीच बीच में डिम्पल से उसका साथ छूट जाता है. यह पुरातनता से समूचे समाज को मुक्त कराने के प्रयासों का अधूरापन ही तो है. डिम्पल एक बार उससे कहती है कि जहाँ जहाँ विनोद खन्ना ने उसे छोड़ दिया था वह उसे फिर वहीं मिलेगी.
बहरहाल, आधुनिक युग ने तो सामन्तवाद के इन बर्बर अवशेषों को पहचानने से इन्कार कर दिया लेकिन उस युग में लोगों ने इस जुल्म को चुपचाप बर्दाश्त नहीं किया था. असल में विनोद खन्ना भाई परम सिंह के महल से पुरातात्विक महत्व की चीजों को निकाल लाने के काम पर गया हुआ है . एक तरफ़ उसे डिम्पल अपने साथ महल के अतीत में ले जाती है दूसरी तरफ़ महल से चीजों का निकाला जाना भी जारी रहता है . अन्तिम बार जब वह डिम्पल के साथ महल के तिलिस्म में घुसा था तब तक उस्ताद जी ने कैद से डिम्पल को भगवा दिया था. इसके बाद गुस्से से बिफरा हुआ राजा उस्ताद जी को कत्ल करने के इरादे से उनकी कोठरी में घुसता है . इसके बाद की कथा हम सीधे नहीं जान सकते. चीजों को निकालने के काम में लगे मजदूर अचानक विनोद खन्ना को सूचना देते हैं कि महल में एक कब्र मिली है और उसकी खुदाई से एक खोपड़ी बरामद हुई है . विनोद खन्ना खोपड़ी का निरीक्षण करता है. स्वाभाविक तो यही था कि खोपड़ी उस्ताद जी की हो. लेकिन उसे खोपड़ी में एक सोने का दाँत मिलता है तो वह चौंक जाता है. उसने पिछली यादों में देखा था कि भाई परम सिंह का एक दाँत सोने का है . अचानक वह अपने आप से पूछता है कि क्या उस्ताद जी ने भाई परम सिंह को मार डाला था . यहीं उस्ताद जी जैसे सामन्ती युग में लड़ने वाले अन्तिम, लेकिन अकेले नहीं, बहादुर योद्धा की तरह दिखाई देते हैं.
फ़िल्म यहीं खत्म हो जाती तो सच्चाई के अधिक करीब होती. लेकिन की बुनावट जटिल है. वह वर्तमान और अतीत में एक साथ सफ़र करती है . इस जटिलता के बावजूद समय की समझ और स्त्री उत्पीड़न की समझ के चलते बेजोड़ है.
गोपाल प्रधान : आलोचना और अनुवाद की कई किताबें