जन्म शताब्दी वर्ष : केदारनाथ अग्रवाल
केदारनाथ अग्रवाल प्रेम,प्रकृति और मित्रता के कवि हैं, मनुष्यविरोधी राजनीति को समझने वाले एक सचेत वैचारिक कवि. उनकी एक कविता के सहारे कहा जाए तो केदार समय की धार में धंस कर खड़े हैं और निरंतर छपाछप छपते छल से लड़ रहे हैं. नागार्जुन ने एक बार उनसे कहा कि तुम्हारे बाल चिंताओं की घनी भाप से सीझे जाने से पक गए हैं. केदार ने कहा कि जब दुःख – दुविधा की प्रबल आंच से दिमाग उबल रहा हो तो फिर बालों का कालापन एक तरह से मखौल है.
रचनाकार-आलोचक नन्द भारद्वाज ने केदार की कविता के मन्तव्य को बड़े ही आत्मीयता से पकड़ा है. इस विवेचन में कवि के अनके अदृश्य आयाम आलोकित हैं. यह लेख केदार की कविताओं को एक बड़ा फलक प्रदान करता है, यहाँ जन के जरूरी कवि के रूप में उनकी तसदीक है.
केन किनारे के कवि की काव्य-चेतना और कसक
नंद भारद्वाज
केदारनाथ अग्रवाल की कविता-यात्रा पर विचार करते हुए डॉ. अशोक त्रिपाठी ने उनकी कविताओं के प्रतिनिधि संकलन की भूमिका में इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है कि “केदारजी के पाठकों/आलोचकों में कोई उन्हें ग्रामीण चेतना का कवि मानता है, कोई नगरीय का, कोई संघर्ष का, कोई सौन्दर्य का, कोई प्रकृति का, कोई राजनीतिक चेतना का, कोई मनुष्यता की खोज का, कोई नदी केन का कोई व्यंग्य का, कोई प्रेम का तो कोई रूप और रस का, आदि-आदि पर दरअसल केदारजी इनमें से केवल किसी एक धरातल के कवि नहीं हैं. वह खंड-खंड जीवन के नहीं, सामाजिक सरोकारों से लैस, एक मुकम्मल जीवन के जीवंत कवि हैं.” इस आग्रह के बावजूद इधर केदारजी के जन्म-शताब्दी वर्ष में विभिन्न संस्थानों और पत्रिकाओं ने उन पर एकाग्र विशेषांकों में जब उनकी कविता पर लोगों से अपनी बात कहने का आग्रह किया गया तो बात फिर वहीं पहुंच गई, यानी ज्यादातर लोगों ने उनकी कविता को इसी तरह अलग अलग रूपों में व्याख्यायित करने का उपक्रम किया – अर्थात् फिर वही जाकी रही भावना जैसी. इस संदर्भ में डॉ रामविलास शर्मा, नामवरसिंह या विश्वनाथ त्रिपाठी सरीखे विद्वानों द्वारा केदारजी की काव्य-यात्रा के संबंध में किये गये बहुआयामी विवेचन को एकबारगी छोड़ भी दें, जो कि इस शताब्दी-वर्ष के पहले से, बल्कि उनके जीवनकाल में ही उनके अवदान को रेखांकित करते हुए उन्हें व्याख्यायित करते रहे हैं, और जो उनकी कविता को व्यापक संदर्भों में देखने की एक गहरी समझ देते हैं, इसके बावजूद उनकी कविताओं पर नये विवेचन की संभावनाएं समाप्त नहीं हो गई हैं और न कोई विवेचन अंतिम ही कहा जा सकता है.
मूल्यांकन के इस तरीके पर कोई अतिरिक्त टिप्पणी करके उनके श्रम और सद्भावना को कम करने का मेरा कोई मंतव्य नहीं है, लेकिन मेरा भी आग्रह इसी बात पर है कि उन पर या किसी भी कवि की काव्य-यात्रा पर बात करते समय हमें थोड़ा सतर्क और आग्रह-मुक्त रहने की जरूरत अवश्य है.
केदारनाथ अग्रवाल अपनी साठ वर्षों की कविता यात्रा में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सोच की दृष्टि से बहुत सचेत और संवेदनशील कवि के रूप में सक्रिय रहे हैं. उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि और सरोकार भी बहुत स्पष्ट रहे हैं. वे हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा के एक मुखर कवि माने जाते हैं. उनकी काव्य-प्रकृति को लेकर मनमानी व्याख्याएं करने की गुंजाइश बहुत कम है, जैसी लोग शमशेर की कविता को लेकर निकाल लेते हैं, या मुक्तिबोध में अपनी मनमर्जी का रहस्यवाद ढूंढ लाते हैं. वे प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की ही साहित्य-परम्परा के एक संजीदा कवि कहे जा सकते हैं. एक वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि रखनेवाले जनवादी कवि और सच्चे इन्सान के रूप में वे इस बात को जानते रहे हैं कि कविता किसी इल्हाम या अलौकिक कल्पना से नहीं रची जाती, प्रतिभा भी जन्मजात नहीं होती, उसे अपने जीवन-संघर्ष और अनुभव से अर्जित करना पड़ता है, उसे अपने आस-पास बिखरी जिन्दगी से बीनना पड़ता है, उस दैनन्दिन जीवन के हर्ष-विषाद में बिखरे कारणों को जानना पड़ता है और उस प्रभावी शिल्प-संप्रेषण को साधना पड़ता है, जो अपने पाठक-श्रोता की जिज्ञासाओं और अपेक्षाओं को पूरा कर सके. केदारनाथ अग्रवाल ने स्वयं अपनी काव्य-यात्रा के शुरुआती दिनों को याद करते हुए दो-टूक शब्दों में कहा था, “बहुत पहले मैं जो लिखना चाहता था, वह नहीं लिख पाता था. कठिनाई होती थी. कविता नहीं बन पाती थी. कभी एक पंक्ति ही बन पाती थी. कभी अधूरी ही पड़ी रह जाती थी. तब मैं अपने में कवित्व की कमी समझता था. खीझकर रह जाता था. औरों को धड़ल्ले से लिखते देखकर अपने ऊपर क्षुब्ध होता था. मौलिकता की कमी महसूस करता था. तब मैं यह न जानता था कि कविता भीतर बनी-बनाई नहीं रखी रहती. —कितना गलत था मेरा विचार, कितनी गलत थी मौलिकता की मेरी धारणा.”
यह बात केदारजी ने अपनी कविताओं के चौथे संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हें’ की भूमिका में सन् 1965 में कही थी, जबकि उनका पहला संग्रह ‘युग की गंगा’ और दूसरा ‘नींद के बादल’ 1947 में आए थे और तीसरा ‘लोक और आलोक’ 1957 में. उन्हीं के समानधर्मा नागार्जुन का पहला संग्रह ‘युगधारा’ 1953 में और अगला ‘सतरंगे पंखोंवाली’ 1959 में प्रकाशित हुआ था. उनकी कविताएं उस जमाने की प्रगतिशील पत्रिकाओं ‘हंस’, ‘रूपाभ’, ‘वसुधा’, ‘नया साहित्य’, ‘कृति’ आदि में जरूर उत्साह से पढी जाती रही, लेकिन इस प्रगतिशील धारा के कवि उस दौर की कलावादी और व्यावसायिक पत्रिकाओं में प्राय कम ही नजर आते थे. इन्हीं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में प्रचार पाकर अपना प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले हिन्दी प्रकाशकों की भी इन कवियों में कम ही दिलचस्पी रहती थी. ऐसे में हिन्दी के इन जीवंत कवियों को अपने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुचने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसकी प्रतिपूर्ति अब इतने बरस बाद शताब्दी समारोहों से हो पानी आसान तो नहीं है. उनके सही रचनाकर्म पर भी इन सालों में कम बात हो पाई है. उपेक्षा की इस त्रासदी को हिन्दी के ऐसे और भी कई रचनाकारों ने झेला है.
केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन हिन्दी के दो ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपने प्रारंभिक रचनाकाल (सन् 1935-36 के बाद) से ही राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रमुख लक्ष्यों – स्वाधीनता, समानता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के साथ समाजवादी विचार-धारा के प्रति अपना रुझान सदा स्पष्ट रखा. इसी दौर की कविता और राजनैतिक हालात का हवाला देते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि “जिन कवियों की रचनाओं में राजनीति की निर्णायक भूमिका रही है, वो हैं केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन. दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके बाद, मोटे तौर पर 1957 तक भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और भारत की जनवादी क्रान्ति के उतार-चढाव से जो सबसे ज्यादा गहराई से संबद्ध रहे हैं, वे हैं केदारनाथ अग्रवाल और इस उतार-चढ़ाव को जिस कवि ने सबसे ज्यादा शक्तिशाली ढंग से अपने साहित्य में अपनी कविता में प्रतिबिम्बित किया है, वह भी है केदारनाथ अग्रवाल.” (दिसंबर, 1986 में बांदा में ‘सम्मान केदारनाथ अग्रवाल’ आयोजन में दिये गये व्याख्यान से, जो पहल पुस्तिका-8 में अविकल प्रकाशित हुआ.)
स्वयं केदारनाथ अग्रवाल ने अपने रचनाकर्म (कविता) को पुरानी रसवादी काव्य-परम्परा और शैली से अलग करते हुए सन् 1947 में छपे अपने पहले काव्य-संग्रह ‘युग की गंगा’ के प्राक्कथन में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया था कि देश के स्वाधीनता आन्दोलन के चलते वे कविता से देश, दुनिया और अपने जनपद की जनता का किस तरह का रिश्ता देखते हैं. उन्हीं के शब्दों में “इन सब बातों से स्पष्ट हो जाता है कि अब हिन्दी की कविता न रस की प्यासी है, न अलंकार की इच्छुक है और न संगीत की तुकान्त पदावली की भूखी है. भगवान अब उसके लिए व्यर्थ है. आज, जिसके कि राजा शासक हैं, पूंजीपति शोषक है, अब वह चाहती है ‘किसान की वाणी और जन-जन की वाणी.” और यह कहते हुए उन्होंने जन के प्रति अपनी आत्यंतिक निष्ठा व्यक्त की थी. इस जन की दारुण दशा को कवि ने यों तो आजादी से पहले की अनेक कविताओं में व्यक्त किया है, वे चाहे पीड़ित किसान हों, वनवासी हों, मजदूर हों या जंगल में लकड़ियां बीनते लकड़हारे, जिनके जीवन में ‘दूर तक सीमाहीन अंधकार के सिवा कुछ नजर नहीं आता. सन् ’46 में अपनी इसी पीड़ा को ‘तकवैया’ कविता में कवि ने इस तरह उजागर किया था –
‘रात अंधेरी/ दिया न बाती,/ डर धरती पर रेंग रहा है.
शोर मरैली चिड़िया करती/ तकवैया अतिशय चिन्तित है
तारे दूर बड़े धीमे हैं/ लाल सबेरे की देरी है.
(बसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी, पृ 29)
इस कविता में वस्तु-सत्य के साथ कवि की व्यंजना-शैली भी देखने लायक है. केदारनाथ अग्रवाल ने स्वाधीनता आन्दोलन के समय को न केवल करीब से देखा था, बल्कि उसमें अपनी तरह से प्रतिभागी भी रहे. वे सारे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम तथा साम्राज्यवादी ताकतों की कारस्तानियों को बहुत बारीकी से देख रहे थे और उसके खिलाफ लोगों को बराबर सचेत भी कर रहे थे. वे जानते थे कि जन-मुक्ति के रास्ते में वह खूनी दीवाल ‘राह को रोके अडिग खड़ी है’ लेकिन वे उसी विश्वास से अपनी कविता में लोगों को जगा भी रहे थे कि यह जर्जर दीवाल अब ‘टूट चुकी है रूस देश में/ चीन, मलाया, बर्मा में भी टूट रही है.‘ और इस संघर्ष में सबसे बड़ी ताकत थी वह एका (एकता), जिसे एक हद तक हमारे देश में महात्मा गांधी ने ठीक तरह से समझा और उसका नेतृत्व किया. उसी भाव को बल प्रदान करते हुए कवि ने तब कहा था, ‘हम पचास हैं,/ मगर हाथ सौ फौलादी हैं./ सो हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है/ हम पहाड़ को भी उखाड़कर रख सकते हैं.‘ (कहे केदार खरी खरी, पृ 21) इसी एकता और साधारण जन की संगठन-शक्ति और उसकी अप्रतिहत मार में छुपी असाधारण क्षमता को स्मरण करते हुए केदारजी ने ऐसी कितनी ही आत्मविश्वास भरी कविताएं लिखीं, जिनमें उनकी काव्य-चेतना का एक नया रूप देखने को मिलता है. ‘तेज धार का कर्मठ पानी, / चट्टानों के ऊपर चढ़कर, / मार रहा है घूंसे कस कर/ तोड़ रहा है तट चट्टानी.‘ याकि निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ की कर्मठ स्त्री की छवि की याद दिलाती उनकी यह ‘वीरांगना’ कविता –
मैंने उसको जब-जब देखा / लोहा देखा,
लोहा जैसा – / तपते देखा / गलते देखा
ढलते देखा/ मैंने उसको /गोली जैसा /चलते देखा.
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 43)
भारतीय भाषाओं के तमाम दूसरे कवियों की तरह कवि केदारनाथ अग्रवाल को भी इस बात की दिली खुशी थी कि 15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो गया, लेकिन आन्दोलन के उस अंतिम चरण में दो बातों का तात्कालिक दुख और कसक उनकी आंखों से कभी ओझल नहीं हो सकी, जिसमें पहला दुख था देश का विभाजन और उससे उपजी साम्प्रदायिकता की कसक, जिस पर उन्होंने कविताओं में खुलकर अपनी पीड़ा व्यक्त की –
आह, धरती बंट गई है /एक हिन्दुस्तान अब दो हो गया है
आग, पानी, औ’ गगन तक बंट गया है./ आदमी का दिल
कलेजा कट गया है /मंदिर के देव, मस्जिद के खुदा,
दो बैरियों से लड़ रहे हैं/ आह, धरती बंट गई है.
(कहे केदार खरी खरी, पृ 26)
इसी तरह उनकी दूसरी बड़ी चिन्ता यह थी कि हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं है. उन्होंने ऐसे नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए कटघरे में खड़ा कर उन पर तीखे व्यंग्य प्रहार किये – ‘लंदन गये थे – लौट आये. बोलो, आजादी लाये? /नकली मिली याकि असली मिली? /कितनी दलाली में कितनी मिली?’ और यह व्यंग्य उन्होंने एक आशंका की तरह दिसंबर 1946 में किया था, लेकिन यही जब वास्तविकता बन गई तो उनकी पीड़ा आजादी के बाद की कविताओं में और मुखर हो उठी. बेशक उन्होंने आजादी का स्वागत किया, लेकिन इस कड़वी सच्चाई को वे कभी नहीं भुला सके और वह कुछ इस तरह व्यक्त हुई –
लंदन में बिक आया नेता, हाथ कटाकर आया.
एटली-बेविन-अंग्रेजों में खोया और बिलाया..
भारत-मां का पूत सिपाही, पर घर में भरमाया.
अंगेजी साम्राज्यवाद का, उसने डिनर उड़ाया..
अर्थनीति में राजनीति में, गहरा गोता खाया.
जनवादी भारत का उसने, सब-कुछ वहां गंवाया..
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 54)
जिस स्वाधीनता आन्दोलन में देश के लाखों लोगों ने कुर्बानियां दीं, जेल गये, फांसी के तख्ते पर झूल गये, गांधीजी के अहिंसा-सत्याग्रह-स्वावलंबन को अपना आदर्श मानकर चले, उन्हीं की छाया में चलने वाले दुरंगे-दोगले नेताओं को जब कवि ने विपरीत आचरण करते देखा तो उन्हें देश की छाती और भविष्य दोनों दरकते-से नजर आए – उन्होंने 15 अगस्त, 1950 के दिन लिखी अपनी एक लंबी कविता ‘जिन्दगी’ में बहुत तल्ख शब्दों में इसी पीड़ा को बयान किया है –
देश की छाती दरकते देखता हूं.
थान खद्दर के लपेटे स्वार्थियों को/ पेट-पूजा की कमाई में
जुटा मैं देखता हूं / सत्य के जारज सुतों को
लंदनी गौरांग प्रभु की / लीक चलते देखता हूं.
डालरी साम्राज्यवादी मौत-घर में / आंख मूंदे डांस करते देखता हूं.
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 57)
मोहभंग की इसी भाव-भूमि पर हिन्दी के उस जमाने के अधिकांश कवियों की तरह केदारनाथ अग्रवाल ने भी कई कविताएं रचीं, लेकिन उनका काव्य-स्वर और मिजाज अन्य कवियों से भिन्न ही रहा. वे इस राजनीतिक विचलन और देश की दुर्दशा पर पश्चाताप या विलाप करने वाले कवियों में कभी नहीं रहे. उनके बहुआयामी रचनाकर्म की एक बड़ी खूबी यह भी रही कि वे देश-दुनिया की चिन्ता के साथ अपनी जनपदीय लोक संवेदना और सौन्दर्य-दृष्टि के अनुरूप प्रकृति-प्रेम और अपने प्रिय के प्रति गहरे प्रणय-भाव की रागात्मक कविताएं भी बराबर लिखते रहे. उनकी ऐसी अधिकांश कविताएं ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’, ‘बसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी’, ‘जमुन-जल तुम’ और ‘मार प्यार की थापें’ जैसे संग्रहों में संग्रहीत हैं. कई बार उनकी इन्हीं कविताओं में मन अटक जाने के कारण बहुत से काव्य-प्रेमी उनकी राजनीतिक चेतना वाली कविताओं की ओर कम ध्यान दे पाते हैं और उन्हें प्रकृति-प्रेमी या सौन्दर्यदृष्टि वाले कवि के रूप में ही व्याख्यायित कर संतोष का अनुभव कर लेते हैं, जबकि उनके काव्य-सृजन में सामाजिक न्याय और मनुष्य की मुक्ति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में कभी कोई कमी-कमजोरी नहीं आई. वे जीवन-पर्यन्त इन्हीं मसलों पर अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे. यही कारण था कि जहां दूसरे कवि इस विषम परिस्थिति को आम जन का भाग्य मान बैठे, वहीं केदारजी ने उस अन्याय और आर्थिक शोषण का खुलकर विरोध किया –
एक जोते और बोए, ताक कर फसलें उगाए
दूसरा अधरात में काटे उन्हें अपनी बनाए,
मैं इसे विधि का नहीं, अभिशाप जग का जानता हूं.
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 63)
केदारनाथ अग्रवाल की इन कविताओं में एक उदात्त मानवीय भाव अपने बेहतरीन रूप में व्यक्त हुआ है और वह है मनुष्य के आत्म-गौरव का भाव. इसे कवि के निजी स्वाभिमान के भाव में रिड्यूस करके नहीं देखना चाहिये. जब वे यह कहते हैं कि ‘हम बड़े नहीं –/फिर भी बड़े हैं/इसलिए कि लोग जहां गिर पड़े हैं/हम वहां तनकर खड़े हैं’, और यह तनकर खड़े रहना उन विपरीत परिस्थितियों में उसूलों और जीवन-मूल्यों पर टिककर खड़े रहने वाले उन तमाम संघर्षशील लोगों का आत्मबल है, जिसे कवि ने महज अपने शब्द भर दिये हैं. वह बल दरअसल उस जन का ही अपना नैतिक और सात्विक बल है, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उसे कमजोर नहीं होने देता. केदारजी के तमाम संग्रहों में इस आत्मगौरव के भाव वाली कविताओं को बखूबी लक्षित किया जा सकता है. जब भी संघर्ष तीव्र हुआ है, परिस्थितियों का दबाव बढ़ा है, केदारनाथ अग्रवाल ने जन-मन के आत्मबल को हमेशा उसके भीतर की उर्जा में सहेजने का प्रयास किया है. उनके इस वृहत्तर प्रयत्न को 1946 में लिखी ‘एका का बल’ से लेकर 1993 में लिखी ‘बागी घोड़ा’ तक कहीं भी देखा जा सकता है. यही वह आत्मचेतस व्यक्तित्व है, जो हर स्वाभिमानी व्यक्ति अपने भीतर विकसित होते हुए देखने की ख्वाहिश रखता है.
अपनी कविताओं में स्त्री के प्रति अनन्य प्रेम, उसकी मानवीय उर्जा में अतिशय विश्वास और उसकी नैसर्गिक रचनात्मक क्षमता के प्रति अकुंठ आदरभाव केदारजी की कविताओं को उदात्त धरातल पर ले जाता है. इसकी श्रेष्ठतम भावप्रवण अभिव्यक्ति ‘आज नदी बिलकुल उदास थी’ में देखी जा सकती है, जहां वे अपनी प्रिय केन नदी को प्रेयसी के आत्मीय रूप में चित्रित करते हैं, जिसके सोये होने पर उसे जगाते नहीं, बल्कि ‘दबे पांव’ घर वापस आ जाते हैं. निश्चय ही केदारजी बकौल अशोक त्रिपाठी के ‘सूक्ष्म और कोमल संवेदनाओं के अद्भुत कवि हैं.‘ जो लोग ‘देह मुक्ति’ में स्त्री की मुक्ति का सपना देखते हैं, उन्हें केदारनाथ अग्रवाल की स्त्री से अवश्य साक्षात्कार करना चाहिये. उनकी कविताओं में 1933 की पारिवारिक त्रास में जीती स्त्री से लेकर ‘मुल्लो अहीरन’, ‘गांव की औरतें’, ‘जहरी’, ‘सीता मैया’, ‘रनिया’ ‘मजदूरिन’ और ‘चिता जली जब मैंने देखा’ के अलावा ‘हे मेरी तुम’ पद-श्रृंखला में रची कितनी ही ऐसी कविताएं हैं, जो स्त्री के विभिन्न रूपों और जीवन में उसकी बराबर हिस्सेदारी का एक स्वस्थ रूप सामने लाती हैं. इन कविताओं में कवि का सहजीवन-भाव देखते ही बनता है.
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में लोकभाषा और लोकचतना का क्लासिक रूप दिखाई देता है, इसीलिए उन्हें केन किनारे का कवि कहना, प्रकारान्तर से उनकी उसी पहचान को उचित सम्मान देना है. इसी अर्थ में उन्हें बुन्देलखंड की धरती का कवि भी कहा जाता है. उनकी कविताओं की यह जनपदीय पहचान त्रिलोचन या नागार्जुन की जनपदीय पहचान से इस माने में थोड़ी अलग है कि वहां वह कुछ ही कविताओं में इस तरह निखरकर आती है, जबकि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की तो केन्द्रीय संवेदना और उनका भाषिक मिजाज ही यह जाहिर करने के लिए काफी है कि वे किस लोकेल का प्रतिनिधित्व करती हैं. उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में भारतीय किसान को जो गरिमा और पहचान दी, वह कविता में किसी कवि के लिए संभव हो सकी है तो उसमें केदारनाथ अग्रवाल का नाम निर्विवाद रूप अग्रणी माना जाता है. उन्होंने खेती-किसानी की सहज प्रक्रियाओं को अपनी कविताओं में इतनी खूबसूरती से ढाला है कि उन्हें पढ़ना एक तरह से अपनी कृषि-प्रक्रियाओं और उस कृषि-संस्कृति से रूबरू होना है, जो हमारी जातीय पहचान भी है. यहां नदी, पहाड़, पेड़, रेत, वनस्पति, बारिश, बदलते मौसम एक ऐसे बहुरंगी पर्यावरण की सृष्टि करते हैं, जहां मनुष्य उसी का अनिवार्य अंग लगता है. इसी वस्तु-सत्य को केदार अपनी कविताओं में निरायास मूर्त कर जाते हैं. केदारजी के मन में भारत के इन तमाम जनपदों की संस्कृति और उनके सम्मानित कला-सर्जकों के प्रति सदा गहरा आदरभाव रहा है, जिसका एक श्रेष्ठ उदाहरण ‘नागार्जुन के बांदा आने पर’ रची कविता में देखा जा सकता है.
अपनी साठ साल की कविता-यात्रा में बस एक ही कसक अपने समय की धार में धंसकर खड़े इस जनकवि के अंतस में बाकी रह गई और वह थी उनके लोकतांत्रिक सपनों का उत्तरोत्तर बिखरते जाना, जहां वे कहने को विवश हैं –
गांव के गरियार गोरू /बरियार बैताल को पीठ पर चढाये
निर्द्वन्द्व पगुराते हैं/ दूसरो के सताये / दूसरों के लिए मर जाते हैं.
शहर की शोभा/शरीफजादे लूटते हैं/ देखते देखते
मानवीय मर्यादाओं को/ पांवों तले खूंदते हैं.
यही है/इस देश का हाल/ लोकतंत्र में जिसे
मैंने सब जगह पिटते – / तडपते कराहते /खून-खून होते देखा.
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 132)
अपनी कविताओं में आम लोगों को लगातार हौसला देता, उनका मनोबल बढाता यह कवि अपनी वय के नौवें दशक के पार जा पहुंचा, लेकिन जो रात सऩ ‘46 में तकवैये के सामने काली-अंधेरी थी, वही रात’ 96 में अपनी आबरू बचाने के लिए आत्महत्या का रास्ता खोजते किसान की आंखों में जस की तस कायम थी. उस रात का कोई सिरा इस कवि को नहीं नजर आ सका, जिसके विरुद्ध वह अपनी कविता को मशाल और कन्दील बनाकर ताउम्र संघर्ष करता रहा, लेकिन कविता के पास कहां? उसकी अंतिम कविताओं में बस यही उदास दिन थे और अंधी रातें –
शाम की सोना चिरैया/ नींड़ में जा सो गयी,
पेड़-पौधे बुझ गये जैसे दिये/ केन ने भी जांघ अपनी ढांक ली
रात है यह रात, अंधी रात / और कोई कुछ नहीं है बात.
(प्रतिनिधि कविताएं, पृ 152)
इसी कसक के चलते केन किनारे का यह संवेदनशील कवि हमें आज भी हालात से लड़ने और जूझते रहने का जोम देता हैं, उस जरूरत को बराबर जिन्दा रखता हैं.
नंद भारद्वाज : १ अगस्त, १९४८, बाड़मेर (राजस्थान)
कवि, कथाकार, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी.
हिन्दी : झील पर हावी रात और हरी दूब का सपना (कविता संग्रह), संवाद निरन्तर (साक्षात्कार), साहित्य परम्परा और नया रचनाकर्म (हिन्दी आलोचना), संस्कृति जनसंचार और बाजार (मीडिया पर केन्द्रित निबंध–संग्रह) और आगे खुलता रास्ता (अनुदित हिन्दी उपन्यास).
राजस्थानी : अंधार पख (कविता संग्रह) , दौर अर दायरौ (राजस्थानी में आलोचना), सांम्ही खुलतौ मारग (उपन्यास) बदळती सरगम (कहाणी संग्रह).
सम्पादन : जलते दीप, हरावळ, राजस्थान के कवि, रेत पर नंगे पांव, तीन बीसी पार.
सम्मान : नरोत्तमदास स्वामी गद्य पुरस्कार ,सर्वोत्तम साहित्य पुरस्कार, विशिष्ट सेवा पुरस्कार, आचार्य निरंजननाथ साहित्य पुरस्कार, एमिटी लीडरशिप अवार्ड, बिहारी पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, रामकुमार ओझा साहित्य पुरस्कार आदि.
सम्प्रति : दूरदर्शन केन्द्र जयपुर पर वरिष्ठ निदेशक के पद से सेवा-निवृत्त.
ई पता : nandbhardwaj@gmail.com