संतोष अर्श
“मेरा अनुभव रहा है कि विशेष परिस्थितियों में, वस्तुएँ मनुष्यों की तरह और मनुष्य वस्तुओं की तरह व्यवहार करने लगते हैं.”
नरेश सक्सेना
नरेश सक्सेना ने कविता कम रची. लेकिन जितनी रची है उसमें काव्य की जो आभा है वह उनकी कविता का पाठ करते समय ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती जाती है और बढ़ जाता है कविता पर भरोसा. साहित्य जिस समय उपेक्षा और वैश्वीकरण से उपजे निरादर से जूझ रहा है उस समय यह कविता आशा का दामन थामे रखने की बात कानों में खुसफुसाती है. ये तरल और सरल कवितायें संवेदनात्मक झनझनाहट पैदा करती हैं. ये उस जनसंस्कृति का आईना हैं जिसमें मनुष्यता की जीत की पूरी-पूरी संभावनाओं के साथ इस दुनिया की सलामती की प्रार्थना है.
इसमें संदेह नहीं कि अपने सौंदर्यबोध और अनुभूतियों के स्तर पर नरेश सक्सेना जन के निकट हैं. उनकी कविता में मानवीयता को बचाने की जो चिंता है वह कविता की प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द में इस तरह व्याप्त है कि जन-आस्था मानवीयता में सहृदय की प्रतिबद्धता को और भी प्रगाढ़ कर देती है. प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने मनुष्य की जीवनधारा के बिम्ब सिरजे हैं. उनके यहाँ वस्तुएँ भी मनुष्य जैसा व्यवहार करती हैं. ईंट, गारा, सरिया, सीमेंट, पुल, गिट्टी, मज़दूर उनकी कविता के सहचर हैं. उनकी कविताओं में निर्जीव वस्तुओं में भी प्राण हैं. यह जो वस्तुओं के प्रति कवि की सूक्ष्म दृष्टि है, यह उसका सौंदर्यबोध भी है और जनोन्मुख चेतना भी है, क्योंकि वस्तुएँ मनुष्य से उसी प्रकार जुड़ी हुई हैं जिस प्रकार उसका जीवन. पाठ ‘हिस्सा’ कविता से शुरू करते हैं-
बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है
जो बच रहेगा
टपक रहे ख़ून में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
जो बच रहेगा………
..दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा है
तो फिर दुनिया भर में बहते हुए ख़ून और पसीने में
हमारा भी हिस्सा होना चाहिए
अपना हिस्सा माँगती हुई यह कविता पढ़ते हुए प्रख्यात खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक कार्ल सेगन की बात याद आती है कि, ‘हमारे डीएनए में जो नाइट्रोजन है, दाँतों में जो कैल्शियम है, ख़ून में जो लोहा है, और हमारे फलों में जो कार्बन है वह सितारों की टक्कर से उत्पन्न धूल से निर्मित हुआ है. हम सब सितारों की धूलि से बने हुए स्टारस्टफ़ हैं.’ जन को सितारा बना देने की कवि की यह कोशिश उसकी जन-आस्था की गत्यात्मकता है. जन-आस्था के साथ शांत और सृजनात्मक कवि-चित्त नरेश सक्सेना की विशेषता है. यह बात उनकी कविता की प्रौढ़ता को प्रदर्शित करने के साथ ही उसकी रसमयता को भी मुखर करती है.
उनके दोनों कविता संग्रहों, ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ (2001) और ‘सुनो चारुशीला’ (2012) की कविताएँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत हैं. इसके पीछे उनका अभियांत्रिकी का पेशा रहा हो सकता है. उनकी कविताओं में बोली की लय है. पानी, पेड़, पुल, ईंट, पत्ते, बालू, मिट्टी, गिट्टी वाली इन कविताओं में नरेश सक्सेना की वैज्ञानिक दृष्टि का लिरिकल विस्तार है. और साथ में है गणित. ऐसी गणित जो चीज़ों को लय में सजाने के लिए काम आती है. जिससे बनते हैं लघुमानव के घरौंदे और जीवनयापन की आधारभूत संरचना. गैलीलियो को यह कुदरत एक पुस्तक की भाँति नज़र आती थी. और वह महान वैज्ञानिक कहा करता था कि यह प्रकृति एक पुस्तक है जो गणित की भाषा में लिखी हुई है. नरेश सक्सेना की कविताओं में वही गणित की सी लय है. नपी-तुली पंक्तियाँ, क़रीने से सजी हुईं, मितव्ययी, किफ़ायती कविताई. यह गणित जनवाद का गणित है. यह कुआर्डिनेशन जनता का है:
ओ गिट्टी-लदे ट्रक पर सोये हुए आदमी
तुम नींद में हो या बेहोशी में
गिट्टी-लदा ट्रक और तलवों पर पिघलता हुआ कोलतार
ऐसे में क्या नींद आती है ?
दिन भर तुमने गिट्टियाँ नहीं अपनी हड्डियाँ तोड़ी हैं
और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया
हिसाब गणित का पुराना नाम और हिसाब-क़िताब है. मज़दूर का हिसाब-किताब करने के लिए पत्थर तोड़ कर बनाई गयी गिट्टियों को गिनना पड़ेगा. मज़दूर सारी मेहनत अपनी हड्डियों या अपने शारीरिक श्रम से ही करता है. उसके श्रम के बदले में उसे गिट्टियों के बराबर पारिश्रमिक भी नहीं मिलता है. यहाँ भाषा के मुहावरे (हाँड़ तोड़) का विशिष्ट प्रयोग है. किंतु शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूर की नींद की चिंता कवि की जनवादी चेतना का ही परिष्कृत संवेदनात्मक, कवित्वमय रूप है. यह मानववादी दृष्टिकोण वैज्ञानिक भौतिकवाद से संपृक्त है. कविताओं में काँक्रीट, पुल, ईंट, सीमेंट, गारा, सरिया, बालू आदि के आने के पार्श्व में एक तथ्य यह भी छुपा है कि यह सभी वस्तुएँ मनुष्य की बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं से जुड़ी हुई हैं. रोटी-कपड़ा-छत मनुष्य की अगुआ ज़रूरतें हैं, इसलिए इस ज़रूरत के आधार पर वह इन सभी वस्तुओं से गहरे जुड़ा हुआ है. इन्हीं वस्तुओं के क्रम में ‘ईंट’ कविता का उल्लेख करना विषयानुकूल होगा-
घर एक ईंटों भरी अवधारणा है
जी बिलकुल ठीक सुना आपने
मकान नहीं घर……
ईंटों के चट्टे की छाया में
तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा
दो उसके बच्चे की खुड्डी बनी थीं
एक उसके थके हुए सिर के नीचे लगी थी….
कुल पाँच ईंटों से घर बन गया है. मकान और घर के फ़र्क़ को समझाती इस कविता में तीन ईंटों से बना हुआ चूल्हा जीवन में ईंट की उपयोगिता को इस प्रकार वर्णित करता है कि वे तीन ईंटें अमूल्य हो जाती हैं, क्योंकि उनसे बने हुए चूल्हे पर मज़दूरनी का खाना बनता है. यह ऐसी अर्थवान कविता है जो जन-जीवन के पहलुओं, उसके संघर्ष, उसके संतोष की अनूठी छवि प्रस्तुत करती है. ईंटें भी उसी मिट्टी से बनी हैं जिस मिट्टी से मनुष्य बने हैं. घर की ईंटों भरी अवधारणा ईंटों के चट्टे में ध्वनित है. ईंट शब्द कविता में घर का अर्थ बन गया है. या ईंट ही बन गई है घर.
जिन मसलों को उठाने की सबसे अधिक आवश्यकता इन दिनों की कविता को रही उनमें पर्यावरण अवनयन प्रमुख है. एक सच्चे कवि या मनुष्य को सबसे पहले अवनयित, प्रदूषित पर्यावरण से आतंकित होना चाहिए. विशेष कर तब जब वह स्वयं उसे न नष्ट कर रहा हो. पूँजी के स्वामित्व वाले अंध-विकासवाद ने प्रकृति और पर्यावरण की जो दशा की है, उससे सम्पूर्ण मानवता को भयावह ख़तरा उत्पन्न हुआ है. यह जलता हुआ सत्य है कि इसका कारण भी दानवी पूँजीवादी, उपभोगवादी, भूमंडलीकृत मुनाफ़ाखोर प्रतिस्पर्धा रही है. जनवाद मानवता को बचाने की एक मुहिम भी है. जन के साथ उसका पर्यावरण भी है. पूरी पृथ्वी ही जन की है. उस पर किसी का अतिक्रमण हो सकता है, किन्तु अधिकार नहीं. पर्यावरण के लिए फ़िक्रमंद नरेश सक्सेना की कवितायें अपनी रचना में नितांत पुष्ट और नवीन हैं. इस संदर्भ में विष्णु खरे की यह टिप्पणी संगत है:
“दूसरी ओर उनकी कविता में पर्यावरण की कोई सीमा नहीं है. वह भौतिक से होता हुआ सामाजिक और निजी विश्व को भी समेट लेता है. हिन्दी कविता में पर्यावरण को लेकर इतनी सजगता और स्नेह बहुत कम कवियों के पास है. विज्ञान, तकनीकी, प्रकृति और पर्यावरण से गहरे सरोकारों के बावजूद नरेश सक्सेना की कविता कुछ अपूर्ण ही रहती यदि उसके केंद्र में असंदिग्ध मानव-प्रतिबद्धता, जिजीविषा और संघर्षशीलता न होती.”
प्रकृति और पर्यावरण नरेश सक्सेना की प्रत्येक कविता में किसी न किसी रूप में मौजूद है. किसी प्राकृतिक बिम्ब के बिना उनकी कविता मुश्किल से ही पूरी हो पाती है. पारिस्थितिकीय-चिंतन के क्रम में ‘नक्शे’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखते हैं-
नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं
नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं
नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
नक्शे में देश हैं लोग नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं….
…तफ़रीह की जगह नहीं है यह
नक्शों से फ़ौरन बाहर निकल आइए
मुझे लगता है एक दिन
सारे नक्शों को मोड़कर जेब में रख लेगा कोई मसख़रा
और चलता बनेगा.
‘नक्शे’ (कुछ) लंबी कविता है और इसमें इक्कीसवीं सदी का भयावह सच मुखर हुआ है. विश्व की प्रतिस्पर्धी शक्तियों पर कटाक्ष करती इस कविता की शुरुआती पंक्तियों से निर्मित बिम्ब ही पर्यावरण की फ़िक्र के साथ आया है. केवल दो पंक्तियाँ- ‘नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं, नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं’ इस भूमंडलीकृत नव-साम्राज्यवादी समय का कुरूप और सड़ांध भरा चेहरा खींच कर उभार देती हैं. नरेश सक्सेना की कविताओं में प्रतिबद्ध पारिस्थितिकीय संवेदना को देखते हुए उन्हें हरित कवि (Eco-Poet) की उपाधि दी जा सकती है. इस इकोलॉजिकल संवेदन में एक विश्व-दृष्टि भी है. यानी कवि सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए चिंतित है. यह बात दोनों संग्रहों में है. इनमें स्पष्ट पर्यावरणबोध की कवितायें हैं. ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ संग्रह में ‘एक वृक्ष भी बचा रहे’, ‘उसे ले गए’ कवितायें वृक्षों को आधार बना कर रची गई हैं. प्रथम कविता में कवि लिखता है-
लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में
‘उसे ले गए’ कविता में कवि इकोफेमिनिज़्म की सैद्धांतिकी तक पहुँचता है. कविता में आँगन का नीम कट रहा है और इस कटने का वृत्तान्त एक स्त्री (कविता में बेटे, बाबा, सखियों, झूलना, पालना, मनौती के आधार पर) सुना रही है. इकोफेमिनिस्ट पर्यावरण और प्रकृति के विषय पर स्त्री-पुरुष के विचार को भिन्न मानते हैं. उनका कहना है कि प्रकृति के प्रति स्त्री पुरुष से अधिक संवेदनशील और फ़िक्रमंद है, क्योंकि स्त्री की प्रकृति भी प्रकृति जैसी है. प्रकृति से स्त्री के संबंध (बनिस्बत पुरुष) अधिक रागात्मक हैं. इकोफेमिनिस्ट फ्रंस्वा दि यूबोण का विचार है कि पुरुष स्त्री और प्रकृति दोनों का शोषण करता है. कविता में पुरुष की स्त्री क्या कह रही है?
अरे कोई देखो
मेरे आँगन में गिरा कट कर
गिरा मेरा नीम
गिरा मेरी सखियों का झूलना
बेटे का पालना गिरा
और स्त्री के इस आत्मीय नीम-वृक्ष के कट जाने के पश्चात अंत में क्या हुआ ?
बेटे ने गिन लिए रुपये
मेरे बेटे ने
देखो उसके बाबा ने कर लिया हिसाब
उसे ले गये
जैसे कोई ले जाये लावारिस लाश
ऐसे उसे ले गये
नीम के पेड़-छाल-पत्तियों के प्रति कवि में विशेष अनुराग है. उसने नीम की छाल घिस कर अपने घावों पर लगाई है. अपने घाव भरे हैं. नीम से यह प्रेम प्रकृति के प्रति लघुमानव की कृतज्ञता है. एहसानमंदी का नज़रिया है. ऐसा ही प्रकृति-प्रेम प्रकृति को बचा सकेगा. उसकी रक्षा कर पाएगा.
‘सुनो चारुशीला’ संग्रह में भी कई पर्यावरणवादी कवितायें हैं. जिनमें ‘देखना जो ऐसा ही रहा’ स्पष्ट पर्यावरणबोध की कविता है. इस कविता में कवि लिखता है-
देखना जो ऐसा ही रहा तो, एक दिन
पेड़ नहीं होंगे घोंसले नहीं होंगे
चिड़िया ज़रूर होंगी, लेकिन पिंजरों में
नदियाँ नहीं होंगी
झीलें नहीं होंगी
मछलियाँ ज़रूर होंगी लेकिन टोकरियों में
जंगल नहीं होंगे
झाड़ियाँ नहीं होंगी
खरगोश और हिरण ज़रूर होंगे
लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए
…सिर्फ बाज़ार होंगे
जहाँ होंगी कविताएँ
पेड़ों, नदियों, चिड़ियों, मछलियों और खरगोशों का
विज्ञापन करती हुई
नरेश सक्सेना की कविताओं का पर्यावरणबोध पर्यावरणवाद के लिए ही है. उसमें किसी तरह की विच्छिन्नता नहीं है. इस प्रकार कविता में जो पर्यावरणबोध आता है वह श्लेष न होकर केंद्रीय विषय के रूप में आता है. और यह पर्यावरणवाद की केन्द्रीयता इस प्रकार की है कि उनकी कविता हरित कविता (Green Poetry) बन जाती है. सबसे अहम है कि यह पारिस्थितिकीवाद वैज्ञानिक है. इसमें तंत्र-मंत्र, वेद-पुराण, मिथक आदि नहीं हैं. नरेश सक्सेना की कविता के इस पर्यावरणवाद पर कवि एकांत श्रीवास्तव की टिप्पणी सर्वथा उचित लगती है कि-
“प्रकृति का वे भरपूर रचनात्मक उपयोग अपनी कविता में करते हैं. और इस तरह वे अपनी कविता के संसार को सूखाग्रस्त नहीं होने देते. बल्कि कहना चाहिए कि प्रकृति और पर्यावरण सजगता जैसी उनके यहाँ दिखाई देती है, अन्यत्र प्रायः विरल ही दिखती है.”
‘घास’ कविता जन-प्रतिबद्धता की नज़ीर है. अब तक की साम्राज्यवादी शक्तियों की दुनिया पर राज करने की वासना पर यह कविता शालीनता से व्यंग्य करती है-
सारी दुनिया को था जिनके कब्जे का एहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास
धरती पर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास.
यह घास वाली पंक्तियाँ कबीर के यहाँ भी ‘ऊपरि जामी घास’ के रूप में हैं, जिनसे हिन्दी का हर जनवादी कवि उत्तराधिकार में कुछ न कुछ ग्रहण करता है. कामायनी में प्रसाद ने प्रकृति को ‘दुर्जेय’ कहा है. उत्तर-आधुनिकता का एक पहलू यह भी रहा है कि उसमें प्रकृति के प्रभुत्व में रहने की बात कही जाती रही है, लेकिन अति-औद्योगिक विकास की होड़ ने प्रकृति को सबसे अधिक नुकसान इसी दौर में पहुँचाया है. यह पंक्तियाँ उन ऐतिहासिक साम्राज्यवादियों की प्रभुता को धूल-धूसरित करती हैं जिन्हें पूरी पृथ्वी पर शासन करने का गर्व था. जनतंत्र ने उनके पते-ठिकानों पर उगती हुई घास देखी है. यह कबीराना लाघव है. इसका एक और उदाहरण है उनकी कविता ‘ईश्वर की औकात’ जिसमें वे कहते हैं-
वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट
पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों, पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं को पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मंदिरों का
उद्धार करके इसे वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे ईश्वर को उसकी औकात बताते हैं !
यह जो तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाने की बात इस कविता में है, वह अंधभक्तीय परिदृश्य के विद्रूप चेहरे पर हँसता हुआ व्यंग्य भी है. यह समय सापेक्ष काव्य-चेष्टा है. इन दिनों यही सब हो रहा है. प्रतिदिन घट रहा है. सुजन-समाज हँस रहा है, किंतु हँसी के पीछे भय और बेबसी पोशीदा है. भौतिकवादी दर्शन चेतन द्वारा जड़ पदार्थों के संचालन होने के विचार में विश्वास रखता है. तभी यह बात सामने आती है कि रचनाकार अपने आस-पास की बाह्य जड़ वस्तुओं और पदार्थों से प्रभावित होता है. जबकि उसका प्रभाव उसकी चेतना पर पड़ता है. इस तथ्य को रचना-प्रक्रिया के संबंध में मुक्तिबोध ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में यों व्यक्त किया है-
“हमारे जन्मकाल से ही शुरू होने वाला हमारा जो जीवन है, वह बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण द्वारा ही सम्पन्न और विकसित होता है. यदि वह आभ्यंतरीकरण न हो तो हम कृमि-पानी का जीव हाइड्रा-बन जाएँगे. हमारी भाव-सम्पदा, ज्ञान-सम्पदा, अनुभव-समृद्धि उस अंतर्तत्व-व्यवस्था ही का अभिन्न अंग है, कि जो अंतर्तत्व-व्यवस्था हमने बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण से प्राप्त की है. हम मरते दम तक जीवन-जगत् का आभ्यंतरीकरण करते जाते हैं. किन्तु साथ ही, बातचीत, बहस, लेखन, भाषण, साहित्य और काव्य द्वारा हम निरंतर स्वयं का बाह्यीकरण करते जाते हैं. बाह्य का आभ्यंतरीकरण और आभ्यंतर का बाह्यीकरण एक निरंतर चक्र है. यह आभ्यंतरीकरण तथा बाह्यीकरण मात्र मननजन्य नहीं वरन् कर्मजन्य भी है. जो हो, कला आभ्यंतर के बाह्यीकरण का एक रूप है.” (मुक्तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष)
बाह्य जीवन को आभ्यंतर में परिष्कृत करना और उसे रचना-प्रक्रिया में ढालने का जो क्रम है वह नरेश सक्सेना की रचना-प्रक्रिया में गतिमान है किंतु उसमें उस तनाव की कमी है जिसकी अन्विति मुक्तिबोध के कथन में अनुभव की जा सकती है.
‘घड़ियाँ’ एक ऐसी कविता है जिसमें जनवादी स्वर अधिक मुखर हुआ है. यहाँ पर कुछ ब्यौरों की सहायता अवश्य ली गयी है, जिससे कुछ रूखी इतिवृत्तात्मकता आ गयी है और यह बात उनकी अन्य कविताओं से इस कविता को भिन्न करती है. इस कविता में कुछ व्यंग्य भी है और कुछ तनाव भी-
अपनी घड़ी देखिये जनाब,
जितनी देर मुझे यह बात कहने में लगी
उतने में तीन सौ हत्याएँ हो गईं, छह सौ बलात्कार
और बारह सौ अपहरण
इसी बीच भुखमरी से मर गए चौबीस सौ लोग
और घड़ियों के चेहरों पर शिकन तक नहीं
इस कविता का सम्बोधन उन व्यक्तिवादी लोगों से है जिन्हें अपने समय का अनुमान केवल अपनी घड़ी तक है. ‘और घड़ियों के चेहरे पर शिकन तक नहीं’ में चेहरा घड़ी का नहीं है, चेहरा मध्यवर्गीय स्वार्थपरता का है. आगे देखते हैं-
ग़रीब कलाइयों वाली घड़ियाँ
लखनऊ से दिल्ली जाने का वक़्त दस घंटे बताती हैं
जबकि अमीर कलाइयों वाली बताती हैं
महज़ पैंतालीस मिनट की उड़ान
वर्गीय असमानता में प्रत्येक वस्तु असमान होती है. कलाइयाँ तक अमीर-ग़रीब होती हैं. उन पर बँधी घड़ियाँ अलग-अलग समय बताती हैं. यानी जो ग़रीब है वह देर से चल रहा है, वह पीछे रहेगा. पैंतालीस मिनट की उड़ान का समय बताने वाली घड़ी अमीर कलाई की है. और आगे-
देखिये अपने देश के पचपन करोड़ कुपोषित बच्चों को
उनके चेहरे बता रहे हैं उनका वक़्त
उनके चेहरों की झुर्रियाँ घड़ी हैं
उनकी बुझी हुई आँखें घड़ी हैं
उनके धँसे हुए पेट घड़ी हैं
उनकी उभरी हुई हड्डियाँ घड़ी हैं…
चेहरे की झुर्रियाँ, बुझी हुई आँखें, धँसे हुए पेट और उभरी हुई हड्डियाँ जो समय बता रही हैं, वह ज़ाहिर है कि हमारा ही समय है. हमारा यानी जन का समय है, जो शोषण और असमानता की अग्नि में जल रहा है. जिसका चेहरा एक ऐसी घड़ी है जो कभी सही वक़्त नहीं बताती. जो कह रही है तुम्हारा समय खराब है. कुछ कविताओं में सिद्धांत को व्यवहार में न अपना सकने के प्रति क्षोभ और रोष भी अभिव्यंजित होता है. वह सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं स्वयं कवि के लिए भी है तभी तो कवि कहता है-
भूख से बेहोश होते आदमी की चेतना में
शब्द नहीं
अन्न के दाने होते होंगे
अन्न का स्वाद होता होगा
अन्न की ख़ुशबू होती होगी
बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कहके नहीं, करके दिखानी होती थी.
‘कहके नहीं’, ‘करके दिखाने’ का जो भाव है वह कुछ-कुछ मुक्तिबोधीय है. यह सूक्ष्म आत्मभर्त्सना जन के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति को स्पष्ट करने हेतु है. कवि कहना चाहता है कि केवल शब्दों से काम नहीं चल सकता. कला-रचना के आधार के रूप में व्यवहार की अवधारणा से उपजा आत्मसंघर्ष कवि के मन को उद्वेलित करता है. यह प्रश्न बार-बार रचनाकार के मन में उठता है कि वह अपनी रचनात्मक सक्रियता से समाज में क्या परिवर्तन कर सकता है. इन अनुभूतियों से कविताओं में अति-गंभीरता आ जाती है, जिससे रचना-कर्म एक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य बन जाता है. मुक्तिबोध की कविताओं में यह बात बहुत है. नरेश सक्सेना की कविताओं में यह इसलिए कम है क्योंकि वे फैन्टेसी का प्रयोग लगभग नहीं करते हैं.
कलावादी हुए बिना भी जीवन के उत्स को कविता में जीना मुश्किल कार्य है. जनवादी-प्रगतिवादी कवियों पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि उनकी कविताओं में कलापक्ष पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता या कविता का वह हिस्सा शिथिल रहता है. नरेश सक्सेना की कवितायें इस बात का अपवाद ही हैं. कविताओं में कलात्मक अभिव्यक्ति के संग जीवन का उत्स भी है. जीवन का उत्स अपने पूरे आवेग और उल्लास के साथ है. पत्नी के दिवंगत होने के बाद भी उसके प्रेम का उल्लास उनके भीतर हिलोरें मारता है. यह जिए हुए साथ और किए हुए प्रेम का करुणामिश्रित अविस्मरणीय आनंद है. ‘सुनो चारुशीला’ कविता जिसके शीर्षक पर कविता संग्रह का नाम भी है, ऐसी ही कविता है-
सुनो चारुशीला !
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे हम तो फिर क्या होंगे
अच्छा जरा सोचकर बताओ
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुए
यह जो प्रेम में एकमेक होने का गणित है. जिसमें प्रत्येक योग का फल एक ही आता है, इसका उल्लास प्रेमगीतों में कभी नहीं अंटता.
‘रोशनी’, ‘सेतु’, ‘लोहे की रेलिंग’, ‘पानी’ आदि कविताओं में जो विज्ञान आया है यह बहुत जटिल या कविता की पठनीयता को प्रभावित करने वाला नहीं है. यह जनसुलभ विज्ञान है. ऐसा प्रतीत होता है कि यह विज्ञान की रोशनी से महरूम जनता का विज्ञान है, जिसे सत्य का जामा पहना कर, सरलीकृत करके कवि वहाँ तक पहुँचाना चाहता है. कविता ‘पानी क्या कर रहा है’ की कुछ पंक्तियाँ लेते हैं-
यह चार डिग्री वह तापक्रम है दोस्तों
जिसके नीचे मछलियों का मरना शुरू हो जाता है
पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है
कि अगर वह और ठंडा हुआ
तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी……
तीन डिग्री हल्का
दो डिग्री और हल्का और
शून्य डिग्री होते ही, बर्फ़ बन कर
सतह पर जम जाता है
इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का
अब पड़ती रहे ठंड
नीचे गर्म पानी में मछलियाँ
जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं
यह ऐसी कविता है जिसमें जीवन में दूसरों के लिए कुछ करते रहने की प्रेरणा का अकिंचन भाव है. नरेश सक्सेना की कविताओं की एक विशेष बात यह भी है कि उसमें हर वस्तु (निर्जीव वस्तुएँ भी) किसी के लिए कुछ न कुछ कर रही है. पदार्थ और वस्तुओं के परमार्थ को प्रमाण के रूप में रख कर मनुष्य की स्वार्थपरता को आईना दिखाने के लिए उनकी कवितायें शब्द-शब्द तत्पर हैं. बर्टेंड रसेल की पदार्थवाद की अवधारणा स्मरण होती है. मुक्तिबोध के उपरोक्त कथन में भी पदार्थवादी प्रभाव है. कवि में बेचैनी है अपने इंद्रियप्रदत्त सत्य को और सरलीकृत कर के बताने की. कवि की इस टिप्पणी में भी पदार्थवादी दर्शन का अवबोध है:
पानी कितना रहस्यमय होता है ! वस्तुएँ ठंडी होकर सिकुड़ती हैं और सघन होती हैं, लेकिन नदियों, झीलों और समुद्रों का पानी ठंड में सिकुड़ता और भारी होता हुआ जैसे ही चार डिग्री सेल्सियस पर पहुँचता है कि अचानक अपना व्यवहार उलट देता है. इससे ज़्यादा ठंडा होते ही वह भारी होकर नीचे बैठने की जगह, हल्का होकर ऊपर ही बना रहता है, अगर ऐसा न करे तो सारी मछलियाँ मर जाएँ. क्या पानी जानता है यह बात ? क्या वह मछलियों को बचाने के लिए ही ऐसा करता है.
‘पानी क्या कर रहा है’ कविता के अंत में, कवि समाज में उस स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण करता है जहाँ कोई किसी को बचा नहीं पा रहा है या बचाना नहीं चाहता, या हर कोई इतना लाचार हो चुका है कि कुछ बचा नहीं सकता. जिन हालातों में कोई किसी को नहीं बचा पा रहा है, या बचाना नहीं चाहता उस समय भी प्रकृति अपनी परमार्थ की अद्भुत शक्ति और मनुष्य के साथ-साथ पृथ्वी के प्रत्येक जीव-जन्तु के साथ समान व्यवहार कर रही होती है. प्रकृति के समाजवाद से मनुष्य के समाजवाद कि तुलना करने वाली यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं दोस्तों
इस वक़्त
कोई कुछ बचा नहीं पा रहा
किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को
अपने हाथों से फसल को आग लगाए दे रहा है…..
यह सहजता जनोन्मुख प्रतिबद्धता का प्रमाण है.
‘आधा चाँद माँगता है पूरी रात’ शीर्षक कविता पूँजीवाद की सरल मार्क्सवादी आलोचना की कविता है जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति के आधार पर कुछ लोगों ने अधिकतर उत्पादन के स्रोतों और उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं पर आधिपत्य जमा रखा है. इतने में भी समाज के उस उच्चवर्गीय भाग को संतुष्टि नहीं है. यह वही चाँद है जिसके मुँह को मुक्तिबोध ने ऐतिहासिक ढंग से टेढ़ा कर दिया था-
कारखाना-अहाते के उस पार
कलमुँही चिमनियों के मीनार
उद्गार-चिह्नाकार.
मीनारों के बीचोबीच चाँद का है टेढ़ा मुँह
लटका,
मेरे दिल में खटका –
नरेश सक्सेना की कविता इस प्रकार है-
पूरे चाँद के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चाँद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ों लोग
आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते पूरे पाँव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में.
पूँजी की ज्यामितीय लाभेच्छा-युक्त वासना की पूर्ति धरती की आधी से अधिक आबादी के शोषण, उसकी भूख और मृत्यु से होती है. भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने पूँजी की इस प्रक्रिया को और भी ताक़तवर बनाया है. आधे इलाज की पूरी फीस देने की जो बात उपरोक्त कविता में कही गयी है उसका प्रमुख कारण इक्कीसवीं सदी की अतिशय मुनाफाखोरी और प्रत्येक सेवा का व्यावसायीकरण है. पेशे की ईमानदारी को भी मुनाफाखोरी ने लील लिया है. इस कविता में आउटडेटेड रेटोरिक है, किंतु एस्ट्रोनॉमिकल बिंबों से कुछ नवीनता का अर्जन हो सका है.
आभिजात्यवाद का नकार नरेश सक्सेना की कविताओं में कड़े शब्दों में है. हालाँकि उनकी कविता का व्यंग्य बहुत शालीन और प्रगतिवादियों से भिन्न है. व्यंग्य भी वे बड़े शांत ढंग से करती हैं, जैसे विनम्रता से कोई तीखी बात कहे, उर्दू कवियों के वासोख्त सी ! लेकिन टीस चुभने वाली होती है. ‘ज़िंदा लोग’ शीर्षक कविता इस संदर्भ में द्रष्टव्य है-
लाशों को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ़ चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह…
यह परिवर्तन करने की पुकार की कविता है. जिसमें दो अर्थ व्यंजित होते हैं. एक तो अभिजात लोगों के मुर्दा होने का और दूसरा यह प्रकट करने के लिए कि जीवित लोग जो श्रमशील और जीवन की प्यास से भरे हुए हैं उन्हें परिवर्तन करने के लिए अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए. क्योंकि जितनी प्रतीक्षा हम जीवित लोग कर रहे हैं उतनी प्रतीक्षा लाशें भी नहीं करती हैं. परमानन्द श्रीवास्तव और विश्वनाथ त्रिपाठी इसी कविता की बिना पर नरेश सक्सेना को ब्रेख्तियन लहजे का कवि कहते हैं.
‘काँक्रीट’ कविता मानवीय रिश्तों में व्यक्तित्व के लिए स्थान छोड़ने की बात पदार्थों के प्रतीकों के माध्यम से करती है. हालाँकि कविता में व्यक्तित्व स्वातंत्र्य की धारणा इस प्रकार है कि सामूहिकता का निषेध न हो. सामूहिकता का निषेध किए बगैर भी हम व्यक्ति स्वातंत्र्य का अनुसरण कर सकते हैं, और इस विचार को कविता इस प्रकार व्यक्त करती है-
….जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
ख़ाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत…..
सीमेंट कितनी महीन
और आपस में कितनी सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं ख़ाली जगहें
जिनमें समाता है पानी
और पानी में भी, ख़ैर छोड़िए
काँक्रीट की कथा यह बताती है कि रिश्तों की ताक़त बनी रहे इसलिए ज़रूरी है कि आप अपने बीच में थोड़ा सा रिक्त स्थान अवश्य रखें. स्पेस छोड़ने की यह बात कुँवर नारायण की भी किसी कविता में है. एक विशेष खाली स्थान प्रत्येक पदार्थ में है. यह रिक्त इस सृष्टि का डायनामिक्स है. और यही इस कविता का मूल-कथ्य है कि प्रगाढ़ता के लिए कुछ रिक्त स्थान होना वैज्ञानिक रूप से अपरिहार्य है.
नरेश सक्सेना की कविताएँ सच्ची जनवादी कविताएँ हैं. इनमें जनगीतों सा प्रभाव है. भाषा की लय के साथ बिंब भी लयात्मक हैं. दृश्य क्रमबद्ध हैं. कहीं-कहीं कवि भाषा में और कभी-कभी दृश्यों में सोचता है. यह प्रकृति को देखने की उसकी विज्ञानवादी दृष्टि का सुफल है. ब्रेख्तियन लहजे के कवि से इतर उनकी कविता में संचित-बिंबित-चित्रित प्रकृति से गुज़रते हुए हुए कई बार नेरुदा की याद आती है. ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ का महाबिंब नेरुदा के समंदरों का स्मरण कराता है. कवि ने स्थूल और सूक्ष्म का जो संतुलन साधा है, उससे स्थूल के प्रति सूक्ष्म की विनम्रता जैसा बोध होता है.
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना….
जन की नदी में उतरे बिना जनवादी नहीं हुआ जा सकता. पुल से गुजरकर नदी को नहीं जाना जा सकता. संघर्ष किए बिना जीवन के उल्लास को नहीं जाना जा सकता. नरेश सक्सेना की कवितायें जनसंघर्ष के उल्लास की कवितायें हैं.