अमरेन्द्र कुमार शर्मा
“मेरे तो समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है. उसके बिना मेरा जीवन फीका और बेजायका होता ”.
मेरा दागिस्तान – रसूल हमजातोव (141)
जब इच्छा और पसंदगी के अनुरूप सब कुछ पा लेने की और ग्रहण कर लेने की तात्कालिक अवैध जिद एक मुहिम के तौर हमारे समय का सबसे प्रबल विचार बनता जा रहा हो; कि जिसके लिए कोई तय सिद्धांत नहीं, कोई तय नियम नहीं, कोई तय दार्शनिक मंतव्य नहीं, और यही एक मूल्य के रूप में रूपायित होता जा रहा हो; तब ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविताओं से संवाद करना स्वयं को कई किस्म के अपरिभाषेय संदेहों और अप्रत्यक्ष खतरों में ड़ाल देना है.
मैं मुक्तिबोध की कविता के साथ होते, चलते हुए, इस संदेह और खतरे से अपने इस आलेख को बचा नहीं सका हूँ. वह भी तब जब कि यह जानता हूँ कि मुक्तिबोध की कविताओं में ‘सत्य’, ‘सत्ता’, ‘युद्ध’ जैसे पद अनायास नहीं आते, और यह भी कि कविता की रचना-प्रक्रिया युद्ध की तरह की प्रक्रिया हुआ करती है, कविता के पूर्ण होने तक रचना प्रक्रिया शब्दों, वाक्यों की भारी काट-छांट इसमें मची रहती है. एक शब्द के मुक्कमल आकार ग्रहण करने में कई सारे शब्द लहू-लुहान होते हैं और कई शब्द की भ्रूण हत्या भी होती जाती है. मुक्तिबोध जैसे कवि की कविता में तो और भी ज्यादा.
मुक्तिबोध की कविता अनुपस्थित में उपस्थित की और उपस्थित में अनुपस्थित की हमारी कथित सभ्यता में एक उपस्थित सत्ता-मीमांसा है. मुक्तिबोध की कविता में यह सत्ता-मीमांसा आद्य बिंब की तरह मौजूद होती है, मुक्तिबोध में इस मौजूदगी की एक पृष्ठभूमि है, जो उनके जीवन की स्मृतियों से जुड़ी हुई है. मुक्तिबोध के जीवन के शुरूआती दौर को अगर हम देखें तों मुक्तिबोध के बाल मन की पहली भूख ‘सौंदर्य’ है, और दूसरी ‘विश्व मानव का दुःख.’ ‘सौंदर्य’ और ‘मानव का दुःख’ के बीच के संघर्ष को मुक्तिबोध रचते हुए अपने ‘साहित्यिक जीवन की पहली उलझन’ मानते हैं. मुक्तिबोध के भीतर ‘पहली उलझन’ ने अनेक ‘आंतरिक द्वंद्व’ पैदा किए और यही वह वजह रही कि उनके सामने कभी भी रचना के लिए कोई ‘एक ही काव्य-विषय’ नहीं रह सके. विविधता उनके काव्य का आत्म संघर्षात्मक सौंदर्य है.
मुक्तिबोध के जीवन-चर्या को अगर देखें तों उनके जीवन में कविता उतनी ही नजदीक है ‘जितना कि स्पंदन’. मुक्तिबोध काव्य की व्यापक सीमा को ‘अपनी जीवन-सीमा’ से मिला देने की दुर्निवार चाह रखते हैं. इस चाह में मुक्तिबोध ‘जीवन के आंतरिक द्वंद्व’ और ‘जगत के द्वंद्व’ को सुलझाने की प्रक्रिया में खुद को शामिल करते हैं. इस प्रक्रिया के द्वारा उनके भीतर एक दर्शन का विकास होता है. वह दर्शन है ‘अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्त्व-प्रणाली’.
मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सशक्त कारण यही प्रवृति रही है. मुक्तिबोध की न केवल काव्य-यात्रा में बल्कि गद्य में भी हम देखते हैं कि ‘जीवन के आंतरिक द्वंद्व’ और ‘जगत के द्वंद्व’ को सुलझाने की प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है. यह वह प्रक्रिया थी, जिसकी समझ उनके उन समकालीनों में बिल्कुल नहीं थी, जो साहित्य में केवल छद्म रच रहे थे उसे प्रगतिशीलता का नाम दे रहे थे और चर्चित होने की एक निर्लज चाह रखते थे.
मैं अपने इस आलेख में मुक्तिबोध की कुछ कविताएँ मसलन, ‘रात, चलते हैं अकेले ही सितारे’, ‘बहुत शर्म आती है’, ‘पित:, तुम्हारी आती है याद’, ‘शब्दों का अर्थ जब’, ‘जिंदगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही’ के साथ मुक्तिबोध की एक और कविता जिसे मुक्तिबोध ने अपने आत्म-वक्तव्य में अपनी प्रिय कविता बताया है ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी वहीं’ (इस कविता में मुक्तिबोध का अपना अस्तित्व है और कविता का भी. यह कविता प्रतीक के जुलाई-अगस्त 1947 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुई थी) को संदर्भित करूँगा.
अपने आलेख में कुछ जगहों पर मैंने ‘अँधेरे में’ का भी उल्लेख किया है. रामविलास शर्मा के एक प्रसिद्ध लेख ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता’को पढ़ते हुए मेरे मन में लेख को लेकर कई सवाल उभरे जो जाहिर है मुक्तिबोध की कविता के पाठक होने के नाते मेरे मन में उभरे. इस आलेख में रामविलास शर्मा के उपर्युक्त लेख की संक्षिप्त परख करने की कोशिश भी की गई है. अपनी बात रखने के क्रम में मैं मुक्तिबोध की कविता को वर्तमान समय की चल रही प्रवृतियों के समानांतर जिरह करते हुए कुछ ठोस बिंदुओं के साथ देखने की भी कोशिश करूँगा.
मुक्तिबोध की कविता का अपना एक वर्ग है, वर्तमान में वर्ग की धारणा टूटी है, ‘पहला वर्ग समुदाय (कम्युनिटी) का है और दूसरा वर्ग भीड़ (क्राउड) का है.’ मुक्तिबोध की कविता भीड़ वाले वर्ग को संबोधित नहीं करती है बल्कि उसके दुःख- दर्द के ‘सत्त्व’ को अपनी कविता में पिरोती है. हिंदी साहित्य का ‘क्राउड’ मुक्तिबोध की कविता को ‘दुरूह’ अगर कहता है तो हमें समझना चाहिए कि वह वाकई सही कह रहा है, क्योंकि कविता उसकी भाषा में तो कतई नहीं लिखी गई है; बल्कि मुक्तिबोध की कविता स्वंय मुक्तिबोध के शब्दों में ‘जागरित – बुद्धि है, प्रज्वलत घी है.’ वाले वर्ग को संबोधित करती है. यही मुक्तिबोध की कविता का सौंदर्य है और कविता की ताकत भी.
आलोचकों का एक वृंद इसे एक स्तर पर सीमा भी मानता है और मुक्तिबोध की कविता को अगम्य भी. बहरहाल.
‘मिट्टी से सने हुए लोहे के फाल-सी’:
बीसवीं शताब्दी के सत्तर के दशक में कुछ-एक विचारधारों ने ज्ञान के तमाम माध्यमों को भिन्न किस्म से समझने की कोशिश को नए सिरे से हवा देना शुरू किया था. ज्ञान की सरणियों को एक नए ‘पाठ’ के आधार पर हमारे सामने उपस्थित किया जा रहा था. नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण के प्रभाव ने एक बार फिर ‘पाठ’ के ढांचें और उसके रूपकों को बदला. लेकिन सत्तर और नब्बे के दशक ने नए ‘पाठ’ को तथ्यों और तर्कों से रिक्त नहीं किया था. आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में ‘पाठ’ की स्थितियाँ बदली हैं. साहित्य और राजनीति ने ‘पाठ’ की एक नयी पाठशाला निर्मित कर ली है. इक्कीसवीं सदी का यह समय ‘पाठ की राजनीति’ का समय है जिसमें तथ्यों और तर्कों का तापमान हमेशा शुन्य डिग्री से नीचे होता है.’ ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविता इस ‘पाठ’ के भेद में विन्यस्त शब्दों की, शब्दों के माध्यम से बरती गई राजनीति या उसके प्रपंच का भेद खोलती है. मैं इसके लिए मुक्तिबोध की कविता ‘शब्दों का अर्थ जब’ जो किंचित लंबी कविता है लेकिन उसके कुछ चुने हुए अंशको आपके सामने रखना चाहता हूँ; ‘पाठ की राजनीति’ और ‘शब्दों के माध्यम से बरती गई राजनीति’ के प्रपंच को समझने के लिए यह जरुरी है. यह मेरा दावा नहीं है, बल्कि अगर किंचित धैर्य से इसे पढ़ा जाए तो आपकी ‘जागरित बुद्धि’ पर यकीन है.
‘वेश्या के देह से
तैरते-उतरते व चढ़ते हुए कंपभरे
भड़कीले वस्त्रों-सा
सकुचाता सिहर जाय,
शब्दों का अर्थ जब,
किराये के श्रृंगार – दागों सा उभर आय आदतन
शैया की चमकीली
चादर सा फुसकाता हँस जाए,
बिके हुए कमनीय और कपोलों पर
पापों के फूलों-सा मुस्काए
शब्दों का अर्थ जब !! ’
‘शब्दों का अर्थ जब
अपने ही दांतों से
अपने ही घावों को
काटे और चूम जाय,
झूठलाती झूठी – सी
निंदा के होठों को
चाटे और झूम जाय –
शब्दों का अर्थ जब ,
सीधों के गालों पर
टेढों की घृणाभरी
कुत्सामय झापड़ – सा
आत्मा के आस-पास
द्वेषों की ईर्ष्या की
थू हर-बबूलों की
कांटेदार बागड़-सा
शब्दों का अर्थ जब’
‘जनता को ढोर समझ
ढोरों की पीठभरे
घावों में चोंच मार
रक्त-भोज, मांस-भोज
करते हुए गर्दन मटकाते दर्प-भर कौओं-सा
भूखी अस्थि-पंजर शेष
नित्य मार खाती-सी
रंभाती हुई अकुलाती दर्दभरी
दीन मलिन गौओं-सा
शब्दों का अर्थ जब.’
‘सत्ता के परब्रम्ह
ईश्वर के आस-पास
सांस्कृतिक लहँगों में
लफंगों का लास-रास
खुश होकर तालियाँ
देते हुए गोलमटोल
बिके हुए मूर्खों के
होंठों पर हीन हास
शब्दों का अर्थ जब ; ’
(शब्दों का अर्थ जब ; रचनाकाल 1949 से 1957 तक. अंतिम संशोधन संभवतः नागपुर में 1957 में किए गए.)
मुझे मुक्तिबोध की उपर्युक्त कविता को पढ़ते हुए एकबारगी सुकरात (469–399 ईसा पूर्व) की यह बात याद आती है, कि ‘एथेंस का पतन हो रहा है क्योंकि शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं’. वर्तमान समय में चल रही सत्ताओं के खेल और साहित्य का इन सत्ता के खेल में न केवल सहयोग बल्कि कभी-कभी नतमस्तक हो जाने के संदर्भ से मुक्तिबोध की इस कविता को वर्तमान समय के तथ्यों और तर्कों की रौशनी में पढ़ा जाना चाहिए. जब हमारा समय और परिवेश ‘पूँजी’ की नई पारिभाषिक की चपेट में है और उसके इर्द-गिर्द अपने रूपाकार को बदल देने की दौड़ में शामिल है, ‘पूँजी’ की नई पारिभाषिकी में स्वयं को ढाल लेने के लिए तैयार है, तमाम जनसंचार माध्यम अपनी भाषा में सत्ता के मुखापेक्षी होते जा रहे हैं, अखबार सत्ता के विज्ञापन की भाषा में हमारी तमाम उजास सुबहों मलिन कर रहा है और देश का अधिकांश युवा एक खास तरह के राजनीतिक परिवेश की शब्दावली में समाज की संरचना को ‘सांस्कृतिक लहँगों में/लफंगों का लास-रास’ में ढाल रहा हो; ऐसे समय में एक जिम्मेदार ‘शब्द-रचना’ की आवयश्कता होती है. प्रतिरोध की विवेकपूर्ण ‘शब्द-रचना’ करने वाले वर्ग के संरक्षण की जरूरत होती है. लेकिन ‘शब्दों का अर्थ जब, / सीधों के गालों पर / टेढों की घृणाभरी / कुत्सामय झापड़ – सा’ होने लगे, उसकी हत्याएँ की जाने लगे, शब्दों में गोली के सुराख़ बना दिए जाएँ, कारागार में बंद किया जाने लगे तों हमें सोचना चाहिए कि मुक्तिबोध के दौर का भयानक समय और ज्यादा गहरा और ज्यादा भयावह और ज्यादा अँधेरा हुआ है. हम देख रहे हैं कि वर्तमान राजनीति, धर्म, संस्कृति और साहित्य ‘सांस्कृतिक लहँगों में / लफंगों का लास-रास’ की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है.
ऐसे में मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ना केवल अकादमिक पाठ या केवल विलास के लिए नहीं होता बल्कि मुक्तिबोध की कविता को ऐसे समय में पढ़ना, और बार-बार पढ़ना एक ‘एक्टिविज्म’ की तरह लगता है, एक प्रतिरोधी मशाल की उजास की तरह.
‘यह बोल का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने की कला का समय है’ भारत में 2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा के चुनावों की संरचना और उसमें इस्तेमाल की गई भाषा को अगर ध्यान से याद कर, उसे दुबारा फिर-फिर सुनकर समझने की कोशिश करें और फिर उस भाषा से हासिल परिणाम (पाँच साल के लिए {लेकिन क्या वाकई पाँच साल के लिए ही !}) के विन्यास को देखें तो मुक्तिबोध की कविता की इन पंक्तियों का एक स्पष्ट: विलोम दिखलाई देगा –
‘दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कट
कोई भी मुर्गा
यदि बांग दे उठे जोरदार
बन जाए मसीहा.’
हम देखते हैं कि, हमारे ही समय में हमारे ही सामने, हमारे देखते-देखते हमारी ही दुनिया को पहले ‘कचरे का ढेर’ बनाया गया और उस ढेर पर जिसने जितने जोरदार ढंग से, पूरी ताकत के साथ ‘बांग’ दिया है, ‘मसीहा’ बन गया. विलोम में ढलती हुई हमारी दुनिया, मुक्तिबोध की कविता की दुनिया के भीतर जितना है उतना ही कविता से बाहर की दुनिया
‘जनता को ढोर समझ
ढोरों की पीठभरे
घावों में चोंच मार
रक्त-भोज, मांस-भोज’.
भारतीय राजनीति और समाज के वर्तमान विन्यास को बहुत ध्यान से, महज सरलीकृत ढंग से नहीं बल्कि एक जिम्मेदारी के भाव से अगर देखें और समझेंतो हमारे इस समयको (जिसमें साहित्य विशेष रूप से शामिल है) पूँजी के ‘नए’ सरोकारों ने ‘हरेक का हरेक के विरुद्ध भेडिया युद्ध’ के रूप में रूपायित कर दिए जाने की राजनीति का समय बना दिया गया है. मुक्तिबोध की कविता इस समय से आलोचकीय संवाद करती हुई प्रतिरोध रचती है. प्रतिरोध रचते हुए मुक्तिबोध की कविता कभी आत्मभर्त्सना करती हुई स्वयं को जिम्मेदार ठहराती है, खुद को कटघरे में रखती है तो कभी आत्मभर्त्सना (यह आत्मग्रस्तता नहीं है) के स्वर को सार्वजनीन आत्मभर्त्सना में रूपायित करती हुई राज्य-सत्ता की क्रूरता को उधेड़ देती है. समय की कठिनाइयों और दुश्वारियों का जिम्मेदार कवि भी होता है, मुक्तिबोध इसे स्वीकारते हैं इसलिए वे अपने समय के अद्वितीय नैतिक कवि भी है. वे उन रचनाकारों में नहीं हैं जो समस्त सामाजिक विसंगतियों के लिए जिम्मेदार बाह्य परिस्थितियों को बताता हुआ खुद को पाक-साफ़ घोषित कर देता है. मुक्तिबोध की कविता में इसी कारण समाजवादी संस्कृति और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई विलोम नहीं उभरता बल्कि समाज और व्यक्ति के बीच की द्वंद्वात्मकता का परिवेश उभरता है.
‘बहुत शर्म आती है मैंने
खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों के जब खेतों-खलिहानों के हाथ
बहुत खून था छोटी-छोटी पंखुड़ियों में
जो शहीद हो गयीं किसीको अनजाने कोने
कोई भी न बचे
केवल पत्थर रह गए तुम्हारे लिए अकेले रोने ’
(बहुत शर्म आती है; रचनाकाल 1949–1950 , नागपुर )
‘तू चुप न बैठ कि बोल दे
उसको कि जो हिय में बहुत बैचेन है
वह झूठ की
गुरु विश्व – प्राचीरें, दिशाएँ फेंकता
वह एकटक सब देखता
सब जानता-सा नैन है.’
(चुप न बैठ कि बोल दे, संभावित रचनाकाल 1949–1950)
‘सुबह से शाम तक
मन में ही
आडी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ
अपनी ही काट-पीट’
(चाहिए मुझे मेरा असंग बबुलपन ; संभावित रचनाकाल 1957, नागपुर)
‘साथ-साथ रवि पथ पर चलने वाले साथी ’:
यह समय, संस्कृति, विचार और राजनीति के प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स का समय है कि जिसमें मिथकें अपना नया आकार और नए नाम के साथ नवीन अर्थ ग्रहण कर रही हैं. संस्कृति, विचार, राजनीति, मिथक अपना एक नया ‘नरेटिव’ निर्मित करने की एक वाचाल प्रक्रिया में शामिल है. इस प्रकार के ‘डिस्कोर्स’ के भीतर और उस ‘डिस्कोर्स’ के बाहर भी मुक्तिबोध की कविता को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. पढ़ा इसलिए भी जाना चाहिए कि हम अपने समय में रहते हुए कविता पाठ के द्वारा अपने भीतर किस तरह की काट-छांट करना चाहते हैं. करना चाहते भी हैं कि नहीं ? इस क्रम में मैं संक्षेप में रामविलास शर्मा के एक प्रसिद्ध लेख ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता’ का उल्लेख करते हुए मुक्तिबोध के संदर्भ से विश्लेष्ण करूँगा. यह जानते हुए कि इस विश्लेषण का भी एक अपना विश्लेषण किया जा सकता है. रामविलास शर्मा ने अपने इस लेख में मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता को कई स्तर पर समझने की बात कही है. इस लेख को अगर ‘प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स’ के तौर पर देखा जाए तो इस लेख की आंतरिक संरचना में ऐसी कई बातें हैं जो मुक्तिबोध की कविता का ‘अति-पाठ’ करते हुए लगती है. (यहाँ मेरा यह भी आग्रह है कि इस आलेख के आरंभ में ‘पाठ की राजनीति’ के संदर्भ को एक बार फिर से यहाँ पढ़ा जाए.)
“मार्क्सवाद पूर्ण ज्ञान का दावा नहीं करता, मुक्तिबोध उस ज्ञान से उकता उठे थे जो सतत विकासमान हो. विकासमान होगा तो ज्ञान अपूर्ण भी होगा. उन्हें चाहिए था पूर्ण ज्ञान ; ऐसा ज्ञान रहस्यवाद ही दे सकता था.”
‘मुक्तिबोध उस ज्ञान से उकता उठे थे’ रामविलास शर्मा ने अपने इस लेख के विश्लेषण में मार्क्सवाद से उकताने का कहीं कोई प्रमाण नहीं दिया है. चूँकि रामविलास जी को इस बात की जल्दीबाजी थी कि वह साबित कर सकें कि मुक्तिबोध के विचार में और कविता में भी रहस्यवाद है. रहस्यवाद के लिए वे तर्क की एक इमारत खड़ी करते हैं. वे आगे कहते हैं कि ‘उन्हें चाहिए था पूर्ण ज्ञान’. यह ‘पूर्ण ज्ञान’ क्या है. दरअसल, मुक्तिबोध ने अपनी कुछ कविताओं में ‘पूर्ण ज्ञान’ पद का प्रयोग किया. रामविलास जी मुक्तिबोध की कविताओं में प्रयुक्त ‘पूर्ण ज्ञान’ के पद को देखकर यह बयान जारी कर दिया कि मुक्तिबोध को ‘पूर्ण ज्ञान’ चाहिए था और यह ज्ञान रहस्यवाद के पास है.
क्या किसी कविता में किसी संदर्भ से अगर ‘पूर्ण ज्ञान’ का उल्लेख कर दिया जाए और इसकी आवृति एकाधिक हो तो किसी कवि को ‘पूर्ण ज्ञान’ पाने की आंकाक्षा वाला रचनाकार मान लिया जाएगा. अपने इस आलेख में रामविलास जी ऐसी कई तरह की हड़बड़ी भरे निष्कर्ष निकालते हुए लगते हैं. रहस्यवादी साबित करने के लिए वे मुक्तिबोध की कविताओं से लगातार कई शब्द चुनते हैं. इस चुनाव का उनका
एक निश्चित प्रयोजन है.
“रहस्यवाद के अनेक परंपरागत प्रतीक जिनका संबंध प्रकाश और आनंद से है, मुक्तिबोध की कविता में भी हैं… मुक्तिबोध का मन अँधेरे से घिरा रहता है, वह अँधेरे में प्रकाश की खोज में भटकता है, आनंद से अधिक उसे अनुभूति होती है दुःख की, पुराने कुएं, बावड़ी, खंडहर , वीरान पत्थर, खड्ड, अंधरी तंग गलियाँ, घने बरगद, फुटा हुआ भैरो का मंदिर… ”
हम अगर ध्यान से देखें तो रामविलास जी ने उन्हीं शब्दों का चयन किया है जिससे उन्हें एक खास विचार बनाने का अवकाश मिल सके. दरअसल, चयन की भी अपनी एक राजनीति होती है. कविता में पुराने कुएं, बावड़ी, खंडहर, वीरान पत्थर, खड्ड, अँधेरी तंग गलियाँ, घने बरगद, फुटा हुआ भैरो का मंदिर का उल्लेख भर कर देने से क्या मुक्तिबोध एक रहस्यवादी कवि साबित हो जाते हैं. हिंदी साहित्य और विश्व साहित्य में बहुलता से ‘अंधेरों’ का वर्णन है. ‘अँधेरी तंग गलियाँ’, ‘खंडहर’ आदि स्थानों का जिक्र तो साहित्य में भरा पड़ा है. हिंदी और विश्व सिनेमा में तो यह खूब है. तो, क्या यह सब रहस्यवाद है ? अगर हाँ, तो फिर हमारी पूरी कायनात ही रहस्यवादी है, जिसमें न कोई द्वन्द्ध है न कोई संघर्ष ही बल्कि केवल आनंद ही आनंद. क्या मुक्तिबोध की कविता को हम आनंद के रूप में देख सकते हैं ? रामविलास जी को मुक्तिबोध की कविता में ‘उजाले’ और ‘जागरण’ को भी देखना चाहिए था. ‘अँधेरे में’ कविता में ‘जागरित बुद्धि है, प्रज्ज्वलत घी है’ और ‘सब सोए हुए हैं. लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा ’ जैसे कई उजाले और जागरण हैं, ‘चकमक चिंगारियाँ’, ‘आकाशगंगा’, ‘उल्कापिंड’ जैसे पद भरे पड़े हैं, और अंततः अँधेरे के बारे में बात करना उजाले की प्राक्कल्पना ही तो है.
रामविलास शर्मा निराला पर शोधपरक कार्य कर चुके थे, निराला पर विवेकानंद के व्यापक प्रभाओं की गहरी छान-बीन कर चुके थे. मुक्तिबोध पर उपर्युक्त आलेख लिखते हुए वह मुक्तिबोध के लेखन के लिए एक धुरी की तलाश कर रहे थे जो मार्क्सवाद से अलग हो. रामविलास जी को यह धुरी अस्तितवाद और रहस्यवाद में मिला जिसके लिए उन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रयुक्त शब्दों को छांटा. इस काट-छाँट में रामविलास जी ने अपने आलेख में यह कोशिश की कि मुक्तिबोध को एक खास ढाँचे के अंदर ‘रिड्यूस’ कर दिया जाए. ‘रिड्यूस’ की अपनी इस प्रक्रिया में वे एक बार अपने लेख में लिखते हैं,
“मुक्तिबोध नहीं कहते कि दुनिया लिजलिजी है, उसे देखकर उबकाई आती है, मैं सड़ रहा हूँ, देश सड़ रहा है, शरीर पर कनखजूरे रेंग रहे हैं, इत्यादि. वह सार्त्र की भावभूमि से अलग हटकर किर्केगार्द और काफ्का के प्रदेश में विचरण करते हैं. इस अस्तितवाद से वह रहस्यवाद और मार्क्सवाद की पटरी कैसे बिठाते हैं ? ”
क्रिकेगार्द और काफ्का का केवल उल्लेख भर रामविलास जी ने किया है , यह नहीं बताया कि मुक्तिबोध की किस कविता या लेख में यह विचरण, महज विचरण के अर्थों में संभव हुआ है. संभवतः ‘कनखजूरे’ का उल्लेख रामविलास शर्मा जी ने काफ्का की प्रसिद्ध कहानी ‘मेटामोर्फोसिस’ को याद करते हुए किया हो क्योंकि काफ्का की इस कहानी में कहानी का नायक एक दिन स्वयं को एक बड़े से तिलचट्टे में परिवर्तित पाता है.
‘अँधेरे में’ कविता में जो कलाकार मारा जाता है , उस कलाकार के बारे में रामविलास शर्मा लिखते हैं , “… यह कलाकार मुक्तिबोध का ही प्रतिरूप है.”
रामविलास शर्मा यहीं नहीं रुकते बल्कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ को पढ़ते हुए भी वे इसी तरह की बात करते हैं ,
“कामायनी के मनु को मुक्तिबोध की निगाह से देखें तो वह स्वयं मुक्तिबोध से काफ़ी मिलते-जुलते दिखाई देते हैं ….. मनु वह सबकुछ है जो मुक्तिबोध हैं और होना चाहते हैं ”
रामविलास शर्मा की यह मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता के बारे एक खतरनाक सरलीकृत पाठ है. ऐसा पाठ तो किसी भी लेखक के बारे में किया जा सकता है. रामविलास शर्मा अपने तर्क को और धारदार बनाने के लिए मनु और मुक्तिबोध को जोड़ने के लिए कामायनी के ‘उत्तुंग शिखर’ और अँधेरे में के ‘तुंग शिखर’ को आपस में मिलाते हैं.
हिंदी आलोचना में इस प्रकार के मेल करने और उस मेल से एक निष्कर्ष निकाल लेने पद्धति की एक आसान परंपरा रही है. कई बार यह मेल करने की पद्धति हमें अन्यार्थ निष्कर्षों की ओर ले जाता है. बहरहाल रामविलास शर्मा लिखते हैं,
“… मनु हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर बैठे हैं , ‘अँधेरे में’ कविता का रहस्मय व्यक्ति मुक्तिबोध को तुंग शिखर के कगार पर बिठा देता है.”
दरअसल, किसी भी दृश्य को हम कहाँ से खड़े होकर देखते हैं, यह बेहद महतवपूर्ण होता है. पेंटिंग या किसी स्थापत्य को देखने की दृष्टि और उससे अर्थ ग्रहण करने का बोध , देखे जाने के स्थान और उसके कोण पर निर्भर करता है. स्थान बदलते ही दृश्य और उस दृश्य का कोण, उसका बोध बदल जाता है. जाहिर है यह साहित्य और उस साहित्य के पाठ पर भी लागू होता है. हिंदी साहित्य में किसी भी कहानी, उपन्यास के नायक को उसके लेखक का ही प्रतिरूप मान लिए जाने की हिंदी आलोचना की एक लद्धड़ परंपरा रही है. गोया, लेखक की यह सीमा हो कि वह अपनी हर कहानी,उपन्यास में खुद को नायक या किसी चरित्र के रूम में चित्रित करे ही, उसमें स्वयं को ढाले, स्वयं को उसमें गढे ही. जैसे कि उसका रचना-सामर्थ्य खुद को रचना में शामिल किए बिना साबित ही न हो. लगभग यह हाल हिंदी कविता का भी है. कविता में वर्णित घटना को भी उस कवि के जीवन में घटित घटना से जोड़ लिया जाता है, काव्य- नायक को भी कवि का प्रतिरूप मान लिया जाता है. रामविलास शर्मा अपने इस लेख में जगह-जगह मुक्तिबोध की कविताओं को उद्धृत करते हुए उस कविता में मुक्तिबोध के स्वयं के होने को साबित कर रहे हैं. हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा में ‘प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स’ की परंपरा रही है. हिंदी आलोचना के लिए इसे दीर्घ स्वस्थ परंपरा नहीं मानी जा सकती है.
दरअसल, मुक्तिबोध की कविता हिंदी कविता के इतिहास में अलग से रेखांकित की जाती रही है, इसकी कई वजहों में से एक वजह है जिसे हिंदी के प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने कई बार कहा और जोर देकर दुहराया भी है कि ‘मुक्तिबोध की कविता का कोई पूर्वज नहीं है.’ मुक्तिबोध की कविता के शिल्प और उसके ढ़ांचे को अगर देखें तो हम पाएँगे कि मुक्तिबोध से पहले की कविता की किसी भी परंपरा का निर्वाह मुक्तिबोध की कविता में नहीं हुआ है. छोटी-छोटी कविताओं के वर्चस्व के विरुद्ध मुक्तिबोध की लंबी कविता एक आंदोलन की तरह है. मुक्तिबोध की कविता हिंदी कविता के लोकतंत्र का एक अलहदा विस्तार है जिसके क़दमों की छाप हिंदी कविता के अतीत में नहीं है और यह वर्तमान की हिंदी कविता में भी नहीं दिखलाई देती. हिंदी के एक और प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने भी रेखांकित किया है, ‘वे हिंदी की परंपरा के कवि नहीं हैं. काव्यवस्तु, काव्यभाषा, काव्य शिल्प की दृष्टि से हिंदी में ऐसा कवि उनसे पहले और उनके बाद कोई नहीं हुआ है’
इसलिए हिंदी कविता के पारंपरिक अर्थ-विन्यास में मुक्तिबोध की कविता भारतीय परंपरा की रसदशा में नहीं समाती है जैसा कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद की कविता समाती है. मुक्तिबोध की कविता के पाठ से हमें रचनात्मक सूख या आनंद नहीं प्राप्त होता, मुक्तिबोध का ऐसा ध्येय भी नहीं रहा है बल्कि एक गहरी बेचैनी, एक कचोट, दिल और दिमाग की सतह को और अधिक खुरदरा बना देती है. जहाँ खुद के बारे में सोचना एक दृश्यमान क्रिया है. मुक्तिबोध की कविता ‘इसी चौड़े ऊँचे टीले पर’ में इस क्रिया को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है –
“जाने कब से
मेरे हाथ हुए पत्थर के
मेरे पैर मृत्तिका-स्तर के
मेरी सूरत माटी की – सी
दिल के भीतर गर्म ईंट है , गरम ईंट है
जले हुए ठूँठ के तने-सी स्याह पीठ है ” !!
‘संध्या के केसर-जल से लाल स्नान ’:
मुक्तिबोध अपने जीवन के शुरूआती मानसिक संघर्ष को बड़ी बेचैनी भरे रूप में याद करते हैं. वे अपने समय में एक ओर हिंदी के ‘नवीन सौंदर्य-काव्य’ को देख रहे थे और दूसरी ओर उनके बाल मन पर पहले से ही ‘मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का सुकुमार परंतु तीव्र प्रभाव’ रहा था. दोनों प्रभावों के बीच मुक्तिबोध संघर्ष करते हुए, अपने समय के समानांतर ‘हिंदी के सौंदर्य-लोक’ को चुनते हैं. इस ‘सौंदर्य लोक’ में उनकी कविता की संरचना व्यक्ति और समाज के यथार्थ को उसके आंतरिक मनोभावों के साथ रूप ग्रहण करती है. अपने आलेख के इस हिस्से में मैं मुक्तिबोध की तीन अलहदा कविता पर संक्षिप्त बात करना चाहूँगा. हम देखेंगे कि मुक्तिबोध की इन कविताओं का ‘टोन’ और ‘ट्यून’ दोनों भिन्न है. पहली कविता है , ‘रात चलते हैं अकेले ही सितारे’ यह एक भिन्न किस्म की कविता है, भिन्नता इस अर्थ में कि इसमें एक खुली शब्द-संरचना है, एक आंतरिक लय की भावपरक महीन बुनावट है. इस कविता की तरलता को महसूस किया जा सके इसलिए इसकी कुछ पंक्तियों को यहाँ दर्ज कर रहा हूँ –
‘अपना धैर्य पृथ्वी के ह्रदय में रख दिया था
धैर्य पृथ्वी का ह्रदय में रख लिया था.
उतनी भूमि पर है चिरंतन अधिकार मेरा,
जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा.
आगे लालटेन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी.
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी.’
(रात,चलते हैं अकेले ही सितारे; संभावित रचनाकाल , 1944–1948)
यह कविता एक बच्चे की मृत्यु के बाद लिखी गई है. उस बच्चे को दफन कर दिया गया है. बच्चा जिसके होने से हम धैर्य पाते हैं उसी धैर्य को पृथ्वी के हृदय में रखते हुए मन बहुत विचलित हो रहा था और इसलिए खुद को संभालता हुआ पृथ्वी के धैर्य को अपने हृदय में रखकर लौटते हुए मन बहुत उदास है. यह सोचता हुआ कि पृथ्वी की गोद में हमने अपने प्यार को सुलाया है, पृथ्वी के जितने हिस्से में हमने अपना धैर्य दफनाया है भूमि का उतना हिस्सा हमेशा के लिए मेरी स्मृति के अधिकार में है, उतनी भूमि हमारी है. दफनाने के बाद लौटते हुए दृश्य का शिल्प-बंध बेमिसाल है. मुक्तिबोध दर्ज करते हैं कि अपने दो साथ के साथ बेआवाज लौटना, जिसमें केवल चलने की ध्वनि ही सुनाई दे रही है, महज क्रिया नहीं है बल्कि अपने धैर्य को पृथ्वी के हृदय में सौंपते हुए भीतर से रिक्त हो जाना है. इस रिक्तता में जैसे हम स्थिर हों और उदास लालटेन के सहारे राह ही चलती जा रही है. ‘अँधेरे में’ कविता में भी यह चलना अलग संदर्भ में जारी रहता है ‘
दोनों ओर, नीली गैसलाइट-पांत
चल-रही,चल रही’
दूसरी कविता है, ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीँ’. इस कविता के वस्तु-तत्व में ध्वनि की तरलता है. इस कविता में ‘पुकार’ चेतनशील विवेक है, यह विवेक व्यक्ति को आवाज लगाती, पुकारती, जाग्रत करती रहती है. इस चेतनशील विवेक के खोने का मतलब है, तर्क-संभाव्य दुनिया का खो जाना या उस संभावना का खत्म हो जाना जहाँ विवेकशीलता को जगह मिलती हो और एक तार्किक दुनिया निर्मित होती हो. विवेकसम्मत दुनिया की निर्मिति में बाधा उत्पन्न हो जाना दरअसल एक खतरनाक समय के आने का संकेत है. हम देख रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की सत्ता–संरचना विवेक की जगह एक घोषित पाखंड को तरजीह दे रही है. विवेकहीन सत्ता-संरचना की दुनिया मुक्तिबोध के इसी कविता में –
‘अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों भरा हुआ
न नीर है, न पीर है, न मलीन है
सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा’.
यह सच है कि मुक्तिबोध का समय आज के समय से भिन्न रहा है. लेकिन, यह सोचना और देखना कितना पीड़ादायक हो सकता है कि हम अपने समय में, अपने समय को स्थगित कर मुक्तिबोध के समय को याद करते हुए अपने समय में विन्यस्त कर रहे हैं. दरअसल, मुक्तिबोध की कविता के समय के साथ आज के समय की तुलना करना एक रासायनिक–क्रिया है. मुक्तिबोध की कविता व्यावहारिक जीवन सचाई, और इस सचाई के ताप से निर्मित मौलिकता से निर्मित हुई है इसलिए उनकी कविता यह अवकाश देती है कि हम समय का एक रसायन तैयार करें जिससे हम अपने समय की जांच कर सकें – ‘क्रास एग्जामिन हिम थोरोली ’.
‘विराट झूठ के अनंत छंद – सी
भयावनी अशांत पीत धुंध – सी
सदा अगेय
गोपनीय द्वन्द्ध- सी असंग जो अपूर्त स्वपन-लालसा
प्रवेग में उड़े सुतीक्ष्ण वाण पर
अलक्ष्य भार-सी वृथा
जगा रही विरूप चित्र हार का
सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार – सी.
मैं उदास हाथ में
हार की प्रतप्त रेत मल रहा
निहारता हुआ प्रचंड उष्ण गोल दूर के क्षितिज.’
(मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं ; प्रतीक , जुलाई-अगस्त 1947,चाँद का मुँह टेढ़ा है में संकलित )
मुक्तिबोध की रचनाओं का दृष्टि-विस्तार और उसकी गहराई बहुत व्यापक है. मुक्तिबोध की कविता का विस्तृत वितान और उनके गद्य की बुनावट में समय पूरी समग्रता से उपस्थित होता है, इस समग्रता में एक ओर स्थानीयता है तो दूसरी ओर वैश्विक चेतना है, सामाजिकता है तो राजनीति की बारीक़ परख भी. पूँजी के गठजोड़ की पड़ताल है तो श्रम की महत्ता की पहचान भी. दरअसल, औपनिवेशिक भारत में पूँजी के विराट खेल और उसकी भविष्यलक्षित शोषणकारी परियोजना को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ मुक्तिबोध ने समझा था, उन्होंने आजादी के बाद भारत में उभरते हुए अवसरवाद के विराट फैलाव को भी देखा था इसलिए उनकी कविता में जीवन-जगत अपनी विराटता के साथ उपस्थित होता है.
‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं’ में जिस विवेकपूर्ण ‘पुकार’ के खोने की बात है, उसमें शामिल है, ‘विराट झूठ का छंद’, ‘अशांत पीत धुंध’, ‘गोपनीय द्वन्द्ध, ‘अलक्ष्य भार’, ‘विरूप चित्र’, ‘अभद्र रौद्र हार’, ‘हार की प्रतप्त रेत’, ‘चंड उष्ण गोल’. मुक्तिबोध द्वारा प्रयुक्त इन सारे पद-बंध को एक साथ देखने पर यह सहज ही लक्षित किया जा सकता है कि इस प्रकार का प्रयोग हिंदी कविता में पहली बार किया जा रहा है. झूठ के साथ विराटता, अशांत धुंध, अलक्ष्य द्वन्द्ध, अभद्र हार कुछ ऐसी शब्द – रचना है जिसे कविता में पढ़ते हुए मुक्तिबोध के चिंतन संसार की व्यापकता को समझा जा सकता है.
तीसरी कविता है, ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद’. यह कविता, वर्तमान का अतीत के साथ संवाद के टूट जाने और उस टूट को फिर से जोड़ने की बेचैनी को सृजित करने वाली है. इस कविता में सत्य पर बने रहने का आग्रह दरअसल, सभ्यता के बने और बचे रहने का आग्रह है. कविता में पित: की याद है –
‘पित: तुम्हारी वीर-जीवन इतिहास-कथा
देती है मेरी प्रेरणाओं की दिशाएँ बता
आँसू पोंछ जातीं वे
धीरज बंधाती वे
संग्राम का शिल्प मुझे अचूक सिखा जातीं वे
संघर्ष में मुझे देतीं सत्य की महान व्यथा.’
(पित: तुम्हारी मुझे आती है याद ; संभावित रचनाकाल 1951, नागपुर )
आजादी के बाद की शुरूआती भारतीय राजनीति में मध्यवर्गी अवसरवाद की फूटती हुई कोपलों के सामाजिक दृश्यालेख से मुक्तिबोध बहुत चिंतित थे और इसलिए वे सावधान भी रहे. उन्होंने यह महसूस किया था कि उनके समय के कई सहयात्री इस अवसरवाद के राही हो गए थे. मुक्तिबोध सचेतन रूप से अपना रास्ता अलग रख रहे थे. इसलिए वे सबसे ज्यादा सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों से दो-चार हुए. कई कारणों के साथ यही वह कारण रहा कि उनकी कविताओं में बेचैनी, तड़प हमें दिखलाई देता है. मुझे यहाँ थियोडोर एडोर्नों की एक बात याद आती है, ‘यातना की आवाज बनना ही सच की वास्तविक शर्त है’.मुक्तिबोध की उपर्युक्त कविता में ‘सत्य की महान व्यथा’ यही है. इसलिए मध्यवर्गी अवसरवाद की फूटती हुई कोपलों के सामाजिक दृश्यालेख में मुक्तिबोध बार-बार अपनी कविताओं में आजादी के पुरखों को याद करते हैं, यह याद जितना भारतीय संदर्भ की आजादी के पुरखों के लिए है उतना ही दुनिया की आजादी के लिए काम कर रहे पुरखों के लिए है. मुक्तिबोध अपनी कविता ‘अँधेरे में’ में तों दर्जनों ऐसे पुरखों को याद करते हैं. ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद ’ में मुक्तिबोध पुरखों को याद करते हैं. संघर्ष में सत्य का साथ न छोड़ने की प्रेरणा महात्मा गाँधी देते हैं. किसी भी तरह के संघर्ष – संग्राम का शिल्प सत्य पर आधारित होता है , यही सिख ‘पित:’ देते हैं. यही ‘पित:’ आगे बढ़कर संघर्षरत व्यक्ति के आँसू पोंछते हुए धीरज बंधाते है और सत्य पर टिके रहने की महान व्यथा को सहने की ताकत देते हैं, पित: की ‘’वीर-जीवन इतिहास-कथा प्रेरणा देती है और सही दिशा बताती है. इसलिए कवि कहता है, ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद’. मुक्तिबोध की इस कविता में सत्य की राह पर चलना एक महान व्यथा है. व्यथा कभी महान नहीं होती लेकिन अगर व्यथा का कोई नैतिक मूल्य हो, उसका कोई नैतिक बोध हो और उसकी रक्षा किया जाना जरुरी हो तो उसके लिए उठाये जाने वाली व्यथाएं महान होंगी ही.
और अंत में, मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ के डोमाजी उस्ताद को नमन, जिसे मुक्तिबोध के बाद के हिंदी साहित्य की लिखित और मौखिक संरचना में बार-बार कई मौकों पर उधृत किया गया. जिसकी उपस्थिति का उल्लेख साहित्य के हर अवसरवादी गठजोड़ में होती है.
दरअसल, डोमाजी उस्ताद जिसे डोमाजी वस्ताद भी कहा जाता था, का असली नाम भाऊसाहब देशमुख था, वह, नागपुर के कर्नलबाग इलाके का रहने वाला एक मजबूत कद-काठी का यह व्यक्ति अपने शहर में शाही दरबार लगाता था और शिवाजी महाराज के अंदाज में अपने सिंहासननुमा कुर्सी पर बैठकर पूरे शहर की खोज-खबर लेता था और फैसले सुनाया करता था. उसे पहलवानी का बड़ा शौक था. हर दशहरे में वह अपने शस्त्रों की पूजा करता था. 1952 से 1975 तक डोमाजी का शहर में बोलबाला था. उसने बड़े पैमाने पर राजनीति में शामिल व्यक्तियों को आगे बढ़ाने का काम किया था. 2012 में लगभग 100 वर्ष की उम्र में पुणे के अपने आवास पर उसकी मृत्यु हुई. डोमाजी उस्ताद को याद करना दरअसल साहित्य और राजनीति के उस गठजोड़ को याद करना है जिसमें साहित्य अपनी नैतिक मूल्यों से पदच्युत होती है.
अब, जबकि यह आलेख खत्म हो रहा है तो भारी मन से यह कहना चाह रहा हूँ कि कुछ भी लिखा, पढ़ा जाए हम इस इक्कीसवीं सदी में बीसवीं सदी की ही भांति एक लाभार्थी की भूमिका में रहना चाहते हैं, हम इस भूमिका के खुद से छीन लिए जाने के भय में जीते हैं. ऐसे में मुक्तिबोध की कविता के पास एक गहरे आश्वासन और भयमुक्त चेतना के साथ जाने की अपील है क्योंकि मुक्तिबोध के लिए कविता उनके समूचे जीवन में नमक के समान रही है.
‘आबाद जिसमें तुझको, देखा था एक मुद्दत
उस दिल की मुमिल्कत (देश) को, अब ख़राब देखा’
(‘हिंदी कविता के बदले तेवर : मुक्तिबोध और शमशेर विषय’ के संदर्भ से मुक्तिबोध की कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी 24-25 मार्च 2017, महात्मा गाँधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पढ़ा गया आलेख. सिर्फ यहीं प्रकाशित)
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डॉ. अमरेन्द्र कुमार शर्मा
8765480535
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा